अरब देशों में अमेरिका का घटता दबदबा
अभी हाल ही में खाड़ी सहयोग परिषद के सदस्य देशों के छह राष्ट्राध्यक्षों ने लगभग एक मत से यह निर्णय लिया है कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा आयोजित बैठक में निजी तौर पर भाग नहीं लेंगे। यह ये दर्शाता है कि पश्चिम एशिया में अमेरिका का प्रभाव अब उतार पर है। अमेरिका के राष्ट्रपति ने इस बैठक का आयोजन खाड़ी क्षेत्र के अपने सहयोगियों को ईरान से होने वाले एटमी.करार की जानकारी देने और इस पर उन्हें भरोसे में लेने के लिए किया था।अमेरिका ने कभी अपनी छत्रछाया में पले.बढ़े इन देशों की आहत भावनाओं पर महरम लगाने के लिए सऊदी अरब के नेतृत्व में हूती.विद्रोह को कुचलने के लिए की जा रही सैन्य कार्रवाई का समर्थन जोरदार तरीके से किया। इस अभियान में अमेरिका ने महत्वपूर्ण सामरिक और गुप्त सूचनाएं देने के अलावा अदन की खाड़ी में अपनी नौसेना का जमावड़ा भी लगा दिया। जाहिर है इतना सब करने के बावजूद भी वह खाड़ी देशों के उस भरोसे को जीतने में सफल नहीं हो पाया।
खाड़ी क्षेत्र की राजशाहियों और गल्फ को.ऑपरेशन के सहयोगी देशों के अमेरिका से मोह भंग होने के कारण सर्वविदित हैं। इसकी शुरुआत उस घटनाक्रम से हुई जिसे पहले.पहल अरब स्प्रिंग का नाम दिया गया। मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति हुसनी मुबारक के पीछे दृढ़ता से न खड़े होने पर अमेरिका की अनिर्णय की स्थिति और आखिर में उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने से सऊदी अरब को खासी हताशा हुई थी। इसके बाद जब मिस्र में राष्ट्राध्यक्ष मोर्सी को अपदस्थ किया गयाए तब भी अमेरिका को दूसरे पक्ष की ओर खड़ा पाया गया था। वह भी तब जब उसे अच्छी तरह पता था कि सऊदी अरब मोर्सी का विरोध कर रहे मुस्लिम ब्रदरहुड नामक संगठन को कतई पसंद नहीं करता है। सीरियाई गृहयुद्ध के घटनाक्रम के चलते सऊदी अरब का अमेरिका से मोहभंग गहराता गया। सऊदी अरब को उम्मीद थी कि उसका दोस्त अमेरिका सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल.असद को हटाने के अभियान में उसकी मदद खुलकर करेगा। सऊदी राजशाही सीरिया की सरकार द्वारा हमेशा असहयोगात्मक रवैया अपनाने के कारण कभी भी उससे खुश नहीं रही थी। लेबनान में सीरिया का बढ़ता प्रभुत्व कभी भी
सऊदी अरब को रास नहीं आया क्योंकि तत्कालीन सऊदी सुल्तान रफीक पर अपना वरदहस्त मानते थे।
राष्ट्रपति ओबामा ने यह घोषणा कर रखी थी कि अगर असद सरकार विद्रोहियों पर रासायनिक हथियारों को प्रयोग करती है तो इसे चेतावनी रेखा पार करने वाला कृत्य माना जाएगा और ऐसा होने पर वह असद सरकार के गढ़ों पर सैन्य कार्रवाई करेगा। रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल भी हो गया और अमेरिका ने कुछ नहीं किया।
हालांकि सऊदी अरब और ईरान दोनों ही सार्वजनिक रूप से एक.दूसरे के प्रति बड़े मृदुभाषी बने रहते हैं लेकिन तथ्य यह है कि इस इलाके पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए दोनों के बीच कड़ी प्रतिद्वंद्विता है। इस सिलसिले में सांप्रदायिक वर्गीकरण एक महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि सऊदी अरब की राजशाही अपने को संसार के सभी मुसलमानों का अगुआ मानती है और ईरान भी खुद को सभी शियाओं का संरक्षक समझता है। संसार भर के मुसलमानों की कुल संख्या का लगभग 10 से 15 प्रतिशत भाग ही शियाओं का है और केवल चार देशों.ईरानए इराकए बहरीन और अजरबेजान में यह समुदाय बहुसंख्यक है। ज्यादातर सुन्नी देशों में शियाओं को प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है और कुछ ही साल हुए हैं जब उन्होंने अपना अधिकार जताना शुरू किया है। इसमें कोई शक नहीं कि एक इस्लामिक गणतंत्र के रूप में ईरान का उद्भव इस दृढ़ता के लिए बहुत मायने रखता है।
ईरान के बढ़ते प्रभाव से सऊदी अरब का चिंतित होना स्वाभाविक है क्योंकि इसके पूर्वी प्रांत में जहां इस सल्तनत के सबसे ज्यादा तेल कुएं केंद्रित हैंए वहीं पर इस देश के शियाओं की सबसे ज्यादा आबादी है। सऊदी अरब को डर है कि अगर ईरान यमन में अपने प्रभाव से हलचल कर सकता है तो फिर वह सऊदी अरब में भी ऐसी ही कुछ करने की कूवत रखता है। उसकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि अगर ईरान अमेरिका से एटमी करार करने में कामयाब रहता है तो यह संधि परमाणु हथियार बनाने की उसकी सामर्थ्य बरकरार रखने की एक तरह से इजाजत होगी और इस सारे इलाके का शक्ति.संतुलन सदा के लिए ईरान के पक्ष में झुक जाएगा। इसलिए जब ईरान और पी.5़1 देशों के बीच वार्ता प्रगति पर थी तो यह उम्मीद की जा रही थी इस रफ्तार पर जून के आखिरी सप्ताह तक सफलता मिल जाएगी। इसलिए सऊदी अरब ने सोचा अब तो ष्कुछष् तो्य करना ही होगा। और यह ष्कुछष् यमन में दखलअंदाजी के रूप में सामने आया। इस अभियान में इस्राइल ने भी बढ़.चढ़कर सऊदी अरब की हल्लाशेरी करने के अलावा सहायता भी दीए क्योंकि इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने भी ईरान से होने वाले एटमी करार का विरोध करने के लिए अपनी वजहों से अति प्रभावशाली अभियान अलग से छेड़ रखा है।
सऊदी अरब ने मीडिया में बहुत बड़ा प्रचार अभियान चला रखा है ताकि बड़ी ताकतों को यह मनवाया जा सके कि यमन के हूती विद्रोह के पीछे ईरान का हाथ है और वही हूती लड़ाकों को राजनीतिकए सामरिक और सैन्य मदद दे रहा है। अमेरिका ने ईरान को हूतियों की मदद करने के लिए चेतावनी दी है।
ओबामा पहले से ही देश के अंदर यह संधि कर भारी दबाव का सामना कर रहे हैं क्योंकि इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने इस करार के खिलाफ रिपब्लिकन सीनेटरों को अपने पक्ष में कर रखा है। ऐसे हालातों में राष्ट्रपति ओबामा को यह श्रेय जाता है कि इतने सारे दबावों के बावजूद उन्होंने ईरान से वार्ता जारी रखी हुई है। लेकिन ईरान की तरफ से की गई एक भी गलती ओबामा को हाथ पीछे खींचने को मजबूर कर देगी और यह वार्ता वहीं टूट जाएगी। भले ही ईरान में भी हर कोई इस एटमी करार के पक्ष में नहीं है परंतु ज्यादातर नागरिक इसका समर्थन कर रहे हैंए खासकर अली खमेनाईए जिनकी राय इस देश में सबसे ज्यादा मायने रखती है और जो ईरान का सर्वोच्च नेता भी है।
खाड़ी.देशों द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति पर सार्वजनिक रूप से दिखाया गया अविश्वास एक अभूतपूर्व घटना है और यह ओबामा और ईरान के लिए एक.सी चुनौती है।
SOURCE : DAINIKTRIBUNEONLINE.COM
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