Monday, 11 May 2015

बदलाव की उम्मीदों के बीच एक साल

यूं तो इन दिनों किसी नई सरकार के कामकाज का आकलन पहले सौ दिनों पर आधारित सिद्धांत से किए जाने का फैशन है, लेकिन एक साल का पैमाना काफी माना जाना चाहिए। अब जबकि नरेंद्र मोदी की सरकार अपने राजकाज का पहला साल लगभग पूरा करने को है, तो ऐसे में यह उचित होगा कि इसकी कार्यशैली की समीक्षा की जाए।
जब भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा के झंडे तले राज संभाला था तो इसके पक्ष में दो बातें थीं। पहली, पूर्ववर्ती यूपीए सरकार अपने दूसरे कार्यकाल के बाद थकी-मांदी, गठबंधन की राजनीति निभाने को अभिशप्त, सिलसिलेवार घोटालों और सरकार एवं संगठन की आत्मा को अंदर तक प्रभावित करने वाले दोहरे नेतृत्व से ग्रस्त थी। ऐसे में जाहिर है कि किसी भी बदलाव का स्वागत जनता द्वारा होता। दूसरा लाभ भाजपा को यह था कि तेल की कीमत में 50 प्रतिशत की भारी कमी मानो किसी स्वर्गिक प्रसाद से कम नहीं थी।
लेकिन यह देखना सुखद आश्चर्य था कि विदेश नीति के मामले में मोदी के आरंभिक कदम दृढ़तापूर्वक थे। कम ही लोगों को आशा थी कि विदेश मामलों पर उनकी इतनी गहरी समझ होगी क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए जापान और चीन की यात्राओं पर केवल अपने राज्य के हितों को बढ़ावा देने की सीमित लीक पर ही उन्हें चलना था।

हालांकि शपथ ग्रहण समारोह अकसर रस्मी होते हैं लेकिन मोदी ने इसी से शुरुआत करते हुए पाकिस्तान समेत अन्य पड़ोसी मुल्कों के राष्ट्राध्यक्षों को इसमें आने का न्योता दिया। इसके साथ ही अपनी विदेश यात्राओं का सिलसिला एकदम भारत से सटे हुए मुल्कों से शुरू करते हुए मोदी इसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, हिंद महासागर के द्वीपीय देशों, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा तक ले गए और जब मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भारत में लाने में सफल रहे तो विश्व में इस उपलब्धि पर अचंभा हुआ था।
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी उन्हीं देशों में गए जिनका महत्व भारत के व्यापार अथवा निकटवर्ती रिश्तों में प्रमुख है या फिर जिनका रुतबा महाशक्ति वाला है। उनकी यह प्रकिया चीन और मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की यात्रा के साथ पूरी हो जाएगी। जो एक संदेश मोदी देना चाह रहे हैं कि वैश्विक विदेश नीति में वह एक सक्रिय भूमिका रखते हैं और भारत अपने आकार, जनसंख्या, तकनीकी ज्ञान और बौद्धिक संपदा के बूते पर संसार में न केवल एक संतुलन बनाने वाली शक्ति है बल्कि इस क्षेत्र में नेतृत्व करने वाला एक देश बनने की आकांक्षा भी रखता है। जहां तक देश के अंदरूनी मामलों का सवाल है तो मोदी का लेखा-जोखा मिश्रित सफलताओं वाला है। मोदी ने अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री के मुकाबले निर्णय-प्रकिया में दृढ़ता दिखाने का आगाज किया है। परंतु राज्यसभा में अपनी पार्टी के सांसदों की संख्या बढ़ाने की खातिर राज्यों में हुए उपचुनावों में जिस तरीके का प्रचार उन्होंने किया है, उसे अच्छा नहीं माना गया।
आर्थिक मोर्चे पर प्रधानमंत्री से काफी उम्मीदें थीं, क्योंकि उन्होंने आम चुनाव के दौरान प्रगति के गुजरात मॉडल को देशभर में दोहराने पर बड़ा जोर दिया था। इन बढ़ी हुई आकांक्षाओं के मद्देनजर व्यापारियों और उद्यमियों को उस वक्त बड़ी मायूसी हुई जब वित्त मंत्री ने अपने बजट में कोई बड़ी चौंकाने वाली घोषणा नहीं की, हालांकि कइयों ने इस पर दुबारा विचार करने पर पाया कि बजट सही दिशा में है। सरकार अभी भी इस कोशिश में है कि महत्वपूर्ण जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) बिल संसद में पारित हो जाए ताकि अगले साल अप्रैल माह में शुरू होने वाले वित्तीय वर्ष से इसे लागू किया जा सके।
यूपीए सरकार द्वारा पेश किए भूमि अधिग्रहण बिल के जिस प्रारूप में जो बदलाव मोदी सरकार करना चाहती थी, वैसा वह कर नहीं पाई क्योंकि इस सिलसिले में इसके प्रयास सुगठित नहीं थे, बल्कि इस मुद्दे ने कांग्रेस और अन्य विरोधी पार्टियों को वह मौका मुहैया करवा दिया, जिससे वे एकजुट होकर मोदी के इस काम को मुश्किल बना दें। इस प्रकिया में किसानों जैसे महत्वपूर्ण वर्ग में राजग ने अपनी राजनीतिक साख गंवा दी है। सरकार का उद्देश्य था कि भूमि हस्तांतरण में तेजी लाकर औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में तेजी ला सके। लेकिन भारतीय कृषि में आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है क्योंकि कम होता कृषि-उत्पादन, बंटते जा रहे खेत और बहुत से लोगों के प्रयासों के बावजूद बहुत कम उत्पादन हो रहा है, फिर भी हमारे अन्न भंडार भरे हुए हैं।
जिन दो अन्य क्षेत्रों में मोदी सरकार को अपना रिकॉर्ड दुरुस्त करने की जरूरत है : वह हैं, शिक्षा और अंतर-सांप्रदायिक सौहार्द। यह सर्वविदित है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मोदी की जीत में बड़ी भूमिका निभाई थी और अपने इसी संरक्षक के सामने उनके हाथ बंधे हुए हैं। इसीलिए अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा गैर-वाजिब बयान देने पर उनकी खिंचाई न करने वाला उदासीनता भरा रवैया उन्होंने तब तक अपनाए रखा, जब तक कि बहुत देर न हो जाए।
शिक्षा में तो दांव और भी बड़े हैं क्योंकि आरएसएस के लिए यह एक ऐसा विशेष क्षेत्र है जिसमें वह कच्ची उम्र के विचारों को अपने अनुसार ढाल सकती है, इसीलिए इतिहास और अनुसंधान संगठनों में खुद से सहानुभूति रखने वाले लोगों को उसने बिठवाया है। फिर भी, देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के साथ अंतर-सांप्रदायिक रिश्तों के क्षेत्र में नई सरकार के लिए करने को बहुत कुछ बाकी है। आंकड़े इस बारे में कम ही मददगार होंगे क्योंकि भाजपा के दीगर कार्यकर्ताओं और सांसदों के बयानों की वजह से अल्पसंख्यकों के मन में अविश्वास की भावना जगी है। संघ का अपना ही बनाया सिद्धांत यह भी है कि सभी भारतीय नागरिक हिंदू हैं, चाहे वे किसी भी संप्रदाय के धार्मिक रीति-रिवाज का अनुकरण करते हों। लेकिन भारत जैसे विविधता वाले देश में यह एक खतरनाक प्रस्तावना होगी। यदि ऐसे तत्वों पर कोई कार्रवाई होनी बनती है तो ऐसा करने में प्रधानमंत्री विफल रहे हैं।
वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी निजी आस्थाओं को दबाकर सभी भारतीयों के नेता होने का प्रयास जैसा मुश्किल काम करके व्यावहारिकता का परिचय भी दिया है। अभी भी उनके पास अपने विरोधाभासों का हल निकालने के लिए चार साल का समय शेष है

SOURCE : DAINIKTRIBUNEONLINE.COM 

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