Friday, 5 June 2015

पर्यावरण की चिंताओं से भी जुड़े मंत्रालय

पर्यावरण की चिंताओं से भी जुड़े मंत्रालय

 हमारे देश में पर्यावरण विभाग की चर्चा इसके पर्यावरण संरक्षण के प्रति की गयी पहल को लेकर नहीं होती बल्कि यह मंत्रालय इसलिए अकसर विवाद में रहता है कि इसने कितनी योजनाओं को स्वीकृति दी या रोका या किस उद्योग को क्लीयरेन्स दी और किसका काम तमाम किया।
बीण्टीण् बैंगन हो या फिर बांधों के मुद्दे। इस मंत्रालय ने गत वर्षों में इन्हीं मुद्दों पर खूब सुर्खियां बटोरी हैं। जबकि इस विभाग को जन्म देने के पीछे देश के पर्यावरण व उसके कारकों के प्रति गम्भीर पहल करने जैसे कार्य थे। इसे यह भी तय करना था कि जिन सशक्त स्तम्भों पर देश का पर्यावरण टिका हैए उसके लिए कैसे और कौन से कदम उठाये जायें। देश की कई बड़ी योजनायें इसलिए आगे नहीं खिसक पातीं क्योंकि इसे मंत्रालय का ग्रीन सिग्नल नहीं मिलता। कुछ हद तक तो यह ठीक.ठाक लगता हैए परन्तु यह मंत्रालय बाधकों के रूप में ज्यादा जाना जाता है।
उदाहरण के लिए देश व गांवों की कई सड़कें इसलिए अधर में लटकी हैं कि मंत्रालय की स्वीकृति नहीं है। कई गांव सड़कों से इसलिए नहीं जुड़ सके कि उनमें वन अधिनियम के चलते रुकावट आ गई। यह फिर भी ठीक लग सकता है क्योंकि पर्यावरण संरक्षण से जीवन जुड़ा है। आखिर इतनी गम्भीरता बरतने वाले इस मंत्रालय को क्या कुछ चीजें दिखाई नहीं देतीघ् मसलन देश की एकाध नदियों को छोड़कर अन्य नदियों के मरने व बीमार हो जाने की खबर से यह मंत्रालय कतरा नहीं सकता।

और तो औरए देश की राजधानी में ही यमुना नदी कब गन्दे नाले में बदलीए इसका भी पता इस मंत्रालय को होना ही चाहिए। पश्चिम बंगाल की महानन्दाए बिहार की गंडकए उत्तर प्रदेश की वरुणा आदि नदियां जो नाले से ज्यादा कुछ भी नहींए इस मंत्रालय के लिए यह बड़ी विफलता है। अभी कुछ जागरूक लोगों ने देश की यात्रा कर 27 नदियों के हालातों का जायजा लिया। यह नदियां पश्चिमी बंगालए उत्तर प्रदेशए बिहारए हरियाणाए दिल्लीए हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों का हिस्सा हैं। या तो यह नदियां नालों में बदल गई थीं या फिर इनका अस्तित्व ही बदल गया था। बनारस में वरुणा नाम के लिये भी नहीं बची। इस गंदे नाले को वरुणा के नाम से सम्बोधित करने में भी हिचकिचाहट होने लगी है। पण् बंगाल की महानन्दा लुप्त होने के रास्ते चल चुकी है। देश की कई नदियां जैसे सोनए वालसनए पार्वतीए मालना अब लुप्त होने के कगार पर हैं।
इन नदियों के जलागम अपनी क्षमताएं खो चुके हैं। क्या मंत्रालय के पास इन नदियों के हालातों का कोई लेखा.जोखा है या मात्र इस हिस्से की जानकारी है कि किस नदी से वर्तमान में कितनी जल विद्युत योजनाएं बनाना सम्भव है। इन योजनाओं का भविष्य तो इनकी क्षमताओं पर ही निर्भर करता है जो समाप्ति की ओर है। नदियों के संरक्षण के लिए औपचारिक घोषणाएं व योजनाओं का भी अभाव रहा है।
गंगा को ही लीजिए। सभी वर्ग इसके लिए चिंतित हैं मगर हालात बद से बदतर ही हुए हैं। अब प्रधानमंत्री ने गंगा में रुचि दिखायी है। उसका असर भी देखना है। पर पर्यावरण मंत्रालय की कहीं न कहीं जिम्मेदारी बनती है कि इन नदियों के संरक्षण के लिए ठोस निर्णय ले जिसमें कि शहर.गांव जुड़े हों और जिसमें आम आदमी की सक्रिय भागीदारी ठीक उसी तरह से हो जिस सक्रियता व अधिकार से वह जल नदी का उपयोग करता है।
इसी तरह यह भी आश्चर्य की बात है कि पर्यावरण मंत्रालय वनों के हालातों के प्रति ज्यादा गंभीर नहीं है। अगर ऐसा होता तो शायद सभी राज्यों के 33 प्रतिशत वन क्षेत्रों के बारे में चिन्ता होती। देश का एक भी मैदानी राज्य ऐसा नहीं है जो 33 प्रतिशत वन क्षेत्र के आंकड़ों में खरा उतरता हो। बिहारए उत्तर प्रदेशए पण् बंगाल जैसे बड़े राज्यों में वन मात्र क्रमशरू 7रू8ए 5रू9 व 14 प्रतिशत बचे हैं। राज्यों की प्राथमिकता अलग.थलग वाले आर्थिक विकास के प्रति समर्पित है। आनन.फानन में वनों को लेकर ऊलजलूल योजनायें अवश्य खड़ी कर दी जाती हैं पर उनका वजूद वास्तविकता में कहीं भी दिखाई नहीं देता।
गत वर्षों में वनों के क्षेत्रफल में तो कमी आई ही है पर साथ में प्रजातियों की गुणवत्ता प्रभावी रूप से बिगड़ चुकी है। चौड़ी पत्ती के वन हिमालय से लेकर मैदानी राज्यों तक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुए। गंगाए यमुनाए बेसिन में साल के मिश्रित वनों की जगह कीकरए बेरए प्रोसेजिस जैसी कंटीली प्रजातियों ने ले ली है। पूरा पारिस्थितिकी तंत्र इससे प्रभावित हुआ है। मिट्टीए पानीए वायुए वनों के पहले उत्पाद हैं। वनों के घटने का सीधा असर इन महत्वपूर्ण जीवनदायी अवयवों पर पड़ा है। वन क्षेत्र वर्तमान में या तो वनविहीन है या फिर इस तरह की प्रजातियों से घिरे पड़े हैं जिनका पारिस्थितिकी या आर्थिकी का कोई लाभ नहीं है। पर्यावरण मंत्रालय के पास शायद ही कोई ऐसा आंकड़ा हो जो यह बता सके कि वन.विहीन वन भूमि की आज क्या हालत है और उसका पारिस्थितिकी तंत्र पर क्या असर पड़ा है।
जंगलए मिट्टी.पानी के हालातों के प्रति पर्यावरण विभाग की उदासीनता इस बात से भी पता चलती है कि उसने कभी राज्यों से इनके विस्तृत लेखा.जोखा देने पर न तो दबाव डाला और न ही राज्यों में स्वतंत्र पर्यावरण विभागों की पैरवी की। हम वन नदियों को भोगना अपना अधिकार समझते हैं पर इनकी बेहतरी के लिए भागीदारी नहीं करते। हम भूल रहे हैं कि इनसे उत्पन्न किसी भी तरह का असंतुलन हमारे पूरे आर्थिक व पारिस्थितिकी तंत्र को भी हिला देगा। आज पूरे बाजार का 70.75 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं प्राकृतिक उत्पादों के चारों तरफ घूमता है। इसके असंतुलन का सीधा असर पूरे तंत्र पर भी पड़ेगा।
वर्तमान परिस्थितियों में पर्यावरण मंत्रालय मात्र योजनाओं को पास करने या रोकने वाला विभाग नहीं होना चाहिए। बल्कि इसका बड़ा दायित्व देश के जंगलए मिट्टीए पानीए वायु के हालातों को बेहतर करना है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इस मंत्रालय की सबसे बड़ी चुनौती यह ही तय की जानी चाहिए ताकि एक सुरक्षित भविष्य की कल्पना की जा सके। सभी राज्यों की पर्यावरण रपट तैयार कर राज्यों के प्राकृतिक संसाधनों पर नये सिरे से बहस होनी चाहिए। हर वर्ष राज्यों की सभी प्राकृतिक सम्पदा और उसके बेहतरी की एक रपट तैयार होनी चाहिए क्योंकि पर्यावरण से प्राण जुड़ा है और अन्य विकास से सुविधायें। निश्चित रूप से सुविधाओं से प्राण ज्यादा महत्वपूर्ण है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/p/

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