Sunday, 24 May 2015

आईएस की सफलता से गहराता संकट

आईएस की सफलता से गहराता संकट

 सीरिया और इराक में इन दिनों चल रही लड़ाई में इस्लामिक स्टेट की नाटकीय बढ़त दर्शाती है कि इस इलाके के लिए बनी अमेरिकी नीतियां काफी मुश्किल में हैं। जहां एक ओर इराक में विफल हुए अमेरिकी सैन्य अभियान के बाद ओबामा प्रशासन की इच्छा थी कि मध्य.पूर्व से अपना पिंड छुड़ाकर वहां से निकला जाएए वहीं दूसरी तरफ हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि उसे इस गड़बड़झाले में फिर से फंसना पड़ रहा है। सीरिया में सबसे ताजा हुए नुकसान में ऐतिहासिक शहर पलमेरिया पर आईएस का कब्जा होना है। जबकि इराक में बगदाद से सिर्फ एक घंटे की दूरी पर बसे शहर रामादी पर आईएस का प्रभुत्व कायम होने से राजधानी में भी खतरे की घंटी बज उठी है। इसके चलते इराकी हुक्मरानों ने आईएस से लोहा लेने में सबसे ज्यादा सख्तजान माने जाने वाले शिया लड़ाकों को मोर्चे पर भेज दिया है और अमेरिका ने इस अभियान में इराकी सेना को भारी हथियारों की मदद देने का भरोसा दिया है।
लेकिन जो विरोधाभासी परिस्थितियां और काम हो रहे हैंए वह सोच से परे हैं। सीरिया के क्षेत्र में आईएस पर हो रहे अमेरिकी हवाई हमले उलटे राष्ट्रपति बशर अल.असद;और परोक्ष रूप से ईरानद्ध को लाभ पहुंचा रहे हैंए जबकि अमेरिकी नीति उन्हें हटाने की थी। हालांकि इराक में पूर्व तानाशाह सद्दाम हुसैन को फांसी देने के बाद शिया समुदाय वहां पर ताकतवर होकर उभरा था और राजपाट इनके हाथ में आ गया थाए लेकिन रामादी और अनबार का पूरा इलाका सुन्नियों का मजबूत गढ़ है। पूर्व प्रधानमंत्री रहे नौरी.अल.मलिकी ने अपने लंबे कार्यकाल में इन दोनों समुदायों में तनाव को हवा दी थी। एक तरह से यही कारण था कि सुन्नी लोग आईएस के पाले में जाने को मजबूर हुए हैं।
शिया लड़ाकों से लैस इराक की राष्ट्रीय सेना को अमेरिका से मिलने वाला गोला.बारूद एक तरह से ईरान के ध्येयों की पूर्ति के हित में होगा। इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका ईरान से होने वाले एटमी करार के अंतिम प्रारूप को जून महीना खत्म होने से पहले तय करने में इच्छुक है। इस संधि से खाड़ी की राजशाहियों के मन में उठी शंकाओं का समाधान करने की खातिर राष्ट्रपति ओबामा ने कैंप डेविड में एक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया थाए लेकिन सऊदी अरब के सुल्तान सलमान का इस वार्ता में भाग न लेना चर्चा का विषय बना। अंत में जिन श्ाासकों ने इस शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया थाए उन्हें प्रस्तुत की गई सुरक्षा की नई गांरटी उम्मीद से कम निकली।
अमेरिका की यह दशा उस दुविधा का हिस्सा है जिसका सामना इस क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाने वाले अन्य देश भी कर रहे हैं। तथ्य तो यह है कि 2011 में अरब देशों में शुरू हुआ नवजनजागरण आंदोलनए जिसने इन्हें हिलाकर रख दिया थाए वह अपने वक्त से पहले ही आ गया था। केवल ट्यूनीशियाए जहां से यह शुरू हुआ थाए वही इसका एकमात्र उदाहरण फिलहाल बचा हुआ है। मिस्र में यह आंदोलन एक साल बाद ही तब खत्म हो गया जब इस देश में ईमानदारी से चुने गए पहले राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी की सत्ता को सेना ने पलट दिया था और हाल ही में उन्हें फांसी की सजा भी सुनाई गयी है।
लीबिया में दो प्रतिद्वंद्वी सरकारें और बेलगाम कबीलाई लड़ाकों का राज है और इनके बीच गृह.युद्ध छिड़ा हुआ है। यमन भी अब अशांत देशों की फेहरिस्त में शामिल हो गया हैए वहीं ईरान समर्थित शियाओं के एक उपसमूह हूती समुदाय ने नाटकीय रूप से बढ़त बनाते हुए सुन्नी सरकार द्वारा संचालित देश के एक हिस्से पर अपना कब्जा बना लिया है। इसलिए अब इससे आगे अमेरिकाए इस क्षेत्र के महारथियों और शेष दुनिया के लिए क्या रास्ता हैघ् राष्ट्रपति ओबामा ने मिस्र की नई सैनिक सरकार से दोस्ताना कायम कर लिया है। चंूकि आईएस से होने वाला खतरा ज्यादा बड़ा हैए इसलिए अमेरिका द्वारा सीरिया के राष्ट्रपति असद के प्रति अपनाए कड़े रुख में अब नरमी आ गई है। यमन का मामला अधर में है।
सऊदी अरब के नए सुल्तान सलमान अपनी नए सिरे से बनाई सरकार को इस इलाके के राजनयिक खेल में शामिल करना चाह रहे हैं। यमन के साथ सऊदी अरब की लंबी सीमा रेखा है। हालांकि पाकिस्तान की निंदा इस बात को लेकर हुई है कि उसने यमन में चल रहे सऊदी अरब के सैन्य अभियान का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है। लेकिन फिर भी सऊदी अरब यह आस रखे हुए है कि जरूरत के समय पाकिस्तान से परमाणु हथियार लेकर अपना बचाव कर सकता है।
अमेरिका के लिए अभी यह कहना मुश्किल है कि वह कब मध्य.पूर्व के इलाके से निकल कर मध्य एशिया की ओर अपना ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाएगाए जहां पर चीन अपना प्रभाव बढ़ाने में लगा हुआ है। अपने यहां तेल की ज्यादा उपलब्धता की बदौलत अब अमेरिका की मध्य.पूर्वी देशों से निकलने वाले तेल पर निर्भरता कम हो चली है और इस विपरीत माहौल में इस्राइल के हितों की रक्षा करने के अतिरिक्त उसके अपने हितों का स्तर भी कम हो चला है। लेकिन समस्या यह है कि मध्य.पूर्व से निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
एक तोए इस 21वीं सदी में भी फिलीस्तीनियों के इलाके में स्थाई औपनिवेशिक बस्तियां बसाने की कवायद भले ही इस्राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सरकार के लिए आत्मघाती सिद्ध होगी। दूसरेए सीरिया और इराक के बड़े इलाके पर राज कायम करने को आतुर आईएस के उद्भव के बाद अमेरिका को लगता है कि अरब देशों के बीचोंबीच स्थित इस इलाके को एक आतंकी संगठन द्वारा कब्जा लेने के लिए यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। गल्फ को.ऑपरेशन कांउसिल के झंडे तले एकत्र खाड़ी की राजशाहियों को जो एक डर सता रहा हैए वह है कि इस बात की गुंजाइश ज्यादा है कि अमेरिका द्वारा लगाए आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्त होने के बाद ईरान इस इलाके के शियाओं को अपने साथ मिलाकर अपना प्रभुत्व बढ़ाने में लग जाएगा।

सीरिया में लंबे समय से चल रहे गृह युद्ध का अंत आने वाली स्थितियों का एक संकेत होगा। अगर अंदरखाते चल रही बातों पर यकीन करें तो आईएस विरोधी ताकतों का साथ आना इसलिए भी जरूरी है ताकि इस आतंकी संगठन से असरदार तरीके से निबटा जा सके। इसके लिए असद सरकार और अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी जगत के बीच एक तरह की सहमति बनने वाली है। इसके अलावा यदि तुर्की अपने यहां बड़ी संख्या में रहने वाले कुर्द अल्पसंख्यकों के साथ शांति प्रकिया पूरी करने में सफल हो जाता है तो इसका मतलब होगा कि आतंकी.रोधी शक्तियों की ताकत में भारी इजाफा होना।
फिलहाल तो ऐसी संभावना अभी कयास में ही है। लेकिन जो एकदम तय है कि आने वाले कुछ समय तक भी यहां भारी खून.खराबा चलता रहेगा। किश्तियां भर.भर के जो शरणार्थी यूरोप की ओर जा रहे हैंए वह इस समस्या का एक पहलू है।
SOURCE : dainiktribuneonline.com

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