Wednesday, 3 June 2015

म्यांमार के रोहिंग्या और मूकदर्शक सरकारें

म्यांमार के रोहिंग्या और मूकदर्शक सरकारें

बोट पीपल आर नॉट फ्रॉम म्यांमारष्। यानीए नावों द्वारा भागने वाले शरणार्थीए म्यांमार के नहीं हैंष्! उग्र जुलूस के हाथों में ये तख्तियां और डराती हैं। खासकर तबए जब जुलूस के साथ.साथ धर्म के ठेकेदार भी चल रहे हों। म्यांमार में धर्म के ठेकेदार वहां के बौद्ध लामा हैं। दुनिया भर में बौद्ध धर्म के प्रवर्तकों की छवि शांति के पुजारी के रूप में बनी हुई है। मगरए म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर जिस तरह से सितम ढाये जा रहे हैंए उससे शांति के पुजारियों के बारे में भ्रम टूटता दिख रहा है। इसे लेकर दलाईलामा तक को चिंता हो गई है। दलाईलामा ने म्यांमार में विपक्ष की नेता आंग सांग सू ची से अपील की है कि वे इसमें हस्तक्षेप करें। इस सवाल पर सू ची की चुप्पी लोकतंत्र के लिए उनकी लंबी लड़ाई को धो.पोंछकर बराबर कर रही है।
मानवाधिकार संगठनों और संयुक्त राष्ट्र तक ने चेतावनी दी है कि रोहिंग्या के खिलाफ म्यांमार में बने माहौल से सामाजिक ताना.बाना टूट रहा है। म्यांमार के राखिन प्रांत में रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध 2012 से दंगे शुरू हुए। वहां की सरकार ने माना है कि अब तक 240 लोग मारे जा चुके हैं। 28 जून 2012 और उसके बाद लगातार हुए दंगों में 700 से अधिक रोहिंग्या मुसलमानों की मौतए 1200 के लापता होने और सवा लाख के पलायन हो जाने का दावा लंदन स्थित ष्बर्मी रोहिंग्या आर्गेनाइज़ेशन यूकेष्ष् के अध्यक्ष तून खिन ने किया है। इस नरसंहार पर संयुक्त राष्ट्र तक सीधी कार्रवाई से बच रहा है। प्रधानमंत्री मोदी पिछले साल नवंबर में म्यांमार गये थेए मगर अफसोस कि रोहिंग्या दमन पर बोलना उन्हें मुनासिब नहीं लगा।
इस पूरे प्रकरण में प्रत्यक्ष भुक्तभोगी भारत रहा है। जो रोहिंग्या मुसलमान म्यांमार छोड़कर भागे हैंए उनमें से ज्य़ादातर लोगों ने भारत के सीमावर्ती राज्यों त्रिपुराए मणिपुरए मिजोरम में शरण ली है। आग म्यांमार में लगीए लेकिन उसकी तपिश मुंबई में 2012 में देखने को मिलीए जब इस बात पर उग्र हुए कुछ लोगों ने फसाद किये। इस फसाद में दो लोग मारे गयेए और 50 से अधिक घायल हुए। जबकि महाराष्ट्र पुलिस का म्यांमार या असम से कोई लेना.देना नहीं था। मुंबई के आज़ाद मैदान में मीडिया वालों से बदसुलूकी के लिए फसादी यही तर्क दे रहे थे कि असम और म्यांमार में जो कुछ हुआए उसकी मीडिया कवरेज ठीक से नहीं की गई थी। मतलबए दंगे पर कवरेजष् फसादी तय करें।

भारत पहले से ही बांग्लादेश से पलायन किये मुसलमानों को पूर्वोत्तर में झेल रहा है। अब रोहिंग्या गले आ पड़े हैं। आबादी के उत्पादनष् में आगे रहने वाला बांग्लादेश सिर्फ हमारे लिए समस्या की जननी नहीं हैय म्यांमारए थाईलैंड भी उससे त्रस्त हैं। अराकान की पहाडि़यों में रोहिंग्या मुसलमान कब आकर बसेए इसका कोई निश्िचत आधार नहीं मिलता। 1891 में अंग्रेज़ों ने अराकान की पहाडि़यों में जब सर्वे कराया थाए तब वहां मुसलमानों की संख्या 58255 बताई गई। ये मुसलमान क्या रोहिंग्या थेघ् पक्के तौर पर कोई नहीं कहता। पचास के दशक में रोहिंग्या मुसलमानों ने म्यांमार से अलग राष्ट्र के लिए उत्तरी अराकान में मुजाहिद पार्टीष् का गठन किया था।
आज अराकान की पहाडि़यों में आठ लाख की संख्या में बसे रोहिंग्या मुसलमानों के बारे में म्यांमार सरकार यही दावा करती है कि ये लोग बांग्लादेश से आये हुए शरणार्थी हैं। बांग्लादेश सरकार ने चिटगांव की पहाडि़यों से लेकर देश के कई इलाकों में रोहिंग्या मुसलमानों को बसाने में जिस तरह की सक्रियता दिखाई हैए वह इस तथ्य को मज़बूत करता है कि रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्वज बांग्लादेश के निर्माण से पहलेए इन इलाकों में रहते थे। बांग्लादेश की विपक्षी नेता बेगम ख़ालिदा जिया के पति जनरल जिय़ा जब बांग्लादेश के शासनाध्यक्ष थेए तब उन पर म्यांमार ने आरोप लगाया था कि वे रोहिंग्या मुसलमानों को भड़का रहे हैं और अलगाववाद को हवा दे रहे हैं।
रोहिंग्या अलगाववाद को समर्थनष् बांग्लादेश जातीयताबादी दोल ;बीएनपीद्ध की पार्टी लाइन हैए जिसकी नेता बेगम ख़ालिदा जिय़ा हैं। बीएनपी की सहयोगी जमात.ए.इस्लामीष् की सोच यही है कि म्यांमार में अराकान की पहाडि़यों से लेकर असम तक मुसलमानों की आबादी को मज़बूत किया जाएए ताकि समय आने पर अलगाववाद को बड़े स्तर पर अंजाम दिया जा सके। क्या इस सोच को पाकिस्तान से भी ऊर्जा मिल रही हैघ् पाकिस्तान स्थित जमात.ए.इस्लामीए जमात.उल.दावाए जमीअतेउल उलेमा इस्लाम ने 2012 में म्यांमार के दूतावास को उड़ाने की धमकी दी थीए उससे इस शंका की पुष्िट होती है। मतलबए इस्लामी अतिवाद को एक नया मुद्दा मिला हैए जिससे सरकारें हिल रही हैंए और ओआईसीष् ;ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशनद्ध जैसा संगठन भी दबाव में आ गया है।
म्यांमार का राखिन प्रांत रोहिंग्या मुसलमानों के कारण राजनीतिक रूप से गरम रहा है। राखिन बौद्धों से रोहिंग्या मुसलमानों की अदावत नई नहीं है। ग़ौर करें तो द्वितीय विश्वयुद्ध से ही दोनों समुदाय आपसी दुश्मनी निकालते रहे हैंए जिसमें हज़ारों जानें गई हैं। इससे पहले इस्लामिक राष्ट्रों का संगठन ओआईसीष् बर्मी मुसलमानों के लिए क्यों नहीं चिंतित हुआए यह भी सोचने वाली बात है। इस बात की सराहना होनी चाहिए कि म्यांमार के राष्ट्रपति थेन सिन ने ओआईसीष् को हालात का जायज़ा लेने के लिए आमंत्रित किया है।
ओआईसीष् की सक्रियता और बदलते तेवर को नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते। इससे मुसलमान मुल्कों को भारत द्वारा जवाब देने की नौबत आ सकती है कि रोहिंग्या दमन के समय आप खामोश क्यों थे। यह अच्छी बात है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बांग्लादेश और म्यांमार से सटे पूर्वोत्तर के राज्यों को सतर्क रहने को कहा है। त्रिपुराए मिजोरमए मणिपुर जैसे राज्यों ने गृह मंत्रालय को दो हज़्ाार रोहिंग्या शरणार्थियों के घुस आने की ख़बर 2012 में ही भेजी थी। पूर्वोत्तर में जमा हो रही बाहरी आबादी परमाणु बम से कम नहीं है। अब यह न कहें कि पिछली सरकार की ग़लती थीए तो हम क्या करें!
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/

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