Saturday, 2 May 2015

न्यायिक नियुक्तियों में संतुलन की राह

न्यायिक नियुक्तियों में संतुलन की राह


मुख्य न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री को यह लिखकर कि संविधान पीठ का फैसला आने तक वे ष्राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोगष् की बैठकों में शामिल नहीं हो सकेंगेए एक बार फिर सुप्रीमकोर्ट और केंद्र सरकार के सनातन विवाद को सतह पर ला दिया है। अभी पिछले सप्ताह ही संविधान पीठ ने तय किया था कि उसका अंतिम निर्णय आने तक आयोग न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं करेगाए किन्तु अपने बाकी कार्य कर सकेगा। उसी आधार पर आयोग की सदस्यता के लिये दो विख्यात व्यक्तियों के चयन हेतु प्रधानमंत्री ने बैठक रखी थी जिसमें जाने से मुख्य न्यायमूर्ति ने मना कर दिया है। अब महान्यायवादी संविधान पीठ से निवेदन कर रहे हैं कि वह मुख्य न्यायमूर्ति को इस बैठक में शामिल होने का निर्देश दे। कुल मिलाकरए पहले से ही उलझा हुआ यह प्रसंग और ज्यादा पेचीदा हो गया है।
याद रहे कि असली झगड़ा न्यायाधीशों की नियुक्तियों का है। एक तरफ़ 13 अप्रैल को केंद्र सरकार ने तत्काल प्रभाव से ष्राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोगष् के गठन की अधिसूचना जारी करके दशकों से चली आ रही न्यायाधीशों के वर्चस्व वाली कोलेजियम व्यवस्था का अंत कर दिया था तो दूसरी ओर सुप्रीमकोर्ट ने इस आयोग का प्रावधान करने वाले 99वें संविधान संशोधन तथा संबंधित अधिनियम की संवैधानिकता पर विचार करने के लिये संविधान पीठ बैठा दी है। ऐसे में सवाल यह है कि दोनों में से किसका पक्ष सही हैघ्
पहले इस मुद्दे का थोड़ा.सा इतिहास जान लेना ठीक होगा। हमारे संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 बताते हैं कि क्रमशः सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियां कैसे की जाएंगी। अनुच्छेद 124 कहता है कि राष्ट्रपति सुप्रीमकोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टों के जिन न्यायाधीशों से ष्परामर्शष् करना ठीक समझेंए उनसे परामर्श करने के बाद सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीशों को नियुक्त करेंगे। इसी प्रकारए अनुच्छेद 217 में राष्ट्रपति को यही अधिकार हाईकोर्टों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में दिया गया हैए शर्त बस यह है कि इस विषय में उसे भारत के मुख्य न्यायाधीशए संबंधित राज्य के राज्यपाल और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से ष्परामर्शष् करना होता है।
इस अनुच्छेद के जिस शब्द पर शुरू से ही विवाद रहा हैए वह है ष्परामर्शष्। विवाद का बिंदु यह था कि राष्ट्रपति परामर्श मानने को बाध्य हैं या नहींघ् संविधान लागू होने के बाद लंबे समय तक माना गया कि राष्ट्रपति के पास न्यायाधीशों के परामर्श को मानने या न मानने का विवेकाधिकार है। 1982 में एसण्पीण् गुप्ता के प्रसिद्ध मामले में सुप्रीमकोर्ट ने भी यही तय किया था कि परामर्श मानना सरकार के लिये बाध्यकारी नहीं है। परए 1993 और 1998 के दो मामलों में स्थिति बदल गई। दोनों मामलों में सुप्रीमकोर्ट ने तय किया कि अनुच्छेद 124 और 217 के तहत न्यायपालिका द्वारा दिया जाने वाला परामर्श मानना राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी है। यह परामर्श एक ष्कोलेजियमष् द्वारा दिया जाएगा जिसमें सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायमूर्ति के अलावा चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होंगे। तब से अभी तक यही व्यवस्था चल रही है।
प्रश्न है कि क्या कोलेजियम की इस व्यवस्था में कोई समस्या थी या सरकार सिर्फ अपनी ताकत बढ़ाने के लिये इसे बदलना चाहती हैघ् वस्तुतः कुछ तर्क इस व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। पहलाए यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से ही गलत है कि खुद न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करें। दूसरा तर्क है कि हम इंग्लैंडए अमेरिका या किसी भी विकसित देश को देख लेंय हर जगह न्यायिक नियुक्तियों में सरकार या संसद की प्रभावी भूमिका होती है। तो भारत की न्यायपालिका को विशेषाधिकार क्यों मिलना चाहियेघ्
अधिकांश राजनीतिक दलों में सहमति रही है कि न्यायिक नियुक्तियों में सरकार की पर्याप्त भूमिका होनी चाहिये। इसी सहमति की मदद से वर्तमान सरकार ने अपने कार्यकाल की शुरुआत में ही 121वां संविधान संशोधन विधेयक पारित करा लिया जो अब 99वें संविधान संशोधन के नाम से जाना जाता है। इसके तहत अनुच्छेद 124 और 217 को बदलकर लिखा गया है कि राष्ट्रपति ष्राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोगष् की सिफारिशों के अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति व स्थानांतरण करेंगे। साथ हीए संसद ने ष्राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियमष् भी पारित किया जो इस आयोग के गठन आदि से जुड़े प्रावधानों के बारे में है।

यहां हमें इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिये कि क्या इस आयोग से जुड़े प्रावधान सचमुच न्यायपालिका की स्वतंत्रता के खिलाफ़ हैं या इस बात को अनावश्यक रूप से तूल दिया जा रहा हैघ् दरअसलए 99वें संशोधन के तहत प्रावधान किया गया है कि इस आयोग में कुल 6 सदस्य होंगे। भारत का मुख्य न्यायमूर्ति इसका अध्यक्ष होगा। उसके अलावा सुप्रीमकोर्ट के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश भी इसके सदस्य होंगे। चौथे सदस्य के रूप में भारत के क़ानून मंत्री शामिल होंगे। शेष दो सदस्यों के तौर पर दो प्रख्यात हस्तियों को मनोनीत किया जाएगा। इन दोनों का चयन करने के लिये एक तीन सदस्यीय समिति गठित की जाएगीए जिसमें प्रधानमंत्रीए मुख्य न्यायमूर्ति तथा लोकसभा के नेता विपक्ष शामिल होंगे। यह भी शर्त है कि इन दो प्रख्यात हस्तियों में से एक का चयन अनुसूचित जातियोंए अनुसूचित जनजातियोंए अन्य पिछड़े वर्गोंए अल्पसंख्यकों या महिलाओं में से किया जाएगा। एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह भी है कि अगर इन 6 सदस्यों में से कोई भी 2 सदस्य किसी व्यक्ति के नाम पर वीटो कर देंगे तो उसे न्यायाधीश नहीं बनाया जा सकेगा।
अगर आयोग में न्यायपालिका और सरकार की तुलनात्मक शक्ति पर विचार करें तो स्पष्ट है कि 6 में से 3 सदस्य न्यायपालिका से हैं जबकि सरकार का एक ही प्रतिनिधि सीधे तौर पर शामिल है। शेष 2 की नियुक्ति में सरकार से ज्यादा ताकत मुख्य न्यायमूर्ति और नेता विपक्ष के पास सम्मिलित रूप से रहने वाली है। अगर सरकार अपने समर्थकों को आयोग में शामिल करना चाहेगी तो निस्संदेह मुख्य न्यायमूर्ति और नेता विपक्ष उसे ऐसा नहीं करने देंगे।
यह भी तय है कि सरकार मनमाने तरीके से एक भी न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करा सकेगी क्योंकि आयोग में न्यायपालिका के 3 सदस्य हैं जबकि किसी नाम पर वीटो करने के लिये 2 सदस्य ही काफ़ी हैं। दूसरी ओरए न्यायाधीशों द्वारा सुझाए गए नाम पर वीटो तभी हो सकेगा जब सरकार के पास अपने क़ानून मंत्री के अलावा कम से कम एक सदस्य और हो। अगर दो प्रख्यात हस्तियों का चयन मुख्य न्यायमूर्ति और नेता विपक्ष के समर्थन से हुआ है और वे भी न्यायाधीशों की राय से असहमत हैं तो इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विरुद्ध क्यों माना जाना चाहियेघ्
बहरहालए बेहतर तो यही होगा कि  जिस तरह दुनिया के हर देश में न्यायिक नियुक्तियों में सरकार या संसद की भूमिका होती हैए उसी तरह भारत में भी वह भूमिका स्वीकार की जाए। हांए अगर सरकार इस व्यवस्था का दुरुपयोग करेगी तो सुप्रीमकोर्ट के पास न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति तो है ही।
SOURCE:DAINIK TRIBUNE

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