Saturday, 13 June 2015

सफल ऑपरेशन के बाकी सवाल

सफल ऑपरेशन के बाकी सवाल

म्यांमार में चार महीने बाद आम चुनाव हैं। एक ऐसा देशए जहां चार माह बाद चुनाव होना हैए वहां सत्ता और विपक्ष को जवाब देना होता है कि उसकी धरती पर पड़ोसी राष्ट्र की सेना कैसे और क्यों उतरी। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि म्यांमार के सैनिक शासकों ने इसकी अनुमति दी होगी। लेकिन क्या हमारे पास उनके हस्ताक्षर वाले दस्तावेज़ी सबूत हैंघ् या कोई इलेक्ट्रानिक संदेश तो होगा हीए जिसके माध्यम से वहां के शासन प्रमुख ने इसकी अनुमति दी होगी। यदि ऐसा कुछ रिकार्ड है तो उसे फौरन सार्वजनिक करना चाहिए।
ऐसा क्यों है कि म्यांमार इससे इनकार कर रहा है कि उसकी ज़मीन पर अतिवादियों के विरुद्ध ऐसा कोई ऑपरेशन चला ही नहींए जिसका दावा भारत सरकार के मंत्री और प्रवक्ता कर रहे हैं। म्यांमार प्रेसिडेंशियल ऑफिस के डायरेक्टर ज़ाव ह्ताय ने फेसबुक पर लिखाए ष्हमें जानकारी है कि यह कार्रवाई भारतीय सीमा में हुई है। म्यांमार किसी पड़ोसी देश से हमले को स्वीकार नहीं करताए जो हमारे लिए समस्या का कारण बने।ष् म्यांमार के अधिकारी ने ऐसा बयान क्यों दियाए क्या उसे किसी बाहरी शक्ति के दबाव में फेसबुकिया संदेश देने को कहा गया हैघ् बाहरी शक्ति का मतलब चीन और पाकिस्तान ही नहींए यूरोपीय देश भी हो सकते हैं। म्यांमार के विदेश मंत्री ऊ वुन्ना माउंग ल्विन की ओर से इस विषय पर अब तक चुप्पी है। बताया यह जा रहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल बांग्लादेश इसलिए नहीं गयेए क्योंकि उनकी देखरेख में सीमा के आर.पार छिपे एनएससीएन.खापलांग के दहशतगर्दों के सफाये का ऑपरेशन चलाया जाना था। यह ख़बरें भी छन कर आईं कि प्रधानमंत्री मोदी को इस ऑपरेशन की पल.पल की जानकारी दी जा रही थी। ठीक वैसे हीए जैसे एबटाबाद में अमेरिकी कमांडोए ओसामा बिन लादेन को मार गिराने की लाइव रिपोर्टिंग व्हाइट हाउस को कर रहे थे।
क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि हमारे मंत्रियों ने ज्य़ादा ही ताल ठोक दी हैघ् हम घुस कर मारेंगेए ऐसा कहना क्यों ज़रूरी थाघ् मार्च 1971 में तो हमने घुस कर ही मारे थे। लेकिन हल्ला बोल कार्यक्रम नहीं किया था। यह आर एंड डब्ल्यू का सबसे बड़ा और कामयाब ऑपरेशन थाए जिससे दुनिया जान गई कि भारत की खुफिया एजेंसी कुछ बड़ा कर गुजऱने में सक्षम है। हमारी सेना तो 1965 से जवाब देती आ रही है। मगर पाकिस्तान के दर्द को उखाड़ने और उसे बार.बार याद दिलाने की ज़रूरत क्या थीघ्
म्यांमार में कोई पहली बार भारत विरोधी दहशतगर्दों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है। अप्रैल.मई 1995 और जनवरी 2006 में भारतीय सेना ने अतिवादियों के विरुद्ध ऐसी ही कार्रवाई की थी। लेकिन उस समय भारत सरकार के जो मंत्री और प्रवक्ता थेए वे इस तरह आत्ममुग्ध होकर बयान नहीं दे रहे थे। आतंकवादियों के खिलाफ भारतीय सेना की असल कार्रवाई दिसंबर 2003 में दक्षिणी भूटान में हुई थीए जिसमें अल्फा के 13 कैंपए एनडीएफबी के 12 और केएलओ के पांच कैंप नेस्तनाबूद किये गये थे। लेकिन तब भी तत्कालीन सरकार ने स्वयं को महिमा मंडित नहीं किया था। ऐसी कार्रवाई के बाद हम कम बोलें तो षड्यंत्रकारियों में ज्यादा भय पैदा होता है।
योंए भारत सरकार को जिस मोर्चे पर बोलना चाहिए थाए उससे लगातार किनारा करने की आदत बनी हुई है। एनएससीएन का नेता एसएस खापलांग म्यांमार के टागा बेस से लंबे समय गायब है। उसके बारे में पता चला है कि यांगून के किसी अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है। क्या कभी भारत सरकार की ओर से उसके प्रत्यर्पण की मांग की गईघ् हम इतना ताल ठोक रहे हैं तो हमारे कमांडो इस कांड के सूत्रधार एसएस खापलांग को म्यांमार के भूमिगत ठिकाने से क्यों नहीं उठा लेतेघ् हम ऐसा इसलिए भी नहीं कर सकते क्योंकि म्यांमार.भारत के बीच प्रत्यर्पण संधि नहीं हुई है। 2010 में भारत.म्यांमार के बीच अपराध पर नियंत्रण के वास्ते म्युचुअल लीगल असिस्टेंट ट्रीटी्य हुई थीए उससे आगे हम नहीं बढ़ पाये थे। हम बांग्लादेशए थाईलैंडए फिलीपींसए इंडोनेशिया से प्रत्यर्पण संधि कर पाये हैंए लेकिन ऐसा म्यांमार से नहीं हुआ। पूर्वोत्तर से अतिवाद समाप्त नहीं होने का एक प्रमुख कारण यह भी रहा है। 16.17 जून 2014 को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की देखरेख में म्यांमार से सीमा पर सहयोग के लिए हस्ताक्षर हुआ था। लेकिन प्रत्यर्पण संधि कर पाने में हम अब तक क्यों विफल रहेघ् बांग्लादेश से हमने प्रत्यर्पण संधि की हुई है। फिर भी 1997 से गिरफ्तार अल्फा लीडर अनूप चेतिया को हम बांग्लादेश से भारत नहीं ला पाये। मोदी इसमें क्यों नहीं कामयाब हुएघ्

पुष्परंजन

ओन्जिया कैंप मणिपुर की सीमा से मात्र तीन किलोमीटर अंदर म्यांमार का हिस्सा है। 2009 में इसी ओन्जिया कैंप से यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट ;यूएनएलएफद्ध के अतिवादियों ने मणिपुर के कामजोंग गांव में सेना के एक जवान और पांच लोगों को मार डाला था। सीमा के आर.पार ऐसे दर्जनों कैंप हैं। मणिपुर में बदला लेने के लिए म्यांमार से अतिवादी आएंगेए ऐसी रेड अलर्ट वाली ख़बरों से समझ में नहीं आता कि पूरे मामले को सर्कस क्यों बनाया जा रहा है। क्या मणिपुर में नगा अतिवादी नहीं हैंघ् नगालैंड फॉर क्राइस्ट का नारा देने वाले और स्वतंत्र ईसाई स्टेट ;नागालिमद्ध का मनसूबा पालने वाले एनएससीएन के 4500 लड़ाके खापलांगए इशाक चिशी स्वू और टी मुइबा में खेमों में बंटे ज़रूर हैंए लेकिन 31 जनवरी 1980 को उन्होंने जो संकल्प लिया थाए उससे डिगे नहीं हैं। इसलिए इनसे न तो दोस्ती अच्छी हैए न ही दुश्मनी!


SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

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