Friday, 8 May 2015

बाजार की बोतल में बंद पेयजल

बाजार की बोतल में बंद पेयजल

प्रकृति ने इनसान को हवा के बाद पानी को भी लगभग मुफ्त मुहैया कराया था। पर सभ्यता के तेज विकास ने जिन प्राकृतिक संसाधनों का सबसे खराब ढंग से इस्तेमाल किया या कहें कि दुरुपयोग कियाए उनमें से पानी इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। आज यह नजारा आम है कि एक तरफ लगभग मुफ्त में मिलने वाले पानी की बुरी तरह बर्बादी होती हैए तो दूसरी तरफ फैक्टरियांए सीवेज और घरों से निकलने वाले गंदगीयुक्त पानी से उसे प्रदूषित किया जाता है। इस पर एक विरोधाभासी विडंबना यह भी है कि आम लोग बाजार के प्रभाव में बोतलबंद पानी की बीसियों गुना ज्यादा कीमत चुकाने को तैयार रहते हैंए जबकि नगर पालिकाओं या जलबोर्डों की मदद से घरों में नलों के जरिये मिलने वाले पानी की वह कीमत भी नहीं देना चाहते। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत में 20 हजार लीटर हर महीने मुफ्त पानी के वादे का जो योगदान रहाए उसी से यह बात साफ हो जाती है।

खास तौर से पीने वाले पानी का जो नया पहलू हमारे देश में दिखाई दे रहा हैए वह उसकी आसान उपलब्धता को खत्म करते हुए उस बोतलबंद पानी को सरेआम बढ़ावा देने की नीति के रूप में सामने आया है। इसमें पानी बेचने वाली कंपनियां चांदी कूट रही हैंए जबकि आम आदमी प्यास बुझाने के वास्ते एक लीटर पानी के लिए न्यूनतम 15.20 रुपये चुकाने को बाध्य है। गर्मियों का मौसम आते ही बसोंए ट्रेनों और सार्वजनिक उपस्थिति वाली सभी जगहों पर अब यह आम बात हो गई है कि वहां बोतलबंद या सौ.दो सौ मिलीलीटर के पाउच तक में बिकने वाले पानी के दर्शन तो हो जाते हैंए लेकिन ऐसा कोई सार्वजनिक हैंडपंप या नल ;टैपद्ध चालू हालत में दिखाई नहीं देता कि जिसका पानी पीकर तृप्त हुआ जा सके। जिसे पीने से बीमारियों के किसी खतरे का एहसास भी न हो। हमारे देश में अरसे तक परंपरा यह रही है कि रेलवे स्टेशनोंए बस अड्डों और तमाम सार्वजनिक स्थानों पर प्याऊ हुआ करते थे। रेलवे स्टेशनों पर तो बाकायदा ष्पानी पांडेष् नाम से एक कर्मचारी नियुक्त रहता थाए जो ट्रेन आने पर यात्रियों को पानी पिलाया करता था। प्यासे को पानी पिलाना आज भी पुण्य का काम माना जाता हैए पर ऐसे प्याऊ या छबीलें अब तीज.त्योहारों पर ही नजर आती हैं। इनके स्थान पर अब तकरीबन हर जगह बोतल या प्लास्टिक की थैलियों में सीलबंद पानी ही ऊंची कीमत पर बेचा जाता है।
कुछ वर्ष पहले रेल मंत्रालय ने एक योजना पेश की थी कि रेल स्टेशन पर वॉटर प्यूरिफायर ;आरओ.रिवर्स ऑसमोसिसद्ध लगाकर यात्रियों को एक या दो रुपये लीटर की दर से साफ पेयजल मुहैया कराया जाएगा। इन योजनाओं पर कुछ समय तक अमल हुआए लेकिन पानी के बिजनेस में लगी कंपनियों और यह व्यवसाय करने वाली लॉबी के दबाव में चुपके से ऐसे स्टॉल बंद कर दिए गए। हाल मेंए देश की राजधानी दिल्ली में एक बार फिर ऐसी योजना लागू करने की बात कही गई है पर अतीत के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि बाजार आम जनता के हित से पहले अपने हितों को बचाने के लिए इन योजनाओं को बंद करवाने के लिए आकाश.पाताल एक कर देगा।
इस विडंबना का एक बड़ा पहलू यह भी है कि टैप वॉटर यानी जलबोर्डों या नगर पालिकाओं द्वारा मुहैया कराए जाने वाले पानी की मामूली कीमतों का विरोध करने वाले लोग भी जब घर से बाहर निकलते हैं तो एक लीटर बोतलबंद पानी के 20 रुपये चुकाना उन्हें भारी नहीं लगता। वे इसका कोई उल्लेखनीय विरोध भी नहीं करते। इसकी एक वजह यह है कि सार्वजनिक नलों से निकलने वाले पानी के भयानक ढंग से प्रदूषित होने के कारण उसे पीकर कोई बीमार नहीं होना चाहता। लेकिन इसके लिए जो आसान उपाय हैंए उन पर तो आम जनता दबाव बना सकती थी। रेल या बस यात्राओं के दौरान लोगों को बोतलबंद पानी खरीदने के लिए क्यों मजबूर होना पड़े. इसके लिए आवाज उठाई जा सकती थी। लोग आंदोलन चलाकर यह मांग कर सकते हैं कि उन्हें ऐसी सभी जगहों पर एक या दो रुपये में सस्ता साफ पेयजल मुहैया कराया जाए।
सच तो यह है कि वे ऐसा सब कुछ इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि सफर में या घर से बाहर किसी भी जगह पर उन्हें पानी की ऊंची कीमत ज्यादा हैरान.परेशान नहीं कर रही है। सभी लोगों को इस अर्थशास्त्र पर गौर करना चाहिए कि एक लीटर टैप वॉटर के मुकाबले में बोतलबंद पानी पर उन्हें करीब 4 हजार गुना ज्यादा रकम खर्च करनी पड़ती है। नलों से आने वाले जिस साफ पानी की कीमत एक पैसे में दो या तीन लीटर पड़ती हैए कंपनियां वैसा ही पानी 15 से 20 रुपये में उपलब्ध कराती हैं। कई होटलों और महंगे रेस्तरां में तो उन्हें इतना ही पानी 50.60 रुपये में पड़ता है पर वहां भी कोई बहस नहीं होती।
उल्लेखनीय है कि अब भारत की गिनती उन पांच बड़े देशों में होती है जहां बोतलबंद पानी की खपत में हर साल 30.40 फीसदी इजाफा हो रहा है। इस तरह अब यह व्यवसाय हजारों करोड़ रुपये के बिजनेस में तबदील हो गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि पानी बेचने वाली निजी कंपनियां टैप वॉटर या सस्ते फिल्टर वॉटर की व्यवस्थाओं को पलीता लगाने में कोई कोर.कसर नहीं रहने देंगी।
हालांकि इस समस्या का सिरा इससे भी जुड़ा है कि नगर पालिकाओं और जलबोर्डों द्वारा आम जनता को जो पेयजल उपलब्ध कराया जा रहा हैए उसमें बीमारियां पैदा करने वाले कीटाणुओं की भरमार होती है। पर इसमें दोष अकेले इन सरकारी व्यवस्थाओं का नहीं है। आम जनता भी इसके लिए जिम्मेदार है। पीने के पानी की बोतलें खरीदने वाले लोग यदि नगरपालिकाओं और जल बोर्डों को साफ पानी के लिए थोड़ी ऊंची कीमत दे देंए तो शायद इससे उनका काम आसान हो जाए और सच में शुद्ध पेयजल दिलाने के लिए ये संस्थाएं कटिबद्ध हो जाएं।
आम लोगों को यह बात भी समझने की जरूरत है कि जिस बोतलबंद पानी को वे सुरक्षित मानते हैंए वह भी स्वास्थ्य के मानकों पर खरा नहीं उतरता। अमेरिका में फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन खाने.पीने की हर चीज की गुणवत्ता को कड़ाई से परखता हैए वहां पाया गया कि करीब 40 फीसदी बोतलबंद पानी पीने के योग्य नहीं होता। ऐसे में भारत मेंए जहां बोतलबंद पानी की जांच का कोई इंतजाम नहीं हैए लोग भारी पैसा खर्च करके भी कैसा पानी पा रहे होंगे. इसकी कल्पना की जा सकती है।
इस बारे में एक वैश्विक आंकड़ा यह है कि 2004 में 154 अरब लीटर बोतलबंद पानी के लिए 770 अरब लीटर पानी का इस्तेमाल हुआ था। यह निश्चय ही पानी की बर्बादी का मामला है जिसकी वजह से देश भर में भूमिगत जलस्तर काफी नीचे चले जाने की शिकायतें मिलती रहती हैं। पिछले 10.11 वर्षों में पानी की बर्बादी की यह मात्रा कई गुना बढ़ चुकी है। दुनिया जिस पानी को लेकर अगले विश्वयुद्ध की चेतावनी देती रही हैए अच्छा होगा कि उसके सजग.सतर्क इस्तेमाल की नीतियों पर अमल शुरू कर दे. इसी में सभी की बेहतरी है।
SOURCE : DAINIK TRIBUNE

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