Monday, 4 May 2015

मंत्री बनाम एनजीटी

मंत्री बनाम एनजीटी

नैशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ;एनजीटीद्ध की कार्यवाही को लेकर जिस तरह की उदासीनता केंद्र और यूपी.हरियाणा की सरकारें दिखा रही हैंए वह चकित करने वाली है। दो हफ्ते से ऊपर हो गए जब एनजीटी ने 10 साल से ज्यादा पुरानी डीजल गाड़ियों को बैन करने के सवाल पर इनकी राय मांगी थी। सभी संबद्ध मंत्रालयों से उम्मीद की जाती थी कि वे गंभीरता से इस सवाल पर अपना.अपना पक्ष रखेंगे।

अगर उन्हें बैन लगाना उचित और व्यवहारिक नहीं लगता तो इसकी वजह बताएंगे। इस फैसले को अमल में लाने के दौरान आने वाली दिक्कतों की चर्चा करेंगे और अगर उनके पास कोई बेहतर उपाय इस समस्या को सुलझाने का है तो वह भी बताएंगे। मगरए इसके बदले इन सबने चुप मार कर बैठ जाने की राह चुनी। भूतल परिवहन मंत्रालय ने 27 अप्रैल को एनजीटी के सामने यह अर्जी जरूर दी कि वाहनों पर उम्र आधारित बैन न लगाया जाए। लेकिन तकनीकी आधार पर उसकी यह अर्जी भी विचार के लायक नहीं पाई गई।

हालांकिए इस दलील को सरसरी तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वाहनों को बैन करने या न करने का फैसला उनकी उम्र के बजाय उनसे होने वाले प्रदूषण के आधार पर होना चाहिए। वाहनों का प्रदूषण स्तर जांचने की व्यवस्था कारगर है या नहींए और अगर नहीं है तो इसे कारगर बनाने में क्या बाधाएं हैंए इस पर भी विचार होना चाहिए। लेकिनए यह तभी हो सकता है जब सरकारें गंभीरता से इस बारे में अपना पक्ष रखेंगी।

अजीब बात है कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर एनजीटी के सामने अपना पक्ष रखने में नाकामी पर सफाई देने के बदले लॉबीइंग का आरोप उछालते हुए यह पूछ बैठते हैं कि हवा में प्रदूषण के मसले पर शोर मचा रहे लोग दस साल से कहां थे। उनका आरोप है कि एक खास एंबेसी के दिए दस्तावेजों के सहारे कुछ निहित स्वार्थी तत्व इस मुद्दे को तूल दे रहे हैं।

एक केंद्रीय मंत्री से इतने गैरजिम्मेदार रवैये की अपेक्षा नहीं की जा सकती। मंत्री महोदय को वायु प्रदूषण के आंकड़े गलत लगते हैं तो अपनी तरफ से सही आंकड़े पेश करके वे उन्हें खारिज कर सकते हैं। लेकिन इसके बजाय अगर वे पर्यावरण के मामले में देश के सर्वोच्च निकाय को खलनायक की तरह पेश करने का रास्ता अपनाते हैंए तो इस काम के लिए क्या कोई अलग सरकार बनानी पड़ेगी?
SOURCE : navbharattimes.com

No comments:

Post a Comment