यों ही बनेंगे नॉलेज पावर
खुद को दुनिया की एक ज्ञान अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित करने के लिए भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों की हालत सुधारने पर बात पिछले पंद्रह सालों से हो रही है। लेकिन पिछले एक हफ्ते में आई एशियाई विश्वविद्यालयों की दो श्रेष्ठता सूचियों पर नजर डालें तो लगता है कि इस दौड़ में हम बहुत पीछे छूट चुके हैं।
थोड़ा पहले जारी हुई क्यूएस रैंकिंग ने बताया कि एशिया की 300 सर्वश्रेष्ठ युनिवर्सिटियों में भारत अपने सिर्फ 17 नाम दर्ज करा पाया हैए और 100 में सिर्फ नौ। फिर टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग से भी पता चला कि एशिया के 100 सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में भारत की भागीदारी मात्र नौ की ही हो पाई है। पिछले साल दोनों सूचियों के टॉप 100 में भारत के 10 शिक्षा संस्थान शामिल थे। इससे ज्यादा चिंता की बात यह है कि भारत के ज्यादातर उच्च शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग बीते एक साल में नीचे गई है। मसलनए 2014 से 2015 के बीच आईआईटी दिल्ली क्यूएस रैंकिंग में 38वें से खिसक कर 42वें और टाइम्स रैंकिंग में 59वें से फिसल कर 65वें स्थान पर पहुंच गया है।
आईआईटी कानपुर के मामले में दुर्गति और ज्यादा है। पहली वाली रैंकिंग में इसका स्थान 52वें से घटकर 58वां और दूसरी में 45वें से गिर कर 69वां हो गया है। इस गिरावट का अपवाद कोई है तो सिर्फ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बेंगलुरूए जिसकी पिछले साल दोनों सूचियों की 100 रैंकिंग में कोई जगह नहीं थीए लेकिन इस बार क्यूएस रैंकिंग में इसने 34वां और टाइम्स रैंकिंग में 37वां स्थान प्राप्त किया है। ध्यान रहेए कुछ समय पहले तक एशियाई विश्वविद्यालयों की रैंकिंग के लिए कोई व्यवस्था मौजूद नहीं थीए लेकिन इधर एशिया में उच्च शिक्षा पर बढ़े जोर ने रैंकिंग करने वाली संस्थाओं को अपनी अलग एशियाई सूची जारी करने पर मजबूर कर दिया।
क्यूएस और टाइम्स ने इस आकलन के लिए अलग.अलग मानदंड बना रखे हैं। दोनों का ही जोर इंटरनेशनल एक्सपोजर और रिसर्च पेपर्स की गुणवत्ता पर है। लेकिन महीन ब्यौरों में जाने पर दोनों के रास्ते अलग दिखते हैं। एक विदेशी छात्रों और अध्यापकों को ज्यादा महत्व देती है तो दूसरी पाठ्यक्रम और शोधपत्रों की दमदारी पर। चीन के विश्वविद्यालयों को तो हाल तक कोई किसी गिनती में ही नहीं मानता था क्योंकि वे अपने काम को अंग्रेजीभाषी दायरे में नहीं लाते थे। लेकिन अभी हालत यह है कि समूचे एशिया में वे लगभग एक चौथाई जगह घेरे हुए हैं। उनकी तुलना में भारत का एक्सपोजर बहुत ज्यादा हैए लेकिन हमारे विश्वविद्यालयों में न कायदे की रिसर्च हो रही हैए न इनकी पढ़ाई का स्तर ऐसा हो पा रहा है जो दुनिया भर के छात्र इनमें पढ़ने को उतावले हो जाएं। यहां इस खतरे की ओर इशारा करना भी जरूरी है कि भारत की कई युनिवर्सिटियां लुढ़कते.लुढ़कते बिल्कुल छोर पर आ गई हैं और अगले साल ये 100 की सूची से बाहर हो सकती हैं। हमारी केंद्रीय शिक्षामंत्री अगर थोड़ी देर के लिए विवादों से फुरसत पा लें तो शायद इनकी दशा सुधारने पर भी कुछ सोच पाएं।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/other/opinion/editorial/articlelist/2007740431.cms
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