Saturday, 2 May 2015

बदले सोच तो बने बात

बदले सोच तो बने बात
देश में इन दिनों चारों ओर महिला सुरक्षा का मुद्दा सुनाई देता है। हर राजनीतिक दल उन्हें एक बड़ा वोट बैंक मानकर उनके सुरक्षा सम्बंधी मसलों के बारे में तत्पर कार्रवाई की मांग करता है। महिलाओं की चिंता करना अच्छी बात है। लेकिन सिर्फ चिंता होती रहेए इससे भी क्या लाभ। जितनी महिला सुरक्षा की बात होती हैए उतना ही अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है।
पिछले दिनों से इस तरह के अपराधों का एक नया ट्रेंड भी देखने को मिल रहा है। अब तक घर से बाहर निकलती अकेली लड़की को लेकर उसकी सुरक्षा की बात की जाती रही है। यदि आंकड़ों की मानें तो 92 प्रतिशत से अधिक अपराध घरों के अंदर रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा किए जाते हैं। लेकिन आजकल जैसी खबरें पढ़नेदृसुनने में आती हैंए उनके अनुसार अब तो शादी तथा अन्य समारोहों से छोटी बच्चियों को बहला दृफुसलाकर ले जाकर दरिंदे उनके साथ दुष्कर्म से बाज नहीं आते। समारोहों में माता.पिता तथा अन्य रिश्तेदार व्यस्त हो जाते हैं। बच्चियां परिचित और अपरिचित का भेद नहीं कर पातीं। उन्हें आइसक्रीम और चाकलेट के नाम पर बहलाना.फुसलाना भी आसान होता है।
इस तरह की घटनाओं को देखकर लगता है कि कोई भी कठोर कानून या सजा का डर अपराधियों के हौसलों को तोड़ता नहीं है तो फिर ऐसा क्या हो कि इस तरह के अपराध रुक सकें। इसमें तरह.तरह के उपाय सुझाए जाते हैं। निर्भया के बाद निर्भीक नाम की एक पिस्तौल भी बाजार में आ चुकी है। जिसकी कीमत पचास हजार रुपए है। इसे औरतें अपने पर्स में भी रख सकती हैं। लेकिन पचास हजार की पिस्तौल खरीदने की हैसियत कितनी औरतों की होगीए यह सोचने की बात है। काली मिर्च का स्प्रे भी बाजार में है। लेकिन औरतों से ज्यादा यह अपराधियों के हाथ पड़ गया है। इसके जरिए लूटपाट की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है।
एक पेंडेंट भी बाजार में आया है जो किसी खतरे के वक्त आपके दोस्ताना और सुरक्षा सम्बंधी फोन नम्बर्स पर सूचना दे सकता है। जूडोए कराटे आदि की ट्रेनिंग भी लड़कियों को दी जा रही है। पुलिस की इसमें अग्रणी भूमिका है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सादे वस्त्रों में महिला पुलिसकर्मियों को तैनात किया जा रहा है। स्कूलोंए कालेजोंए यूनीवर्सिटीज में भी महिला पुलिस के दस्ते तैनात हैं। लेकिन जब भी आंकड़े सामने आते हैं तो पता चलता है कि इन तमाम उपायों के बावजूद अपराध बढ़ते ही जाते हैं।
अपराध रुक सकेंए इसके लिए ऐसी सेवाएं भी शुरू की जा रही हैं जैसे कि महिलाओं के लिए महिलाएं ही टैक्सी चलाएं। स्कूलों में सभी महिला कर्मचारी ही हों। महिलाओं की सुरक्षा के लिए महिला पुलिसकर्मियों की जरूरत है। लड़कियों को लड़के तंग न करेंए इसके लिए कक्षाओं में उनके अलग से बैठने की व्यवस्था हो। लड़कियां रात.बिरात अकेले न निकलकर समूह में निकलें। किसी अपरिचित पर भरोसा न करें। जैसा हम पहले कहते आए हैं कि अपरिचित से ज्यादा परिचित और नातेदारों के अपराध की शिकार लड़कियां होती हैं। कुछ प्रतिशत अपराध ही बाहर वाले करते हैं। तो चलिए प्राथमिकता इन बाहर वालों के किए अपराधों को रोकना है। इन्हें रोकने के ही उपाय बताए जा रहे हैं।
आज के समय में जब बड़ी संख्या में लड़कियां कामकाजी हैंए तो क्या यह सम्भव है कि हमेशा कोई न कोई उनके साथ रह सके। किसके पास इतनी फुरसत है। तो पुराना समय याद आने लगता है। तब घर वाले लड़की को अकेली कहीं जाने नहीं देते थे। स्कूल दृकालेज तक जाने के लिए भी कोई न कोई घर वाला साथ आता था। किसी शादीए समारोह में भी खास हिदायत होती थी कि शाम होने से पहले लौट आना। घर के भीतर घर की औरतें लड़कियों को खास हिदायत देती थीं कि घर के पुरुषों के सामने बिना दुपट्टे के न आएं।
आज जब आंकड़ों पर नजर पड़ती है और घर के पुरुषों के सर्वाधिक अपराध दिखाई देते हैं तो लगता है कि क्या पुराने जमाने की औरतें स्थिति को बेहतर ढंग से समझती थीं। लेकिन इस सोच में खतरा यही है कि वे औरतें तो लड़कियों की आत्मनिर्भरता और बाहर निकलने के भी खिलाफ थीं।
आज की स्िथति को देखते हुए इसे क्या ठीक कहा जा सकता है कि लड़केदृलड़कियां अलग.अलग पढ़ें। और क्या इसकी गारंटी दी जा सकती है कि ऐसा करने पर लड़कियों के प्रति अपराध रुक जाएंगे। बल्कि यह लड़कियों को आगे बढ़ाने की बजाय पीछे धकेलना होगा। तो फिर सवाल वही आता है कि आखिर लड़कियां सुरक्षित कैसे होंगी। इस सवाल का जवाब भी वही है कि दरअसल ऊपरी बदलाव कुछ देर के लिए तो अच्छे लग सकते हैंए मगर जब तक यह सोच नहीं बदलती कि आदमी औरत से ज्यादा ताकतवर है और किसी न किसी प्रकार की हिंसा या अपराध के जरिए ही औरत को काबू में रखा जा सकता है। लोग कहते हैं कि सोच बदलनी आसान नहीं होती। मगर सोच बदलती है। बदले वक्त के सामने उसे बदलना ही पड़ता है।

SOURCE:DAINIK TRIBUNE

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