Sunday, 21 June 2015

न्यूनतम पारदर्शिताए अधिकतम दखल

न्यूनतम पारदर्शिताए अधिकतम दखल

मोदी दूसरे मोदी के मुद्दे पर अपनी साख पर बट्टा लगा चुकी सुषमा स्वराज ने यह कह कर मजा किरकिरा कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 जून को राजपथ पर होने वाले योग महोत्सव की शोभा तो बढ़ाएंगेए मगर खुद योगासन नहीं करेंगे। यह एक तरह का धक्का देने वाली बात थीए क्योंकि टेलीविजन चैनल जोश से भरे मोदी को जोशीले अंदाज में भस्तरिका प्राणायाम करते हुए दिखाकर पहले ही सबकी भूख बढ़ा चुके थे और मुंह में पानी लाने की चाहत जगा चुके थे। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता सुश्री स्वराजए क्योंकि दूरदर्शन के सौजन्य से पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ में जिस अंदाज में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने और इस अवसर पर भव्य आयोजन करने का प्रचार किया गया थाए उसने हमें लबालब कर दिया। टीवी के प्रोमोज में उन्होंने देशवासियों को देश के कोने.कोने में योग दिवस पर योग करने का उपदेश दिया। मोदी सरकार इस मामले में इतनी अधिक ऊर्जाए प्रतिष्ठा व जिद दिखा चुकी है कि ष्योगष् अचानक एक निजी आनंददायक अनुभव से अलगए बड़ा प्रतीत होने लगा है।
करदाताओं के खर्च पर होने वाला प्रस्तावित भव्य योग आयोजन हिंदुत्व के रस से सराबोर है। स्वाभाविक रूप से इसने हमारे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग को असहज बना दिया है। आखिरकार इस देश में ऐसा राज चल रहा हैए जिसने दोनों आस्तीनों पर आरएसएस के संबंधों को गर्व से लाद रखा है। यद्यपि महंतों व गुरुओं की टोली ने यह चेतावनी दे रखी है कि जो भी उनके कहे पर नहीं चलेगाए उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। फिर भी सुषमा स्वराज और दूसरे मंत्री खूबसूरती से कह रहे हैं कि मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक अभिषेक दिवस पर योग न करना चाहें तो यह उनकी मर्जी है. और उनका नुकसान भी। देखा जाए तो इस बहाने ष्कृपाष् बेमतलब हैए क्योंकि ष्सूर्य नमस्कारष् और ष्ओउम‍्ष् को लेकर छिड़ा विवाद ष्हमष् तथा ष्वोष् में नागरिकों को विभाजित करने के मूल उद‍्देश्य को पुख्ता कर ही चुका है। साफ है कि जो भी इसमें शामिल न होने का रास्ता चुनेगाए उसे बहुमत की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के कुकृत्य का फल भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
अल्पसंख्यकों को जबरदस्ती का एहसास होए इससे ज्यादा यह बहुमत की बाड़ेबंदी है कि हर लोकतांत्रिक आत्मा हतोत्साहित हो। इससे पहले कभी भी किसी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर एक सामूहिक आयोजन करने के लिए सरकारी संसाधनों व शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया। अभी तक शायद एकमात्र गणतंत्र दिवस ही हैए जिसके समारोह में सरकार वर्दीधारी लोगों ;और स्कूली विद्यार्थियोंद्ध को शामिल होने के लिए कहती है। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण के लिए कुछ स्कूलों के बच्चे दर्शक दीर्घा में ;वाहवाही करने के लिएद्ध आमंत्रित किये जाते रहे हैं। लेकिन इस बार तो कैबिनेट सचिव से लेकर हर जिलाधीश तक ;खासकर भाजपा शासित राज्यों मेंद्ध को सख्ती से कार्यक्रम में शिरकत करने को कहा गया है। साथ ही सुनिश्चित करने को कहा गया है कि सेनाए अर्द्ध सैनिक बलों के संगठनोंए स्कूल व विश्वविद्यालयों और सामाजिक समूहों की 21 जून के कार्यक्रम में भागीदारी हो। यह भी कम विवाद का विषय नहीं है कि अपने व्यापक व्यापारिक हितों व राजनीतिक संबंधों के चलते विवादों में रहने वाले बाबा को राजपथ के आयोजन का सूत्रधार बनाया गया है।
इस मौके पर गहरी यौगिक सांस लेने व ध्यान करने की सलाह देने वाले सरकार द्वारा अधिकृत एचण्आरण् नगेंद्र ने आरएसएस के मुखपत्र ष्ऑर्गेनाइजरष् को बताया कि ष्इस दिन इस मौके पर एक ही समय तीस करोड़ लोग योग करेंगे।ष् संशय पैदा करने वाला यह आंकड़ा उत्तर कोरिया के उन तानाशाहों के लिए एक नसीहत हैए जो विशाल अनुशासित आयोजनों को बलपूर्वक करने की अपनी क्षमताओं पर बड़ा घमंड किया करते थे।
दरअसल ऐसे कर्मकांडी कार्यक्रमों के आयोजक खास मकसद के लिए ऐसे आयोजन करते हैं। अकसर यह विचार इस प्रवृत्ति का पोषण करने वाला होता है कि शासक व वर्ग विशेष के संबंधों व वफादारियों को गहरा रंग दिया जाए और अन्य को जोड़ा जाए। मसलन नौवें दशक में महासमागम आरती व नमाज के प्रतिस्पर्धी आयोजन हुएए जिसके अप्रिय परिणाम सामने आये तथा परिणति अलगाव के रूप में नजर आई। अब भारतीय शासन की शक्ित का प्रयोग लोगों को अनुसारक कार्य के लिए तैयार करने में किया जा रहा है।
हमें यह मानकर चलना चाहिए कि यह हुकूमत बखूबी जानती है कि कैसे विशाल भीड़ वाले आयोजनों को गढ़ा और क्रियान्वित किया जाए। देश ने पहली बार इस कौशल को तब देखाए जब नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान वाराणसी में रोड शो किया। टीवी चैनलों के प्रस्तोता व बुद्धिजीवी वर्ग संकरी गलियों में उमड़े जनसैलाब को देखकर मंत्रमुग्ध हुए। इस रोमांच ने टीवी चैनलों को निहाल किया। कई सप्ताह तक विश्लेषक.लेखक इस मोहपाश से मुक्त न हो सके। इस बार वाराणसी जैसे अंदाज में इसे देशव्यापी स्तर पर बड़े पैमाने में जनाकांक्षाओं एवं निहितार्थों के बीच किया जा रहा है।
अपेक्षित रूप से 21 जून की अतिरंजना को लेकर तार्किक आधार तैयार किया गया है। दरअसल सरकार चुपचापए लेकिन अधिकारपूर्वक नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप कर रही है। यह दावा परोपकार के मुलम्मे के साथ  आगे बढ़ाया जा रहा है कि उनका जीवन बेहतरए उन्नत और आदर्श शैली में ढलेगा। इसके पीछे तर्क यह है कि यह प्रकटतरू एक बेहतर श्रेष्ठ व आदर्श जीवनशैली के लिए हानि.रहित प्रयास है। जैसा कि ष्ऑर्गेनाइजरष् ने अपने संपादकीय में लिखा कि ष्21 जून का आयोजन एक उत्सव की तरह हैए जो प्राचीन ऋषि.मुनियों द्वारा बतायी गयी स्वस्थ व सद्भाव की जीवनशैली के अनुरूप है।ष् मामला राजपथ पर आलीशान ढंग से होने वाले आयोजन तक सीमित नहीं रह जाताए बल्कि हो.हल्ले के साथ मांग की जा रही है कि योग को स्कूल व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये।
दरअसल जबरन थोपी गई चीजें सदैव साथ में प्रतिकार को भी जन्म देती हैं। केंद्र में आसीन सत्ताधीश पहले भी हमारी निजी खान.पान की आदतों व पसंद में हस्तक्षेप की कोशिश कर चुके हैं। वास्तव में बड़ी विषय वस्तु को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें की जा रही हैंए जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति का हिस्सा है। यह हमारे सांस्कृतिक संस्थानों में हस्तक्षेप की कोशिश है। हो सकता है कल कहा जाये कि हम खास किस्म की फिल्में देखेंए खास किस्म की किताबें पढ़ें तथा खास तरह का इतिहास पढ़ें और पढ़ायें। यह सब इस नयी गढ़ी सोच के साथ किया जा रहा है कि बहुसंख्यकों की भावना का सम्मान होना चाहिए।
साधारण से बाहर कुछ भी नहीं है। आखिरकारए संघ परिवार सदैव से ही संवैधानकि प्रावधानों के अनुरूप लोकतांत्रिक मान्यताओंए धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों तथा सर्वधर्म समभाव के दर्शन के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाता रहा है। वह सदैव से ही बहुसंख्यकों और उनकी धार्मिक मान्यताओं को सर्वोच्च बताते हुए उन्हें संवैधानिक प्रावधानों पर अधिमान देता रहा है। मोदी सरकार की कोशिश रही है कि बहुसंख्यकों की भावनाओं तथा आकांक्षाओं का दोहन किया जाये। इसे नये सिरे से परिभाषित की जा रही लोकतांत्रिक परिभाषाओं की तर्कसंगति में महसूस किया जा सकता है। इसी 21 जून की सामूहिक झांकी के पीछे मंशा हमें उसी नयी कथा के प्रति नरम होने के लिए तैयार करना है।

बीसवीं सदी का यूरोप का इतिहास हमें काफी कुछ सिखाता है। यह बताता है कि कैसे सत्ता में बने रहने के लिए शासक जनता को अनुशासन के सिद्धांत का सहारा लेकर भारी भीड़ वाले आयोजन करते रहे हैं। इसके जरिये वे जनता को भ्रमित करके उसके अधिकारों में ही कटौती करते रहे हैं और अपने एजेंडे को अमलीजामा पहनाते रहे हैं। न्यूरेमबर्ग की ऐतिहासिक रैली के दिनों में काल्पनिक परिदृश्य से जनता को भ्रमित करके उसे शासन से सवाल करने का अधिकार त्यागने के लिए भरमाया गया था।
देश पहले ही हर्ष के साथ प्रधानमंत्री के इर्द.गिर्द सत्तावादी व्यक्तिवाद को स्वीकार कर चुका है। राजपथ पर होने वाले सामूहिक आयोजन से उत्पन्न बेचैनी को इसके निहितार्थ के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतांत्रिक आयोजन से इतर किसी भी चीज को यह घातक मिश्रण आसानी से अपनी तरह ढाल सकता है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/p/

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