Monday, 1 June 2015

चर्म नहींए मर्म के गुण बांचिए

चर्म नहींए मर्म के गुण बांचिए

समाज में एक बहुत बुरी प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। वह है किसी का भी उपहास करने की अशोभन प्रवृत्ति। जरा.सा किसी को लंगड़ाते हुए या अनायास फिसल कर गिरते देख कर आदमी उपहास करते हैं और ऐसे व्यक्ति का मज़ाक उड़ा कर स्वयं को बहुत ष्बड़ा बुद्धिमानष् मानते हैं। कौन ऐसा हैए जिसमें कोई दुर्बलता या कोई कमी नहीं होतीघ् यह वह महत्वपूर्ण प्रश्न हैए जो महान दार्शनिक अष्टावक्र ने अपना उपहास करते हुए राजा जनक की सभा में उपस्थित समस्त विद्वानों से पूछा था।
भारतीय पुराणों में कथा है कि अष्टावक्र जब ष्गर्भष् में थेए तभी उन्हें वेदों का बोध हो गया था। वे महान दार्शनिक और शास्त्रों के ज्ञाता थे तथा जहां भी शास्त्रार्थ करते थेए विजयी होते थे। मिथिला के राजा जनक तो उन्हें अपना ष्गुरुष् ही मानते थे।
एक बार की बात है कि राजा जनक के दरबार में बड़े.बड़े विद्वान शास्त्रार्थ के लिए एकत्र हुए। जब अष्टावक्र को यह ज्ञात हुआ तो वे भी राजा जनक की राजसभा में पहुंच गए। एक या दो नहींए पूरे आठ स्थानों की शारीरिक विकृतियां देखकर दरबार में बैठे सभासद बुरी तरह हंसने लगे और विकलांग अष्टावक्र का मज़ाक उड़ाने लगे। जब घोषणा हुई कि अष्टावक्र ष्शास्त्रार्थष् करने आए हैं तो दरबार में बड़े ही जोरों का ठहाका लगा। विद्वान अष्टावक्र अपने स्थान से उठकर जनक की राजसभा के बीचोंबीच जाकर खड़े हो गए और सबको देख कर हंसे। फिर गंभीर स्वर में बोलेकृहम तो समझते थे कि विदेहराज की राजसभा में ष्पंडितष् भी होंगेएलेकिन यहां तो सबके सब ष्चर्मकारष् ही निकले। अब क्या थाए सारी की सारी सभा दार्शनिक अष्टावक्र की ओर देखने लगी। तभी विनम्रता के साथ राजा विदेह ने पूछाकृभगवन! रुष्ट न हों। मुझे केवल यह बताइए कि आपने मेरी राजसभा में बैठे हरेक व्यक्ति को चर्मकार क्यों कहा हैघ् यहां तो अनेक विद्वान और शास्त्रज्ञ बैठे हुए हैंघ् कृपा करके आप चर्मकार कहने का अभिप्राय तो मुझे अवश्य बताएं।
विदेहराज जनक की बात सुनकर अष्टावक्र ने अत्यंत धीर और गंभीर वाणी में जीवन का तत्व बताते हुए कहा.महाराज जनक! सभी जानते हैं कि ष्आत्माष् नित्य हैए शुद्ध.बुद्ध हैए निर्लेप हैए अनश्वर और निर्विकार है। इसका अर्थ यही तो है कि प्रत्येक व्यक्ति की ष्आत्माष् पूर्णतः निर्विकार हैए उसमें कोई विकार या दोष हो ही नहीं सकता। जो ष्आत्माष् सब में हैए वही तो मुझ में भी है। जो भी व्यक्ति इस ष्ब्रह्म सत्यष् को जानता हैए वही ज्ञानी हैएपंडित हैएशास्त्रज्ञ और विद्वान है। जिसे इस निर्विकार ष्आत्माष् की ही पहचान नहींएबल्कि जो ष्चर्मष् से ढके हुए इस ष्अस्थि.मांसष् के शरीर को देख कर हंसता हैए उसे भला आत्मा का बोध कहां हो सकता हैघ् राजन! ऐसे व्यक्ति को तो केवल चर्म का ही बोध होता है। इसीलिए मैंने यहां उपस्थित हुए सभी को चर्मकार कहा है। बताइएए क्या ऐसा कहना सही नहीं हैघ्
राजा जनक की पूरी राजसभा में सन्नाटा छा गया और विद्वानों के सिर शर्म से झुक गए। तब अष्टावक्र फिर से बोलेकृराजन! मुझे तो इन विद्वानों की बुद्धि देख कर हंसी आई थी कि जो लोग आत्मा जैसे विषय पर शास्त्रार्थ करने आए हैंए उन सबका ध्यान तो मेरी चमड़ी पर ही अटका हुआ है। ये शास्त्रों के ज्ञाता तो हो ही नहीं सकते। राजा जनक अपने सिंहासन से उतर कर आए और उन्होंने अष्टावक्र की चरण.वंदना करके आशीर्वाद लिया।
ऐसा ही प्रेरक प्रसंग हिंदी के भक्त कवि मलिक मुहम्मद जायसी के जीवन का भी हैए जो आज की युवा पीढ़ी के लिए वरदान और प्रेरणा का स्रोत हो सकता है। एक बार शेरशाह सूरी ने प्रशंसा सुनकर महाकवि जायसी को राजदरबार में बुलाया। जायसी आए तो बादशाह सूरी उनकी एक आंख ष्बंदष् देखकर हंस पड़ा। जायसी ने उसी समय दो पंक्तियां रचीं और शेरशाह सूरी को सुना दीकृ
मो कंह हंससीघ् कि कोहरहींघ्
अर्थात.हे राजा! मुझ पर हंस रहा है या कुम्हार पर हंस रहा हैघ् मुझे जिस कुम्हार यानी खुदा ने बनायाए यह गलती तो उसकी है कि मेरी ष्एक आंखष् फूटी हुई बना दी है। शेरशाह भरी सभा में लज्जित हुआ था।
समाज में ष्विकलांगोंष् को देखकर जब भी कोई हंसता है या उनका मज़ाक उड़ाता हैए तो इस मार्मिक बोध कथा का ष्एकष् शब्द चर्मकार याद आता है और अंतर्मन विचारता है कि कब आदमी चर्म के नीचे छिपे ष्अस्थि.मांसष् को छोड़करए आदमी की आत्माए विद्वत्ता और ज्ञान की परख करना सीखेगाघ् वास्तव में हम अपनी युवा पीढ़ी को ऐसी बोध.कथाओं का अमृत अवश्य देंए जिससे आने वाला व्यक्ति चर्मकार न होकर आत्मा के निर्विकार रूप की कद्र करना सीख सके। याद रखिएए किसी का उपहास करने वाला अपनी ही दुर्बलता को व्यक्त करता है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05/

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