Thursday, 4 June 2015

सुरक्षा चुनौतियों के मुकाबले को बने रणनीति

सुरक्षा चुनौतियों के मुकाबले को बने रणनीति

सोवियत संघ का विघटन हुए 25 साल से ज्यादा अरसा हो गया है। तब से अब तक भारत ने तेजी से तरक्की करने वाली पूर्व और दक्षिण एशियाई देशों की आर्थिकी से एकीकरण के लिए एक नई और खोजपूर्ण आर्थिक नीति की सृजना सफलतापूर्वक की है। एसियान संगठन के एक संवाद सहयोगीष् के नाते इसके शीर्ष दस देशों के साथ हमारी आर्थिकी अब बड़े स्तर पर अनुकूलन कर चुकी है। टाइगर इक्नॉमिकीष् के नाम से मशहूर जापान और कोरिया से हमारी बृहद आर्थिक भागीदारीष् बनी हुई है। 21वीं सदी की महाशक्ति चीन से हमारे आर्थिक संबंध और आगे बढ़ने की ओर अग्रसर हैं। पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन का सदस्य होने की वजह से भारत अपने देश की समुद्री सीमा से लेकर अमेरिका के पश्चिम में स्थित प्रशांत महासागर वाले तटों तक फैले समूचे इंडो.पैसीफिकष् क्षेत्र में सुरक्षा संबंधी नई गतिशील नीतियां निर्धारण करने में सक्रिय रूप से भाग लेता है।
हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने देश को दोनों तरफ से यानी पूर्व और पश्चिम में भूमि और सामुद्रिक सीमाओं पर दरपेश सुरक्षा चुनौतियों के विषय में जानकारी दी थी। चीन से होने वाली चुनौती के बारे में समझाते हुए डोभाल ने कहा कि उस देश से हमारी सीमा काफी लंबी और दुरूह क्षेत्रों से होकर गुजरती है। उन्होंने भारत की पूर्वी सीमा पर चीन से शांति और सौहार्द बनाए रखने पर जोर दिया लेकिन साथ ही उसके द्वारा अरुणाचल प्रदेश पर अपना हक जताए जाने की आलोचना भी की। चीन के आक्रामक रवैयेष् का तोड़ निकालने के लिए भारत ने जापान से लेकर वियतनाम और म्यांमार तक फैले हुए उसके सामुद्रिक पड़ोसियों से निकट संबंध स्थापित कर लिए हैं। अमेरिका से सलाह.मशविरा करने के पश्चात इन प्रयासों को और भी बल मिला है ताकि हमारी पूर्वी सीमा और उससे आगे के क्षेत्र में स्थिरता के वास्ते शक्ति.संतुलन बनाया जा सके। लेकिन अपनी पूर्वी सीमाओं पर आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ करते वक्त हमें यह ध्यान रखना होगा कि रक्षा तंत्र के आधुनिकीकरण का फिर भी कोई विकल्प नहीं है।
हालांकि पूर्वी सीमा और उससे आगे के क्षेत्र में सुरक्षा और सहयोग के तंत्र को सुदृढ़ किया गया हैए लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि हमारी पश्चिमी सीमा और उससे परे की चुनौतियों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अजीत डोभाल ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना हटने के बाद पेश आने वाली सुरक्षा संबंधी चुनौतियों को लेकर आगाह किया है। यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति ओबामा की योजना है कि अफगानिस्तान से फौज वापिस निकालते समय ठीक उसी वक्त वहां पर अमेरिका.चीन.पाकिस्तान के गठजोड़ वाली एक ऐसी अनधिकृत व्यवस्था कायम कर दी जाए जो तालिबान को अपने अनुकूलष् बनाने की खातिर दक्षिणी.पूर्वी अफगानिस्तान के बड़े इलाके का नियंत्रण उन्हें सौंप दे। इस योजना का हिस्सा यह भी है कि अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में पीछे छूटने वाले हथियारों का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को हस्तांतरित कर दिया जाए जिसमें एफ.16 लड़ाकू हवाई जहाजए हवा.से.हवा में मार करने वाली मिसाइलेंए प्रशिक्षण जेट विमान और सैनिक ले जाने वाली बख्तरबंद गाडि़यां इत्यादि शामिल हैं। इससे भी ज्यादा यह कि जहां अमेरिका जकीउर रहमान लखवी जैसों पर कानूनी मुकदमा चलाये जाने जैसे सिर्फ सहानुभूति भरे जुबानी और प्रतीकात्मक संकेत देता आया है वहीं उसका प्रयास है कि इस विषय में असल में कुछ न किया जाए ताकि कहीं पाकिस्तान की असली हुक्मरान मानी जाने वाली सेना को कोई परेशानी न होने पाए। यदि भारत अब भी आईएसआई द्वारा प्रायोजित आतंकवाद को खत्म करने में किसी प्रभावशाली अमेरिकी समर्थन की उम्मीद करता है तो यह उसकी खुशफहमी  होगी।
भारत की सीमा से सटे अफगान.पाक क्षेत्र के अलावा ईरान से लेकर अलजीरिया तक के बृहत्तर मध्य.पूर्वष् के इलाके में राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई हैए वहां का माहौल गृह.युद्धए वर्ग.संघर्ष और फारस.अरब प्रतिद्वंद्विता से बुरी तरह बिगड़ा हुआ है। भावी अमेरिका.ईरान एटमी करार ने अरब देशों में खासकर तेल संपदा से संपन्न खाड़ी सहयोग परिषद की सदस्य राजशाहियों में हड़कंप मचा दिया है। इस संधि की वजह से इस इलाके में शक्ति संतुलन का समीकरण ठीक वैसे ही बदल सकता है जैसा कि निक्सन.माओ के बीच 1970 के दशक में हुए एक समझौते के बाद हुआ था। सऊदी अरब में इसे लेकर गुस्सा साफ दिखाई दे रहा है क्योंकि जिस तरीके से ज्यादातर फूंककर कदम रखने वाले सऊदी अरब ने यमन पर सैन्य कार्रवाई की हैए उससे लगता है कि वह बढ़ते हुए ईरानी प्रभाव के प्रति सशंकित है। लेकिन यहीं पर सऊदी अरब से हिसाब लगाने में गलती हुई है और इसके चलते बिना शक उसे आगे जाकर बड़ी कीमत चुकानी होगी।
अमेरिका ने यमन के मामले में खाड़ी देशों की राजशाहियों के पीछे खड़े होने का कोई हीला नहीं किया। यहां तक कि इस मुद्दे पर सऊदी अरब का साथ इस्लामिक बंधुओं जैसे कि पाकिस्तान और मिस्र ने भी नहीं दिया। लग रहा है कि अरब देशों को यह एहसास नहीं हो रहा है कभी उनका ग्राहक रहा अमेरिका विश्व में सबसे बड़ा तेल.उत्पादक देश बनने के बाद अब प्राकृतिक गैस का भी सबसे बड़ा निर्यातक मुल्क बनने जा रहा है और अब उसे सचमुच में अरब देशों के अभिजात राजपरिवारों की चिंता करने की जरूरत और आगे नहीं है। फिर भी भारत इन घटनाओं के प्रति आशावादी नजरिया नहीं रख सकता। हमारे तेल आयात का 70 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा इसी इलाके से आता है। वहां रोजी.रोटी कमाने गए हमारे वो 60 लाख कामगार रहते हैंए जो 45 बिलियन डॉलर सालाना देश में कमाई के तौर पर वापिस भेजते हैं। इससे बढ़कर यह कि जिस इराक को शिया.सुन्नी तनाव का केंद्र बिंदु कहा जाता हैए उसके प्रति यह संभावना व्यक्त की जाती है कि वह आने वाले समय में भारत का मुख्य सहयोगी बन सकता है। इसलिए भारत को खाड़ी क्षेत्र की राजशाहियोंए ईरान और इराक से संबंध बनाने की खातिर एक नई और कल्पनाशील राजनयिक पहल करने की जरूरत है।
आईएसआईएल का नियंत्रण अब आधे सीरिया और लगभग पूरी सीरिया.इराक सीमा पर हो गया है। मोसूल और निमरूद के ऐतिहासिक शहर अस्सीरिया पर इसका राज पहले ही चुका हैए हाल ही में इराक के सुन्नी बहुल अनबार प्रांत की राजधानी रामादी पर भी इसने कब्जा कर लिया है। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि शिया बहुल देश इराक की राष्ट्रीय सेना जो अमेरिकी हथियारों से लैस हैए वह भी तब तक जी.जान से युद्ध करने स्थिति में नहीं हो पाती जब तक कि ईरान में प्रशिक्षित इराकी शिया लड़ाके उसके पीछे न खड़े हों।
तालिबानए जो इंडियन एयरलाइंस की फ्लाइट आईसी.814 के अपहरणकर्ताओं से मिले हुए थेए ने अफगास्तिान में रह रहे भारतीय नागरिकोंए राजनयिकों और दूतावास की इमारत पर बार.बार हमले किए हैं। यह मानने की  कोई वजह नहीं कि अब वे आगे बदल जाएंगे क्योंकि ओबामा प्रशासनए चीन की शी जिनपिंग सरकार और जनरल रिजवान अख्तर की अगुआई वाली आईएसआई और अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी की कृपा से उन्हें अफगास्तिान का नियंत्रण अब ठीक वैसे ही मिलने जा रहा है जैसे कि आईएसआईएल ने सीरिया और इराक में किया है।  क्या हमें अपनी पश्चिमी सीमा और उससे परे मौजूद इस गंभीर समस्या से निबटने के लिए एक बृहद एक्ट वैस्टष् नीति नहीं बनानी चाहिएघ्
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

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