सरकारी विज्ञापनों का दायरा
सरकारी विज्ञापनों के सहारे सत्तारूढ़ दल एवं गठबंधन और नेताओं की राजनीति चमकाने की कवायद पर उच्चतम न्यायालय द्वारा अंकुश लगाये जाने से राजनीतिक दलों और उनके नेताओं में जबरदस्त आक्रोश और बेचैनी व्याप्त है। न्यायालय के इस निर्णय से विज्ञापनों पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपए के राजस्व की बचत होगी।
सरकारी उपलब्धियों के प्रचार के विज्ञापनों में सिर्फ राष्ट्रपतिए प्रधानमंत्री और आवश्यकता पड़ने पर देश के प्रधान न्यायाधीशों की ही तस्वीरों के इस्तेमाल की छूट है। न्यायिक व्यवस्था में केन्द्र सरकार के मंत्रियों और नेताओं के साथ ही राज्यों के मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ दलों के नेता सकते में हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय के इन निर्देशों से उत्पन्न स्थिति से कैसे निबटा जाये। कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करने की बात कर रहे हैं तो कुछ का मानना है कि केन्द्र सरकार को ही सरकारी विज्ञापनों के बारे में कोई नीति या कानून बनाकर संरक्षण प्रदान करने की पहल करनी चाहिए।अकसर चुनावों से ठीक पहले सत्तारूढ़ दल और गठबंधन के नेताओं की तस्वीरों के साथ बड़े.बड़े विज्ञापनों पर हो रहे खर्च पर अंकुश लगाने के लिये उच्चतम न्यायालय में 12 साल पहले गैर सरकारी संगठन ष्कामन काजष् ने एक जनहित याचिका दायर की थी। इस संगठन का तर्क था कि राजनीतिक हित साधने के लिये जनता के धन का दुरुपयोग किया जा रहा है जिनसे संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के प्रावधानों का हनन होता है। इस संगठन का यह भी कहना था कि सरकार विशेष को प्रोजेक्ट करने में जनता के धन का दुरुपयोग करने पर केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों पर अंकुश लगाया जाये। साथ ही जनकल्याण वाले विज्ञापनों के लिये एक दिशा.निर्देश प्रतिपादित किये जायें।
यह याचिका दायर करने की मुख्य वजह 2003 और 2004 में केन्द्र सरकारए राज्य सरकारों और उसके प्रतिष्ठानों तथा सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा समाचार पत्रों में पूरे पन्ने के विज्ञापनों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के विज्ञापनों में सत्तारूढ़ दल के नेताओं का महिमामंडन किया जाना था।
इस संगठन का यह भी तर्क था कि आम चुनाव से ठीक पहले इस तरह के विज्ञापनों की भरमार हो जाती है और इसमें जनता के धन का इस्तेमाल किया जाता हैए जिसका लाभ सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं तथा उनसे नजदीकी रखने वाले मीडिया घरानों को मिलता है जबकि उनसे इतर विचारधारा रखने वाले राजनीतिक दल और मीडिया घरानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है।
विषय के महत्व को देखते हुए न्यायालय ने पिछले साल 23 अप्रैल को भोपाल स्थित राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के पूर्व निदेशक एन आर माधव मेननए लोकसभा के पूर्व महासचिव टी के विश्वनाथन और वरिष्ठ अधिवक्ता ;अब सालिसीटर जनरलद्ध रंजीत कुमार की तीन सदस्यीय समिति गठित की जिसे तीन महीने के भीतर सरकारी विज्ञापनों के बारे में दिशा.निर्देश बनाने थे।
हालांकि समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राष्ट्रीय स्तर के विज्ञापनों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तथा राज्य स्तर के विज्ञापनों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री की तस्वीर प्रकाशित की जा सकती है लेकिन न्यायालय ने इस सिफारिश को जस का तस स्वीकार नहीं किया।
न्यायालय ने कहा कि जनकल्याण के विज्ञापनों में अपवाद स्वरूप सिर्फ राष्ट्रपतिए प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश की तस्वीरों का इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन जहां तक राष्ट्रपिता सरीखी हस्तियों की वर्षगांठ के अवसर पर विज्ञापनों का संबंध है तो इनमें निश्चित ही इन नेताओं की तस्वीरें भी प्रकाशित की जायेंगी। न्यायालय ने सरकारी विज्ञापनों के मामले में समाचार पत्रों के साथ होने वाले पक्षपात पर भी गौर किया और सरकार को निर्देश दिये कि ऐसे विज्ञापनों के मामलों में समाचार पत्रों की प्रसार संख्या के आधार पर ही उन्हें विज्ञापन दिये जाने चाहिए। सभी मीडिया घरानों के साथ समान व्यवहार करने और प्रसार संख्या के आधार पर उनके वर्गीकरण को ध्यान में रखते हुए उन्हें विज्ञापन देने पर न्यायालय ने जोर दिया है।
वैसे तो उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकार के साथ ही द्रमुक ने न्यायालय की इस व्यवस्था पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है। राजस्थान सरकार ने तो पुनर्विचार याचिका दायर करने की संभावना भी व्यक्त की है।
न्यायालय के इस निर्णय से उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार की एलईडी प्रचार की और बिहार मेंए जहां सितंबर.अक्तूबर में विधानसभा चुनाव की उम्मीद हैए नीतीश कुमार सरकार द्वारा अपनी उपलब्धियों का बखान करने की योजनाएं प्रभावित हो सकती हैंए इसलिये ये राजनीतिक दल इसमें बदलाव की संभावनाएं तलाश रहे हैं।
SOURCE : dainiktribuneonline.com
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