एक मौत के ज़िंदा सवाल
आज से 42 साल पहले मुंबई के केईएम अस्पताल में एक वार्ड ब्वाय की दरिंदगी के दंश की शिकार हुई अरुणा शानबाग को आखिर मौत ने हरा ही दिया। तकरीबन 42 साल पहले 27 नवम्बर 1973 को नर्स के तौर पर कार्यरत अरुणा शानबाग के साथ उनके ही सहकर्मी वार्ड ब्वाय ने दुष्कर्म की जानलेवा कोशिश की। दरिंदगी की ऐसी दुर्दांत मिसालें कम ही मिलती हैं। उस दिन के बाद से ही अरुणा कोमा में थी।
सन् 2011 में 24 जनवरी को अरुणा के स्वास्थ्य जांच की जानकारी के सन्दर्भ में एक पैनल गठित किया गया। उस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि अरुणा जिन्दा तो है मगर कोमा में है। इसी बाबत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उनकी इच्छा.मृत्यु की अर्जी भी दाखिल की गयी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस अर्जी को खारिज करते हुए सिर्फ इतनी इजाजत मंजूर की कि उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली से हटा लिया जायेए न कि उन्हें मौत का इंजेक्शन दिया जाये। अरुणा ने साहस से मौत को 42 साल तक मात दी लेकिन आखिरकार मौत की जीत हुई।
आज अरुणा जरूर मर गयी हैंए लेकिन वो सवाल कतई नहीं मरेए जो अरुणा अपने मौन की भाषा में हमारे समाज और हमारी न्याय व्यवस्था से पूछती रही हैंघ् अरुणा की मौत के बीच उठी इस बहस में इस बात पर गौर करें कि उसका क्या हुआ जिसने अरुणा की ये हालत की थीघ् अरुणा के अपराधी को गिरफ्तार किया गयाए उस पर मुकदमा भी चला और दोषी भी साबित हुआ। मगरए उसे सिर्फ हमले और लूटपाट के लिए सात साल की सजा सुनाई गयीए न कि यौन दुष्कर्म की कोशिश का अपराधी उसे माना गया! यह अपने आप में एक सवाल है कि एक महिला की जिन्दगी को नरक बना देने वाले की सजा महज इतनी.सी क्योंघ् दरअसलए ऐसे फैसलों ने ही अपराधियों के हौसले बुलंद किये हैं और महिलायें आज भी खुद को महफूज़ नहीं महसूस कर रही हैं। इस बाबत अगर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा जारी किये गए आंकड़ों पर नजर डाली जाये तो भारत में प्रतिदिन 50 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिये जाने की बात सामने आती है। वहीं एक अन्य आंकड़े में ऐसा बताया गया है कि भारत में बलात्कार के ग्राफ में जिस रफ्तार से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है जो कि देश की अस्मिता को शर्मसार करने वाला आंकड़ा है।
आंकड़ों के आधार पर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा दिये गए निष्कर्ष में ऐसा बताया गया है कि भारत में हर 57 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार होता है। निश्चित तौर पर ये आंकड़े देश में महिलाओं कि स्थिति एवं उनके प्रति असंवेदनशील होते समाज एवं लचर प्रशासनिक व्यवस्था को दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। पिछली यूपीए सरकार द्वारा नए दुष्कर्म रोधी विधेयक को प्रस्तावित किये जाने के बावजूद भी बेलगाम होती बलात्कार की घटनाओं पर नियंत्रण कैसे पाया जायेए ये सवाल आज भी न सिर्फ प्रशासन बल्कि समूचे समाज के लिए चुनौती बना हुआ है। समाज के ये अराजक तत्व ये भूल रहे हैं कि महिलाओं का भी समाज निर्माण में समानांतर योगदान होता है या कई मामलों में दो कदम आगे की भूमिका होती है।
आये दिन हो रही बलात्कार की घटनाओं पर हमें न सिर्फ कानूनी तौर पर बल्कि सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक तौर पर और अधिक सजग एवं विकसित होने की जरूरत है। आज हमें उन कारणों को तलाशने पर ज्यादा बल देना होगा जो समाज को गलत दिशा में ले जाने के लिए उत्तरदायी हैं। कुछ समाजविदों का मानना है कि पश्चिमी संस्कृति के प्रति स्त्रियों एवं पुरुषों में बढ़ता असंतुलित एवं अनावश्यक आकर्षण भी बलात्कार को बढ़ावा देने में एक प्रमुख कारक है। वहीं तमाम समाजवेत्ताओं द्वारा इसके पीछे नशीले पेय या खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण न होने को एक वजह के तौर पर माना जा रहा है। कुछ मामलों में मानसिक स्थिति को वजह के रूप में भी दिखाया गया है। इन तमाम वजहों के अलावा अगर देखा जाये तो एक वजह यह भी सामने आती है कि बलात्कार को लेकर हमारी प्रशासनिक पद्धति एवं न्यायिक प्रक्रिया कहीं न कहीं नाकाफी साबित हो रही हैए जिससे ऐसे घृणित अपराध पर काबू नहीं पाया जा सका है।
हालांकि इस दिशा में वर्तमान सरकार ने किशोर अपराधियों की उम्र सीमा कम करने का एक संशोधन जरूर किया है। आज जब बलात्कार के आरोपी को जेल तक की सजा देने से मामला बनता नहीं दिख रहा है तो उन दंड नीतियों पर भी अमल किया जाना चाहिए जिससे बलात्कारी के अंदर सामाजिक प्रायश्चित एवं ग्लानि का भाव उत्पन्न हो और वो समाज के सामने अपने किये पर प्रायश्चित करे। अरुणा अपनी मौत के बाद भी जिन सवालों को छोड़ गयी हैए उन सवालों से मुंह चुराकर हम नहीं भाग सकते। हमें जवाब खोजना होगा।
SOURCE : dainiktribuneonline.com
No comments:
Post a Comment