Monday, 1 June 2015

मौसम के मारक तेवरों को समझें

मौसम के मारक तेवरों को समझें

गर्मियां हर साल आती हैं और पारा हर साल 45 तक तो पहुंचता ही है। मगर ऐसा कभी नहीं देखा गया कि समुद्र तटवर्ती आंध्र और तेलंगाना में डेढ़ हजार लोग जान गंवा बैठें। गर्मियां आमतौर पर पुरवा हवा वाले राजस्थानए हरियाणाए पंजाब व यूपी को ही परेशान किया करती थीं पर उन इलाकों में इतनी भीषण गर्मी का पहुंचना असंभव माना जाता था जहां आर्द्रता साठ परसेंट के ऊपर रहती हो। लेकिन इस बार गर्मी व लू की मार से सबसे ज्यादा समुद्र तटवर्ती इलाके के लोग तड़पे। सरकार ने कभी इस बात पर विचार नहीं किया कि क्यों आखिर गर्मी हर साल अपना समयए इलाका और मारक क्षमता बढ़ाती जा रही है। यह मौसम चक्र का ही बदलाव है कि सर्दी अब दीवाली से नहीं बल्कि दीवाली के महीने भर बाद शुरू होती है। एक जमाने में दीवाली की रात से ही रजाई निकल आया करती थी और होली तक ओढ़ी जाती थी। पर अब मौसम चक्र बदलने के चलते हो यह गया है कि दीवाली के एक महीने बाद रजाई ओढ़नी शुरू की जाती है और होली तो दूरए अप्रैल के पहले हफ्ते तक यह आसानी से ओढ़ी जाती है। अब जुलाई में वर्षा नहीं होती और सितंबर के आखिरी हफ्ते में बाढ़ आती है। यह संकेत है कि मौसम निरंतर बदल रहा है। कभी पश्चिमी विक्षोभ के चलते तो कभी पूर्वी समुद्र में आए तूफान के चलते। यानी भारत में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी दोनों ने ही अपने स्वरूप बदल लिए हैं। अरब सागर आमतौर पर शांत माना जाता है और उथला होने के कारण इसके अंदर वैसा ज्वार नहीं उठता जैसा कि बंगाल की खाड़ी से। भारत में चूंकि इन्हीं दोनों समुद्रों का ही साबका पड़ता हैए इसलिए इस पर शोध होना चाहिए कि बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में निरंतर क्या.क्या परिवर्तन हो रहे हैं।
बंगाल की खाड़ी अपने तटवर्ती इलाकों में सर्वाधिक आर्द्रता उत्सर्जित करती है। इसलिए जब भी सूरज का ताप बढ़ता है वहां पर लू और हीट स्ट्रोक की मार सर्वाधिक पड़ती है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। साल 1999 में याद करिए भुवनेश्वर में इतनी ज्यादा गर्मी पड़ी थी कि तब वहां पर लू से मरने वालों की संख्या 500 तक पहुंच गई थी। दूसरे लू की मार की एक वजह यह भी है कि जिन इलाकों में लू चलती है वहां के लोग गर्मी से निपटने को तैयार रहते हैं पर जहां पुरवा नहीं बहती वहां के लोग इससे बचने के उपाय से भी अनजान रहते हैं। खूब पानी पीना उन इलाकों में तो संभव है जहां का मौसम खुश्क है और जहां प्यास लगती ही है पर समुद्र तटीय इलाकों में लोग प्यास महसूस ही नहीं करते। यही कारण है कि आंध्र और तेलंगाना में 1800 लोग काल.कवलित हो गए। राजस्थान के रेतीले इलाके और दोआबे में बसे हुए लोगों को गर्मी से निपटने के उपाय भी पता होते हैंए इसलिए वे तरबूज.खरबूजा और आम के पने का सेवन तो करते ही रहते हैंए साथ में खूब पानी पीते हैंए तली.भुनी चीजें नहीं खाते और प्याज का सेवन निरंतर करते हैं। मगर तटीय लोग इससे अनजान होते हैं।
भारत में आमतौर पर माना जाता है कि जिस साल गर्मी खूब पड़ेगीए उस साल बारिश भी खूब होगी। दिल्ली समेत उत्तर भारत में गर्मी का यह मौसम मई के आखिरी हफ्ते से शुरू होकर दस जून तक चलता है जब गर्मी जबरदस्त पड़ती है और पारा 45 पार कर जाता है। मगर सुदूर तटीय इलाकों में पारा बढ़ने के ऐसे संकेत नहीं मिलते हैं। वहां पारा 35 से 48 के बीच रहकर भी आफत मचा देता है और उसकी वजह वहां के मौसम में नमी का प्रतिशत है। नमी अगर साठ पार कर गई तो बढ़ता पारा काल बन जाता है। और इसी वजह से आंध्र और तेलंगाना में इतनी मौतें हुईं। इसका सीधा.सीधा मतलब यह हुआ कि तटवर्ती इलाकों में पारे की यह बढ़ोतरी एक खतरनाक संकेत है और इस पर गंभीरतापूर्वक मनन करना चाहिए। समुद्र का पानी धूप को मारक तो बनाता है पर पारे पर कंट्रोल रखता है। मगर जब पारा बढ़ेगा तो जाहिर है आर्द्रता अधिक होने के कारण वहां पसीना खूब बहेगा और यह पसीना शरीर में पानी को कम कर देगा। यही डिहाइड्रेशन की वजह है। आर्द्रता पसीना तो निकालती है पर प्यास नहीं बढ़ातीए जिसकी वजह से आदमी पानी नहीं पीता और अधिक पसीना निकल जाने से उसकी मौत हो जाती है। इसके विपरीत रेतीले और दोआबी मैदानों में पुरवा के कारण पसीना नहीं आता और आर्द्रता नहीं होने से पसीना नहीं निकलता जिसके कारण यहां उस तरह से गर्मी न तो विकल करती है और न मारक होती है।
अभी नेपाल में आए भूकम्प के झटकों से यह तो साफ हो ही गया कि धरती के नीचे काफी कुछ बदल रहा है और इसकी वजह हमारी प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ है। यह जो सुनामीए अल नीनोए कैटरीना और रीटा आदि तूफान तबाही मचाने आते हैंए इन सबकी वजह यही छेड़छाड़ है। प्रकृति ने सब को समान रूप से संसाधन मुहैया कराये हैं। उसमें अकेले मनुष्य ही नहीं बल्कि समस्त जीव.जंतु हैं। पर चूंकि जीवधारियों में मनुष्य के पास ही दिमाग हैए इसलिए उसने प्रकृति के सारे संसाधनों पर पहले तो खुद कब्जा किया फिर मनुष्य को जातिए धर्म व समुदाय तथा राष्ट्र.राज्य की सीमाओं में बांधकर सबसे ताकतवर ने अन्य संसाधनों पर ही कब्जा किया। लेकिन यह खेल खतरनाक तो होना ही था। संसाधनों पर कब्जा कर लेने से प्रकृति का कुपित होना स्वाभाविक है और प्रकृति का कोप ही है जो कभी गर्मी के रूप मेंए कभी अतिवृष्टि के रूप में तो कभी अतिशीत के रूप में दिखाई पड़ता है। अाध्यात्मिक चिंतन हमें एक न्यायसंगत जीवन जीने और प्रकृति के सभी जीवधारियों के प्रति समान व्यवहार करने की प्रेरणा देता है लेकिन जब जीवन की आपाधापी में अध्यात्म चुक जाए तो इस तरह के कोप को अत्यधिक उपभोग से तो नहीं टाला जा सकता।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/05/

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