देश पर मर मिटने का जिम्मा
भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून के ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह में इस बार भी इस देश की अनेकता में एकता की झलक तो अवश्य नजर आई मगर उसमें न तो कोई नेता और न ही आईएएस या आईएफएस जैसी नौकरशाही की बिरादरी का कोई ब्यूरोक्रेट नजर आया। वास्तव में आईएमए की दीक्षान्त परेड का गवाह बनने वही लोग पहुंचते हैं जिनके लाड़ले देश की आनए बान और शान पर मर मिटने वाली भारत की सेना की दहलीज पर खड़े हों।
नोसेना और वायुसेना की अकादमियों में भी आपको किसी नेता या ब्यूरोक्रेट का लाड़ला नजर नहीं आयेगाए क्योंकि उन्हें देश पर शासन करना हैए लेकिन शासकोंए प्रशासकों और उद्योग या व्यापार जगत से जुड़े लोगों की सोच से इतर अगर आप सोचें तो सवाल उठता है कि क्या इस देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल एक आम आदमी या गरीब किसान की ही है। अगर इस देश की सुरक्षा या डिफेंस की यही डाक्िट्रन है तो फिर देश की सुरक्षा वास्तव में खतरे में है। यह सोच लोकतंत्र की मूल भावना से भी मेल नहीं खाती।भारतए पाकिस्तानए बांग्लादेश और म्यांमार सहित विभिन्न देशों की सेनाओं को लगभग 58 हजार जांबाज कमांडर देने वाली भारतीय सैन्य अकादमी का यह ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की असलियत को बयां कर गया। इतिहास के पन्नों को अगर आप पलटें तो पता चलता है कि प्राचीन युग में सबसे पहले मरने वाले भी जातीय या क्षेत्र के आधार पर तय किये जाते थे। जब तीर समाप्त हो जाते थे और तलवारें कुंद हो जाती थीं तब सेनापतियों के अपने लड़ाकू मैदान में उतारे जाते थे। क्षत्रिय तो मरने के लिये ही पैदा होता थाए लेकिन आजए जबकि समाज जातीय बंधनों को तोड़कर हर क्षेत्र में हर आदमी को हाथ आजमाने का मौका दे रहा है तो शासक और प्रशासक वर्ग अब भी अपनी सुविधानुसार उस प्राचीन व्यवस्था को बनाये रखना चाहता हैए जिसमें मरने या मारने की जिम्मेदारी शासक की नहीं बल्कि शासित वर्ग की होती है। यह जिम्मेदारी आज भी एक फौजीए किसानए मजदूर या फिर वंचित वर्ग को उठानी पड़ रही है।
लोकतंत्र के इस युग में जब हम जाति विहीन या वर्ण विहीन समाज की ओर बढ़ रहे हों तो तब शासकों और प्रशासकों की बिरादरी हमें एक नयी वर्ण व्यवस्था की ओर क्यों ले जा रही हैघ् केन्द्र या किसी भी राज्य सरकार का कर्मचारी केवल उस जगह अपनी तैनाती चाहता है जहां पर सुख.सुविधाओं के सारे संसाधन उपलब्ध हों।
इसी तरह नेताओं की बिरादरी के बच्चे सरहद पर जान जोखिम में डालना तो रहा दूरए वे सरकारी या किसी की भी नौकरी नहीं करना चाहते। व्यापारी या उद्योगपति का बेटा अपनी दौलत के सहारे संसाधनों को अपने कब्जे में रखना चाहता है। जबकि गरीब या एक आम आदमी का बेटा सैनिक के रूप में सियाचिन में बर्फ के अंदर महीनों रह सकता है। जरूरत पड़ने पर वह देश के लिये जान न्योछावर कर सकता है। लेकिन अगर नेता या ब्यूरोक्रेट का बेटा घर से दो कदम भी बाहर निकला तो उसके मां.बाप को चिंता हो जाती है।
अगर यह देश हर देशवासी का है तो इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हर एक देशवासी की क्यों नहीं हैघ् अगर इस देश में तरक्की के अवसरों पर हर एक नागरिक का अधिकार है या सभी को सुख.सुविधायुक्त सुरक्षित जीवन जीने का बराबर का अधिकार है तो फिर यह भेदभाव क्योंघ्
सामरिक दृष्टि से देखा जाये तो भारत और इस्राइल की स्थिति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। भारत तो कम से कम दो परमाणु शक्ति सम्पन्न वैमनस्यता रखने वाले देशों से घिरा हुआ है। इस्राइल हर वक्त डिफेंसिव नहीं बल्कि ऑफेंसिव रहता है। वहां के छोटे नेता से लेकर राष्ट्रपति तक हर किसी को कभी न कभी सेना में योगदान देना ही होता है। ब्रिटेन में तो आज भी राजशाही है और वहां के युवराज या राजकुमारों को आवश्यक मिलिट्री सेवा से गुजरना होता है। ब्रिटिश युवराज चार्ल्स फिलिप अार्थर जॉर्ज स्वयं नोसेना के पदधारी रहे हैं। जबकि उनके बेटे और भावी युवराज विलियम हैरी ने एक सैनिक के तौर पर इराक युद्ध में सक्रिय भागीदारी की थी।
अगर देखा जाये तो आज भारत को सबसे बड़ी सैन्य चुनौती चीन की ओर से है। चीन में भी 18 साल की उम्र तक पहुंचने वाले हर युवा को पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के दफ्तर में अपना पंजीकरण कराना होता है ताकि जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके। भारत के पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने अपने सेवाकाल के दौरान ही देश में ष्आवश्यक मिलिट्री सेवाष् की बात कही तो इस विचार को अंगीकार करना तो रहा दूरए नेताओं और सिविल नौकरशाहों की भौंहें चढ़ गयीं।
केवल थलसेना में ही आज की तारीख में लगभग 12 हजार अफसरों की कमी है। सवाल केवल राष्ट्रीय सुरक्षा में हर किसी की भागीदारी का नहीं है। सवाल यह है कि अगर हर क्षेत्र में काम करने वाले एक.दूसरे के काम की जटिलताओंए जोखिमों और महत्व को समझेंगे तो उनमें तालमेल बढ़ेगा। जब एक नेता या ब्यूरोक्रेट का बेटा सेना से जुड़ेगा तो उसमें अनुशासन की भावना भी बढ़ेगी।
SOURCE :http://dainiktribuneonline.com/2015/06/
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