Wednesday, 3 June 2015

अब सपने भी नहीं रहे अपने!

अब सपने भी नहीं रहे अपने!

इन दिनों विभिन्न राज्यों की माध्यमिक शिक्षा परिषदों द्वारा संचालित हाई स्कूल व इंटर परीक्षाओं के नतीजे आ रहे हैं। इनके टॉपर्स में ज्यादातर बड़ी-बड़ी कम्पनियों की बड़े-बड़े पैकेजों वाली ‘एग्जिक्यूटिव’ किस्म की नौकरियां करना चाहते हैं और आईएएस व आईपीएस जैसी ‘सम्मानजनक’ सेवाओं का भी पहले जैसा सम्मान नहीं कर रहे। राजनीति और उसके नायकों से घृणा करना सिखाकर युवाओं को उससे विमुख करने की कवायदों को इन नतीजों के आईने में देखें तो वे इस हद तक सफल हो गयी हैं। अब कोई भी टापर नेता बनकर गंदी राजनीति की सफाई नहीं करना चाहता।
एक दौर था जब नई पीढ़ी के अराजनीतिकरण को बढ़ाने वाले एक गीत में एक बच्चा अपनी मां से कहता था कि वह गोली चलाना सीखेगा, क्योंकि उसे लीडर नहीं, फौजी आफिसर बनना है! लेकिन अब कोई टापर फौजी आफिसर बनने की इच्छा भी नहीं दर्शाता। उस समाजसेवा को छोड़, जिसमें कोई एनजीओ बना लेने पर बदले में मेवा खाने की गारंटी हो जाती है, उसकी किसी समाज कार्य में भी दिलचस्पी नहीं है। क्या अर्थ है इसका? अभी दो-तीन दशक पहले तक टॉपर्स के अरमानों में खासा वैविध्य हुआ करता था। उनमें कोई अच्छा वकील बनना चाहता था तो कोई अध्यापक। कोई बड़ा वैज्ञानिक बनना चाहता था तो कोई डाक्टर। कोई न कोई किसानों और मजदूरों के लिए अपना जीवन अर्पित करने का जज्बा भी दिखाता ही था। मतलब देश और समाज उनके सपनों में पूरी शिद्दत से शामिल थे। लेकिन अब जैसे सारे सरोकार उस सफलता के हाथों के खिलौने बन गये हैं, जिसे गाड़ी, नौकर, बंगला, बैंक बैलेंस और लाकर आदि से मापा जाता है।
मैकाले की क्लर्क पैदा करने वाली शिक्षा पद्धति झेलने को अभिशप्त देश की आजादी के शुरुआती बरसों की सरकारों ने जनदबाव में ही सही, अपने तईं अच्छे नागरिकों का निर्माण कर सकने वाली शिक्षा का एक अपेक्षाकृत बेहतर ढांचा खड़ा किया था। यकीनन, उस ढांचे में भी कमियां थीं, जिन्हें दूर करने की जरूरत भी जताई जाती थी।
लेकिन भूमंडलीकरण व्यापा तो सारा जोर ऐसे संस्थानों पर हो गया, उक्त कम्पनियों के लिए अच्छे प्रोफेशनल और उनके उपयुक्त मानसिकता पैदा करना ही जिनका एकमात्र ध्येय है। इस कारण मानविकी पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों व कालेजों में अब पढ़ाई नहीं, सिर्फ प्रवेश व परीक्षा होती है और वे अयोग्य डिग्रीधारियों की उत्पादन इकाइयों में बदल गये हैं। दूसरी ओर उक्त संस्थानों में प्रशिक्षित टॉपर्स के ज्ञान व प्रतिभा को ‘किसी भी कीमत पर खरीदकर’ बड़ी कम्पनियां हमारी ही लूट में इस्तेमाल कर रही हैं। इस खरीद-बिक्री से ‘अभिभूत’ कोई टापर पायलट भी होना चाहता है तो वायुसेना का नहीं, किसी एयरलाइंस का। क्योंकि वायुसेना के पायलट को जान जोखिम में डालकर दुश्मन के इलाके में बम बरसाने जाने के एवज में निजी एयरलाइनों के उन पायलटों से कम पैसे मिलते हैं । जो किसी देश में बर्ड फ्लू फैला हो तो विमान को उड़ाकर वहां ले जाने का तनाव झेलने से भी इनकार कर देते हैं!
गौर कीजिए, टॉपर्स के शहरों के अखबारों में खबरें छप रही हैं कि उन्होंने इस ‘पराक्रम’ से अपने शहर का नाम रौशन किया है। उनके हंसते-मुस्कुराते चित्रों के साथ सफलता का सारा श्रेय किसी कोचिंग संस्थान, माता-पिता, गुरुजनों या प्रियजनों को देने वाले उनके बयान भी छप रहे हैं। किसी का दृष्टिकोण बहुत सकारात्मक है तो वह इसे इस तरह भी देख सकता है कि जो प्रतिभाएं कभी देश का नाम रौशन करती थीं, अपने दुर्दिनों में भी वे कम से कम अपने शहर का नाम तो रौशन कर ही रही हैं।
लेकिन किसी टापर द्वारा अपने सारे संकल्प जगाकर किसी परीक्षा में ऊंचा स्थान पा लेने या उसके बूते महज अपने सुखद व सुन्दर भविष्य की गारंटी देने वाली एक अदद बड़ी नौकरी उगाह लेने से उसके शहर का नाम कैसे रौशन होता है? क्या उसके शहर की कामनाओं को सुनहरे पंख तभी हासिल होते हैं जब कोई कम्पनी उसके किसी टापर को कलाई मरोड़कर उससे छीन लेती है? क्या इससे शहर को कोई ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष या परोक्ष सुरक्षा हासिल होती है?
अनुभव तो कहता है कि ये बड़ी नौकरियां अपने शहर की कौन कहे, आसपास के शहरों की सेवा का भी मौका नहीं देतीं। मुक्तिबोध कहते थे कि नौकरी प्रतिभा व आत्म-सम्मान को सबसे ज्यादा काटने वाली चीज है। मैथिलीशरण गुप्त तो उस शिक्षा का नाश चाहते थे, जो महज नौकरी के लिए होकर रह जाये। तब टापर अपनी प्रतिभा व आत्म-सम्मान की कीमत पर नौकरी से जो कुछ हासिल करते हैं, उनके शहर का नाम भला कैसे रौशन हो सकता है? फिर, सामाजिक जिम्मेदारियों से भागती सरकारों और लूटो-खाओ की आंधी को ग्लोबल बना डालने वाली कम्पनियों की सेवा करके कोई टापर, शहर व देश की तो छोडि़ए, अपना नाम भी रौशन कर सकता है क्या?
हमारे टापर तक महज खुद को रौशन करने के लिए सारा उजाला अपनी मुट्ठी में कैद रखने के फेर में हैं, तो यह एक बहुत बुरी और निराशाजनक खबर है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/

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