लोकतंत्र में शहंशाह की जगह नहीं
यह प्रपंच काफी पुराना है। आज से कोई दो सौ साल पहले एडमंड बुरके ने वारेन हेस्टिंग के खिलाफ चलाये गए अभियोग में निष्ठुरता दर्शायी थी। बुरके ने हेस्टिंग पर न केवल कार्यालय के दुरुपयोग के आरोप लगाये बल्कि हजारों गुणगान करने वाले लोग जुटाने की बात कहीए जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के दुराचार व पापों को तर्कों के सहारे सही ठहराने का प्रयास करते रहे। आज दो सौ साल बाद हम पाते हैं कि हजारों से अधिक अनुबंधित जुबानें नरेंद्र मोदी के देश में प्रधानमंत्री के रूप में एक साल का कार्यकाल पूरा होने पर समर्थन गीत गाने में एक.दूसरे का मुकाबला करती नजर आ रही हैं। धरती पर सर्वोत्तम व चमकदार उपलब्धियां दिखाने का प्रयास हो रहा है जबकि मोदी सरकार के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज किया जा रहा है। देश की बड़ी ऊर्जा का क्षय परिकल्पित उपलब्धियों के बखान में किया जा रहा है। इसके बावजूद कोई प्रधानमंत्री को यह बताने को तैयार नहीं है कि मोदी लहर बीते दिनों की बात हो चुकी है।
वर्ष 2014 में आम चुनाव में जीत के बाद जो भरोसा जगा था वह एक कालखंड की उपज थाए जो लोगों की बेताबी व गुस्से की परिणति थी। यह सर्वविदित तथ्य है कि हर लोकतांत्रिक जनादेश को विशिष्ट संदर्भों में ही समझा जा सकता है। एक जीत स्वतरू ही संदर्भों को बदल देती है। चुनावी युद्ध में सत्ता हासिल करने के बाद विजेता का दायित्व बनता है कि संवैधानिक प्रावधानों व राजनीतिक मापदंडों के अनुरूप शासन के जरिये लक्ष्यों को हासिल करे। हालांकि मोदी अपेक्षित बदलाव नहीं ला पाए हैं। कहीं वे बदलाव के प्रति अनिच्छुक नजर आते हैंए जैसा कि वे विगत की कड़वाहट को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। जबकि वे हर सुबह अपने तेवरों को तल्खी देते नजर आते हैं और इसे संतुष्टि और आनंद भाव से लेते हैं।जुबानी जमा.खर्च की मोदी मरहम से राहत देने की कोशिश प्रधानमंत्री के राजनीतिक व्यक्तित्व का हिस्सा है। उनका यह व्यक्तित्व आकर्षक ढंग से गढ़ा गया और आग्रहपूर्वक उस टकराव के परिवेश में जब गुजरात में 2002 में मुस्लिम विरोधी दंगे हुए थे। लगभग एक दशक तक गुजरात दंगों के दुरूस्वप्नों व मायनो को लेकर आरोप.प्रत्यारोपों के दौर ने उनका राजनीतिक व्यक्तित्व गढ़ने का काम किया। पहले उनका अटल बिहारी वाजपेयी से टकराव हुआ और कालांतर उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु व संरक्षक लालकृष्ण आडवाणी को किनारे किया। फिर अपनी पार्टी पर वर्चस्व स्थापित करके कांग्रेसए इसके नेतृत्व और सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उनके द्वारा छेड़े गए बेधड़क युद्ध के चलते उन्होंने चुनावी समर में अप्रत्याशित जीत हासिल कर ली। मगर जहां वर्ष 2014 में उनका स्वच्छंद पौरुष प्रीतकर था वहीं एक साल बाद यह प्रत्यक्षतरू अरुचिकर नजर आता है।
सर्वविदित तथ्य है कि किसी सत्ता प्रतिष्ठान की कार्य दिशा के बाबत महान राजनीतिक विचारक एंटोनियो ग्रामस्की ने कहा था कि यह बौद्धिक व नैतिक नेतृत्व होना चाहिए। नेतृत्वकारी समूहए खासकर लोकतांत्रिक पद्धति मेंए का दायित्व बनता है कि वह असंतुष्ट नागरिकों की अपेक्षाओं के अनुरूप खुद को ढालने का बार.बार प्रयास करे। आधुनिक शासन व्यवस्था में शासकों ने दिशा निर्धारण की आवश्यकता को समझते हुए राष्ट्रीय संबोधन व संवाद कारकों के महत्व को पहचाना है। कुछ सत्ताओं ने इसे प्रभावशाली ढंग से अंजाम दिया मगर जो इसके अनुरूप पूर्णता से कार्य नहीं कर पायेए उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। लगता है मोदी सरकार इस बाबत दृढ़ संकल्प नजर आती है कि वह अपनी पूर्ववर्ती सरकार की गलती न दोहरा दे। प्रधानमंत्री स्वयं सहजता से प्रचारतंत्र की बागडोर संभाले हुए हैं।
किसी भी राष्ट्रीय कार्यपालिका को इस बात के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए कि वह भ्रम में रहे कि लुभावने नारों का शोर और शब्दाडंबर प्रभावोत्पादक शासन का विकल्प बन सकता है। मोदी सरकार ने इस तथ्य को पहचानने से इनकार किया हैए तभी उनकी सरकार शासन व्यवस्था में नए प्राण भरने में विफल रही है। यह तथ्य मददगार साबित नहीं होता कि गुजरात सरकार चलाने के दौरान वे काम में डूबे रहते थे। लगता है कि उनका विश्वास है कि वे उसी तरह की श्रद्धाए आज्ञाकारिता और अनुकूलता के अधिकारी हैं जैसी कि गांधीनगर में मिलती थी। मगर नई दिल्ली गांधीनगर नहीं है। परिदृश्य बदल चुका है मगर व्यक्ति नहीं बदला। शायद दोष उनके अनुभवी और मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सहयोगियों और स्वयंभू बुद्धिजीवियों का भी हैए जिन्हें बताना चाहिए था कि लोकतंत्र प्रधानमंत्री चुनता हैए शहंशाह नहीं।
भारतीय संविधान के अनुसार जनादेश किसी नेता और उसकी पार्टी को देश को संचालित करने का अधिकार देता हैए वह भी स्वीकार्य संवैधानिक व्यवहार और परंपराओं के अनुरूप। कोई नेताए अब चाहे संसद में उसका बहुमत होए यह नहीं सोच सकता कि वह व्यवस्था के औचित्य व किन्हीं बाध्यताओं से परे है। कोई प्रधानमंत्री राजनीतिक संस्थानों और स्थापित प्रक्रियाओं से ऊपर नहीं हो सकता। मोदी को यह जान लेना चाहिए कि कम से कम 1977 के बाद भारतीय राजनीति में विश्वास और परंपराएं स्थापित हो चुकी हैं वह किसी भी अधिपति प्रत्यक्षीकरण को सिरे से खारिज करती हैं।
मोदी का मामला कमोबेश ऐसी स्थितियों से दो.चार है। उनका राजनीतिक व्यक्तित्व प्रधानमंत्री के रूप में तब खिन्न नजर आता है जब लोकतांत्रिक मान्यताओं के प्रति जवाबदेही की बात की जाती है। उनकी धारणा है कि वह अकेले ही राष्ट्र को मुसीबतों से उबार सकते हैं। विडंबना ये है कि ऐसी परिस्थितियां बना ली गई हैं कि उनके अधीनस्थ यहां तक कि उनके वरिष्ठ सहयोगी बहुप्रचारित महत्वाकांक्षा भाव से त्रस्त हैं। यह दुरूह स्थिति है कि कोई प्रधानमंत्री विदेश की धरती पर यह दावा करे कि उनके सत्ता में आने से पहले लोग खुद को भारतीय कहने में शर्म महसूस करते थे। यह खुद को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने की पराकाष्ठा ही है। यह जुबान की सामान्य फिसलन नहीं कही जा सकती। एक राजनेता के लिए अपने विपक्षियों को सिरे से खारिज करना अलग बात है मगर यह विवाद का विषय है कि मोदी अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री के रूप में प्रतीक पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी की गरिमा का अवमूल्यन करें। उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी जैसे सुषमा स्वराजए अरुण जेटली और वेंकैया नायडूए जो दस साल पहले एनडीए सरकार का महत्वपूर्ण हिस्सा थेए अब खामोश कर दिए गए हैं। उनकी खामोशी बेचैन करने वाली है।
इसके अलावा लगता है कि अपने कार्यालय में मोदी ने सादगी और गंभीरता जैसे शब्दों को अपनी टकराव की राजनीति की व्याकरण में जगह नहीं दी है। लगता है कि टकराव की नीति उनकी फितरत का हिस्सा बन गयी है। जैसे किसी दबंग की वापसी में हर जवाब सवाल की तासीर के साथ दिया जाए। इसके अलावा मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पहले ही आघात से आहत आत्ममंथन के दौर से गुजर रही है। लगता है वह आए दिन प्रधानमंत्री को उकसाने वाले हमलों से ही खुश नजर आ रही है। बहरहाल प्रधानमंत्री का आक्रामक रवैया विवादों को जन्म देने वाला है और सरकार की कार्यप्रणाली और व्यवहार में अस्वस्थ परंपराओं को जन्म देने वाला भी।
इसी क्रम में देश खुद को दुविधा की स्थिति में पाता है। भारतीय राज्य के लिए जरूरी है कि कार्यप्रणाली में प्रभावकारीए ठोस और उद्देश्यपूर्ण कार्य हों मगर प्रधानमंत्री का राजनीतिक व्यक्तित्व और उनकी कार्यशैली की प्राथमिकता गंभीर शासन की प्रक्रिया से ध्यान भंग करते हैं। एक साल का समय बहुत कुछ करने के लिए काफी होता है। इस संदर्भ में वाल्टर बागेहॉट का क्लासिक कथन उल्लेखनीय हैकृष्जादू का पराभवष् मगर प्रधानमंत्री मुगालते में हैं और इस छद्म आभामंडल को अपनी तरकीबों और संबोधनों से बरकरार दिखाना चाहते हैं।
सरकार मुश्किल दिनों की तरफ बढ़ रही है। आपातकाल से पूर्व की स्थितियों को याद करते हुए टकराव की फिसलन से बचने की जरूरत है। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की गंभीर जिम्मेदारी है कि वे प्रधानमंत्री को वाजपेयी दौर की उदारवादी नीतियों से प्रेरित करें। अनुदारवाद और शब्दाडंबर से राजनीतिक कौशल हासिल नहीं होता। किसी भी प्रधानमंत्री को यह हक नहीं कि वह राजनीतिक संयम की परंपराए औचित्य और सहमति को नकारे। गहरे तक विभाजित समाज पर विभाजनकारी मुहावरों व विभाजक नेता द्वारा शासन नहीं किया जा सकता।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06
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