Sunday, 31 May 2015

अब परदे की यारी

अब परदे की यारी

भारत और चीन ने मिलकर फिल्में बनाने का फैसला किया है। फिलहाल तीन फिल्में बनाने की बात तय हुई हैए जिनमें एक सातवीं शताब्दी में भारत की यात्रा पर आए चीनी यात्री ह्वेनसांग के जीवन पर केंद्रित होगी तो दूसरी योग पर। तीसरी फिल्म चीन की सुपर.डुपर हिट श्लॉस्ट इन थॉइलैंडश् की तर्ज पर श्लॉस्ट इन इंडियाश् होगी। कहा जाता है कि लो बजट फिल्म श्लॉस्ट इन थाईलैंडश् ने चीनियों में थाइलैंड टूर पर जाने का जुनून पैदा कर दिया था।

भारत.चीन रिश्ते सुधारने का जो सिलसिला मोदी सरकार की पहल पर शुरू हुआ हैए उसमें सामाजिक.सांस्कृतिक पहलू पर खासा जोर है। दोनों मुल्कों के बीच यह समझदारी विकसित हुई है कि राजनीतिक.कूटनीतिक विवाद रातोंरात नहीं सुलझने वालेए लिहाजा ज्यादा ध्यान आपसी कारोबार बढ़ाने पर दिया जाना चाहिए। बॉलिवुड के लिए चीन में काफी संभावनाएं हैं क्योंकि अमेरिका के बाद दुनिया का सबसे बड़ा फिल्म मार्केट चीन ही है।

जल्द ही यह नंबर वन बन सकता है क्योंकि चीनी फिल्म बाजार प्रतिवर्ष औसतन 25 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रहा है जबकि अमेरिकी फिल्म बाजार में सिर्फ एक फीसदी की सालाना बढ़त देखी जा रही है। अगर यह प्रवृत्ति बनी रही तो चीन 2017 में ही बॉक्स ऑफिस पर कमाई की दृष्टि से दुनिया का अग्रणी राष्ट्र बन जाएगा। मुश्किल सिर्फ एक है कि चीन में विदेशी फिल्मों को लेकर कुछ बंदिशें हैं। वहां साल में ज्यादा से ज्यादा 36 विदेशी फिल्में दिखाई जा सकती हैंए जिनमें ज्यादातर हॉलिवुड की ही होती हैं।

चीनी प्रेजिडेंट शी चिनफिंग जब सितंबरए 2014 में भारत आए थेए तब यह मुद्दा उठा था। उसी समय मांग रखी गई कि ज्यादा भारतीय फिल्मों के रिलीज की अनुमति दी जाए। उन्होंने इस पर रजामंदी दे दी थी। चीन इस बात के लिए भी तैयार हो गया कि आपसी सहयोग से फिल्में बनाई जाएं ताकि दोनों देशों की जनता एक.दूसरे की संस्कृति से परिचित हो सके।

मोदी के चीन पहुंचने पर यह बात और आगे बढ़ी और अब तीन फिल्मों पर निर्णय हो गया है। धंधे का दूसरा पहलू यह है कि चीन में भारतीय फिल्मों की मांग बढ़ रही है। इस साल पहली बार चीन ने चार भारतीय फिल्में खरीदीं. थ्री इडियट्सए धूम.3ए पीके और हैपी न्यू ईयर। फिलहाल पीके वहां 4ए600 स्क्रीनों पर छाई हुई हैए जबकि थ्री इडियट्स का ज्यादा जलवा डीवीडी पर देखने को मिला।

निश्चय ही बॉलिवुड के लिए यह एक शानदार मौका है। चीनी जुबान में डब की गई फिल्में ताइवान और सिंगापुर में भी अच्छा बिजनेस कर सकती हैं। बॉलिवुड अगर चीनियों का दिल जीत सका तो एक विशाल फिल्म बाजार में उसकी जगह पक्की हो जाएगी। भारत और चीन के मिलकर काम करने से एक नया माहौल भी बनेगाए जिससे रुपहले पर्दे पर हॉलिवुड का दबदबा थोड़ा कम होगा।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/opinion/editorial/indo-sino-friendship-on-film-screen/articleshow/47472355.cms

बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ाते हैं ग्रीष्मकालीन शिविर

बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ाते हैं ग्रीष्मकालीन शिविर

गर्मी की छुट्टियां शुरू हो चुकी हैं। ऐसे में तापमान के साथ माता.पिता की चिंता भी बढ़ने लगती है कि आखिर महीने भर की छुट्टियों में बच्चे करेंगे क्याघ् लेकिन इस बात का जवाब है बच्चों के लिए इन दिनों लगने वाले ग्रीष्मकालीन शिविर यानी श्समर कैंपश्। ये कैम्प न सिर्फ बच्चों को व्यस्त रखते हैं बल्कि इन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से एक्टिव भी रखते हैं। कैम्प में बच्चों के बीच मस्ती के साथ.साथ बहुत कुछ सीखने की मिलता है। दिन भर मोबाइलए टीवी और कम्प्यूटर के बीच रहने वाले बच्चे इन समर कैम्प की वजह से घर से बाहर निकलते हैं।

ज्यादातर बच्चे आजकल अपना समय फेसबुकए वाट्सऐप के साथ गुजारते हैं। ऐसे में उनका शरीर फिट नहीं रहता। रही.सही कसर टेलीविजन पूरी कर देता है। इसलिए ये कैम्प इन गर्मियों में ऐसी चीजों में बच्चों को व्यस्त करते हैं जिसमें इन्हें शरीर से भी फिट रखा जाए और उन्हें मजा भी आए। जैसे दौड़ लगानाए तैराकीए जपिंगए हाइकिंग और क्लाइंबिंग वगैरह।

समर कैंप बच्चों में आत्मविश्वास और स्वाभिमान भी बढ़ाते हैं। स्कूल के पढ़ाने के तरीके से हटकर होते हैं ग्रीष्म.कालीन शिविर। प्रतियोगिता की दौड़ से दूर और सफलता पाने की रेस से हटकर ये कैम्प बच्चों की जिंदगी में कुछ करने का प्रोत्साहन देते हैं। कैम्प में हर दिन बच्चों को कुछ नया करने का मौका मिलता है। यहां न सिर्फ बच्चों का उत्साह बढ़ाया जाता हैं बल्कि उन्हें जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। बच्चे जब अपने गैजेट की दुनिया से बाहर निकलते हैं तो उनकी रचनात्मक क्षमता विकसित होती है और वे वास्तविक
दुनियाए वास्तविक लोगए वास्तविक कार्यों में शामिल होते हैं। उन्हें पता चलता हैं कि जीवन में गैजेट के अलावा करने के लिए बहुत कुछ है।

ये ग्रीष्मकालीन शिविर खेल.कूद में रूचि रखने वाले बच्चों के लिए सुविधा के साथ सही सुझाव देते हैं। ये शिविर बच्चों की रूचि को ध्यान में रखते हुए उनके लिए फैसले लेते हैं। यहां बच्चों को सृजनशील बनाया जाता है। सृजनात्मक निर्माण करने की शक्ति जगाई जाती हैं। बिना अभिभावक और शिक्षक के इनमें सही फैसले लेने की हिम्मत जगाई जाती है। यहां स्कूल और घर की दिनचर्या से हटकर बच्चे आजादी का अनुभव करते हैं।

मिलजुल कर रहनाए मिल.बांट कर खानाए हर जगह समझौता करनाए बातचीत का सलीका हर गुण उनमें विकसित होता है। घर की चारदीवारी से निकल कर बच्चे नए दोस्त बनाते हैं। नई चीजें सीखते हैं और अलग नजरिए से दुनिया देखने का उन्हें मौका मिलता हैं। यहां बच्चे प्रकृति के करीब आते हैं और उन्हें इसकी महत्ता का पता चलता है। बच्चों के साथ वे नाचनाए गानाए बातें करनाए खेलना ज्यादातर चीजें साथ में करते हैं। समर कैम्प बच्चों को रचनात्मक क्षमता तो देते ही हैंए साथ ही उन्हें सामाजिक भी बनाते हैं।
SOURCE :http://www.prabhasakshi.com/

Saturday, 30 May 2015

पुराने वैभव की तलाश में तुर्की

पुराने वैभव की तलाश में तुर्की

तुर्की में आगामी 7 जून को होने वाले संसदीय चुनावों की तैयारियां मुकम्मल होने को हैं। ऐसे में मौजूदा राष्ट्रपति रेसेप तयैैप एर्डोगन की निजी महत्वाकांक्षा और देश में भारी संख्या में रह रहे कुर्दों से उनके भावी संबंध इनके नतीजों पर बहुत कुछ निर्भर करते हैं। उल्लेखनीय है कि इससे पहले एर्डोगन तीन बार प्रधानमंत्री निर्वाचित हो चुके हैं।
जब से तुर्की के संस्थापक कमाल अतातुर्क ने ओट्टोमन साम्राज्य के खंडहरों पर इस आधुनिक देश का निर्माण किया थाए तब से इस राष्ट्र के परिदृश्य पर किसी अन्य नेता का इतना दबदबा नहीं रहा जितना कि एर्डोगन का है। उनकी दो बड़ी दक्षताओं में से एक है फौज को अपनी जगह रखनाए जो दरअसल अपनी धर्मनिरपेक्षता की वजह से एक अलग जमात बन चुकी है। एर्डोगन की दूसरा कौशल यह है कि वे अपने समर्थकों का सबसे बढ़ा गढ़ माने जाने वाले ऐनातोलिया के लोगों के धार्मिक रुझान के मुताबिक देश को रूढि़वादिता की ओर धकेलना चाहते हैं।

एसण् निहाल सिंह
इन उपलब्धियों के अलावा एर्डोगन ने अपने अधिनायकवादी रवैये और विरोधियों के प्रति अपने अधीर प्रतिक्रम का प्रदर्शन घोषित रूप से किया है। उदाहरण के लिए इस्ताम्बुल के गेजी पार्क में हुए भारी प्रदर्शन को आनन.फानन में कुचलने वाला प्रकरण तो यही दर्शाता है। उनका प्रयास यह भी है कि भले ही ओट्टोमन साम्राज्य की भव्यता को हू.ब.हू फिर से नहीं भी बनाया जा सकताए तब भी उस काल की भावना को पुनर्जीवित तो किया ही जा सकता है। सच तो यह है कि दंगों का कारण भी यही था कि एर्डोगन इस हक में थे कि गेजी पार्क को हटाकर वहां पर ओट्टोमन.स्टाइल की बैरकें बना दी जाएं। अब उनका नया राष्ट्रपति निवास शानो.शौकत में ओट्टोमन काल जैसा ही भव्य है।
तुर्की को विश्व शक्तियों की पहली कतार में खड़ा करने की एर्डोगन की ख्वाहिश कभी उनके नीचे काम करने वाले प्रधानमंत्री अहमत देवूतोग्लू जैसी ही है। अहमत को सत्तारूढ़ न्याय और विकास पार्टी ;एकेपीद्ध का अध्यक्ष इसलिए भी बनाया गया था क्योंकि राष्ट्रपति रहते हुए स्वयं एर्डोगन किसी राजनीतिक दल में कोई पद या स्थान ग्रहण नहीं कर सकते थे। वैसे भी पार्टी के संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति रहते हुए वे प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी पर फिर से दावा प्रस्तुत नहीं कर सकते।
एर्डोगन लोकतांत्रिक प्रणाली से मिलती.जुलती व्यवस्था की जगह राष्ट्रपति शासन जैसी व्यवस्था लागू करना चाहते हैं। आगामी चुनावों के नतीजे इसलिए भी विशेष हैं कि देश के कानून में बदलाव लाने की खातिर एकेपी पार्टी को 550 सदस्यों वाली संसद में कम.से.कम 330 सीटें जीतनी होंगी। निवर्तमान संसद में एकेपी के 312 सांसद थे।
एर्डोगन की हसरतों का एक और ढका पहलू भी है। उन्होंने अपनी सफलता मौलाना फैतुल्लाह गुलेन के साथ मिलकर पाई थीए फिलहाल गुलेन इन दिनों अमेरिका में स्व.निर्वासित जीवन जी रहे हैंए फिर भी तुर्की में उनके उत्साही समर्थकों का एक बड़ा नेटवर्क आज भी मौजूद है। तथ्य तो यह है कि 2013 में इन दोनों नेताओं की दोस्ती टूटने के बाद एर्डोगन के मंत्रिमंडल में शामिल कई बड़े मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और जिन्हें बाद में इस्तीफा देना पड़ा था। अंदरखाते यह बात सबको मालूम थी कि यह काम पुलिस और न्याय विभाग में मौजूद मौलाना गुलेन के समर्थकों ने कर दिखाया है।
अपने आकारए जनसंख्या और भौगोलिक स्थिति की वजह से तुर्की इस सारे इलाके में अहम भूमिका रखता है। वह नाटो संगठन का भी सदस्य है। ये बात अलग है कि इसके कई निर्णयों से इस संघ के कई सदस्य अकसर हैरान होते हैं कि आखिर यह मुल्क है किसकी तरफघ् तुर्की ने लगभग 15 लाख सीरियाई शरणार्थियों को पनाह दे रखी हैए हालांकि वह अमेरिका को यह मनवाने में असफल रहा है कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर.अल.असद को अपदस्थ करने के लिए और भी कुछ किया जाना चाहिए। हाल ही तक सीरिया के गृह युद्ध में लड़ने के लिए जाने वाले जिहादियों का मुख्य आवागमन रास्ता तुर्की बना हुआ था।
वास्तव में तुर्की और खुद एर्डोगन की किस्मत विरोधाभासों से भरी है। कमाल अतातुर्क ने धार्मिक कट्टरवादियों और रूढि़वादी तत्वों के विरोध प्रदर्शनों की परवाह न करते हुए तुर्की को आधुनिक संसार का हिस्सा बना दिया था। उदाहरण के लिए महिलाओं को स्कार्फ से सिर ढांपने की रूढि़वादी परंपरा पर प्रतिबंध लगा दिया था और तुर्की भाषा को रोमन लिपि में लिखा जाने लगा था। लेकिन अब फिर स्कार्फ लौट आए हैं।
जल्द ही होने वाले संसदीय चुनाव के नतीजे बता देंगे कि एर्डोगन अपनी खुद की बहुमत वाली सरकार बनाने की हसरत को पूरा करने में कितना कामयाब रहे हैंए परंतु पूर्वानुमान बता रहे हैं कि वहां गठबंधन की सरकार बनेगी। एर्डोगन की निजी आकांक्षाएं और आने वाले समय की घटनाएं कुर्द समस्या के भाग्य का फैसला करने में अहम भूमिका अदा करेंगी।
एक तरह से यह दोनों समस्याएं आपस में जुड़ी हुई हैं क्योंकि एर्डोगन ने शांति प्रक्रिया को शुरू करने में साहस दिखाया है।
एर्डोगन द्वारा की गई घोषणाओं से अगर अनुमान लगाया जाए तो उनका सपना एक ऐसा देश बनाने का है जो पुराने ओट्टोमन वैभव और एक अति आधुनिक राष्ट्र का संगम हो और जो इस्लामिक सिद्धांतों से दिशा.निर्देश लेता हो।
हालांकि नाटो संगठन का सदस्य होने के नाते तुर्की पश्चिमी पाले में खड़ा पाया जाता है लेकिन दीगर नीतियों और मुद्दों पर अपनी स्वतंत्र सोच के चलते अमेरिका और अन्य सहयोगियों की इसकी ओर से चिंता बनी रहती है। अमेरिका द्वारा इराक में आक्रमण किए जाने के वक्त तुर्की ने अपने इलाके से होकर जाने वाले रास्तों का उपयोग करने की इजाजत अमेरिकी गठबंधन सेनाओं को नहीं दी थी। इसके अलावा तुर्की को यह भी मलाल है कि उसके देश में पनाह लिए लाखों सीरियाई शरणार्थियों को फिर से उनके मुल्क में बसाने की खातिर सीरियाई सीमा के अंदर उड़ान.निषिद्ध क्षेत्र बनाने की उसकी मांग को अमेरिका ने ठुकरा दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि यह सीरियाई शरणार्थी तुर्की समेत अन्य पड़ोसी मुल्कों में भी फैल गए हैं और अब खतरा यह हो चला है कि कहीं वे उन देशों के अंदर भूमि को हथिया कर अपने लिए एक नया राष्ट्र न बना लें।
अमेरिकी हथियारों और मदद के बलबूते तुर्की के पास एक सुदृढ़ और आधुनिक सेना है। एकेपी पार्टी के उद्भव ने तुर्की के राजनीतिक परिदृश्य को बदल कर रख दिया है और मध्यमार्गी इस्लामिक सोच की ओर इसका झुकाव एर्डोगन जैसे अधिनायकवादी राजनेता के नेतृत्व में देश को एक वैभवशाली स्थिति में लाना चाहता है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05

दायरों के बीच ऊंची हाेती दीवार

दायरों के बीच ऊंची हाेती दीवार

अगर आपको याद हो तो पिछले शिक्षक दिवस के मौके पर बड़े स्तर पर सरकारी तामझाम के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण देश के तमाम स्कूली बच्चों और उनके शिक्षकों को विशेष रूप से सुनाया गया था। भाषण में गायत्री मंत्रए सूर्य नमस्कारए पौराणिक शिक्षाए जन्मदिन मनाने की भारतीय परंपराए संस्कृत से संस्कृति का संबंधए विदेशी शिक्षा का बहिष्कारए अकबर महान तो महाराणा प्रताप क्यों नहींए ऐसी तमाम बातें वर्ष भर होती रहीं। पर कोई उनसे पूछे कि इन बातों पर अमल कितना हुआए तो शायद ही उनके पास कहने को कोई जवाब हो। देश में कुकुरमुत्तों की तरह फैले पब्लिक स्कूलों की शिक्षा में भारतीय परंपराए संस्कृत से संस्कृति का संबंध जैसी बातों की कोई जगह नहीं है। वह सिर्फ अंग्रेजी जानते हैं और इसी अंग्रेजियत को शिक्षा से जोड़कर देखते हैं।
सरकारी स्कूलों व उनमें पढ़ने वाले छात्रों को समाज लाचारी और हिकारत की नजर से देखता है। यही वजह है कि निजी स्कूलों पर हमेशा मेहरबान सरकार अपने ही स्कूलों की इतनी उपेक्षा कर चुकी है कि आज सरकारी स्कूल को हिकारत की नजर के साथ देखने की आदत पड़ गई है। किसका बच्चा किस स्कूल में पढ़ता हैए इस आधार पर उसकी समाज में हैसियत तय होती है। निजी स्कूलों में बाहरी तामझाम इतना अधिक कर दिया जाता है कि उसका मूल मकसद यानी शिक्षा कहीं कोने में छिपी रहती है। वहां के बच्चों के परीक्षा परिणाम अच्छे या बुरे कैसे भी रहेंए उनका भविष्य रोशन रहेए उन्हें अच्छे से अच्छे कालेज में दाखिला मिल जाएए इतनी पूर्व तैयारी अभिभावक करके रखते हैं।
पर सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चों के साथ ऐसा नहीं है। वे जर्जर इमारतों मेंए टूटी.फूटी कुर्सियों या टाट पट्टी पर बैठकर पढ़ते हैं। उनके शिक्षकों का व्यवहार भी अमूमन उनके साथ बहुत अच्छा नहीं रहता। क्योंकि उन्हें वेतन सरकार से मिलता हैए बच्चों के डोनेशन से नहीं। कम्प्यूटरए विज्ञान की प्रयोगशाला या इसी तरह की अन्य सुविधाएं उन्हें मुश्किल से हासिल होती हैं और बहुत से सरकारी स्कूलों में यह भी नहीं होता। इसके बाद जो सरकार आती हैए वह अपनी नीतियां थोपने के लिए इन सरकारी स्कूलों को जरिया बनाती है।
सीबीएसई के नतीजे विगत कुछ दिनों से सुर्खियों में बने हुए हैं। पहले 12वीं कक्षा के परिणाम घोषित हुए और फिर 10वीं के। 12वीं कक्षा के लिए वर्ष 2014 में 10 लाख 40 हजार 368 बच्चों ने परीक्षा दीए जो पिछले साल से 1ण्2 प्रतिशत अधिक थे। 10वीं कक्षा के लिए 13 लाख 73 हजार 853 बच्चों ने परीक्षा दीए जो पिछले साल से 3ण्37 प्रतिशत अधिक थे। नए सत्र के प्रारंभ होने पर सरकार की चिंता ड्राप आउट संख्या को कम करने की रहती है। इस लिहाज से यह देखना सुखद है कि 10वीं और 12वीं दोनों में परीक्षा देने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। इसका एक सामान्य अर्थ यह निकाला जा सकता है कि शिक्षा के प्रति जनसामान्य में जागरूकता बढ़ी है। जागरूक जनता से देश में शिक्षा का भविष्य उज्ज्वल होने की संभावना बढ़ती है। इसके बाद यह जिम्मेदारी सरकार की होती है कि वह शिक्षा के क्षेत्र में अपनी अधिकतम ऊर्जा व संसाधन लगाएए ताकि बच्चों की एक बड़ी आबादी इससे लाभान्वित हो। 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणामों को देखने से यह निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि विगत एक वर्ष में देश में शिक्षा का स्तर बढ़ा नहीं है।
भाजपा सरकार के एक साल का हासिल दर्शाने के लिए रिपोर्ट कार्ड भले शत.प्रतिशत दर्शाएं लेकिन अकेले शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो इसमें सरकार के प्रदर्शन का प्रतिशत गिरा है। इस साल 12वीं कक्षा में 82 प्रतिशत बच्चे उत्तीर्ण हुए हैंए जो पिछले साल के मुकाबले 0ण्66 प्रतिशत कम हैं। इसी तरह इस वर्ष 10वीं कक्षा में 97ण्32 प्रतिशत बच्चे उत्तीर्ण हुए हैंए जबकि विगत वर्ष यह प्रतिशत 98ण्87 प्रतिशत था। जवाहर नवोदय विद्यालय ने इस बार भी 10वीं व 12वीं के परिणामों में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया हैए हालांकि पिछले साल के मुकाबले यह थोड़ा कमजोर प्रदर्शन रहा। केन्द्रीय विद्यालयों में भी 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणाम पिछले साल के मुकाबले कमजोर रहे। यह बात किसी भी सरकार को समझाने की आवश्यकता नहीं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। इस वाक्य को महज एक जुमले की तरह इस्तेमाल न करके दूरदर्शिता के साथ उसे समझना चाहिए।
एचआरडी मिनिस्टर स्मृित ईरानी सरकारी स्कूलों की सुध भी ले लें। जो केन्द्रीय विद्यालयए नवोदय विद्यालय उच्चकोटि की शिक्षा के लिए देश में जाने जाते थेए वहां शिक्षा का स्तर क्यों और कैसे गिर गयाए क्यों सफल विद्यार्थियों के परिणामों में कमी आईए इसकी पड़ताल करवा लें तो नौनिहाल निहाल हो जाएं। आज के समय में भारतीय परंपराए संस्कृत से संस्कृति का संबंध जैसी शिक्षा के प्रसार की वकालत तो सभी करते हैंए पर अमल कोई नहीं करता।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/

Friday, 29 May 2015

समाज की भागीदारी से ही बचेगी गंगा

समाज की भागीदारी से ही बचेगी गंगा

मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही गंगा की अविरल और निर्मल धारा सुनिश्चित करने की जो कोशिशें कीए उनका असर दिखने में शायद अभी कुछ और वक्त लगे पर इधर उत्तराखंड के हरिद्वार में इस मामले में हुई एक बड़ी कार्रवाई ने कुछ उम्मीदें अवश्य जगा दी हैं। वहां एक पांच सितारा होटल को प्रशासन ने इस कारण बंद करवा दिया है कि वह बिना शोधन के गंदा पानी और कचरा नाले के जरिये गंगा में प्रवाहित कर रहा था।जल संसाधन और नदी विकास मंत्रालय के राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण से आरटीआई के माध्यम से मिली जानकारी में बताया गया था कि गंगा के किनारे कुल 764 उद्योग हैंए जिनमें 444 चमड़ा उद्योगए 27 रासायनिक उद्योगए 67 चीनी मिलेंए 33 शराब उद्योगए 22 खाद्य और डेयरीए 63 कपड़ा एवं रंगाई उद्योगए 67 कागज और पल्प उद्योग और 41 अन्य उद्योग हैं। ये फैक्टरियां ऐसी हैं जिनमें से कई गंगा के 112 करोड़ लीटर जल का इस्तेमाल भी करती हैं।समस्या नदियों के जल के अंधाधुंध इस्तेमाल की ही नहींए बल्कि उसमें भारी मात्रा में प्रदूषित कचरा छोड़ने की भी है। इस बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ;सीपीसीबीद्ध के आंकड़े कहते हैं कि नदियों में प्रदूषण फैलाने वाली फैक्टरियों की संख्या पूरे देश में 911 हैए हालांकि इनमें से 128 फैक्टरियां अब बंद हो चुकी हैं। सीपीसीबी के अनुसार इनमें सबसे ज्यादा 612 फैक्टरियां यूपी में हैंए जबकि हरियाणा में 109ए उत्तराखंड में 50ए पश्चिम बंगाल में 31ए बिहार में 22ए ओडिशा में 20ए आंध्रप्रदेश में 16ए कर्नाटक में 10ए झारखंड में 5 और पंजाब में 7 हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों का मत है कि प्रदूषण फैलाने वाली फैक्टरियां और गंगा जल के अंधाधुंध दोहन से इस पतित पावनी नदी के अस्तित्व का ही खतरा पैदा हो गया है।गंगा को जीवन देना आसान काम नहीं है। पिछली यूपीए सरकार तो 10 साल के अरसे में इस संबंध में सिर्फ योजनाएं बना कर रह गई। गंगा एक्शन प्लान के नाम पर जो योजनाएं बनींए वे दिखावा ही साबित हुईं। जो थोड़े.बहुत काम हुए भीए वे राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते बीच में ही दम तोड़ गए। गंगोत्री से निकलकर ऋषिकेश.हरिद्वार होते हुए बंगाल की खाड़ी में समाने से पहले 2525 किलोमीटर का सफर तय करने वाली गंगा का जो हाल बीते कुछ दशकों में हुआ हैए उसका नतीजा यह है कि हरिद्वार के आगे इसका जल आचमन लायक नहीं समझा जाता।वैज्ञानिक आधारों पर बात करें तो गंगा जैसी पवित्र नदी के प्रति सौ मिलीलीटर जल में कोलीफार्म बैक्टीरिया की तादाद 5000 से नीचे होनी चाहिएए पर जिस बनारस से निर्वाचित होकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे हैंए उस बनारस में गंगा के सौ मिलीलीटर जल में 58000 कोलीफार्म बैक्टीरिया पाए हैं। सीपीसीबी के मुताबिक वहां हानिकारक बैक्टीरिया सुरक्षित मात्रा से 11ण्6 गुना ज्यादा हैं। ये हालात गंगा में मिलने वाले बिना उपचारित किए गए सीवेज के कारण पैदा हुए हैंए जो इसके तट पर मौजूद शहरों से निकलता है।पिछले साल फरवरी में स्मृति ईरानी द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री वीरप्पा मोइली ने राज्यसभा में बताया था कि गंगा के किनारे मौजूद शहरों से रोजाना 2ण्7 अरब लीटर सीवेज का गंदा और विषैला पानी निकलता है। इन शहरों में मौजूद ट्रीटमेंट प्लांट इसमें से सिर्फ 1ण्2 अरब लीटर यानी 55 फीसदी सीवेज की सफाई कर पाते हैं। यानी शेष 45 प्रतिशत सीवेज गंगा में यूं ही मिलने दिया जाता है।गंगा की तरह देश की दूसरी नदियों का हाल इस तथ्य से बयां हो जाता है कि हमारे शहरों.कस्बों से रोजाना 38ण्2 अरब लीटर सीवेज का गंदा पानी निकलता हैए जिसमें से केवल 31 प्रतिशत यानी 11ण्8 अरब लीटर सीवेज के ट्रीटमेंट की व्यवस्था देश में है। वैसे तो बहती हुई नदियों में छोटे.मोटे प्रदूषण को खुद ही निपटाने की व्यवस्था होती है। ऐसी ज्यादातर नदियां ऑर्गेनिक प्रदूषण समाप्त करने की क्षमता रखती हैं। पर बात असल में दूसरे किस्म के प्रदूषणों की है। देश में गंगा व अन्य नदियों को तीन तरह के प्रदूषणों का सामना करना पड़ रहा है। पहला तो शहरों.कस्बों से नालों के रूप में मिलने वाला सीवेज ही है। दूसरा प्रदूषण औद्योगिक अवशेष और खतरनाक रसायनों का है। तीसरेए खाद और कीटनाशकों के वे अवशेष हैं जो खेतों की सिंचाई के पानी से रिस कर नदी में मिल जाते हैं।हरिद्वार तक आते.आते उत्तरांचल की 12 नगरपालिकाओं के तहत 89 सीवेज नाले गंगा में मिल जाते हैं। हरिद्वार में तीन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैंए जो पूरी ताकत से काम करने के बावजूद सीवेज का सारा पानी साफ नहीं कर पाते हैं। इसके बाद गंगा किनारे पड़ने वाला बड़ा शहर कानपुर है जहां बेशुमार औद्योगिक कचरा इसमें प्रवाहित किया जाता है। पर्यावरण विशेषज्ञों और विश्व बैंक की एक टीम ने कानपुर में पैदा होने वाले प्रदूषण से गंगा को बचाने का एकमात्र उपाय यह पाया है कि यहां के सारे नालों को गंगा से दूर ले जाया जाए। साथ हीए कानपुर के जाजमऊ क्षेत्र की सभी 450 चमड़ा शोधन इकाइयों को कहीं और स्थानांतरित कर दिया जाए।इसी तरह इलाहाबाद में आधा दर्जन बड़े नालों का पानी सीधे गंगा में गिरता है। बनारस में भी जो सीवेज रोजाना पैदा होता हैए उसमें से एक तिहाई से ज्यादा गंगा में बिना ट्रीटमेंट के मिल रहा है। इस शहर के 33 नालों का गंदा पानी गंगा में न मिलेए इसे रोकने का कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है। मोदी सरकार ने गंगा को साफ करने की ठानी है। लेकिन यहां कुछ चीजों को और ध्यान में रखना होगा। जैसे यह कि गंगा गुजरात की साबरमती की तरह छोटी नदी नहीं है। साबरमती की कुल लंबाई 370 किलोमीटर हैए इसलिए मोदी के लिए उसकी साफ.सफाई आसान रही। लेकिन 2525 किलोमीटर लंबी गंगा विभिन्न प्रांतों में बहते हुए लाखों के रोजी.रोजगार का इंतजाम भी करती है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05/

इनसानी नादानी से उपजी तपिश

इनसानी नादानी से उपजी तपिश

मौसम
देश के कई इलाकों में गर्मी और लू कहर बरपा रही है। सूरज की तपिश से लोग अपने घरों में बैठने को मजबूर हैं लेकिन घरों में भी राहत नहीं। लगातार हो रही बिजली कटौती ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। अनेक क्षेत्रों में अधिकतम तापमान के रिकार्ड टूट गये हैं। 45 डिग्री सेल्सियस और उससे अधिक तापमान के वे आंकड़े हैंए जो भीषण गर्मी में झुलस रहे मनुष्य पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं। ये साबित कर रहे हैं कि पिछले दशकों में इनसान ने अपनी प्रकृति से जिस तरह का खिलवाड़ किया हैए आज उसी का नतीजा भोगने की नौबत आ गयी है।
एक ओर तेजी से बढ़ते वाहनों व उद्योगों से निकलने वाली हानिकारक गैसें लगातार वायुमंडल को दूषित कर रही हैंए वहीं दूसरी ओर कम हरियाली व कंक्रीट के बढ़ते दायरे तापमान बढ़ाने में आग में घी जैसा काम कर रहे हैं। आमतौर पर ठंडे माने जाने वाले पहाड़ भी गर्म हो रहे हैं क्योंकि पहाडों पर अंधाधुंध वृक्ष कट रहे हैं जिससे हरियाली को बडा आघात पहुंचा है। पहाड़ी इलाके के बूढ़े.बुजुर्गों से बात करने पर मालूम चलता है कि आज से कुछ वर्षों पहले चारों तरफ हरियाली थी। थोड़ी भी गर्मी बढ़ती थी तो शाम तक बारिश हो जाती और फिर से मौसम सुहाना हो जाता था। परए अब ऐसा नहीं होता। पहाड़ी इलाकों में भी मैदानी इलाकों की तरह कड़ाके की गर्मी पड़ने लगी है। चिलचिलाती धूप ने सबको बेहाल कर दिया है।
अब कितनी भी गर्मी बढ़ेए बारिश नहीं होती। कंक्रीट क्षेत्र जरूरत से अधिक बढ़ने से वायुमंडलीय वातावरण को क्षति पहुंची है। यूं तो यह वैश्विक स्तर की समस्या है। तापमान वैश्विक स्तर पर बढ़ रहा है। नासा के अर्थ आब्जर्वेटरी के अनुसार पिछले पचास सालों के अंतराल में वैश्विक तापमान में औसतन 0ण्9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है लेकिन इसके लिए स्वयं इनसान ही जिम्मेदार है।
मनुष्य वातानुकूलित जीवनशैली के लिए तैयार है लेकिन उसकी प्रकृति को संवारने की मानसिकता नहीं है। अब पेड़.पौधेए फूल.पत्ती आदि उसके जीवन का हिस्सा नहीं हैं। वह किसी भी कीमत पर आरामदायक जीवनशैली चाहता हैए जिसकी कीमत प्रकृति को चुकानी पड़ती है। अनेक इलाकों में पीने का पानी नहीं है। अनेक क्षेत्रों में बिजली नहीं है। मगर जीने के लिए विकल्प भी तैयार हैं और जीवन की गाड़ी आगे बढ़ रही है। किंतु इस किस्म का प्रवाह स्वस्थ वातावरण को खोकर अप्राकृतिक रूप से उपलब्ध कराया जा रहा हैए जिसको लेकर कोई भी गंभीर नहीं है। यहां तक कि इस बार मानसून के आगमन में देरी होने के बावजूद चिंता का वातावरण दिखाई नहीं दे रहा है। पानीए बिजली जैसी समस्याओं के लिए लोग हंगामा कर रहे हैं लेकिन प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी समस्याओं को जड़ से समझने के लिए पर्यावरण को पहले समझना अधिक जरूरी है। उसके बाद लगातार प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ को रोकना जरूरी है। तभी गर्मी की चिंता और चर्चा का कोई अर्थ हो सकता है। वरना तेज विकास और बढ़ती आबादी के बीच समस्याओं का दोष किसी और को देने की बजाय स्वयं को देना होगा क्योंकि अब प्रकृति कमजोर ही नहींए बल्कि मजबूर भी हो चली है।
मौसम को इस तरह तबाह करने के पीछे सीधे तौर पर आम से लेकर खास लोग सभी ही जिम्मेदार हैं। बड़े लोगों के घर एसी समेत तमाम आधुनिक सुविधाओं से लैस हैंए मरन तो आम आदमी का है। गरीब आदमी को इस भीषण गर्मी में पीने के पानी तक के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। अब ले.देकर भीषण गर्मी से राहत दिलाने के लिए मानसून का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है।
यह सब जानते हैं कि बढ़ती गर्मी की वजह क्या हैए लेकिन उससे आंखें चुराई जाती हैं। मानव कितना भी तरक्की के दावे करेए लेकिन प्रकृति के आगे वह हमेशा बेबस रहा है। यही वजह है कि झुलसा देने वाली गर्मी से पार पाने की सभी कोशिशें नाकाम रही हैं। जब पारा 45 डिग्री सेल्सियस से लेकर 48 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है तो समझा जा सकता है कि गर्मी की प्रचंडता कितनी होगी। ऐसे विकट हालात हमें यह सोचने के लिए भी मजबूर करते हैं कि आखिर गर्मी की इस प्रचंडता की वजह क्या हैघ् हर विश्व पर्यावरण दिवस पर पर्यावरण को होने वाले नुकसान से मौसम में बदलाव होने की बातें की गईं। पर्यावरणविद‍् लगातार चेता रहे हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ बंद नहीं की गई तो दुनिया को और भी बुरे दिन देखने पड़ सकते हैं।
जंगलों का दोहन लगातार जारी है। हाईवे बनाने के लिए लाखों पेड़ काट डाले गएए लेकिन उनकी जगह सैकड़ों पेड़ भी नहीं लगाए गए। हाइवे से पेड़ काटने के बाद उन्हें लगाना सरकार की जिम्मेदारी हैए लेकिन वह कहीं से भी गंभीर नजर नहीं आती।
ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को देखते हुए दुनिया की सभी सरकारों को चेतने की जरूरत है। वह विकास लगातार जारी हैए जिसमें मानव जाति का विनाश छिपा है।
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Thursday, 28 May 2015

ज़िंदगी लीलता अंधविश्वास का अंधेरा

ज़िंदगी लीलता अंधविश्वास का अंधेरा

एक छोटी.सी हृदय विदारक खबर ने इतना ध्यान खींचा और परेशान किया कि मन लगातार खिन्न रहा। खबर तो कुछ ही पंक्तियों की थीए मगर उसके निहितार्थ बहुत बड़े थे। क्या सचमुच यह सदी का भारत है जहां हम मंगल पर बसने के सपने देख रहे हैं।
खबर कुछ इस तरह थी। मध्य प्रदेश के सतना के एक अनाथालय से वाराणसी के एक जोड़े ने एक बच्ची को गोद लिया मगर छह महीने बाद ही वे उस बच्ची को लौटाने आ गए। लौटाने का कारण बड़ा विचित्र बताया गया। कहा गया कि एक ज्योतिषी ने बच्ची की कुंडली देखकर कहा है कि न तो वह बच्ची खुद कभी सुखी रहेगीए न ही वे लोग जिन्होंने उसे गोद लिया है।
अनाथालय के अधिकारियों ने पति.पत्नी को बहुत समझाने की कोशिश की और कहा कि वे किसी ज्योतिषी के कहने भर से इस तरह बच्ची के भविष्य से खिलवाड़ न करें। मगर पति.पत्नी अपनी बात से टस से मस नहीं हुए और किसी भी तरह उसे अपने साथ ले जाने को राजी नहीं हुए। वे अदालत में भी अपनी बात पर अड़े रहे जहां उन्हें कानूनन बच्ची को लौटाना था।
जरा कल्पना कीजिए कि तीन साल की उस बच्ची पर क्या बीती होगीए उसने कैसा महसूस किया होगाए जिन्हें वह छह महीने से माता.पिता मानती आई थी। वे उसे इस तरह छोड़कर चले जाएंगेए उसे पता तक न होगा। कायदे से तो उस ज्योतिषी को सजा मिलनी चाहिए जिसने एक बच्ची के जीवन को बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कोई ज्योतिष में विश्वास करेए यह तो ठीक है लेकिन आंख मूंदकर ऐसी बातों पर विश्वास करने के बाद के किस्से अकसर अखबारों में छपते रहते हैं जहां किसी ज्योतिषीए तांत्रिकए पीरए फकीर के बहकाने पर लोग अपने बच्चोंए पत्नी या किसी का अपहरण करके बलि तक चढ़ा देते हैं या अपने धन और सम्पदा से हाथ धो बैठते हैं।
उस बेचारी बच्ची का तो दुर्भाग्य उसी दिन से शुरू हो गया था जब उसके ही घर वालों ने उसे सड़क या कूड़े के ढेर पर फेंक दियाए बिना इस बात की परवाह किए कि वहां फेंके जाने पर बच्ची का क्या होगा। जिन लोगों ने उसे बचाया होगाए वे भी नहीं जानते होंगे कि उस नन्ही.सी बच्ची को आगे कैसे दिन देखने पड़ेंगे।
हमारे यहां एक तरफ तो नवरात्रि के दिनों में छोटी.छोटी बच्चियों को ढूंढ़कर पूजनेए खिलाने और पांव धोने की होड़ लगी रहती है लेकिन इस नन्ही बच्ची में किसी को देवी दिखना तो दूरए उसके जिंदा रहने के अधिकार को भी एक निर्मम ज्योतिषी और उसकी सलाह मानकर बच्ची को वापस अनाथालय में छोड़कर आने वाले माता.पिता ने छीनने की कोशिश की।
क्या इस तरह का व्यवहार मानव अधिकारों और बालिका के अधिकारों की वकालत करने वालों को दिखाई नहीं देता। या सिर्फ उन्हें वे ही चीजें दिखती हैं जिसके राजनीतिक फायदे.नुकसान हो सकते हैं। कायदे से तो उन माता.पिता पर भारी जुर्माना किया जाना चाहिएए जिन्होंने एक बच्ची के साथ इतना बुरा व्यवहार किया।
हालीवुड की मशहूर अभिनेत्री एंजिलिना जौली और उनके पति ब्रेड पिट के छह बच्चे हैं। इनमें से तीन इनके अपने हैं और तीन को इन्होंने दुनिया के अलग.अलग हिस्सों से गोद लिया है। हाल ही में एंजिलिना जौली ने कहा था कि वह सीरिया के तनावग्रस्त इलाके से भी एक बच्चा गोद लेना चाहती हैं। बालीवुड अभिनेत्री सुष्मिता सेन जो कि अविवाहित हैंए ने एक बच्ची रीनी को गोद लिया था। फिर वह दूसरी बच्ची को गोद लेना चाहती थीं मगर कानून इसकी इजाजत नहीं देता था। इसके लिए उन्होंने कानूनी लड़ाई लड़ी और दूसरी बच्ची एलिशा को गोद लिया। आज वह इन दोनों बच्चियों की मां हैं।
इसी प्रकार अभिनेत्री रवीना टंडन ने भी अपने विवाह से पहले दो बच्चियों को गोद लिया था। अभिनेत्री नीना गुप्ता ने तो अविवाहित रहते हुए एक बच्ची मसाबा को जन्म दिया था। आज मसाबा एक मशहूर फैशन डिजाइनर है।
वाराणसी के परिवार ने अगर इन अभिनेत्रियों से ही कुछ सीखा होता तो शायद बच्ची को इस तरह दरबदर न होना पड़ता।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05/

चीन को आईना दिखा आये मोदी

चीन को आईना दिखा आये मोदी

चीन की यात्रा पर गए नरेंद्र मोदी के दौरे की समाप्ति पर 15 मई को दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने संयुक्त प्रेस वार्ता को संबोधित किया थाए तब इसे दिखावे के तौर पर ज्यादा और न्यूनतम प्राप्ति वाली कवायद ठहराया गया था। हालांकि उसी दिन शाम को जारी की गई संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति में कुछ ऐसे नए समीकरण बनने की बात कही गई थी जो पिछली लीक से हटकर थे। यह त्सीनहुआ यूनिवर्सिटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन थाए जिसने इस यात्रा को ऐतिहासिक बना दिया।
मोदी की इस यात्रा से पहले चीनी नेताओं को भारतीय प्रधानमंत्रियों की बीजिंग यात्रा को लेकर यही ख्याल था कि वे आते हैं और केवल राजनयिक लालित्य पर जोर देने पर ही खुद को सीमित रखते हैं। यह पहली बार था कि किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन की धरती पर खड़े होकर बेधड़क और साफ शब्दों में चीनी नीतियों को लेकर भारत की मूल चिंताओं और शंकाओं से उन्हें अवगत करवाया है। यह साहस दिखाने की लिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए। यहां यह मानना भी उचित होगा कि अपनी यात्रा के पहले ही दिन नरेंद्र मोदी ने शिंयाग शहर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग से हुई अपनी व्यक्तिगत मुलाकात में भी भारत की इन चिंताओं पर उनका ध्यान दिलवाया होगा।

खैरए यूनिवर्सिटी में छात्रों को अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ष्हमें सीमा विवाद के सवाल को जल्द से जल्द हल करना होगा३ सीमा क्षेत्र के इन संवेदनशील इलाकों पर सदा ही अनिश्चितता बनी रहती है३ क्योंकि दोनों देशों में कोई नहीं जानता कि वास्तविक नियंत्रण रेखा दरअसल है कहां३ यही वजह है कि मैंने प्रस्ताव किया है कि इसे स्पष्ट तौर पर निर्धारित करने की प्रक्रिया को फिर से शुरू किया जाए३ हमें अपने बीच उपजी उन समस्याओं का युक्तिपूर्ण हल निकालना होगा जिनकी वजह से हमारे बीच तनाव रहता है.फिर चाहे ये वीजा संबंधी नीतियां हों या फिर सीमा पार बहने वाली नदियों के पानी का बंटवारा हो३ हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि अन्य देशों से बनने वाले संबंध हमारे आपसी रिश्तों में चिंताओं का कारण न बनें३।ष् इसका मकसद चीनी नेतृत्व को यह याद दिलवाना था कि भारत को सीमित करने के फेर में वह पाकिस्तान से गठबंधन करके दूर तक न निकल जाए। प्रधानमंत्री ने यह भी भली.भांति जता दिया कि ष्दोनों में कोई एकए दूसरे को काबू करने की स्थिति में नहीं है।ष्
संयुक्त घोषणापत्र में भी कुछ नए बने समीकरण पहली बार सामने आए हैं जहां इस बात का जिक्र था कि ष्भारत और चीन इस इलाके और विश्व में मुख्य शक्तियों के रूप में एक ही समय में दुबारा उभर रहे हैं।ष् इसमें यह आह्वान भी किया गया है कि ष्एक.दूसरे की चिंताओंए हितों और आकांक्षाओं को आपसी आदर और संवेदनशीलता से लिया जाना चाहिए।ष् यह हमेशा महसूस किया जाता रहा है कि चीन भारत की चिंताओं से लापरवाह रहता है और इसीलिए चुस्त राजनयिक कौशल की जरूरत है ताकि संयुक्त घोषणापत्र में इन चिंताओं का जिक्र मुख्य रूप से हो सके।
पहले वाले संयुक्त घोषणापत्रों की तुलना में मौजूदा संयुक्त वक्तव्य में आश्चर्यजनक रूप से उस हल का जिक्र था जिसमें दोनों देशों के बीच अरसे से लंबित पड़े भूभागीय और सीमा विवाद को सुलझाने की बात कही गई है। दोनों देश इस ओर भी सहमत हुए हैं कि ष्सीमा के सवाल का शीघ्र हल दोनों देशों के हितों के लिए मूल रूप से सहायक है और इस सामरिक उद्देश्य को पाने के लिए दोनों सरकारों को सतत प्रयास जारी रखने चाहिए।ष् साथ ही दोनों देशों की इच्छा है कि ष्सीमा विवाद को सुलझाने के लिए अब तक की वार्ताओं के नतीजे और इनसे बनी आपसी सहमति के आधार पर ही किसी हल की रूपरेखा तय करने के लिए बातचीत के दौर आगे भी लगातार जारी रहने चाहिए ताकि इस समस्या का न्यायपूर्णए उचित और मंजूरशुदा हल जितना ज्यादा संभव हो सकेए उतना जल्द निकाला जा सके।ष् उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे चलकर चीन 2005 में हुए उस समझौते से दुबारा नहीं फिर जाएगा जिसमें कहा गया था कि ष्सीमा विवाद का हल निकालने के लिए राजनीतिक स्तर पर और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर सहमति बननी चाहिए।ष् मौजूदा समझौते की खास बात यह है कि इसमें कहा गया है कि ष्सीमा का निर्धारण एकदम स्पष्ट और साफ पहचाने जा सकने वाली प्राकृतिक एवं भौगोलिक निशानियों के आधार पर होना चाहिएष् और दोनों देश ष्सीमा निर्धारणष् करते वक्त ष्सीमा क्षेत्रष् में रहने वाली अपनी.अपनी आबादी के हितों की रक्षा सुनिश्चित करेंगे।ष् लेकिन ठीक इसी वक्त भारत के त्वांग पर अपना अधिकार जताते हुए चीनी प्रशासन ने 2005 में हुए समझौते से पहले वाले दिनों में लौटने का कारनामा कर दिखाया।
बाकी के संयुक्त समझौता पत्र में सीमा पर शांति बनाए रखनेए सैनिक स्तर पर परस्पर भरोसा कायम करनेए नियंत्रण रेखा पर तैनात सैनिक टुकडि़यों के बीच आपसी संवाद बनानेए सीमा के आरपार व्यापारिक गतिविधियां चलानेए व्यापार में आने वाली अड़चनें दूर करनेए रेलवे के क्षेत्र में आपसी सहयोगए दोनों देशों के नागरिकों के बीच व्यक्तिगत स्तर पर संबंध कायम करने और सांस्कृतिक आदान.प्रदान के अलावा अन्य क्षेत्रों जैसे कि अंतरिक्षए एटमी ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोगए जन.स्वास्थ्यए मेडिकल शिक्षा और पारंपरिक इलाज पद्धति इत्यादि में नई संभावनाएं तलाशने का उल्लेख है। आंकड़ों की बात करें तो दोनों पक्षों ने 10 बिलियन डॉलर के समझौतों पर हस्ताक्षर किएए जिसमें चीन भारत के आधारभूत ढांचे का विकास करने के लिए निवेश करेगा। प्रधानमंत्री की मेक.इन.इंडिया मुहिम ने यह रंग दिखाया कि उनकी शंघाई यात्रा के दौरान व्यापारी.से.व्यापारी स्तर पर 822 बिलियन डॉलर मूल्य के सहमति पत्रों पर दस्तखत किए गए। फिर भी रस्मी आयोजनों के बावजूद चीन से भारत के रिश्ते जटिल बने हुए हैं।
दरअसलए चीन के लिए भारत को एशिया में बराबर की शक्ति मानना गवारा नहीं और उसकी यही कोशिश है कि हिंद महासागर के इलाके में भारत को किनारे पर स्थित एक देश की भांति ही बनाकर रखा जाए। अपनी वृहद सामरिक नीतियों को मूर्त रूप देने की खातिर चीनए भारत की घेराबंदी करने के लिए सावधानीपूर्वक बनायी गई योजना पर अमल कर रहा है। चीन द्वारा पाकिस्तान को एटमी हथियार ले जाने में सक्षम मिसाइलें और अन्य सैन्य साजो.सामान बनाने की तकनीक हस्तांतरण वाला गठजोड़ दक्षिण.पूर्व एशिया में अशांति का बड़ा कारण है। चीन के समर्थन के बिना पाकिस्तान के लिए यह किसी भी तरह संभव नहीं कि वह भारत के खिलाफ छद्म युद्ध चलाए रखे। लिहाजा यह एक तरह से चीन द्वारा भारत के खिलाफ चलाए जाने वाला छद्म युद्ध भी है। चीन ने पाकिस्तान को यह गारंटी दे रखी है कि वह उसकी भौगोलिक सार्वभौमता को अक्षुण्ण बनाए रखेगा। बीती 20.21 अप्रैल को पाकिस्तान की यात्रा पर गए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन.पाकिस्तान आर्थिक गलियारे के आधारभूत ढांचे को बनाने की खातिर 46 बिलियन डॉलर देने की बात कही हैए जिसमें चीन के शिनजियांग इलाके को पाकिस्तान के अरब सागर के किनारे स्थित ग्वादर बंदरगाह को सड़क मार्ग से जोड़ा जाएगा। वैसे तो गिलगित.बालटिस्तान में चीनी इंजीनियर और पीएलए के फौजी इस तथ्य के बावजूद पिछले एक दशक से ज्यादा मौजूद रहे हैं कि यह इलाका पाकिस्तान द्वारा कब्जाए गए कश्मीर में आता है।
प्रधानमंत्री ने यह एकदम सही किया है कि उन्होंने देश की मूल चिंताओं खासकर इलाकाई सार्वभौमिकता और इससे उपजी नाजुक सुरक्षा स्थिति से वहां के नेताओं को चेता दिया है। अब यह शी जिनपिंग पर निर्भर करता है कि वे इसका संज्ञान लें और इसकी खातिर चीन के रवैये में सुधार करें।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05/

Wednesday, 27 May 2015

ऐसे कैसे बनेंगे महाशक्ति

ऐसे कैसे बनेंगे महाशक्ति

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में भारत सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है। कुल जनसंख्या के मामले में भारतए चीन से पीछे हैए लेकिन 10 से 24 साल की उम्र के 35ण्6 करोड़ लोगों के साथ भारत सबसे अधिक युवा आबादी वाला देश है। चीन 26ण्9 करोड़ की युवा आबादी के साथ दूसरे स्थान पर है।
अब सवाल यह है कि इतनी बड़ी युवा आबादी का भारत क्या सकारात्मक उपयोग कर पा रहा है क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक़ साल .दर.साल बेरोजगारी बढ़ रही है और देश में स्किल्ड युवाओं की भारी संख्या में कमी है। पिछले दिनों सीआईआई की इंडिया स्किल रिपोर्ट.2015 के मुताबिक हर साल सवा करोड़ युवा रोजगार बाजार में आते हैं। आने वाले युवाओं में से 37 प्रतिशत ही रोजगार के काबिल होते हैं। यह आंकड़ा कम होने के बावजूद पिछले साल के 33 प्रतिशत के आंकड़े से ज्यादा है और संकेत देता है कि युवाओं को स्किल देने की दिशा में धीमी गति से ही काम हो रहा है। एक दूसरी रिपोर्ट के अनुसार तो हर साल देश में 15 लाख इंजीनियर बनते हैं लेकिन उनमें से सिर्फ 4 लाख को ही नौकरी मिल पाती है।
नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज यानी नैसकाम के एक सर्वे के अनुसार 75 फीसदी टेक्निकल स्नातक नौकरी के लायक नहीं हैं। आईटी इंडस्ट्री इन इंजीनियरों को भर्ती करने के बाद ट्रेनिंग पर करीब एक अरब डॉलर खर्च करती है। इंडस्ट्री को उसकी जरूरत के हिसाब से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नहीं मिल पा रहे हैं। डिग्री और स्किल के बीच फासला बहुत बढ़ गया है। इतनी बड़ी मात्रा में पढ़े.लिखे इंजीनियरिंग बेरोजगारों की संख्या देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिरता के लिए भी ठीक नहीं है।
असल में हमने यह बात समझने में बहुत देर कर दी कि अकादमिक शिक्षा की तरह ही बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल शिक्षा देनी भी जरूरी है। एशिया की आर्थिक महाशक्ित दक्षिण कोरिया ने स्किल डेवलपमेंट के मामले में चमत्कार कर दिखाया है और उसके चौंधिया देने वाले विकास के पीछे स्किल डेवलपमेंट का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। इस मामले में उसने जर्मनी को भी पीछे छोड़ दिया है। 1950 में दक्षिण कोरिया की विकास दर हमसे बेहतर नहीं थी। लेकिन इसके बाद उसने स्किल विकास में निवेश करना शुरू किया। यही वजह है कि 1980 तक वह भारी उद्योगों का हब बन गया। उसके 95 प्रतिशत मजदूर स्किल्ड हैं या वोकेशनली ट्रेंड हैंए जबकि भारत में यह आंकड़ा तीन प्रतिशत है।
स्किल इंडिया बनाने के उद्देश्य से मोदी सरकार ने अलग मंत्रालय बनाया है। नेशनल स्किल डेवलपमेंट मिशन भी बनाया गया है। केन्द्रीय बजट में भी इसके लिए अनुदान दिया गया है। मतलब पहली बार कोई केंद्र सरकार इसके लिए इतनी संजीदगी से काम करने की कोशिश कर रही है। इसे देखते हुए लगता है कि स्किल डेवलपमेंट को लेकर केंद्र सरकार की सोच और इरादा तो ठीक है लेकिन इसका कितना क्रियान्यवन हो पायेगाए ये तो आने वाला समय ही बताएगा क्योंकि अभी तक स्किल डेवलपमेंट के लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ है और न ही इसके कोई बड़े नतीजे आये हैं।
बिना स्किल के और लगातार बेरोजगारी बढ़ने की वजह से इंजीनियरिंग कालेजों में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रहने लगी हैं। उच्च और तकनीकी शिक्षा के वर्तमान सत्र में ही पूरे देशभर में 7 लाख से ज्यादा सीटें खाली हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री देश के लिए ष्मेक इन इंडियाष् की बात कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश में तकनीकी और उच्च शिक्षा के हालात बदतर स्थिति में हैं। सच्चाई यह है कि देश के अधिकांश इंजीनियरिंग कॉलेज डिग्री बांटने की दुकान बनकर रह गये हैं। इन कालेजों से निकलने वाले लाखों युवाओं के पास इंजीनियरिंग की डिग्री तो है लेकिन कोई कुछ भी कर पाने का स्किल नहीं हैै। आज हमारे इंजीनियरिंग के शैक्षिक कोर्स 20 साल पुराने हैं। इसलिए इंडस्ट्री के हिसाब से छात्रों को अपडेटेड थ्योरी भी नहीं मिल पाती। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि युवाओं में प्रतिभा का विकास होना चाहिए। उन्होंने डिग्री के बजाय योग्यता को महत्व देते हुए कहा था कि छात्रों को स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा।
शैक्षणिक स्तर पर स्किल डेवलपमेंट के मामले में जर्मनी का मॉडल पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। जर्मनी में डुअल सिस्टम चलता है। वहां के हाई स्कूल के आधे से ज्यादा छात्र 344 कारोबार में से किसी एक में ट्रेनिंग लेते हैं। इसके लिए वहां छात्रों को सरकार से महीने में 900 डॉलर के करीब ट्रेनिंग भत्ता भी मिलता है। जर्मनी में स्किल डेवलपमेंट के कोर्स मजदूर संघ और कंपनियां बनाती हैं। वहां का चेंबर्स और कामर्स एंड इंडस्ट्रीज परीक्षा का आयोजन करता है। पिछली यूपीए सरकार ने 2009 में जर्मनी के साथ स्किल डेवलपमेंट को लेकर कार्यक्रम भी बनाए थे लेकिन सरकारी लालफीताशाही के दौर में देशभर में उनका ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पाया।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05

विपक्ष की भूमिका का भी हो आकलन

विपक्ष की भूमिका का भी हो आकलन

केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली ष्मोदी सरकारष् का एक साल पूरा हो चुका है। इसकी अब तक की सफलता.असफलता को गिनाने की कवायद जारी है। भाजपा अपने इस कार्यकाल की ष्उपलब्धियोंष् को गिनाने में लगी है और विपक्ष सरकार की ष्विफलताओंष् का लेखा.जोखा कर रहा है। वैसेए प्रधानमंत्री मोदी ने साल भर पहले ही कह दिया था कि अपने पांच वर्ष के शासन.काल में उनकी सरकार पहले ढाई साल में देश को पटरी पर लायेगी। वे दावा कर सकते हैं कि उनकी सरकार अभी इस काम में लगी है। फिर भीए साल भर पूरा होने पर किसी सरकार के कामकाज के लेखा.जोखा करने की एक परंपरा.सी है। सोए यह काम हो रहा है। लेकिनए इस प्रक्रिया में इस बात को नज़रअंदाज किया जा रहा है कि जहां नयी सरकार के कार्यकाल का एक साल पूरा हुआ हैए वहीं एक दशक के बाद कांग्रेस पार्टी को भी विपक्ष में बैठे हुए बारह महीने हो चुके हैं। यह अवसर विपक्ष की भूमिका के बारे में विचार करने का भी होना चाहिए। सवाल पूछा जाना चाहिए कि प्रमुख विपक्ष के रूप में इस दौरान कांग्रेस पार्टी ने क्या कुछ किया हैए और जो कुछ किया हैए क्या वह उन अपेक्षाओं पर खरा उतरती है जो किसी जागरूकए विवेकशील विपक्ष से की जानी चाहिएघ्
इस प्रश्न का उत्तर तलाशने से पहले थोड़ा.सा विचार इस बात पर भी कर लिया जाना चाहिए कि जनतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भूमिका क्या होती है। चुनावों में जनता शासन करने के लिए किसी को चुनती हैए यह एक सर्वमान्य तथ्य है। और मान लिया जाता है कि जिसे मतदाता ने सत्ता के लायक नहीं माना हैए वह विपक्ष है। ग़लत नहीं है यह धारणा। लेकिन पूरी तरह सही भी नहीं है। चुनाव में पराजय का सीधा.सा मतलब मतदाता द्वारा नकारा जाना हैए या फिर यह भी माना जा सकता है कि मतदाता ने तुलनात्मक दृष्टि से किसी एक पक्ष को बेहतर माना है। इस दृष्टि से देखें तो जनता द्वारा नकारे जाने वालेए अथवा कम उपयुक्त पाये जाने वाले पक्ष की भूमिका कहीं ज़्यादा गंभीर लगने लगती है। और यदि इसी बात को इस रूप में समझें कि मतदाता ने किसी को नकारा नहीं हैए बल्कि विपक्ष में बैठने के लिए चुना है तो बात और अधिक साफ हो जाती है।

जनतांत्रिक व्यवस्था में जिस तरह निर्वाचित सरकार से मतदाता अपेक्षाएं करता हैए उसी तरह चुने हुए विपक्ष का भी कुछ दायित्व बन जाता है। विपक्ष का काम सरकार के कामकाज पर नज़र रखना होता है। इस नज़र रखने में नज़र सरकार की समूची रीति.नीति पर होनी चाहिए। जहां सरकार जनता के हित में कुछ अच्छा काम करती दिखेए वहां उसकी प्रशंसा होनी ही चाहिए। वैसेए सरकारें अपनी पीठ थपथपाने में माहिर होती हैंए इसलिए वे इस बात की ज्य़ादा चिंता नहीं करतीं कि विपक्ष उनके प्रति कितना उदार हैए पर इस बात की चिंता सरकारों को ज़रूर होनी चाहिए कि विपक्ष किन मुद्दों पर उनकी आलोचना कर रहा है। लेकिनए इसके लिए ज़रूरी यह भी है कि विपक्ष अपनी उस सकारात्मक भूमिका के प्रति निरंतर सजग रहे जिसकी एक जनतांत्रिक व्यवस्था में उससे अपेक्षा रहती है। जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका विरोध के लिए विरोध करने की नहीं होती। सच बात तो यह है कि इस व्यवस्था में विपक्ष एक वैकल्पिक सरकार होती है। राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर विपक्ष की एक निश्चित समझ होनी चाहिए। यदि विपक्ष सरकार की किसी नीति की आलोचना करता है तो उसके पास एक वैकल्पिक नीति भी होनी चाहिए। यदि सरकार के काम करने का ढंग उसे ग़लत लगता है तो उसे मतदाता को यह भी बताना होगा कि उसकी दृष्टि में सही ढंग कौन.सा है। यह एक विशेष तरह की पहरेदारी है। दायित्वपूर्ण पहरेदारी। सिर्फ आलोचना करने के लिए नहींए सुधारने के लिए आलोचना करने वाली पहरेदारी।
सवाल उठता हैए इस एक साल में संसद मेंए और संसद के बाहर भीए कांग्रेस पार्टी ने विशिष्ट पहरेदारी वाली यह भूमिका कैसी निभायी हैघ् लोकसभा में कांग्रेस विपक्ष का सबसे बड़ा दल है। यह सही है कि उसे इतनी सीटें नहीं मिलीं जितनी संविधान के अनुसार अधिकृत विपक्षी दल को मिलनी चाहिएए पर इससे उसका दायित्व कम नहीं हो जाता। सरकार चाहती तो कम सीटों के बावजूद कांग्रेस को सदन में विपक्ष का नेता चुनने का अवसर दे सकती थीए लेकिन उसने वही किया जो इस संदर्भ में कांग्रेस की पिछली सरकारें करती रही थीं। ऐसा लगता हैए यहां नयी सरकार बेहतर उदाहरण प्रस्तुत कर सकती थी। लेकिन यदि उसने ऐसा करना उचित नहीं समझा तो इसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता। बहरहालए आज की स्थिति यह है कि कांग्रेस सदन में विपक्ष में बैठा सबसे बड़ा दल हैए और एक बहुत लंबे अरसे तक शासन करने का एक अनुभव भी उसके पास है। इसलिएए एक ज़िम्मेदार विपक्ष के रूप में उससे अपेक्षाएं भी अधिक हैं। कितनी खरी उतरी है कांग्रेस इन अपेक्षाओं पर इस एक साल मेंघ्
इस दौरान संसद में कांग्रेस ने लगातार मुद्दे उठाये हैं। काफी शोर.शराबा भी किया है। एक लंबे मौन के बादए और एक लंबी छुट्टी के बादए कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी सदन में सक्रिय दिखाई दिये हैं। लेकिन यह सक्रियता आकर्षक जुमलों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। यह जुमले जनसभाओं में अच्छे लगते हैं। संसद में विपक्ष से ऐसे जुमलों से अधिक ठोस और सार्थक टिप्पणियों की अपेक्षा की जाती है। अपेक्षा की जाती है कि विपक्ष बताये कि सरकार कहांए कैसी ग़लती कर रही है। किसानों के मुद्दे पर संसद में और संसद के बाहर भी कांग्रेस ने जो भूमिका अपनायी हैए उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन यह भूमिका सदन में शोर.शराबे अथवा सदन को ठप करने में यदि खो जाती है तो इससे किसानों का अहित तो होगा हीए जनतांत्रिक मूल्यों और व्यवस्था में अपेक्षित विश्वास मज़बूत होने का काम भी रुक जायेगा।
जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकार की भूमिका से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। विपक्ष तो छाया मंत्रिमंडल बनाते हैं। वैकल्पिक नीतियां तैयार रखते हैं। जनतंत्र सफल तभी होता है जब इस तंत्र का हर पुर्जा अपना काम सही ढंग से करता है। विपक्ष एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुर्जा है इस तंत्र का। कांग्रेस को इस बात को समझना भी है और प्रमाणित भी करना है। एक ज़िम्मेदार विपक्ष से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निरंतर जागरूकता का परिचय देगाय ईमानदारी और कर्मठता के साथ सरकार की कमियों.ग़लतियों को उजागर करके उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में रखेगा। व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम सिर्फ सरकार का नहीं होताए जनतंत्र में विपक्ष को भी इस कार्य में पूरी निष्ठा के साथ जुटना होता है। कांग्रेस को यह निष्ठा प्रमाणित करनी है। अब सिर्फ चार साल बचे हैं उसके पास इस काम के लिए!
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Tuesday, 26 May 2015

पानी की वैश्विक राजनीति

पानी की वैश्विक राजनीति

असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि चीन यात्रा के दौरान ब्रह्मपुत्र नदी के पानी के बंटवारे के मुद‍्दे को हल करें। मीडिया रपटों की मानें तो इस मुद‍्दे पर कोई प्रगति नहीं हुई । यह हमारे लिए खतरे की घंटी हैए चूंकि सम्पूर्ण विश्व में पानी के मुद‍्दे पर टकराव बढ़ रहे हैं। इस्लामिक स्टेट द्वारा टिगरिस तथा यूफरेटिस नदियों पर कब्जा करने का प्रयास किया जा रहा है। ये नदियां इराक की जीवनधारा हैं।
साठ के दशक में इस्राइल ने 6 दिन का युद्ध छेड़ा था जिसका उद्देश्य जार्डन नदी के पानी पर अधिकार जमाना था। इन विषयों के जानकार ब्रह्म चेलानी के अनुसार पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के मुद्दे को लगातार उठाने का उद्देश्य उस राज्य से बहने वाली नदियों पर वर्चस्व स्थापित करना है। बांग्लादेश के साथ तीस्ता के पानी के बंटवारे का विवाद सुलझ नहीं सका है। अधिकतर बांग्लादेशी मानते हैं कि भारत ने फरक्का बेराज द्वारा पानी को हुगली में डाइवर्ट करके दादागीरी दिखाई है। चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र पर बांध बनाने से भारत चिंतित है। अरुणाचल पर चीन की पैनी नजर रहने का एक कारण उस राज्य के प्रचुर जल संसाधन हैं। नेपाल द्वारा बांधों से पानी छोड़े जाने को बिहार की बाढ़ का कारण माना जाता है।
सीधे देखें तो पानी के बंटवारे में एक देश को लाभ और दूसरे का नुकसान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गंगा के पानी का अधिक हिस्सा भारत द्वारा हुगली में डाइवर्ट करने का सीधा असर बांग्लादेश पर होगा। उस देेश को पानी कम मिलेगा। परन्तु ऐसे हल भी संभव हैं जो दोनो देशों के लिए लाभदायक हों। फरक्का बेराज को लें। बेराज की वर्तमान समस्या तलछट की है। फरक्का के तालाब में तलछट जम जाती है। ऊपरी सतह से पानी निकाल कर हुगली को डाइवर्ट कर दिया जाता है। नीचे बैठी तलछट को फ्लश करके पदमा में बहा दिया जाता है जो कि बांग्लादेश को चली जाती है। परिणाम है कि पानी का बंटवारा तो आधा.आधा होता है परन्तु अनुमानित 90 प्रतिशत तलछट बांग्लादेश को जाती है। तलछट के इस अप्राकृतिक बंटवारे से दोनों देश त्रस्त हैं। बांग्लादेश में अधिक मात्रा में तलछट पहुंचने से पदमा का पाट ऊंचा होता जा रहा है और बाढ़ का प्रकोप बढ़ रहा है। हुगली में तलछट कम पहुंचने से समुद्र की तलछट की भूख शांत नहीं हो रही है और वह हमारे तट को खा रहा है। गंगासागर द्वीप छोटा होता जा रहा है। लोहाचारा और गोडामारा द्वीपों से लगभग एक लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। इस दोहरी समस्या का हल है कि फरक्का के आकार में बदलाव किया जाए। नेपाल द्वारा नदियों पर बड़े बांध बनाकर पानी को रोकने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन कभी.कभी इनसे ज्यादा मात्रा में पानी छोड़ दिया जाता हैए जिससे बिहार में बाढ़ का प्रकोप बढ़ जाता है।
इस समस्या का समाधान भूमि के गर्भ में उपलब्ध एक्वीफरों के माध्यम से निकल सकता है। धरती के नीचे तालाब एवं नदियां होती हैं। सेन्ट्रल ग्राउन्ड वाटर बोर्ड के अनुसार उत्तर प्रदेश के एक्वीफरों की भंडारण क्षमता 76 बिलियन क्यूबिक मीटर है जो कि टिहरी बांध से 25 गुणा ज्यादा है। इसी प्रकार के एक्वीफर नेपाल में भी हैं। हमें साझा नीति बनाकर नेपाल को प्रेरित करना चाहिए कि पानी का भंडारण एक्वीफरों में करे। इस्राइल ने इस तकनीक का बखूबी विकास किया है। तालाबों से वाष्पीकरण के कारण 10.20 प्रतिशत पानी का नुकसान हो जाता है। यह पानी बच जाएगा। बड़े बांधों में निहित विस्थापन तथा भूकम्प जैसी समस्याओं से भी छुटकारा मिल जाएगा। एक्वीफरांे से अधिक मात्रा में पानी नहीं छोड़ा जा सकेगा और हमें बाढ़ से राहत मिलेगी।
सिंधुए ब्रह्मपुत्रए तीस्ता तथा गंगा के पानी के बंटवारे को लेकर चीनए पाकिस्तानए नेपाल तथा बांग्लादेश के साथ हमारा तनाव बना रहता है। इन नदियों के ऊपरी देश का प्रयास रहता है कि अधिकाधिक पानी को रोक ले जबकि निचला देश चाहता है कि अधिकाधिक पानी को बहने दिया जाए। चीन तथा नेपाल के संदर्भ में हम निचले देश हैं जबकि पाकिस्तान तथा बांग्लादेश के संदर्भ में ऊपरी देश हैं। यहां एक देश की हानि दूसरे देश का लाभ है। जैसे तीस्ता में अधिक पानी छोड़ने से भारत को हानि और बांग्लादेश का लाभ है। इसका हल है कि लाभ पाने वाला निचला देश हानि झेलने वाले ऊपरी देश को मुआवजा दे। जरूरी है कि पानी के उपयोग से होने वाले लाभ का सही आकलन किया जाए। तीन वर्ष पूर्व नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण मंत्रालय को परियोजनाओं के लाभ .हानि का आकलन करने के लिए नियमों को स्पष्ट करने को कहा था। पर्यावरण मंत्रालय ने इंडियन इंस्टीट्यूट आफ फारेस्ट मैनेजमेंट को यह जिम्मेदारी सौंपी थी। रपट सौंपे डेढ़ वर्ष हो गए परन्तु मंत्रालय ने इस गम्भीर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।

कर्नाटक के गुलबर्गा में अंगूरए राजस्थान के जोधपुर में लाल मिर्च तथा उत्तर प्रदेश में गन्ने की फसल के लिए भारी मात्रा में पानी का उपयोग किया जा रहा है जिससे भूमिगत पानी का जलस्तर गिरता जा रहा है। विलासिता की इन फसलों को उगाने के लिए हम अपने भूमिगत पानी के भंडार को समाप्त कर रहे हैंै। सरकार को चाहिए कि हर जिले की ष्फसल आडिटष् कराए।

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बेचैन देश की आकांक्षाओं का बोझ

बेचैन देश की आकांक्षाओं का बोझ

यहां कुछ उन सत्ताधीशों का जिक्र जरूरी हैए जो भारी बहुमत से सत्ता में आयेए जिन पर जन.अपेक्षाओं का भारी बोझ रहा। वर्ष 1984 में जब राजीव गांधी अप्रत्याशित रूप से तीन.चौथाई बहुमत के साथ सत्ता में आये तब भी जनता की अपेक्षाएंंंं उफान पर थीं। एक.चौथाई सदी के बाद जब नरेंद्र मोदीए जो राजीव गांधी के बाद पूर्ण बहुमत से सत्ता में आये तो उन पर भी अपेक्षाओं का बोझ उसी तरह था। वे इस लुभावने नारे कि ष्अच्छे दिन आने वाले३ष् के साथ आगे बढ़े थे। अब जबकि उनके कार्यकाल का एक वर्ष पूरा हुआ है तो लोग अक्सर व्यंग्यात्मक भाषा में पूछते हैं कि क्या वाकई अच्छे दिन आ गए हैंघ्
एक साल के थोड़े समय में मोदी को जिन चुनौतियों का सामना करना था उन्हें देखते हुए करिश्माई बदलाव एक वर्ष में पूरा कर पाना न तो व्यावहारिक था और न ही संभव। जो लोग मोदी को जानते हैं वे बताते हैं कि वह निरर्थक बातों से विचलित नहीं होते क्योंकि वे जानते हैं कि उनके एक साल के कार्यकाल की तुलना उनके पूर्ववर्तियों से नहीं की जा रही है। यानी उनके कार्यकाल का मूल्यांकन एकपक्षीय है। जब उनके पूर्ववर्ती समकक्ष मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में 2004 में पहली पारी शुरू की तो किसी को ऐसी उम्मीद नहीं थीए अतरू अपेक्षाएं भी कम ही थीं। मगर नरेंद्र मोदी को इस तरह का लाभ नहीं मिला।
गत शुक्रवार को केंद्रीय वित्त एवं सूचना मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सिर्फ एक साल में देश की जनता को यूपीए सरकार के दौरान व्याप्त निराशा व अवसाद से निकालकर आशा व नवीनीकरण की दिशा में बढ़ाया है। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने जो निर्णय लेने में तत्परता दिखाई उसमें गति व पारदर्शिता दिखाई देती है। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि सरकार के पारदर्शी निर्णयों के चलते अर्थव्यवस्था पटरी पर आई है और यही वजह है कि अर्थव्यवस्था आठ प्रतिशत विकास दर की ओर उन्मुख है। यदि भारत में बेचैनी थी तो वजह जनसाधारण का असंतुष्ट होना था। निरूसंदेह जेटली का यह आकलन किसी हद तक सत्य के करीब है।
यद्यपि यह कोई अंतिम और पर्याप्त मानक नहीं है मोदी सरकार के प्रदर्शन के आकलन का। उनकी पार्टी के ही साथी अरुण शौरी ने हालिया टीवी साक्षात्कार में मोदी सरकार की नीतियों में अस्पष्टता व आर्थिक नीतियों की दिशाहीनता के लिए आलोचना की थी। उनका यह भी आरोप था कि छोटी मंडली ही सरकार चला रही है। राहुल गांधी ने सरकार का उपहास करते हुए इसे सूट.बूट की सरकार बताया था जो कॉरपोरेट घरानों के प्रभाव में है। कुछ सवाल खड़े करते रहे हैं कि यह भारत सरकार है या मोदी सरकार। तर्क दिया गया कि प्रधानमंत्री कार्यालय तमाम मंत्रियों के अधिकार क्षेत्रों में खासी दखलंदाजी करता रहता है।
इतना ही नहीं सरकार को लेकर कई निर्मम टिप्पणियां भी सामने आती रही हैं। टिप्पणी कि यह शासन अधिक ष्सेल्फीष् बजाय कि सामूहिक दायित्व के। यह भी कि मोदी बातें तो बड़ी.बड़ी करते हैं मगर क्रियान्वयन करते कम हैं। उनकी एक साल की अवधि में लगातार होने वाली 18 देशों की यात्राओं को लेकर भी खूब चर्चाएं हुईं। एक एसएमएस पर आया चुटकुला खूब चर्चाओं में रहा कि वे कभी.कभी भारत भी आते रहते हैं। यह भी कि विकास के मुखौटे के पीछे मोदी आरएसएस के एजेंडें को बढ़ावा दे रहे हैं। यह भी कि अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करने के लिए उन्होंने कुछ नहीं किया।
मेरे लिए उनके पहले साल के कार्यकाल के तीन महत्वपूर्ण पड़ाव रहे हैं। पहला राष्ट्रपति भवन परिसर में सार्वजनिक रूप से नरेंद्र मोदी का शपथग्रहण समारोह जिसमें सार्क प्रमुखों खासकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने भी भाग लिया। इसके कुछ महीनों बाद तेजी से कूटनीतिक संबंधों को नए आयाम दिये। दुनिया की प्रमुख शक्तियों जिनमें चीनए जापान और चीन शामिल हैंए के साथ संबंधों को बढ़ावा देकर सशक्त विदेश नीति का परिचय दिया।
दूसरा महत्वपूर्ण मौका पंद्रह अगस्त को लालकिले के परकोटे से देश को स्वतंत्रता दिवस पर संबोधन थाए जिसके जरिये उन्होंने सरकार की रीति.नीतियों को उजागर किया। इस दौरान उन्होंने सरकार की महत्वपूर्ण योजनाओं मसलन स्वच्छ भारत अभियान और जन धन योजना की घोषणा की। निश्चित रूप से इन दीर्घकालीन नीतियों को यदि कायदे से लागू किया जाता है तो इससे न केवल जरूरतमंदों और गरीब तबके को लाभ मिलेगा बल्कि देश की छवि भी सुधरेगी। साथ ही मोदी ने कॉरपोरेट घरानों को मेक इन इंडिया का मौका देकर उत्साहित किया।

तीसरा उल्लेखनीय मौका तब आया जब नरेंद्र मोदी ने एक रॉक स्टार की तर्ज पर अमेरिका के मेडिसन स्क्वॉयर गॉर्डन में भारतवंशियों को संबोधित किया। इससे उनकी वैश्विक छवि बनी और वे विदेशी निवेशकों में भरोसा जगाने में सफल रहे। प्रधानमंत्री ने लंबे मधुमास का आनन्द लिया जब तक कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा का सफाया नहीं कर दिया। टीम मोदी जो अब तक अपराजेय नजर आ रही थीए की हालत इस चुनाव परिणाम ने पतली कर दी। मगर उनकी भूमि अधिग्रहण विधेयक को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें तार्किक आधार हासिल न कर पाई। वहीं दूसरी ओर बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि से फसलों को हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति में सरकार चूकी नजर आई और इससे किसानों में असंतोष बढ़ा। यही वजह है कि राहुल गांधी को सरकार पर हमले का मौका मिला कि सरकार किसान.श्रमिक विरोधी और कॉरपोरेट समर्थक है।
इन आलोचनाओं के बावजूद यह स्वीकारना होगा कि मोदी सरकार ने पहले साल में देश को ऊर्जावान बनाया और देश के मौजूदा परिदृश्य के लिए जरूरी परिवर्तन व दिशा की ओर उन्मुख हुई। दि ट्रिब्यून ने सरकार के कार्यों का जो आकलन करवाया उसमें अच्छा और बहुत अच्छा परिणाम तो नजर आया मगर सर्वोत्तम नहीं। यह सब मोदी को प्रेरित करेगा कि अपने दूसरे वर्ष के कार्यकाल में और बेहतर करें। सरकार द्वारा की गई घोषणाओं का अनुपालन तेजी से करें। इन प्रयासों में वे पायेंगे कि सारा देश उनके साथ खड़ा है।
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Monday, 25 May 2015

आईएसआई का अफगानिस्तान में नया खेल

आईएसआई का अफगानिस्तान में नया खेल

मंगलवारए बारह मई को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ काबुल में थे। उनकी उपस्थिति में दोनों देशों के बीच खुफिया सहयोग के वास्ते एमओयू पर हस्ताक्षर हुए। इस समझौते के बाद अब आईएसआईए अफग़ान खुफिया एजेंसी एनडीएस के कर्मियों को प्रशिक्षित करेगी। एमओयू में लिखा गया है कि दोनों खुफिया एजेंसियां साझे रूप में दुश्मन खुफिया एजेंसी और अलगाववाद के विरुद्ध लड़ेंगी। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि एमओयू में दुश्मन खुफिया एजेंसी किसे लक्षित करके कहा गया है।
आईएसआईए भारत के विरुद्ध एनडीएस को तैयार करेगीए इस शातिराना चाल को हामिद करज़ई जैसे नेता अच्छी तरह से समझ रहे हैं। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई इस एमओयू पर इतना भड़के हुए हैं कि उन्होंने उसे फौरन खारिज़ किये जाने की मांग कर दी। अफग़ान नेशनल डायरेक्टोरेट ऑफ सिक्योरिटी के प्रमुख रहमतुल्ला नाबिल कह चुके हैं कि इस समझौते को मैं सही नहीं समझता। 5 फरवरी 2015 को अफग़ान सेना के छह कैडेट जब पहली बार पाकिस्तान के ऐबटाबाद में 18 महीने के प्रशिक्षण के लिए गयेए तभी स्पष्ट हो गया कि नवाज़ शरीफ अफगानिस्तान के नये निजाम को अपने आईने में उतार चुके हैं। अफगानिस्तान में भारत का 40 करोड़ डालर की लागत से टैंकए एयरक्राफ्ट रिफर्बिशिंग प्लांट लगना थाए जिसके माध्यम से वहां कबाड़ में परिवर्तित हो रहे टैंकए हेलीकॉप्टर और युद्धक विमानों को नये जैसा कर देना था। लेकिन राष्ट्रपति अशरफ गनी को यह रास नहीं आया। उसे स्थगित किये जाने का कोई तर्क भी नहीं दिया गया है।

28 अप्रैल 2015 को अफग़ान राष्ट्रपति अशरफ गनी नई दिल्ली में थे। उन्हें भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित कूटनीतिकों और थिंक टैंक की सभा को संबोधित करना था। जहां पर यह आयोजन थाए उसके पांच सौ वर्गमीटर के इलाके को मिलिटेरी छावनी में बदल दिया गया था। सभी आने वालों को आधा घंटा पहले सीट ग्रहण करने का निर्देश था। मोबाइल फोन नहीं ला सकते थे। नंबर वाले निमंत्रण कार्डए लिफाफे आईडी कार्ड के साथ लाने अनिवार्य थे। हम सब चार स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था से हैरान थेए और सवाल भी कर रहे थे कि क्या अशरफ गनीए संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून से भी अधिक महत्वपूर्ण हैंघ् बान की मून के वास्ते इतना सुरक्षा ताम.झाम तो नहीं था। अशरफ गनी को यहां पर किससे ख़तरा थाए तालिबानए आईसिस या आईएसआई सेघ्
अशरफ गनी भारत आये ज़रूरए लेकिन उनकी देहभाषा से एहसास हो रहा थाए मानो कोई रिमोट कंट्रोल के ज़रियेए उन्हें नियंत्रित कर रहा हो। गऩी ने कई बार पाकिस्तानए चीन से दोस्ती के हवाले से क्षेत्र में शक्ति संतुलन की बात की। सुषमा स्वराज सितंबर 2014 की काबुल यात्रा में इस आरजू के साथ गईं कि राष्ट्रपति अहमदज़ई नई दिल्ली आएंगे। हम आरजू और इंतज़ार में उलझे रहेए उधर अफग़ान राष्ट्रपति 28 अक्तूबर 2014 को चीनी नेताओं से मिलने पेइचिंग रवाना हो गये। ऐसा क्या था कि राष्ट्रपति अशरफ गनी अहमदज़ई ने अपनी पहली विदेश यात्रा की शुरुआत चीन से कीए और नई दिल्ली के बदले पेइचिंग जाना ज़रूरी समझाघ् इस सवाल का उत्तर इसी से मिल जाता है कि राष्ट्रपति अहमदज़ईए तालिबान से तालमेल बैठाने के लिए चीनी नेताओं से सहयोग चाहते थे। सुनकर थोड़ा अटपटा सा लगता है कि शिनचियांग में उईगुर अतिवादियों और तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी से परेशान चीनए तालिबान से किस प्रकार तालमेल बैठाने लगा। चीन की तुर्की से भी उईगुर अतिवादियों को शह देने के कारण ठन गई है।
अफगानिस्तान को अब तक साढ़े बारह अरब डॉलर के सहयोग के बावजूद भारत के हितए इस देश में सुरक्षित नहीं दिखते। 2008.2009 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर दो बार हमले हुएए जिसमें 75 लोग मारे जा चुके थे। जुलाई 2008 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर कार बम से हमला हुआए जिसमें 58 लोगों की मौत हो गई और 141 लोग घायल हो गये। इस हमले के ठीक पहले ब्रिगेडियर रवि दत्त मेहता और डिप्लोमेट वीण् वेंकटेश्वरा राव दूतावास में प्रवेश कर रहे थे। दोनों की मौत घटनास्थल पर ही हो गई। उस समय अफगान सरकार ने स्वीकार किया था कि इस आक्रमण को अंजाम देने में आईएसआई की बड़ी भूमिका रही थी। 18 अक्तूबर 2009 को एक बार फिर काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर कार बम से हमला हुआए जिसमें 17 लोग मारे गये। मृतकों में नौ भारतीय डाक्टर थे। उसके छह माह के भीतरए 10 फरवरी 2010 को काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर एक और आक्रमण हुआ और दस भारतीयों समेत 18 लोग मारे गये। इसके छह दिन बादए 26 फरवरी 2010 को काबुल स्थित आर्य गेस्ट हाउस पर हथियारबंद आतंकियों ने आक्रमण कियाए जिसमें 17 लोग मारे गये। आतंकी तीन वर्षों तक चुप रहेए फिर 4 अगस्त 2013 को जलालाबाद स्थित भारतीय कौंसिलावास पर हमला कियाए जिसमें बारह लोग मारे गये। दस माह बादए मोदी के शपथ के चार दिन पहले 22 मईए 2014 को हेरात स्थित भारतीय कौंसिलावास पर धावा बोला गया थाए जवाबी कार्रवाई में चार आतंकी ढेर कर दिये गये।
ऐसा लगता हैए मई के तीसरे हफ्ते भारतीयों पर हमले की बरसी मनाने का सिलसिला अफगानिस्तान में आरंभ हो चुका है। 20 मई 2015 को काबुल के पार्क पैलेस होटल पर तालिबान आतंकियों ने आक्रमण कियाए जिसमें 14 लोग मारे गये। मरने वालों में चार भारतीय थे। उस समय पार्क पैलेस में हिन्दुस्तानी संगीत के उस्ताद इल्ताफ अहमद सारंग का शो आयोजित किया गया थाए जिसमें भारतीय राजदूत अमर सिन्हा भी आमंत्रित थे। लेकिन व्यस्तता की वजह से अमर सिन्हा आये नहीं। मतलब साफ था कि आतंकी भारतीय राजदूत को मारने का लक्ष्य लेकर चल रहे थे। पाक.अफग़ान खुफिया सहयोग समझौते की जो भाषा हैए उसके बाद राष्ट्रपति अशरफ गनी अहमदज़ई को स्पष्ट कर देना चाहिए कि भारतए अफग़ानिस्तान का शत्रु हैए या मित्र। इस समझौते के दो ही लक्ष्य दिखते हैंए एक भारत को अफग़ानिस्तान से किनारे कर देनाए और दूसराए रॉ को इस इलाक़े में निपटाना!

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विचार के लिए सजा नहीं

विचार के लिए सजा नहीं

केरल हाईकोर्ट का यह फैसला गौर करने लायक है कि माओवादी होना अपने आप में कोई गुनाह नहीं है। श्याम बालाकृष्णन नाम के एक शख्स की ओर से दायर की गई रिट याचिका पर निर्णय सुनाते हुए अदालत ने माना कि माओवाद का राजनीतिक दर्शन हमारी संवैधानिक व्यवस्था से मेल नहीं खाताए लेकिन इसके बावजूद कोर्ट ने साफ किया कि विचारों की स्वतंत्रता और अंतरूकरण की मुक्ति हमारे प्राकृतिक अधिकार हैं। इसीलिएए जब तक कोई व्यक्ति गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त नहीं होताए महज विचारों के आधार पर उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

अदालतों ने इससे पहले भी समय.समय पर ऐसी अनेक टिप्पणियां और फैसले दिए हैं। मगरए माओवाद से निपटने के नाम पर पुलिस और प्रशासन जिस तरह का गैरजिम्मेदार आचरण विभिन्न मामलों में दिखाते रहे हैंए उनमें कोई खास बदलाव अभी तक नहीं दिखा है। कबीर कला मंच और डॉण् विनायक सेन जैसे बहुचर्चित मामलों में अदालत की प्रतिकूल टिप्पणियां सुनने के बावजूद महाराष्ट्र पुलिस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक जाने.माने प्रफेसर और शारीरिक तौर पर अशक्त ;90 फीसदी विकलांगता की श्रेणी में आने वालेद्ध जी एन साईबाबा को जिस तरह गिरफ्तार कियाए वह सकते में डाल देता है। नागपुर सेंट्रल जेल के अंडा सेल में बंद डॉण् साईंबाबा की गिरफ्तारी को एक साल से ऊपर हो चुका हैए फिर भी उन्हें जमानत नहीं मिली है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या हाईकोर्ट का यह फैसला पुलिस और प्रशासन के रवैये में बदलाव सुनिश्चित कर पाएगाघ्

सवाल यह भी है कि जब किसी को संदिग्ध माओवादी या माओवादियों का सिंपैथाइजर बताकर गिरफ्तार करने में पुलिस नहीं हिचकती तो उस पर गैरकानूनी गतिविधियों के दो.चार झूठे आरोप लगाने में उसे कितनी देर लगेगीघ् साफ है कि नागरिकों के मूलभूत अधिकार सुनिश्चित करने के लिए अभी काफी कुछ करना बाकी है। लेकिन इस फैसले की अहमियत से भी इनकार नहीं किया जा सकता। विचारों से किसी को माओवादी साबित करने के बाद अब पुलिस को यह भी बताना पड़ेगा कि संबंधित व्यक्ति माओवादियों की किस बैठक में शामिल था और किस गैरकानूनी कांड को अंजाम देने में उसने क्या भूमिका निभाई थी। हालांकि इस मामले में निर्णायक बदलाव अदालतें नहींए सरकार ही ला सकती है. अपने तंत्र को अधिक संवेदनशीलए जिम्मेदार और जवाबदेह बनाकर।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/other/opinion/editorial/articlelist

Sunday, 24 May 2015

एक मौत के ज़िंदा सवाल

एक मौत के ज़िंदा सवाल

आज से 42 साल पहले मुंबई के केईएम अस्पताल में एक वार्ड ब्वाय की दरिंदगी के दंश की शिकार हुई अरुणा शानबाग को आखिर मौत ने हरा ही दिया। तकरीबन 42 साल पहले 27 नवम्बर 1973 को नर्स के तौर पर कार्यरत अरुणा शानबाग के साथ उनके ही सहकर्मी वार्ड ब्वाय ने दुष्कर्म की जानलेवा कोशिश की। दरिंदगी की ऐसी दुर्दांत मिसालें कम ही मिलती हैं। उस दिन के बाद से ही अरुणा कोमा में थी।
सन‍् 2011 में 24 जनवरी को अरुणा के स्वास्थ्य जांच की जानकारी के सन्दर्भ में एक पैनल गठित किया गया। उस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि अरुणा जिन्दा तो है मगर कोमा में है। इसी बाबत सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उनकी इच्छा.मृत्यु की अर्जी भी दाखिल की गयी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस अर्जी को खारिज करते हुए सिर्फ इतनी इजाजत मंजूर की कि उन्हें जीवन रक्षक प्रणाली से हटा लिया जायेए न कि उन्हें मौत का इंजेक्शन दिया जाये। अरुणा ने साहस से मौत को 42 साल तक मात दी लेकिन आखिरकार मौत की जीत हुई।
आज अरुणा जरूर मर गयी हैंए लेकिन वो सवाल कतई नहीं मरेए जो अरुणा अपने मौन की भाषा में हमारे समाज और हमारी न्याय व्यवस्था से पूछती रही हैंघ् अरुणा की मौत के बीच उठी इस बहस में इस बात पर गौर करें कि उसका क्या हुआ जिसने अरुणा की ये हालत की थीघ् अरुणा के अपराधी को गिरफ्तार किया गयाए उस पर मुकदमा भी चला और दोषी भी साबित हुआ। मगरए उसे सिर्फ हमले और लूटपाट के लिए सात साल की सजा सुनाई गयीए न कि यौन दुष्कर्म की कोशिश का अपराधी उसे माना गया! यह अपने आप में एक सवाल है कि एक महिला की जिन्दगी को नरक बना देने वाले की सजा महज इतनी.सी क्योंघ् दरअसलए ऐसे फैसलों ने ही अपराधियों के हौसले बुलंद किये हैं और महिलायें आज भी खुद को महफूज़ नहीं महसूस कर रही हैं। इस बाबत अगर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा जारी किये गए आंकड़ों पर नजर डाली जाये तो भारत में प्रतिदिन 50 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिये जाने की बात सामने आती है। वहीं एक अन्य आंकड़े में ऐसा बताया गया है कि भारत में बलात्कार के ग्राफ में जिस रफ्तार से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है जो कि देश की अस्मिता को शर्मसार करने वाला आंकड़ा है।
आंकड़ों के आधार पर राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो द्वारा दिये गए निष्कर्ष में ऐसा बताया गया है कि भारत में हर 57 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार होता है। निश्चित तौर पर ये आंकड़े देश में महिलाओं कि स्थिति एवं उनके प्रति असंवेदनशील होते समाज एवं लचर प्रशासनिक व्यवस्था को दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। पिछली यूपीए सरकार द्वारा नए दुष्कर्म रोधी विधेयक को प्रस्तावित किये जाने के बावजूद भी बेलगाम होती बलात्कार की घटनाओं पर नियंत्रण कैसे पाया जायेए ये सवाल आज भी न सिर्फ प्रशासन बल्कि समूचे समाज के लिए चुनौती बना हुआ है। समाज के ये अराजक तत्व ये भूल रहे हैं कि महिलाओं का भी समाज निर्माण में समानांतर योगदान होता है या कई मामलों में दो कदम आगे की भूमिका होती है।
आये दिन हो रही बलात्कार की घटनाओं पर हमें न सिर्फ कानूनी तौर पर बल्कि सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक तौर पर और अधिक सजग एवं विकसित होने की जरूरत है। आज हमें उन कारणों को तलाशने पर ज्यादा बल देना होगा जो समाज को गलत दिशा में ले जाने के लिए उत्तरदायी हैं। कुछ समाजविदों का मानना है कि पश्चिमी संस्कृति के प्रति स्त्रियों एवं पुरुषों में बढ़ता असंतुलित एवं अनावश्यक आकर्षण भी बलात्कार को बढ़ावा देने में एक प्रमुख कारक है। वहीं तमाम समाजवेत्ताओं द्वारा इसके पीछे नशीले पेय या खाद्य पदार्थों पर नियंत्रण न होने को एक वजह के तौर पर माना जा रहा है। कुछ मामलों में मानसिक स्थिति को वजह के रूप में भी दिखाया गया है। इन तमाम वजहों के अलावा अगर देखा जाये तो एक वजह यह भी सामने आती है कि बलात्कार को लेकर हमारी प्रशासनिक पद्धति एवं न्यायिक प्रक्रिया कहीं न कहीं नाकाफी साबित हो रही हैए जिससे ऐसे घृणित अपराध पर काबू नहीं पाया जा सका है।

हालांकि इस दिशा में वर्तमान सरकार ने किशोर अपराधियों की उम्र सीमा कम करने का एक संशोधन जरूर किया है। आज जब बलात्कार के आरोपी को जेल तक की सजा देने से मामला बनता नहीं दिख रहा है तो उन दंड नीतियों पर भी अमल किया जाना चाहिए जिससे बलात्कारी के अंदर सामाजिक प्रायश्चित एवं ग्लानि का भाव उत्पन्न हो और वो समाज के सामने अपने किये पर प्रायश्चित करे। अरुणा अपनी मौत के बाद भी जिन सवालों को छोड़ गयी हैए उन सवालों से मुंह चुराकर हम नहीं भाग सकते। हमें जवाब खोजना होगा।
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आईएस की सफलता से गहराता संकट

आईएस की सफलता से गहराता संकट

 सीरिया और इराक में इन दिनों चल रही लड़ाई में इस्लामिक स्टेट की नाटकीय बढ़त दर्शाती है कि इस इलाके के लिए बनी अमेरिकी नीतियां काफी मुश्किल में हैं। जहां एक ओर इराक में विफल हुए अमेरिकी सैन्य अभियान के बाद ओबामा प्रशासन की इच्छा थी कि मध्य.पूर्व से अपना पिंड छुड़ाकर वहां से निकला जाएए वहीं दूसरी तरफ हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि उसे इस गड़बड़झाले में फिर से फंसना पड़ रहा है। सीरिया में सबसे ताजा हुए नुकसान में ऐतिहासिक शहर पलमेरिया पर आईएस का कब्जा होना है। जबकि इराक में बगदाद से सिर्फ एक घंटे की दूरी पर बसे शहर रामादी पर आईएस का प्रभुत्व कायम होने से राजधानी में भी खतरे की घंटी बज उठी है। इसके चलते इराकी हुक्मरानों ने आईएस से लोहा लेने में सबसे ज्यादा सख्तजान माने जाने वाले शिया लड़ाकों को मोर्चे पर भेज दिया है और अमेरिका ने इस अभियान में इराकी सेना को भारी हथियारों की मदद देने का भरोसा दिया है।
लेकिन जो विरोधाभासी परिस्थितियां और काम हो रहे हैंए वह सोच से परे हैं। सीरिया के क्षेत्र में आईएस पर हो रहे अमेरिकी हवाई हमले उलटे राष्ट्रपति बशर अल.असद;और परोक्ष रूप से ईरानद्ध को लाभ पहुंचा रहे हैंए जबकि अमेरिकी नीति उन्हें हटाने की थी। हालांकि इराक में पूर्व तानाशाह सद्दाम हुसैन को फांसी देने के बाद शिया समुदाय वहां पर ताकतवर होकर उभरा था और राजपाट इनके हाथ में आ गया थाए लेकिन रामादी और अनबार का पूरा इलाका सुन्नियों का मजबूत गढ़ है। पूर्व प्रधानमंत्री रहे नौरी.अल.मलिकी ने अपने लंबे कार्यकाल में इन दोनों समुदायों में तनाव को हवा दी थी। एक तरह से यही कारण था कि सुन्नी लोग आईएस के पाले में जाने को मजबूर हुए हैं।
शिया लड़ाकों से लैस इराक की राष्ट्रीय सेना को अमेरिका से मिलने वाला गोला.बारूद एक तरह से ईरान के ध्येयों की पूर्ति के हित में होगा। इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका ईरान से होने वाले एटमी करार के अंतिम प्रारूप को जून महीना खत्म होने से पहले तय करने में इच्छुक है। इस संधि से खाड़ी की राजशाहियों के मन में उठी शंकाओं का समाधान करने की खातिर राष्ट्रपति ओबामा ने कैंप डेविड में एक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया थाए लेकिन सऊदी अरब के सुल्तान सलमान का इस वार्ता में भाग न लेना चर्चा का विषय बना। अंत में जिन श्ाासकों ने इस शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया थाए उन्हें प्रस्तुत की गई सुरक्षा की नई गांरटी उम्मीद से कम निकली।
अमेरिका की यह दशा उस दुविधा का हिस्सा है जिसका सामना इस क्षेत्र में बड़ी भूमिका निभाने वाले अन्य देश भी कर रहे हैं। तथ्य तो यह है कि 2011 में अरब देशों में शुरू हुआ नवजनजागरण आंदोलनए जिसने इन्हें हिलाकर रख दिया थाए वह अपने वक्त से पहले ही आ गया था। केवल ट्यूनीशियाए जहां से यह शुरू हुआ थाए वही इसका एकमात्र उदाहरण फिलहाल बचा हुआ है। मिस्र में यह आंदोलन एक साल बाद ही तब खत्म हो गया जब इस देश में ईमानदारी से चुने गए पहले राष्ट्रपति मोहम्मद मोर्सी की सत्ता को सेना ने पलट दिया था और हाल ही में उन्हें फांसी की सजा भी सुनाई गयी है।
लीबिया में दो प्रतिद्वंद्वी सरकारें और बेलगाम कबीलाई लड़ाकों का राज है और इनके बीच गृह.युद्ध छिड़ा हुआ है। यमन भी अब अशांत देशों की फेहरिस्त में शामिल हो गया हैए वहीं ईरान समर्थित शियाओं के एक उपसमूह हूती समुदाय ने नाटकीय रूप से बढ़त बनाते हुए सुन्नी सरकार द्वारा संचालित देश के एक हिस्से पर अपना कब्जा बना लिया है। इसलिए अब इससे आगे अमेरिकाए इस क्षेत्र के महारथियों और शेष दुनिया के लिए क्या रास्ता हैघ् राष्ट्रपति ओबामा ने मिस्र की नई सैनिक सरकार से दोस्ताना कायम कर लिया है। चंूकि आईएस से होने वाला खतरा ज्यादा बड़ा हैए इसलिए अमेरिका द्वारा सीरिया के राष्ट्रपति असद के प्रति अपनाए कड़े रुख में अब नरमी आ गई है। यमन का मामला अधर में है।
सऊदी अरब के नए सुल्तान सलमान अपनी नए सिरे से बनाई सरकार को इस इलाके के राजनयिक खेल में शामिल करना चाह रहे हैं। यमन के साथ सऊदी अरब की लंबी सीमा रेखा है। हालांकि पाकिस्तान की निंदा इस बात को लेकर हुई है कि उसने यमन में चल रहे सऊदी अरब के सैन्य अभियान का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया है। लेकिन फिर भी सऊदी अरब यह आस रखे हुए है कि जरूरत के समय पाकिस्तान से परमाणु हथियार लेकर अपना बचाव कर सकता है।
अमेरिका के लिए अभी यह कहना मुश्किल है कि वह कब मध्य.पूर्व के इलाके से निकल कर मध्य एशिया की ओर अपना ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाएगाए जहां पर चीन अपना प्रभाव बढ़ाने में लगा हुआ है। अपने यहां तेल की ज्यादा उपलब्धता की बदौलत अब अमेरिका की मध्य.पूर्वी देशों से निकलने वाले तेल पर निर्भरता कम हो चली है और इस विपरीत माहौल में इस्राइल के हितों की रक्षा करने के अतिरिक्त उसके अपने हितों का स्तर भी कम हो चला है। लेकिन समस्या यह है कि मध्य.पूर्व से निकलने का कोई रास्ता नहीं है।
एक तोए इस 21वीं सदी में भी फिलीस्तीनियों के इलाके में स्थाई औपनिवेशिक बस्तियां बसाने की कवायद भले ही इस्राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू की सरकार के लिए आत्मघाती सिद्ध होगी। दूसरेए सीरिया और इराक के बड़े इलाके पर राज कायम करने को आतुर आईएस के उद्भव के बाद अमेरिका को लगता है कि अरब देशों के बीचोंबीच स्थित इस इलाके को एक आतंकी संगठन द्वारा कब्जा लेने के लिए यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। गल्फ को.ऑपरेशन कांउसिल के झंडे तले एकत्र खाड़ी की राजशाहियों को जो एक डर सता रहा हैए वह है कि इस बात की गुंजाइश ज्यादा है कि अमेरिका द्वारा लगाए आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्त होने के बाद ईरान इस इलाके के शियाओं को अपने साथ मिलाकर अपना प्रभुत्व बढ़ाने में लग जाएगा।

सीरिया में लंबे समय से चल रहे गृह युद्ध का अंत आने वाली स्थितियों का एक संकेत होगा। अगर अंदरखाते चल रही बातों पर यकीन करें तो आईएस विरोधी ताकतों का साथ आना इसलिए भी जरूरी है ताकि इस आतंकी संगठन से असरदार तरीके से निबटा जा सके। इसके लिए असद सरकार और अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी जगत के बीच एक तरह की सहमति बनने वाली है। इसके अलावा यदि तुर्की अपने यहां बड़ी संख्या में रहने वाले कुर्द अल्पसंख्यकों के साथ शांति प्रकिया पूरी करने में सफल हो जाता है तो इसका मतलब होगा कि आतंकी.रोधी शक्तियों की ताकत में भारी इजाफा होना।
फिलहाल तो ऐसी संभावना अभी कयास में ही है। लेकिन जो एकदम तय है कि आने वाले कुछ समय तक भी यहां भारी खून.खराबा चलता रहेगा। किश्तियां भर.भर के जो शरणार्थी यूरोप की ओर जा रहे हैंए वह इस समस्या का एक पहलू है।
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Saturday, 23 May 2015

इस शहरीकरण की कीमत भी समझिए


इस शहरीकरण की कीमत भी समझिए

हम जिस दुनिया को आज देख.सुन पा रहे हैंए उसमें शहरीकरण एक बड़ा पहलू है। सिर्फ भारत में नहींए अमेरिकाए ब्रिटेनए ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में भी शहरीकरण के नए से नए चेहरे अब तक सामने आ रहे हैं। जैसेए हाल में ब्रिटेन में एक नया अध्ययन सामने आया हैए जिसमें बिजली की राशनिंग की बात कही गई है। जिस किस्म का आक्रामक शहरीकरण हमारे देश में भी हो रहा हैए बहुत मुमकिन है कि ऐसे सुझाव यहां भी जल्द ही दिए जाने लगेंगे।
ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2035 तक वहां इंटरनेट का इस्तेमाल ही देश में उत्पादित समस्त बिजली का उपभोग करने लगेगा। हालांकि यह 20 साल बाद की बात हैए लेकिन वहां अभी ही 8 से 16 फीसदी बिजली की खपत इंटरनेट की वेबसाइटें चलाए रखने में हो रही है। इस समस्या को देखते हुए ब्रिटेन में सुझाव दिया गया है कि क्यों न अब बिजली की राशनिंग प्रणाली शुरू कर दी जाए। समस्या अकेले ब्रिटेन की नहीं हैए फिलहाल गरीब या विकासशील माने जा रहे भारत में भी ऐसा ही संकट उठ खड़ा होने को है। यह समस्या है बढ़ते शहरीकरण की।आज स्थिति यह है कि हमारे देश में हर कोई चाहता है कि शहरों का मौजूदा चेहरा बदले। उनमें सुधार होकृइसके वास्ते उन्हें स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने की होड़ है। वकालत हो रही है कि ऐसे शहरों में मेट्रो रेलए शॉपिंग मॉलए एम्यूजमेंट पार्क और मल्टीप्लेक्सों के साथ हर वह चीज उपलब्ध होए जो उन्हें अत्याधुनिक बनाती है। इस लिहाज से दिल्ली से लेकर देहरादून तक में शॉपिंग मॉल्स का खुलना एक बड़ी उपलब्धि है। कहा जाता है कि शॉपिंग मॉल लोगों को सिर्फ खरीददारी के लिए नहीं उकसाते हैंए बल्कि रोजगारों का सृजन भी करते हैं। पर ये शॉपिंग मॉल किस तरह देश के उपयोगी संसाधनों की बर्बादी का कारण भी बन रहे हैंए इसका एक संकेत पिछले साल जूनए 2014 में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के एक फैसले से मिल गया था।तत्काल प्रभाव से लागू किए गए उनके एक आदेश के तहत तय किया गया था कि दिल्ली के शॉपिंग मॉल्स को रात 10 बजे के बाद बिजली नहीं मिलेगी। यह बिजली संकट से निपटने की दिशा में एक छोटा और सांकेतिक उपाय जरूर था पर इससे एक बड़ी समस्या की तरफ नजर गई है। समस्या है शॉपिंग मॉल्स में खर्च या कहें कि बर्बाद होने वाली उस बेशकीमती बिजली कीए जिसकी देश के छोटे शहरोंए कस्बोंए गांवोंए खेतों व कारखानों को ज्यादा जरूरत है और जहां बिजली कटौती लगातार चलने वाला एक उपक्रम बन गया है।शॉपिंग मॉल्स में बिजली के इस्तेमाल की तीन प्रमुख वजहें हैं। एकए वहां ज्यादा से ज्यादा लोगों की आमदरफ्तए दो.मॉल खुले रहने की अवधि और तीन. उस कारोबार की प्रकृति जो वहां होता है। कई बार लोगबाग वहां खरीददारी करने की बजाय सिर्फ समय काटने के लिए जाते हैंए पर मॉल के हर कोने में मौजूद दुकान में पर्याप्त रोशनी और एयरकंडीशनिंग की व्यवस्था रखनी पड़ती है। इसके अलावा गलियारों को रोशन रखनेए पार्किंग और बाहरी सजावट पर भी शॉपिंग मॉल में बहुत ज्यादा बिजली का इस्तेमाल होता है जो कि एक आम दुकान में नहीं होता।शॉपिंग मॉल किसी आम बिल्डिंग के मुकाबले कितनी अधिक बिजली खाते हैंए इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संस्था. ग्रीनपीस ने वर्ष 2013 में चीन में एक तुलनात्मक अध्ययन किया था। ग्रीनपीस ने 236 व्यावसायिक इमारतों में बिजली की खपत की तुलना की और पाया कि एक औसत शॉपिंग मॉल में प्रति घंटे 658 किलोवॉट बिजली की खपत प्रति वर्गमीटर के दायरे में होती है। यह खपत चीन के ताई.कोकत्सुई नामक शहर में स्थित ओलंपियन सिटी वन में इस्तेमाल होने वाली बिजली के मुकाबले 13 गुना अधिक थी। औसत यह है कि 300 मेगावॉट बिजली उत्पादन करने वाले प्लांट की सारी बिजली एक बड़े शॉपिंग मॉल में ही खर्च हो जाती है।उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 के मई माह तक देश में 570 शॉपिंग मॉल चालू हालत में थेए जबकि सात साल पहले तक ऐसे मॉल्स की संख्या आधे से कम यानी 225 थी। यह आंकड़ा वर्ष 2013 में एक रीयल एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म के अध्ययन से सामने आया था। हालांकि ये आंकड़े इन मायनों में आश्वस्तकारी कहे गए थे कि चहुंओर छाई मंदी और खास तौर से रीयल एस्टेट सेक्टर में कायम कुहासे के बावजूद कहीं तो भूसंपत्ति की जबरदस्त मांग बनी हुई है।शॉपिंग मॉल्स का तेज विस्तार साबित करता है कि 90 के दशक में जिस आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थीए उसके असर से शहरी मध्यवर्ग के जीवन मेंए रहन.सहन में और कामकाज में काफी परिवर्तन हो गया है। अब शहरी कामकाजी तबका पूरे हफ्ते अपने दफ्तर और बिजनेस में मेहनत करने के बाद कमाए हुए पैसे को परिवार के साथ घूमने.फिरने और खरीददारी में खर्च करना चाहता है।
अभिषेक कुमारपर शॉपिंग मॉल के रूप में दिखने वाली चकाचौंध का सिर्फ एक पहलू है। दूसरा पहलू वह है जिसमें शॉपिंग मॉल एक बड़े विलेन के रूप में नजर आते हैं और संसाधनों पर डाका डालते हैं। जैसेए यह देखा जा रहा है कि जिन शहरी इलाकों में कोई बड़ा शॉपिंग मॉल खुल जाता हैंए वहां दशकों से बिजनेस कर रहे छोटे.छोटे सैकड़ों दुकानदारों का कामधंधा ठप हो जाता है। न तो इन छोटी दुकानों पर अब पहले की तरह ग्राहक आते हैं और न ही उन दुकानों में काम करने वाले कम पढ़े.लिखे लोग मिलते हैं जो शॉपिंग मॉल के मुकाबले कम मजदूरी पर वहां काम किया करते थे। यह सवाल अब जोरशोर से उठेगा कि जिस मात्रा में शॉपिंग मॉल में बिजली.पानी का खर्च होता हैए उसके अनुसार हरेक मॉल के लिए इतनी अधिक बिजली और पानी कहां से आएगाघ्पैसा बनाने की मुहिम में जुटे लोगों ने शॉपिंग मॉल्स जैसी चीजें बनाकर अपनी जेबें तुरत.फुरत भरने का नुस्खा तो सीख लिया हैए पर वे इस ओर से बिल्कुल बेपरवाह हैं कि उनका निर्माण किसी का अहित करने वाला तो नहीं है। दिल्ली हो या मुंबईए आलीशान इमारतों का निर्माण वहां जोरों पर है। उन भव्य भवनों के चलते हजारों लोगों की रोजी.रोटी छिन गई है और बिजली.पानी जैसे संसाधनों पर बेवजह भारी बोझ पड़ गया है।शॉपिंग मॉल्स के बनने और बढ़ने की यदि यही रफ्तार रहीए तो आने वाले वक्त में हजारों रोजगारों का संकट और बिजली.पानी जैसे संसाधनों की सर्वत्र कमी एक बड़ी त्रासदी के रूप में देश में उपस्थित हो सकती है।
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सरकारी विज्ञापनों का दायरा

सरकारी विज्ञापनों का दायरा

सरकारी विज्ञापनों के सहारे सत्तारूढ़ दल एवं गठबंधन और नेताओं की राजनीति चमकाने की कवायद पर उच्चतम न्यायालय द्वारा अंकुश लगाये जाने से राजनीतिक दलों और उनके नेताओं में जबरदस्त आक्रोश और बेचैनी व्याप्त है। न्यायालय के इस निर्णय से विज्ञापनों पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपए के राजस्व की बचत होगी।
सरकारी उपलब्धियों के प्रचार के विज्ञापनों में सिर्फ राष्ट्रपतिए प्रधानमंत्री और आवश्यकता पड़ने पर देश के प्रधान न्यायाधीशों की ही तस्वीरों के इस्तेमाल की छूट है। न्यायिक व्यवस्था में केन्द्र सरकार के मंत्रियों और नेताओं के साथ ही राज्यों के मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ दलों के नेता सकते में हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय के इन निर्देशों से उत्पन्न स्थिति से कैसे निबटा जाये। कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री इस फैसले पर पुनर्विचार याचिका दायर करने की बात कर रहे हैं तो कुछ का मानना है कि केन्द्र सरकार को ही सरकारी विज्ञापनों के बारे में कोई नीति या कानून बनाकर संरक्षण प्रदान करने की पहल करनी चाहिए।
अकसर चुनावों से ठीक पहले सत्तारूढ़ दल और गठबंधन के नेताओं की तस्वीरों के साथ बड़े.बड़े विज्ञापनों पर हो रहे खर्च पर अंकुश लगाने के लिये उच्चतम न्यायालय में 12 साल पहले गैर सरकारी संगठन ष्कामन काजष् ने एक जनहित याचिका दायर की थी। इस संगठन का तर्क था कि राजनीतिक हित साधने के लिये जनता के धन का दुरुपयोग किया जा रहा है जिनसे संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के प्रावधानों का हनन होता है। इस संगठन का यह भी कहना था कि सरकार विशेष को प्रोजेक्ट करने में जनता के धन का दुरुपयोग करने पर केन्द्र सरकार और सभी राज्य सरकारों पर अंकुश लगाया जाये। साथ ही जनकल्याण वाले विज्ञापनों के लिये एक दिशा.निर्देश प्रतिपादित किये जायें।
यह याचिका दायर करने की मुख्य वजह 2003 और 2004 में केन्द्र सरकारए राज्य सरकारों और उसके प्रतिष्ठानों तथा सार्वजनिक उपक्रमों द्वारा समाचार पत्रों में पूरे पन्ने के विज्ञापनों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के विज्ञापनों में सत्तारूढ़ दल के नेताओं का महिमामंडन किया जाना था।
इस संगठन का यह भी तर्क था कि आम चुनाव से ठीक पहले इस तरह के विज्ञापनों की भरमार हो जाती है और इसमें जनता के धन का इस्तेमाल किया जाता हैए जिसका लाभ सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं तथा उनसे नजदीकी रखने वाले मीडिया घरानों को मिलता है जबकि उनसे इतर विचारधारा रखने वाले राजनीतिक दल और मीडिया घरानों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है।
विषय के महत्व को देखते हुए न्यायालय ने पिछले साल 23 अप्रैल को भोपाल स्थित राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के पूर्व निदेशक एन आर माधव मेननए लोकसभा के पूर्व महासचिव टी के विश्वनाथन और वरिष्ठ अधिवक्ता ;अब सालिसीटर जनरलद्ध रंजीत कुमार की तीन सदस्यीय समिति गठित की जिसे तीन महीने के भीतर सरकारी विज्ञापनों के बारे में दिशा.निर्देश बनाने थे।
हालांकि समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राष्ट्रीय स्तर के विज्ञापनों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तथा राज्य स्तर के विज्ञापनों में राज्यपाल और मुख्यमंत्री की तस्वीर प्रकाशित की जा सकती है लेकिन न्यायालय ने इस सिफारिश को जस का तस स्वीकार नहीं किया।
न्यायालय ने कहा कि जनकल्याण के विज्ञापनों में अपवाद स्वरूप सिर्फ राष्ट्रपतिए प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश की तस्वीरों का इस्तेमाल हो सकता है। लेकिन जहां तक राष्ट्रपिता सरीखी हस्तियों की वर्षगांठ के अवसर पर विज्ञापनों का संबंध है तो इनमें निश्चित ही इन नेताओं की तस्वीरें भी प्रकाशित की जायेंगी। न्यायालय ने सरकारी विज्ञापनों के मामले में समाचार पत्रों के साथ होने वाले पक्षपात पर भी गौर किया और सरकार को निर्देश दिये कि ऐसे विज्ञापनों के मामलों में समाचार पत्रों की प्रसार संख्या के आधार पर ही उन्हें विज्ञापन दिये जाने चाहिए। सभी मीडिया घरानों के साथ समान व्यवहार करने और प्रसार संख्या के आधार पर उनके वर्गीकरण को ध्यान में रखते हुए उन्हें विज्ञापन देने पर न्यायालय ने जोर दिया है।
वैसे तो उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकार के साथ ही द्रमुक ने न्यायालय की इस व्यवस्था पर सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी है। राजस्थान सरकार ने तो पुनर्विचार याचिका दायर करने की संभावना भी व्यक्त की है।
न्यायालय के इस निर्णय से उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार की एलईडी प्रचार की और बिहार मेंए जहां सितंबर.अक्तूबर में विधानसभा चुनाव की उम्मीद हैए नीतीश कुमार सरकार द्वारा अपनी उपलब्धियों का बखान करने की योजनाएं प्रभावित हो सकती हैंए इसलिये ये राजनीतिक दल इसमें बदलाव की संभावनाएं तलाश रहे हैं।
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Friday, 22 May 2015

इस शहरीकरण की कीमत भी समझिए

इस शहरीकरण की कीमत भी समझिए

हम जिस दुनिया को आज देख.सुन पा रहे हैंए उसमें शहरीकरण एक बड़ा पहलू है। सिर्फ भारत में नहींए अमेरिकाए ब्रिटेनए ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों में भी शहरीकरण के नए से नए चेहरे अब तक सामने आ रहे हैं। जैसेए हाल में ब्रिटेन में एक नया अध्ययन सामने आया हैए जिसमें बिजली की राशनिंग की बात कही गई है। जिस किस्म का आक्रामक शहरीकरण हमारे देश में भी हो रहा हैए बहुत मुमकिन है कि ऐसे सुझाव यहां भी जल्द ही दिए जाने लगेंगे।
ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में कहा गया है कि वर्ष 2035 तक वहां इंटरनेट का इस्तेमाल ही देश में उत्पादित समस्त बिजली का उपभोग करने लगेगा। हालांकि यह 20 साल बाद की बात हैए लेकिन वहां अभी ही 8 से 16 फीसदी बिजली की खपत इंटरनेट की वेबसाइटें चलाए रखने में हो रही है। इस समस्या को देखते हुए ब्रिटेन में सुझाव दिया गया है कि क्यों न अब बिजली की राशनिंग प्रणाली शुरू कर दी जाए। समस्या अकेले ब्रिटेन की नहीं हैए फिलहाल गरीब या विकासशील माने जा रहे भारत में भी ऐसा ही संकट उठ खड़ा होने को है। यह समस्या है बढ़ते शहरीकरण की।
आज स्थिति यह है कि हमारे देश में हर कोई चाहता है कि शहरों का मौजूदा चेहरा बदले। उनमें सुधार होकृइसके वास्ते उन्हें स्मार्ट सिटी का दर्जा दिलाने की होड़ है। वकालत हो रही है कि ऐसे शहरों में मेट्रो रेलए शॉपिंग मॉलए एम्यूजमेंट पार्क और मल्टीप्लेक्सों के साथ हर वह चीज उपलब्ध होए जो उन्हें अत्याधुनिक बनाती है। इस लिहाज से दिल्ली से लेकर देहरादून तक में शॉपिंग मॉल्स का खुलना एक बड़ी उपलब्धि है। कहा जाता है कि शॉपिंग मॉल लोगों को सिर्फ खरीददारी के लिए नहीं उकसाते हैंए बल्कि रोजगारों का सृजन भी करते हैं। पर ये शॉपिंग मॉल किस तरह देश के उपयोगी संसाधनों की बर्बादी का कारण भी बन रहे हैंए इसका एक संकेत पिछले साल जूनए 2014 में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के एक फैसले से मिल गया था।
तत्काल प्रभाव से लागू किए गए उनके एक आदेश के तहत तय किया गया था कि दिल्ली के शॉपिंग मॉल्स को रात 10 बजे के बाद बिजली नहीं मिलेगी। यह बिजली संकट से निपटने की दिशा में एक छोटा और सांकेतिक उपाय जरूर था पर इससे एक बड़ी समस्या की तरफ नजर गई है। समस्या है शॉपिंग मॉल्स में खर्च या कहें कि बर्बाद होने वाली उस बेशकीमती बिजली कीए जिसकी देश के छोटे शहरोंए कस्बोंए गांवोंए खेतों व कारखानों को ज्यादा जरूरत है और जहां बिजली कटौती लगातार चलने वाला एक उपक्रम बन गया है।
शॉपिंग मॉल्स में बिजली के इस्तेमाल की तीन प्रमुख वजहें हैं। एकए वहां ज्यादा से ज्यादा लोगों की आमदरफ्तए दो.मॉल खुले रहने की अवधि और तीन. उस कारोबार की प्रकृति जो वहां होता है। कई बार लोगबाग वहां खरीददारी करने की बजाय सिर्फ समय काटने के लिए जाते हैंए पर मॉल के हर कोने में मौजूद दुकान में पर्याप्त रोशनी और एयरकंडीशनिंग की व्यवस्था रखनी पड़ती है। इसके अलावा गलियारों को रोशन रखनेए पार्किंग और बाहरी सजावट पर भी शॉपिंग मॉल में बहुत ज्यादा बिजली का इस्तेमाल होता है जो कि एक आम दुकान में नहीं होता।
शॉपिंग मॉल किसी आम बिल्डिंग के मुकाबले कितनी अधिक बिजली खाते हैंए इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण संस्था. ग्रीनपीस ने वर्ष 2013 में चीन में एक तुलनात्मक अध्ययन किया था। ग्रीनपीस ने 236 व्यावसायिक इमारतों में बिजली की खपत की तुलना की और पाया कि एक औसत शॉपिंग मॉल में प्रति घंटे 658 किलोवॉट बिजली की खपत प्रति वर्गमीटर के दायरे में होती है। यह खपत चीन के ताई.कोकत्सुई नामक शहर में स्थित ओलंपियन सिटी वन में इस्तेमाल होने वाली बिजली के मुकाबले 13 गुना अधिक थी। औसत यह है कि 300 मेगावॉट बिजली उत्पादन करने वाले प्लांट की सारी बिजली एक बड़े शॉपिंग मॉल में ही खर्च हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 के मई माह तक देश में 570 शॉपिंग मॉल चालू हालत में थेए जबकि सात साल पहले तक ऐसे मॉल्स की संख्या आधे से कम यानी 225 थी। यह आंकड़ा वर्ष 2013 में एक रीयल एस्टेट कंसल्टेंसी फर्म के अध्ययन से सामने आया था। हालांकि ये आंकड़े इन मायनों में आश्वस्तकारी कहे गए थे कि चहुंओर छाई मंदी और खास तौर से रीयल एस्टेट सेक्टर में कायम कुहासे के बावजूद कहीं तो भूसंपत्ति की जबरदस्त मांग बनी हुई है।
शॉपिंग मॉल्स का तेज विस्तार साबित करता है कि 90 के दशक में जिस आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थीए उसके असर से शहरी मध्यवर्ग के जीवन मेंए रहन.सहन में और कामकाज में काफी परिवर्तन हो गया है। अब शहरी कामकाजी तबका पूरे हफ्ते अपने दफ्तर और बिजनेस में मेहनत करने के बाद कमाए हुए पैसे को परिवार के साथ घूमने.फिरने और खरीददारी में खर्च करना चाहता है।

पर शॉपिंग मॉल के रूप में दिखने वाली चकाचौंध का सिर्फ एक पहलू है। दूसरा पहलू वह है जिसमें शॉपिंग मॉल एक बड़े विलेन के रूप में नजर आते हैं और संसाधनों पर डाका डालते हैं। जैसेए यह देखा जा रहा है कि जिन शहरी इलाकों में कोई बड़ा शॉपिंग मॉल खुल जाता हैंए वहां दशकों से बिजनेस कर रहे छोटे.छोटे सैकड़ों दुकानदारों का कामधंधा ठप हो जाता है। न तो इन छोटी दुकानों पर अब पहले की तरह ग्राहक आते हैं और न ही उन दुकानों में काम करने वाले कम पढ़े.लिखे लोग मिलते हैं जो शॉपिंग मॉल के मुकाबले कम मजदूरी पर वहां काम किया करते थे। यह सवाल अब जोरशोर से उठेगा कि जिस मात्रा में शॉपिंग मॉल में बिजली.पानी का खर्च होता हैए उसके अनुसार हरेक मॉल के लिए इतनी अधिक बिजली और पानी कहां से आएगाघ्
पैसा बनाने की मुहिम में जुटे लोगों ने शॉपिंग मॉल्स जैसी चीजें बनाकर अपनी जेबें तुरत.फुरत भरने का नुस्खा तो सीख लिया हैए पर वे इस ओर से बिल्कुल बेपरवाह हैं कि उनका निर्माण किसी का अहित करने वाला तो नहीं है। दिल्ली हो या मुंबईए आलीशान इमारतों का निर्माण वहां जोरों पर है। उन भव्य भवनों के चलते हजारों लोगों की रोजी.रोटी छिन गई है और बिजली.पानी जैसे संसाधनों पर बेवजह भारी बोझ पड़ गया है।
शॉपिंग मॉल्स के बनने और बढ़ने की यदि यही रफ्तार रहीए तो आने वाले वक्त में हजारों रोजगारों का संकट और बिजली.पानी जैसे संसाधनों की सर्वत्र कमी एक बड़ी त्रासदी के रूप में देश में उपस्थित हो सकती है।
SOURCE: DAINIKTRIBUNEONLINE.COM