Friday, 22 May 2015

बचपन पर भारी बस्ता

बचपन पर भारी बस्ता

महाराष्ट्र सरकार स्कूली बच्चों के बस्ते के बोझ को लेकर गंभीरता से विचार कर रही है। इस विचार पर अमल करने की सराहनीय पहल ठाणे नगर निगम निकाय से हुई है। जिसके अंतर्गत ठाणे नगर निगम के अधीन चलने वाले डेढ़ सौ प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में पहली और दूसरी कक्षाओं के बच्चों को बस्ता पीठ पर लादने से छुटकारा मिल सकेगा। बच्चों को बस्ता घर से ढोकर नहीं ले जाना होगा बल्कि स्कूल में ही किताबें रखने का प्रावधान रहेगा। स्कूल के सभी डेस्क में एक लॉकर की व्यवस्था की जाएगी जिसमें हर विद्यार्थी छुट्टी के बाद अपना बस्ता रखकर घर जा सकेगा। इतना ही नहींए बस्ते का बोझ कम करने के अलावा स्कूलों में शिक्षण का आधार आपसी संवाद को बनाने की भी कवायद की जाएगी। साथ ही कुछ विषयों को साथ मिलाकर किताबों की संख्या घटाने की भी कोशिश की गयी है।
आजकल सरकारी हों या निजी स्कूलए सभी में बच्चों को भारी.भरकम बस्ता थमा दिया जाता है जो उनकी सेहत और शिक्षा दोनों पर पहले पायदान पर ही भारी पड़ रहा है। शिक्षाविद् भी मानते हैं कि 4 से 12 साल की उम्र बच्चों के व्यक्तित्व के विकास की उम्र होती हैं। ऐसे में इस पुस्तकीय भार से मासूम बच्चों के स्वाभाविक विकास और समझ की प्रक्रिया बाधित होती है। वहीं बाल मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि 10.11 साल की आयु तक के बच्चों के विकास में किताबी ज्ञान नहींए भावनात्मक योगदान की भूमिका अधिक है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में कुछ समय पहले मानवाधिकार आयोग भी इस मामले में दखल दे चुका है। आयोग के मुताबिक निचली कक्षाओं का बस्ता पौने दो किलो और ऊंची कक्षाओं का बस्ता साढ़े तीन किलो से ज्यादा भारी नहीं होना चाहिए। मानवाधिकार आयोग ने यह फैसला बच्चों के पीठ दर्द और कंधे की जकड़न की समस्या से निजात दिलाने के लिए ही दिया था।
शिक्षा का उद्देश्य बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है पर आज के दौर में शिक्षा बचपन पर भारी पड़ रही है। उनका स्वास्थ्य और समझ दोनों ही इससे प्रभावित हो रहे हैं। यह सब बच्चों को बेहतर शिक्षा दिए जाने के नाम पर हो रहा है। इसमें स्कूलों के प्रबंधन से लेकर सरकारी नीतियों तक सभी ने अपनी भूमिका निभाई है। शिक्षा प्रणाली को लेकर हमारे यहां अनगिनत प्रयोग तो हुए हैं पर हमारे यहां अभी तक स्कूल बैग के वजन को लेकर कोई मानक तय नहीं किए गए हैं।
सोशल डेवलेपमेंट फाउंडेशन के तहत हाल ही में करवाए गये एसोचैम के सर्वेक्षण के अनुसार हमारे यहां पांच से बारह वर्ष के आयु वर्ग के 82 फीसदी बच्चे अत्यधिक भारी स्कूल बैग ढोते हैं। इस सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि दस साल से कम उम्र के तकरीबन 58 प्रतिशत बच्चे हल्के कमर दर्द के शिकार हैं जो आगे चलकर बड़ी स्वास्थ्य समस्याओं को न्योता देने वाला लक्षण है।
रीढ़ चिकित्सा के विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि लगातार बच्चों का यूं बस्ते का बोझ ढोना उन्हें स्थायी या अस्थायी रूप से कूबड़पन का भी शिकार बना सकता है। भारी बस्ते बच्चों की हड्डियों में विकृति पैदा करते हैं। मौजूदा दौर में बच्चों का इतना बड़ा प्रतिशत पीठ पर अपने पूरे वज़न का 35 प्रतिशत बोझ उठाकर चल रहा है। दिल्लीए लखनऊए जयपुरए चेन्नईए बेंगलुरु और मुंबई जैसे बड़े शहरों में किए गए सर्वे के इन परिणामों को देखकर गांव.कस्बों की परिस्थितियों का अनुमान तो सरलता से लगाया जा सकता हैए जहां बच्चे बस्ता पीठ पर लादे कोसों पैदल चलकर स्कूल पहुंचते हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों द्वारा बस्तों का बोझ उठाया जाना उनकी दिनचर्या का ही हिस्सा बन जाता है। अत्यधिक बोझ उठाये जाने के चलते बच्चे की रीढ़ पर दबाव पड़ता है और विकसित होते शरीर की मस्कुलो.स्केलेटल प्रणाली पर दुष्प्रभाव पड़ता है। ये समस्या लड़कों से ज्यादा लड़कियों में देखने में आती है। पुस्तकीय भार को उठाये अव्वल आने की इस दौड़ में उनका बचपन संवेदनशीलता खोता जा रहा है। जिन दो हज़ार स्कूली बच्चों पर यह सर्वेक्षण किया गया हैए उनमें से 1500 बच्चे किसी सहारे के बिना ठीक से बैठ पाने में भी असमर्थ हैं।
हालांकि केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2010.2011 में समिति गठन कर बस्तों का वज़न निर्धारित कर दिया था। जिसमें सभी प्रदेशों के शिक्षा मंत्रियों को बुलाकर उनकी सहमति से बस्ते का वज़न बच्चे की कक्षा के अनुसार रखा गया था। इतना ही नहींए बस्ते का बोझ कम करने को लेकर यशपाल कमेटी के तहत तो देशव्यापी बहस छिड़ गयी थी। 1990 में यशपाल समिति ने स्कूली बच्चे के पाठ्यक्रम में बोझ की कमी सिफारिश की थी। लेकिन दो दशक बीत जाने के बाद भी कोई प्रभावी निर्णय नहीं लिया गया है। हकीकत यह है कि आज भी स्कूली बच्चे मानव संसाधन विकास मंत्रालय की गाइडलाइन्स से दोगुने वज़न का बस्ता ढो रहे हैं। न तो शिक्षा विभाग को इसकी चिंता है और न स्कूली प्रशासन इस ओर ध्यान दे रहा है।
फिलहाल महाराष्ट्र में लागू किया गया यह निर्णय वाकई स्वागत योग्य है। देश के अन्य हिस्सों में भी बच्चों के मन और जीवन पर लदे किताबी भार को घटाने की कवायद होनी ही चाहिए। इस बोझ को कम कर शुरुआत से ही वजनी पाठ्यक्रम के बजाय व्यावहारिक शिक्षा पर अधिक ध्यान केंद्रित किये जाने की आवश्यकता है।
SOURCE :DAINIKTRIBUNEONLINE.COM

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