Friday 19 June 2015

इमर्जेंसी की तलवार

इमर्जेंसी की तलवार

बुजुर्ग राजनेता लाल कृष्ण आडवाणी ने देश में आपातकाल जैसी स्थिति की वापसी को लेकर जो आशंका जताई हैए उसे एक खास पार्टी के संतुष्ट या असंतुष्ट नेता के बयान के रूप में नहीं लिया जा सकता। यह आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार स्टेट्समैन का सटीक ऑब्जर्वेशन है।

देश में फिलहाल दो ही पार्टियां वास्तविक अर्थों में राष्ट्रीय पार्टी कहलाने लायक हैंए जिनमें एक कांग्रेस लोकतंत्र के प्रति श्आस्थाश् इमर्जेंसी के दौरान दिखा ही चुकी है। उससे ज्यादा तकलीफ की बात यह है कि पार्टी ने देश को ढाई साल तक लोकतंत्र से वंचित रखने को लेकर आज तक खेद भी व्यक्त नहीं किया है। दूसरी तरफ बीजेपी के अंदर भी हाल के दिनों में ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैंए जिनका लोकतांत्रिक भावनाओं और कसौटियों से कोई मेल नहीं है। सरकार में सारी शक्तियां एक व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। विरोधी आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नजर आ रही हैं।

लेकिन आडवाणी की चिंताएं सिर्फ राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं हैं। उन्हें लोकतंत्र का पहरेदार कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान देश में नजर नहीं आतेए जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। मीडिया सत्तर के दशक के मुकाबले आज कहीं ज्यादा आक्रामक हैए लेकिन पूंजी और राजनीति के दबाव में वह कई बार आंधी में मामूली पौधे की तरह इधर.उधर होता दिखाई पड़ता है। खासकर मीडिया कंपनियों की क्रॉस ओनरशिप को लेकर नियमों का अभाव कभी भी कोई खेल कर सकता है। अगर कोई एक ही कंपनी तमाम मीडिया समूहों के शेयर खरीद कर उनकी नीति निर्धारक स्थिति में पहुंच जाती है तो उस खास कंपनी के एजेंडे को ही देश के एजेंडे के रूप में पेश करने से कैसे रोका जा सकता हैघ्

राजनीति और मीडिया से आगे अगर समाज की बात करें तो वहां भी इस दौरान लोकतंत्र के मुकाबले ताकत एक कहीं ज्यादा प्रभावी मूल्य के रूप में उभरी है। जिसके पास ताकत है वह किसी भी उपाय से किसी का मुंह बंद कर सकता है। और तो औरए सोशल मीडिया में अपनी बात कहने के लिए भी आपको जिंदा जलाया जा सकता है। यह ध्यान रखना जरूरी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही नहीं किया जा सकता। वह लोकतांत्रिक आवरण मेंए कायदे.कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। बचाव का कोई उपाय नहीं हैए सिवाय निरंतर चौकसीए लगातार जागरूकता के।
SOURCE: http://navbharattimes.indiatimes.com/other/opinion/editorial/articlelist/2007740431.cms

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