Tuesday, 23 June 2015

सिर्फ पौधारोपण से नहीं बचेगा पर्यावरण

सिर्फ पौधारोपण से नहीं बचेगा पर्यावरण

विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने सरकारी आवास पर कदम्ब का एक पौधा लगाया। उन्होंने सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता को दोहराया रू.
ष्यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता यमुना के तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे.धीरे।ष्
मोदी की भावनाओं का स्वागत है परंतु पर्यावरण का विषय इससे ज्यादा गम्भीर है। सुभद्रा कुमारी चौहान मान कर चली थीं कि यमुना तो बहती ही रहेगी। विषय केवल कदम्ब के पेड़ को लगाने का था। देश की नदियां और जंगल ही नहीं बचेंगे तो रेसकोर्स रोड परिसर में कदम्ब का पेड़ लगाने की क्या सार्थकता हैघ्
आइये देखें कि इन दोनों उद्देश्यों को मोदी सरकार किस प्रकार एक साथ हासिल कर रही है। देश के पर्यावरण कानूनों की समीक्षा करने के लिए मोदी सरकार ने पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में एक हाई लेवल कमेटी गठित की थी। कमेटी में पर्यावरण से सम्बन्ध रखने वाले केवल एक ही व्यक्ति थे विश्वनाथ आनन्द। नेशनल इंवायरमेंट अपेलेट अथारिटी के उपाध्यक्ष के पद पर इनके सामने पर्यावरण रक्षा के जितने वाद आये थेए सबको इन्होंने खारिज कर दिया था।
दो माह पूर्व राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों को सम्बोधित करते हुए मोदी ने कहा कि कोयले की खदानों से पर्यावरण संरक्षण के लिये पहले जो शुल्क राशि ली जाती थीए उसे चार गुणा बढ़ाया जा रहा है। यह राशि काटे गये जंगल के मूल्य की ली जाती है। वर्तमान में घने जंगलों के लिये 10 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की राशि वसूल की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मूल्य को रिवाइज करने को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेंट को कहा गया था। इन्होंने इस रकम को बढ़ा कर 56 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर कर दिया था।

यानी इन्होंने 5ण्6 गुणा वृद्धि की संस्तुति की है। मोदी ने इसे घटाकर मात्र चार गुणा करने की बात की है।
वर्तमान में सभी संरक्षित क्षेत्रों जैसे इको.सेंसेटिव जोनए वाइल्ड लाइफ पार्क इत्यादि में कोयले की खदानें प्रतिबन्धित हैं। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि संरक्षित क्षेत्रों के केवल उन हिस्सों में कोयले की खदानों को प्रतिबन्धित रखा जाये जहां जंगल का घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक है। संरक्षित क्षेत्रों के शेष हिस्सों को खदान आदि के लिये खोल दिया जाये। अतः आने वाले समय में संरक्षित क्षेत्र में कोयले की खदान को छूट देने की तरफ मोदी बढ़ रहे हैं।
पर्यावरण और विकास को साथ.साथ लेकर चलने के लिये जरूरी है कि इस संतुलन की सरकारी समझ को न्यायालय में चुनौती दी जा सके। जैसे सरकार ने मन बनाया कि जंगल में कोयले की खदान करने से पर्यावरण और विकास साथ.साथ चलेंगे। दूसरा मत हो सकता है कि संरक्षित क्षेत्रों में कोयले की खदान पूर्णतया प्रतिबन्धित रखी जाये। पर्यावरण और विकास दोनों तरह से साथ.साथ चलते हैंए ऐसा कहा जा सकता है। वर्तमान में ऐसे मुद्दों पर जनता नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में वाद दायर कर सकती है। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि ऐसे वाद को सुनने के लिये एक अपीलीय बोर्ड बनाया जायेए जिसके अध्यक्ष हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज होंगे और सदस्य दो सरकार के सचिव होंगे। अपीलीय बोर्ड में पर्यावरणविद् के लिये कोई जगह नहीं है। यानी पर्यावरण सम्बन्धी विवाद निपटाने के लिये इन्हें पर्यावरण विशेषज्ञों के ज्ञान की जरूरत नहीं है।
मोदी ने गंगा की सफाई की बात की है। इस बिन्दु पर सरकार द्वारा कुछ सार्थक कदम भी उठाये गये हैंए विशेषकर गंगा बेसिन में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर नकेल कसने की दिशा मेंए लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। नदी में बहता पानी हो तो नदी प्रदूषण को स्वयं दूर कर लेती है। दुर्भाग्य है कि मोदी गंगा को बहने नहीं देना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में गंगा पर बन रहे बांधों का वाद चल रहा है। दिसम्बर में पर्यावरण मंत्रालय ने कोर्ट में कहा कि जल विद्युत परियोजनायें इस प्रकार बनाई जानी चाहिये कि नदी की मूल धारा अविरल बहती रहे। सरकार का यह मन्तव्य सही दिशा में था। परन्तु फरवरी में सरकारी वकील ने सुप्रीम कोर्ट से 6 ऐसी बांध परियोजनाओं को चालू करने का आग्रह किया जिनमें बांध बनाकर गंगा के बहाव को पूरी तरह रोका जाना था। ज्ञात हुआ कि सरकारी वकील को आदेश सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से मिला था। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गंगा को बहने देने की तरफ जो सही कदम उठाया गया थाए उसे प्रधानमंत्री ने पलट दिया। गंगा पर इलाहाबाद से बक्सर के बीच मोदी सरकार ने 3.4 बेराज बनाने का प्रस्ताव भी रखा था। उत्तर प्रदेश तथा बिहार की राज्य सरकारों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किये जाने पर इस परियोजना को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। परंतु जल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इलाहाबाद के ऊपर ऐसे बेराज बनाने का विकल्प खुला छोड़ रखा है।
प्रधानमंत्री ने प्रसन्नता व्यक्त की है कि देश में बाधों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह पूर्व सरकारों का कारनामा हैए जिस पर आज संकट मंडरा रहा है। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि वन्यजीव पार्कों के चारों ओर इको सेंसेटिव जोन की सीमा शीघ्र निर्धारित की जाये। सच यह है कि सुप्रीमकोर्ट ने यह सीमा 10 किलोमीटर निर्धारित कर दी थी। कमेटी इस क्षेत्र को सीमित करना चाहती है।
वर्तमान में पर्यावरण स्वीकृति हासिल करने के लिये जन.सुनवाई की व्यवस्था है। इस जन.सुनवाई में देश का कोई भी नागरिक अपनी बात कह सकता है। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि जन.सुनवाई में केवल स्थानीय लोगों को भाग लेने दिया जायेगा। कहा जा सकता है कि सुब्रह्मण्यम कमेटी की संस्तुतियां मोदी के मंतव्य को नहीं दर्शाती हैं। परंतु कमेटी का गठन तो मोदी ने ही किया था। यदि मोदी को भारतीय संस्कृति और पर्यावरण से स्नेह होता तो वे कमेटी में संस्कृति एवं पर्यावरण के जानकारों को अवश्य स्थान देते।
कदम्ब का पेड़ मोदी ने लगाया इसके लिये उनका साधुवाद। परन्तु उनके तमाम प्लान पर्यावरण को नष्ट करने की तरफ बढ़ रहे हैं। ऐसे में एक कदम्ब के पेड़ को लगाना जनता को गुमराह करना मात्र है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

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