स्वस्थ बहस की प्रयोगशाला बनें विश्वविद्यालय
देश की मानव संसाधन मंत्री ने शिक्षा के दो उद्देश्य गिनाये हैंकृ एक तो विद्यार्थियों को इस लायक बनाना कि वे कमा.खा सकें और दूसरा ष्शिक्षा के पर्याप्त अवसर होने चाहिए जहां छात्र खेल में दिलचस्पी बढ़ा सकें या फिर एक दिन मेरी तरह नेता बन सकें।ष् मेरी तरह नेता बन सकें से उनका जो भी मतलब रहा होए लेकिन उनका यह कहना सही है कि शिक्षा का उद्देश्य मात्र रोज़गार के लायक बनाना ही नहीं होना चाहिए। और हमारी विसंगति यह है कि हम शिक्षा के वृहत्तर उद्देश्यों की बात तो करते हैंए पर शिक्षा के क्षेत्र में डंका रोज़गारोन्मुख शिक्षा का ही बज रहा है। यह भी सही है कि आज एक खास तरह की सोच को शिक्षा का उद्देश्य बनाने की प्रत्यक्ष.परोक्ष कोशिशें हो रही हैं।
होना तो यह चाहिए था कि कम से कम शिक्षा के क्षेत्र को राजनीति के दांव.पेचों से बचाकर रखा जाता। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सक्षम और योग्य व्यक्तियों को बागडोर संभलवायी जातीय उन्हें विवेकशील तरीके से स्वतंत्रतापूर्वक उचित निर्णय लेने का अवसर और अधिकार दिया जाता। पर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं रहा। अकसर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकारें दखलंदाजी करती रही हैं और अब तो स्थिति यह बन गयी है कि सरकारें शिक्षाविदों को बाध्य करने के प्रयास करती नज़र आने लगी हैं ताकि वे वही.वही करें जो सरकारें अपने हितों की दृष्टि से उनसे करवाना चाहती हैं। उच्च शिक्षा में इस प्रकार के अनुचित हस्तक्षेप का एक ताज़ा उदाहरण आईआईटी मद्रास का है जहां एक छात्र संगठन की मान्यता इसलिए रद्द कर दी गयी क्योंकि वह प्रधानमंत्री की सोच को बहस का विषय बना रहा था। मानव.संसाधन मंत्रालय को एक गुमनाम शिकायत मिली थीए जिसमें इस संगठन की शिकायत की गयी थी। अम्बेडकर और पेरियार के नामों और विचारों से जुड़े संगठन के विरुद्ध मिली इस शिकायत को मंत्रालय ने उक्त संस्थान के उत्तराधिकारियों के पास कार्रवाई के लिए भेज दिया और मंत्रालय की मंशा का अनुमान लगाते हुए संबंधित अधिकारियों ने छात्र संगठन से बिना पूछताछ किये ही उसकी मान्यता रद्द कर दी। यह अतार्किक निर्णय का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।हमारा शिक्षा मंत्रालय और उक्त शिक्षण संस्थान के अधिकारीए दोनों यह भूल गये कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ डिग्रियां बांटना नहीं होताय कि शिक्षा व्यक्ति को मनुष्य बनाने का माध्यम हैय कि बहस और विरोध उद्दंडता नहीं होतेय कि संदेह करने और संदेह का निवारण करने का यह काम उच्च शिक्षा का मूल उद्देश्य माना जाना चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो संबंधित विद्यार्थी संगठन कुछ ग़लत नहीं कर रहा था। जनतांत्रिक व्यवस्था हमें यह अवसर और अधिकार देती है कि हम अपने नेतृत्व के वैचारिक आधार और विस्तार के बारे में विचार.विमर्श करेंए और उसे समझने की कोशिश करेंए उसका समर्थन या विरोध करें। आईआईटी मद्रास में जो कुछ हुआए वह इसका बिल्कुल उलटा है और दोष सिर्फ शिक्षा.मंत्रालय का नहीं हैए दोष उन अधिकारियों का भी है जिन्होंने अपने विवेक का उपयोग किये बिना निर्णय लेना ज़रूरी समझा। यदि हम इस स्थिति को देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में शीर्ष पर बिठाये जाने वाले व्यक्तियों के संदर्भ में चल रही राजनीति से जोड़कर देखें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि शिक्षा को राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का माध्यम बनाया जा रहा है।
यदि अम्बेडकर.पेरियार के नामों से जुड़ा यह संगठन कुछ ग़लत कर रहा है तो उसे चिन्हित किया जाना ज़रूरी है। उसकी जांच भी होनी चाहिए और यदि वह किसी अपराध की श्रेणी में आता है तो उसके खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिए। लेकिन किसी छात्र संगठन के विरोध करने के अथवा अपनी भिन्न राय प्रकट करने के अधिकार को चुनौती देने का मतलब जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों को चुनौती देना है। भिन्न राय रखना मात्र विरोध नहीं होताए यह विरोध से कहीं अधिक व्यापक और सार्थक मूल्य है। वस्तुतः अम्बेडकर.पेरियार से जुड़ा यह छात्र संगठन अथवा ऐसे संगठन जनतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूती ही देते हैं। माओ ने हज़ार फूल खिलने की बात कही थीए गांधी दूसरे के सत्य को समझने की अावश्यकता को रेखांकित करते थेए अम्बेडकर मानवीय अधिकारों के पक्षधर थेए पेरियार विवेकहीन भेदभाव के विरोधी थे३। यह सब उस शिक्षा का हिस्सा होना चाहिएए जिसे हम अपने भविष्य की नींव मज़बूत बनाने के लिए ज़रूरी समझते हैं। शैक्षणिक संस्थानों में विशेषकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे संगठनों को फलने.फूलने का अवसर दिया जाना ज़रूरी है।
वैचारिक मतभेद उस वैचारिक स्वातंत्र्य का ही हिस्सा हैं जो व्यक्ति को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया को गति देता है। ऐसी बौद्धिक संस्कृति को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए जो उद्देश्यपूर्ण विचार.विमर्श का गला घोटती हैए जिसमें मत.वैभिन्य को मात्र विरोध माना जाता है और भिन्न मत वाले को दुश्मन।
हमारे विश्वविद्यालय स्वस्थ वैचारिक बहस की प्रयोगशाला होने चाहिए और संबंधित क्षेत्र का दायित्व बनता है कि इस बहस को बढ़ावा देने में योगदान करें। आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों में देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं हुआ करती हैं। उनकी प्रतिभा तकनीकी विषयों तक ही सीमित नहीं होती और उसका व्यापक उपयोग होना चाहिए। हमारे राजनीतिक नेतृत्व को यह बात समझनी ज़रूरी हैए पर लगता नहीं वह इस बात को समझना चाहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। और यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह स्थिति हम स्वयं बना रहे हैं।
वस्तुतः इस तरह के मुद्दे समूचे समाज में व्यापक वैचारिक मंथन की अपेक्षा रखते हैंए लेकिन दिख यह रहा है कि इस मुद्दे पर कथित बौद्धिक समाज शेष समाज से कटा हुआ है। अम्बेडकर.पेरियार के नामए और संभवतरू सोच से भी जुड़ा यह छात्र संगठन एक अकेली लड़ाई लड़ रहा है। वस्तुतः यह लड़ाई हर सोचने.समझने वाले व्यक्ति की है। यह वैचारिक स्वतंत्रता का मुद्दा है। मानवीय अधिकारों का तकाज़ा है और मानवीय कर्तव्य का भीए कि विचार.स्वातंत्र्य के अधिकार की महत्ता को सारा समाज समझे।
विश्वविद्यालयों एवं उच्च शिक्षण संस्थाओं में बौद्धिक संगठनों को बढ़ावा भी मिलना चाहिए और स्वतंत्रता भी। यह अधिकार हमारी शिक्षा व्यवस्था को अर्थवत्ता देगा और समाज को सही नेतृत्व।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/
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