Tuesday, 5 May 2015

मध्य.पूर्व में शांति के उलझते समीकरण

मध्य.पूर्व में शांति के उलझते समीकरण

वर्ष 2011 में अरब देशों में जिस नवनिर्माण आंदोलन की संभावना जगी थीए उसका एकमात्र गढ़ ट्यूनिशिया ही बचा है। आखिर कहां गलती हुईघ् क्या अरब जगत को कोई शाप मिला हुआ है कि यहां पर बारी.बारी से विद्रोह और सेना द्वारा तख्ता पलट की घटनाएं घटित होती रहें। इन दोनों के बीच वाले अंतराल में सत्ता कभी धार्मिक कठमुल्लाओं के हाथ में तो कभी राजशाही के पास हो।
अरब देश लोकतंत्र जैसे नाटकीय बदलाव के लिए अभी तैयार नहीं थे। अधिकांश लोगों की सोच अभी भी रूढि़वादी है जिसमें धार्मिक भावना का बड़ा पुट है और यह जमात अपेक्षाकृत धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक सोच वालों पर कहीं अधिक हावी है। ईरान में हुई क्रांति बिना शक स्वदेशी है और इसने बाकायदा एक अपना अलग तंत्र स्थापित कर लिया हैए जिसमें लोकतंत्र कायम करने के किसी प्रयास का दमन सर्वशक्तिशाली धार्मिक निजाम द्वारा कर दिया जाता है। ईरान में मची जिस कुलबुलाहट को हम पिछले कुछ सालों से देख रहे हैंए उसकी धार कुंद करने के लिए वहां का नेतृत्व बाहरी संसार को दिखाने के लिए ऐसे तरीके बरतता है ताकि लगे कि वह पढ़े.लिखे और हुनरमंद मध्य वर्ग को मना रहा है। शायद इसीलिए देश में व्यावहारिक दृष्टिकोण रखने वाले राष्ट्रपति और विदेश मंत्री बनाए गए हैं।
अरब देशों में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले मिस्र का संभ्रांत वर्ग सत्ता के उस जाने.पहचाने ढर्रे से खुश हैए जिसमें बारी.बारी से गद्दी पर नई और पुरानी व्यवस्था काबिज हो जाती है। अमेरिकाए जिसने वहां पर पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से बनी सरकार के राष्ट्रपति को एक साल तक समर्थन दिया थाए उसे भी सैनिक शासन के जाने.पहचाने तंत्र के साथ सामंजस्य बिठाने में कुछ समय लगा है। वास्तव में राष्ट्रपति ओबामा ने इस बात को सही ठहराया है कि वहां पर सैनिक विद्रोह के बाद लगाए गए प्रतिबंधों को बृहद राष्ट्रीय हितों की खातिर हटाना पड़ा है।
इस इलाके के अन्य बड़े देशों में उनकी अपनी समस्याएं और असुरक्षा की भावना व्याप्त है। सीरिया पिछले चार सालों से गृह युद्ध में फंसा हुआ हैए जबकि वे बाहरी ताकतें जो कभी राष्ट्रपति बशर अल.असद को अपने अलग.अलग कारणों से हटाने के लिए इसलिए प्रयासरत थीं िक उन्होंने ही वहां पर अतिवादी तत्वों को पनपने का मौका दिया थाए जो आगे जाकर अल.कायदा से जुड़े आईएसआईएस या आईएसआईएल नामक आंदोलन में तबदील हो गया। इन्होंने एक अलग राष्ट्र इस्लामिक स्टेट का निर्माण तक भी कर लिया। लेकिन जैसे ही अमेरिका ने यह संकेत दिया कि वह राष्ट्रपति असद से समझौता करना चाहता है तो सीरिया की अल्पसंख्यक जमात अलवायित से संबंध रखने वाले असद उम्मीद से ज्यादा लचीले निकले।
अमेरिका द्वारा इराक पर हमले के बाद अपदस्थ तानाशाह सद्दाम की फांसी के साथ ही वहां पर बहुसंख्यक शियाओं की सरकार बन गई थीए जिसके पक्षपातपूर्ण प्रधानमंत्री ने सुन्नियों को हाशिए पर धकेलने का प्रयास किया और इस वर्ग ने शिया राज का विरोध करने की खातिर सुन्नी अतिवादी तत्वों का साथ देना शुरू कर दिया। इस दौरान अतिवादियों ने इराक के काफी बड़े भूभाग पर कब्जा जमा लिया हैए जिसमें ज्यादातर सुन्नी बहुल इलाके हैं। सबसे ज्यादा चौंकाने वाला नतीजा सीरिया और इराक के बड़े इलाकों को कब्जा कर बनाया गया इस्लामिक स्टेट का निर्माण था।
इसका एक परिणाम यह हुआ कि इस मध्य.पूर्व के इलाके में अमेरिकी सेना की फिर से वापसी हुईए हालांकि अभी तक इसके अभियान केवल हवाई हैं। लेकिन यमन के तटीय शहर अदन पर कब्जा करने के बाद राजधानी की ओर बढ़ते हूतिनी समुदाय के लड़ाकों की वजह से स्थिति में एक और मोड़ आ गया है। नए राजा की अगुवाई में सऊदी अरब ने हूती लड़ाकों को ललकारने में अग्रणी भूमिका निभाने का फैसला किया और इसकी वायु सेना ने वहां पर भारी कार्रवाई की है।
तुर्की इस इलाके में सबसे ज्यादा ताकतवर और नाटो संगठन का सदस्य भी हैए परंतु इसकी भी अपनी मुश्किलें हैं। शुरुआत में ष्अपने पड़ोसियों से कोई झगड़ा न रखनेष् की इसकी नीति काफी मशहूर हुई थी लेकिन अंत में उन्हीं के साथ कई गंभीर समस्याएं उठ खड़ी हुईं। रेसेप तयैप एर्डोगन जो अब तुर्की के राष्ट्रपति हैंए के नेतृत्व में यह देश सीरिया के राष्ट्रपति असद को गद‍्दी से उतारने का एक बड़ा पक्षधर था। सीरिया के साथ लगती अपनी खुली सीमा से होकर इसने अलग.अलग किस्म के जेहादियों को बेरोकटोक आरपार जाने की सुविधा दे रखी थी ताकि वे सीरिया में अपने मकसदों में सफल हो सकें।
इस इलाके से अपना पिंड छुड़ाने को आतुर अमेरिका ने तुर्की की इस योजना का अनुमोदन नहीं कियाए जिससे उसे हताशा हुई। ठीक इसी समय कुर्दों को अपने हाल पर छोड़ने और राष्ट्रपति का अधिनायकवादी रवैया देश की राजनीति में चर्चा का विषय बन गया। इसके चलते तुर्की में अंदरूनी समस्याएं भी उठ खड़ी हुईं। यह ठीक है कि ओट्टोमन साम्राज्य के टूटने के बाद कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में जिस एकेपी पार्टी ने रिवायती सैनिक शासन की व्यवस्था बनाई थीए एर्डोगन भी उसी से ताल्लुक रखते हैं लेकिन इस पार्टी के अधिकांश समर्थक एनातोलिया इलाके से हैं और उनका झुकाव इस्लाम की ओर है। अंदरूनी झगड़ों और गृहयुद्धों वाले इस जटिल ताने.बाने में इस इलाके के दो मुख्य देशोंए सऊदी अरब और ईरान में नए समीकरण बन रहे हैं। सऊदी अरब के नए राजा सलमान ने हाल ही में देश के राजकीय ढांचे का फिर से निर्धारण करते वक्त अपने पूर्वजों और सलाहकारों की भांति सुरक्षा से जुड़े मामलों को तरजीह दी है।

ईरान फिलहाल अमेरिका और अन्य राष्ट्रों से अपने परमाणु कार्यक्रम के लिए होने वाले समझौते के आखिरी चरण में उलझा हुआ हैए वह इस क्षेत्र और वैश्विक स्तर पर बड़ी भूमिका निभाने की महत्वाकांक्षा रखता है। अगर अमेरिका के साथ एटमी.करार सफल हो जाता है तो ईरान को अपने हितों को बढ़ावा देने का एक नया जायज कारण मिल जाएगा। एक न एक दिन शिया ईरान की महत्वाकांक्षा का टकराव इलाके की बड़ी सुन्नी ताकत सऊदी अरब और खाड़ी में इसकी सहयोगी राजशाहियों से होकर रहेगा। हालांकि इस्राइल फिलीस्तीन में अपनी नई बस्तियां बनाने की स्थाई महत्वाकांक्षा से माहौल को गंदला कर रहा हैए फिर भी अमेरिका को अपने सहयोगी इस्राइल की बड़ी परवाह करनी पड़ रही है। संक्षेप में कहें तो निकट भविष्य में मध्य.पूर्व के देशों में शांति स्थापना की कोई आस नजर नहीं आती।

SOURCE : DAINIK TRIBUNE

No comments:

Post a Comment