Tuesday, 30 June 2015

जीवंत जनतंत्र की जवाबदेही

जीवंत जनतंत्र की जवाबदेही

हर साल जून में देश उस दुरूस्वप्न को याद कर लेता है जो चालीस साल पहले हमारी शानदार जनतांत्रिक परंपरा के चेहरे पर धब्बा जैसा लगा था। 25 जूनए 1975 को की गयी आपातकाल की घोषणा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सारी उपलब्धियों का चेहरा मलिन कर दिया था। यह सही है कि मतदाता ने इसके लिए उन्हें चुनाव में हराकर सज़ा भी दीए और इसके बाद आयी जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में संशोधन करके फिर कभी आपातकाल लागू किये जाने की संभावनाओं पर एक तरह से अंकुश भी लगा दियाए लेकिन वैसा कुछ फिर कभी नहीं होगाए इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता।
आपातकाल के शिकार हुएए और बाद में देश के उपप्रधानमंत्री बनने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अरसे बाद अपना मौन तोड़ते हुएए आपातकाल की चालीसवीं बरसी पर इसी खतरे की ओर संकेत किया है। एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार को दिये गये इंटरव्यू में यह सवाल पूछे जाने पर कि क्या उन्हें लगता है फिर आपातकाल लागू किया जा सकता हैए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहाए ष्मुझे नहीं लगता ऐसा कुछ किया गया हैए जिससे यह आश्वासन मिले कि नागरिक स्वतंत्रताओं को फिर से स्थगित अथवा समाप्त नहीं किया जा सकता है। बिल्कुल नहीं।ष् इसके लिए एक ओर वे नागरिक स्वतंत्रताओं एवं मीडिया की स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता तथा निष्ठा के अभाव को कारण बताते हैं और यह भी स्पष्ट करना ज़रूरी समझते हैं कि जनतंत्र के प्रति निष्ठावान लोगों की भी कमी आती जा रही है। आडवाणीजी ने अपने इस बहुचर्चित इंटरव्यू में यह भी कहा था कि ष्बाकी कई एफ्रो.एशियाई देशों की तुलना में आपातकाल जैसी चीज़ को रोकने में भारत बेहतर स्थिति में हैए लेकिन इससे हममें संतुष्टि का भाव नहीं आ जाना चाहिए।ष्
जनतंत्र.विरोधी ताकतों वाली इस बात को लेकर देश में अटकलों का बाज़ार गरम है। प्रधानमंत्री मोदी के साथ आडवाणीजी के रिश्तों और भाजपा में उन्हें अलग.थलग करने की चर्चाओं के बीच यह अनुमान लगाना अस्वाभाविक नहीं है कि जाने.अनजाने भाजपा का यह वरिष्ठ नेता अपने आक्रोश और अंदेशों को ही व्यक्त कर रहा है। आडवाणीजी ने इन कयासों को खारिज करते हुएए टीवी चैनलों को दिये गये साक्षात्कारों में यह कहना ज़रूरी समझा कि वस्तुतः वे कांग्रेस के नेतृत्व द्वारा आपातकाल लागू करने के प्रति किसी प्रकार का खेद व्यक्त न करने की ओर संकेत कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस को 40 साल पहले के इस कृत्य के प्रति ष्अपराध.बोधष् अभिव्यक्त करना चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पिछले आम चुनाव में अभूतपूर्व सफलता मिली है। लगभग तीन दशक बाद विरोध में बैठे किसी दल को लोकसभा में पूर्ण बहुमत दिलाने का श्रेय यदि नरेंद्र मोदी लेना चाहें तो यह ग़लत नहीं होगा। निश्चित रूप से इस समय वे देश के सबसे ताकतवर राजनेता के रूप में उभरे हैं। सत्ता पर उनकी पकड़ भी बहुत मज़बूत है। उनकी कार्यशैली भी कुछ इस तरह की मानी जा रही हैए जिसमें विरोध या असहमति के लिए कोई स्थान नहीं है। ऐसे में यदि आडवाणीजी के कथन को वर्तमान शासकों के लिए आलोचना नहीं तो चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है तो इसे ग़लत भी नहीं कहा जा सकता। फिर भीए यदि आडवाणीजी यह कहते हैं कि उनका अभिप्राय भाजपा के वर्तमान नेतृत्व की ओर नहीं हैए तो इसे मान लिया जाना चाहिए।

लेकिनए मानना यह भी पड़ेगा कि यह हर उस शासक के लिए एक चेतावनी है जो जनतांत्रिक मूल्यों.परंपराओं के प्रति निष्ठावान नहीं होगा। हर 25 जून को ष्आपातकालष् को याद करने का मतलब भी यही है कि हम ऐसी सब प्रवृत्तियों को चुनौती दें जो हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था को कमज़ोर दिखाती अथवा बनाती हैं। आडवाणीजी के अखबार को दिये गये इंटरव्यू ने सारे देश को एक अवसर दिया है इस प्रश्न पर विचार करने का कि समाज और राजनीति में ऐसे क्या परिवर्तन लाये जाएं कि कभी देश में आपातकाल जैसी स्थिति न बनें। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे जनतंत्र की नीव कमज़ोर नहीं है।
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जिस तरह की जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने आकार दिया हैए वह जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति हमारी निष्ठा का प्रमाण है। और जिस तरह से आपातकाल के बाद हुए चुनावों में देश के मतदाता ने श्रीमती इंदिरा गांधी को नकारा थाए वह इस बात का भी प्रमाण है कि यह देश अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा। इंदिरा गांधी द्वारा चुनाव कराने की इस पहल को मतदाता ने उनके मन.परिवर्तन के रूप में देखा था। इसीलिएए जब जनता पार्टी की सरकार मतदाता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी तो उसने उस सरकार को भी बदल दिया। फिर से इंदिरा गांधी को एक अवसर दिया। उन्होंने अपने सहयोगियों के बीच तो आपातकाल लागू करने की ग़लती को स्वीकारा थाए लेकिन बेहतर होता यदि वे सार्वजनिक रूप से उस कृत्य के लिए देश से क्षमा मांग लेतीं।
आज भी यदि आडवाणीजी की बात मानकर कांग्रेस पार्टी चालीस साल पहले के अपराध के लिए देश से क्षमा मांग लेती है तो मतदाता के मन में उसके प्रति विश्वास का भाव बढ़ेगा ही। यह सही है कि इस दौरान चार बार मतदाता ने कांग्रेस पार्टी को फिर से शासन करने का मौका दिया हैए पर इसका अर्थ यह नहीं कि आपातकाल के पाप धुल गये।
जनतंत्र को मज़बूत बनानेए बनाये रखने की ज़िम्मेदारी मूलतः मतदाता की है। लेकिन जनतंत्र में हर शासक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी कथनी.करनी से जनतांत्रिक मूल्यों में अपने विश्वास को लगातार अभिव्यक्त करता रहे। आज यदि आडवाणीजी जैसा वरिष्ठ नेता यह आशंका व्यक्त करता है कि जनतंत्र को कमज़ोर बनाने वाली ताकतें सिर उठा रही हैं तो इसे एक चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए। मतदाता को और अधिक जागरूक होना होगा तथा निर्वाचित सरकारों को जनतंत्र में अपनी निष्ठा को प्रमाणित करने के प्रति निरंतर सजग रहना होगा।
समताए स्वतंत्रताए न्याय और बंधुता के जिन आधारों पर हमने अपने जनतंत्र का प्रासाद बनाया हैए उन्हें कमज़ोर करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। नागरिक स्वतंत्रताओं को किसी आपातकाल की घोषणा से ही निरस्त नहीं किया जाताए इन स्वतंत्रताओं पर हमला करने वालों को इसका अवसर दिया जाना भी उन स्थितियों का निर्माण करता है जो ष्आपातकालष् को परिभाषित करती हैं। इन हमलावरों के प्रति भी देश को जागरूक रहना होगा। सतत जागरूक। तभी जनतंत्र बचेगा।
SOURCE :http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

देश पर मर मिटने का जिम्मा

देश पर मर मिटने का जिम्मा

भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून के ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह में इस बार भी इस देश की अनेकता में एकता की झलक तो अवश्य नजर आई मगर उसमें न तो कोई नेता और न ही आईएएस या आईएफएस जैसी नौकरशाही की बिरादरी का कोई ब्यूरोक्रेट नजर आया। वास्तव में आईएमए की दीक्षान्त परेड का गवाह बनने वही लोग पहुंचते हैं जिनके लाड़ले देश की आनए बान और शान पर मर मिटने वाली भारत की सेना की दहलीज पर खड़े हों।
नोसेना और वायुसेना की अकादमियों में भी आपको किसी नेता या ब्यूरोक्रेट का लाड़ला नजर नहीं आयेगाए क्योंकि उन्हें देश पर शासन करना हैए लेकिन शासकोंए प्रशासकों और उद्योग या व्यापार जगत से जुड़े लोगों की सोच से इतर अगर आप सोचें तो सवाल उठता है कि क्या इस देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल एक आम आदमी या गरीब किसान की ही है। अगर इस देश की सुरक्षा या डिफेंस की यही डाक्िट्रन है तो फिर देश की सुरक्षा वास्तव में खतरे में है। यह सोच लोकतंत्र की मूल भावना से भी मेल नहीं खाती।
भारतए पाकिस्तानए बांग्लादेश और म्यांमार सहित विभिन्न देशों की सेनाओं को लगभग 58 हजार जांबाज कमांडर देने वाली भारतीय सैन्य अकादमी का यह ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की असलियत को बयां कर गया।  इतिहास के पन्नों को अगर आप पलटें तो पता चलता है कि प्राचीन युग में सबसे पहले मरने वाले भी जातीय या क्षेत्र के आधार पर तय किये जाते थे। जब तीर समाप्त हो जाते थे और तलवारें कुंद हो जाती थीं तब सेनापतियों के अपने लड़ाकू मैदान में उतारे जाते थे। क्षत्रिय तो मरने के लिये ही पैदा होता थाए लेकिन आजए जबकि समाज जातीय बंधनों को तोड़कर हर क्षेत्र में हर आदमी को हाथ आजमाने का मौका दे रहा है तो शासक और प्रशासक वर्ग अब भी अपनी सुविधानुसार उस प्राचीन व्यवस्था को बनाये रखना चाहता हैए जिसमें मरने या मारने की जिम्मेदारी शासक की नहीं बल्कि शासित वर्ग की होती है। यह जिम्मेदारी आज भी एक फौजीए किसानए मजदूर या फिर वंचित वर्ग को उठानी पड़ रही है।
लोकतंत्र के इस युग में जब हम जाति विहीन या वर्ण विहीन समाज की ओर बढ़ रहे हों तो तब शासकों और प्रशासकों की बिरादरी हमें एक नयी वर्ण व्यवस्था की ओर क्यों ले जा रही हैघ् केन्द्र या किसी भी राज्य सरकार का कर्मचारी केवल उस जगह अपनी तैनाती चाहता है जहां पर सुख.सुविधाओं के सारे संसाधन उपलब्ध हों।
इसी तरह नेताओं की बिरादरी के बच्चे सरहद पर जान जोखिम में डालना तो रहा दूरए वे सरकारी या किसी की भी नौकरी नहीं करना चाहते। व्यापारी या उद्योगपति का बेटा अपनी दौलत के सहारे संसाधनों को अपने कब्जे में रखना चाहता है। जबकि गरीब या एक आम आदमी का बेटा सैनिक के रूप में सियाचिन में बर्फ के अंदर महीनों रह सकता है। जरूरत पड़ने पर वह देश के लिये जान न्योछावर कर सकता है। लेकिन अगर नेता या ब्यूरोक्रेट का बेटा घर से दो कदम भी बाहर निकला तो उसके मां.बाप को चिंता हो जाती है।
अगर यह देश हर देशवासी का है तो इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हर एक देशवासी की क्यों नहीं हैघ् अगर इस देश में तरक्की के अवसरों पर हर एक नागरिक का अधिकार है या सभी को सुख.सुविधायुक्त सुरक्षित जीवन जीने का बराबर का अधिकार है तो फिर यह भेदभाव क्योंघ्
सामरिक दृष्टि से देखा जाये तो भारत और इस्राइल की स्थिति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। भारत तो कम से कम दो परमाणु शक्ति सम्पन्न वैमनस्यता रखने वाले देशों से घिरा हुआ है। इस्राइल हर वक्त डिफेंसिव नहीं बल्कि ऑफेंसिव रहता है। वहां के छोटे नेता से लेकर राष्ट्रपति तक हर किसी को कभी न कभी सेना में योगदान देना ही होता है। ब्रिटेन में तो आज भी राजशाही है और वहां के युवराज या राजकुमारों को आवश्यक मिलिट्री सेवा से गुजरना होता है। ब्रिटिश युवराज चार्ल्स फिलिप अार्थर जॉर्ज स्वयं नोसेना के पदधारी रहे हैं। जबकि उनके बेटे और भावी युवराज विलियम हैरी ने एक सैनिक के तौर पर इराक युद्ध में सक्रिय भागीदारी की थी।
अगर देखा जाये तो आज भारत को सबसे बड़ी सैन्य चुनौती चीन की ओर से है। चीन में भी 18 साल की उम्र तक पहुंचने वाले हर युवा को पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के दफ्तर में अपना पंजीकरण कराना होता है ताकि जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके। भारत के पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने अपने सेवाकाल के दौरान ही देश में ष्आवश्यक मिलिट्री सेवाष् की बात कही तो इस विचार को अंगीकार करना तो रहा दूरए नेताओं और सिविल नौकरशाहों की भौंहें चढ़ गयीं।
केवल थलसेना में ही आज की तारीख में लगभग 12 हजार अफसरों की कमी है। सवाल केवल राष्ट्रीय सुरक्षा में हर किसी की भागीदारी का नहीं है। सवाल यह है कि अगर हर क्षेत्र में काम करने वाले एक.दूसरे के काम की जटिलताओंए जोखिमों और महत्व को समझेंगे तो उनमें तालमेल बढ़ेगा। जब एक नेता या ब्यूरोक्रेट का बेटा सेना से जुड़ेगा तो उसमें अनुशासन की भावना भी बढ़ेगी।
SOURCE :http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

Monday, 29 June 2015

बारूदी सुरंग पर चलने का जोखिम

बारूदी सुरंग पर चलने का जोखिम

नरेंद्र मोदी इस्राइल की यात्रा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री होंगेए लेकिन उनकी यह यात्रा बारूदी सुरंग पर चलने जैसी होगी। इस्राइल में गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहूए सरकार में धुर दक्षिणपंथी धड़े के नेता हैंए जिन्होंने राष्ट्र के इतिहास में एक बार सत्ता फिर संभाली है। दूसरी तरफएभाजपा ने आध्यात्मिक संबंध और विरोधियों के बारे में कटु सोच के कारण इस्राइल के साथ प्रतीकात्मक संबंध बनाए हैं।
इस्राइल खुद को घिरे हुए देश के रूप में पेश करता है तथा इस तथ्य के बावजूद उसके संदर्भ का बिंदु विध्वंस का ही रहता है कि वह आज की औपनिवेशिक ताकत है जो लाखों फिलिस्तीनियों पर राज कर रहा है। उसने पूर्वी येरूसलम के निकट बस्तियां बसाने के लिए पश्चिम तट का विशाल क्षेत्र हथिया कर उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया है तथा बराबरी की शर्तों पर शांति कायम करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखा रहा है। फलस्वरूपए इस्राइल पश्चिमी जगतए खासतौर से यूरोप में खुद को अलग.थलग महसूस करता जा रहा है और इस्राइल के ष्बहिष्कारए हटना और प्रतिबंधष् ;बीडीएसद्ध के साथ आंदोलन आगे बढ़ रहा है।
मौलिक रूप सेए बीडीएस का लक्ष्य कब्जाए गए पश्चिम तट में इस्राइली बस्तियों से पश्चिमी देशों के निवेश को वापस लेना और इस्राइली कंपनियों द्वारा वहां बनाए गए माल पर प्रतिबंध लगाना है। कुछ अमेरिकी विश्वविद्यालय भी इस्राइली पश्चिम तट की बस्तियों से हट गए हैं लेकिन अमेरिकी यहूदी लाॅबी मजबूत बनी हुई है तथा न्यायोचित शांति की तलाश के सभी प्रयासों को हताश करती रही हैए लेकिन अल्पसंख्यक जे स्ट्रीट धड़ा कट्टरपंथी बहुमत से टूटकर अलग हो गया है।

मोदी को यह जहन में रखना होगा कि उनकी इस्राइली यात्रा के साथ फिलिस्तीनी क्षेत्र की यात्रा से नेतन्याहू से उनकी मित्रता की भरपाई नहीं होगी क्योंकि दोनों के बीच कोई समानता नहीं है। भारत इस्राइल के साथ रक्षा संबंध बढ़ाता जा रहा है क्योंकि उसके सैन्य उत्पाद उत्कृष्टए आधुनिक एवं नवीन हैं। लेकिन असल राजनीतिक कारणों से तेल अवीव के साथ कारोबार करना एक बात है और ऐसी सरकार के साथ खास संबंध बनाना बिलकुल दूसरी बात हैए जिसके साथ औपनिवेशिक युग के बाद संबंध रखने में बहुत से पश्चिमी देशों को भी परेशानी होने लगी है। मोदी अपनी नाक ऊंची बनाए रख सकते हैं और रक्षा सौदे करने का रवैया अपना सकते हैं। ऐसा ही रवैया राष्ट्रपति बराक ओबामा ने राष्ट्रपति अल.सिसि के निरंकुश शासन और विरोध के दमन के बावजूद मिस्र को उदारता से फिर हथियार देने में अपनाया था या मोदी फिर इस्राइल की अपनी ऐतिहासिक यात्रा का जश्न मना सकते हैं।
अरब जगत में भारत की साझेदारी न सिर्फ इस मामले में असीम है कि वह भारतीयों को रोजगार उपलब्ध कराता है बल्कि ऊर्जा आपूर्ति का स्रोत भी है। यह सच है कि कुछ अरब देश तेल अवीव के साथ लेन.देन के तहत समझौते करते हैं और इस्लामिक स्टेट के उद्भव के साथ मध्य.पूर्व में नए एवं बदलते भौगोलिक परिदृश्य में उसके साथ कुछ अरब देशों की निकटता है। लेकिन वे 21वीं सदी में प्राचीन औपनिवेशिक ताकत के रूप में इस्राइल के शासन की कटुता से दूर नहीं जा सकते।
इस्राइल और फिलिस्तीन के बीच वर्तमान गतिरोध में कुछ गुण.दोष हैं। कुछ शांति वार्ता करने का दिखावा करके या कतई बात न करके दशकों से दुनिया को झूठ.मूठ बहकाया गया है। नेतन्याहू शांति कायम करने का कोई बहाना नहीं बनाते और पिछले चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने ऐसा कहा भी था।
मैं 1990 में इस्राइल में नेतन्याहू से मिला था जब वह कनिष्ठ विदेश मंत्री थे और उन्होंने अपनी बात मजबूती से रखी थी। खासतौर सेए अपने देश की भौगोलिक सीमाओं पर बल देते हुए उन्होंने मुझसे कहाए ष्अगर आप इस्राइल में दौड़ने लगें तो आप कुछ घंटों में इसे पार कर लेंगे।ष् अभी हाल तकए पारंपरिक सोच यह थी कि वह किसी शांति समझौते से इस्राइल में समुचित क्षेत्रों के बदले में इस्राइल की प्रमुख बस्तियां बनाए रखेंगे और येरूसलम दोनों राष्ट्रों की साझा राजधानी होगा तथा पश्चिम तट को सेना से मुक्त किया जाएगा।
ऐसा परिदृश्य अब घटकर कतई जमीन न देने तक सिमट गया है और इस्राइल 1967 के युद्ध में कब्जाई गई सारी जमीन और पूर्वी येरूसलम से लगी जमीन रखने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है। इसके साथ ही वह फिलिस्तीनियों को अपने अधीन रखने की खतरनाक कोशिश में है।
त्रासदी यह है कि अमेरिका कम से कम संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देशों में से किसी को शांति वार्ता में मुख्य भूमिका निभाने की अनुमति नहीं देगा क्योंकि घरेलू स्तर पर उसके हाथ बंधे हैं और शांतिरक्षक की भूमिका निभाने के लिए उसके भौगोलिक हित हैं।
प्रधानमंत्री की पहली यात्रा को तय करने में नेतन्याहू कोे भारत से समर्थन मिलने की संभावना के साथए तेल अवीव और उसके अमेरिकी दोस्त पहले ही जश्न के मूड में हैं और अमेरिकी लेजिस्लेटरों के एक धड़े ने अमेरिकाए इस्राइल और भारत के बीच त्रिपक्षीय रक्षा समझौते का प्रस्ताव पहले ही कर दिया है।
इस प्रकार मध्य.पूर्व माइनफील्ड में भारत के प्रवेश के अभूतपूर्व परिणाम हो सकते हैं और मोदी को शोमैनशिप के लिए अपनी अभिरुचि में लिप्त होने से पहले अपने कदमों पर नजर रखनी होगी। अनेक देशों के अनेक मध्यस्थ औपनिवेशिक ताकत और उसकी फिलिस्तीनी जनता के बीच शांति कराने के प्रयास में वाटरलू बन चुके हैं। नेतन्याहू ने अब घोषणा की है कि वे शांति कायम करने में मदद के लिए तीसरे पक्ष का दखल नहीं चाहते।
अब तकए इस्राइल के प्रति भारत की नीतिए रक्षा सामग्री लेने और खेती के क्षेत्रों में मदद लेते समय संबंध को कमतर बनाए रखने की रही है। इसे मोदी की यात्रा ऐसे समय में नया उभार देगी जब नेतन्याहू की दिशा और उनके दक्षिणपंथी समर्थकों के देश में और भी शक्तिशाली होते जाने पर पश्चिमी जगत की चिंता बढ़ती जा रही है। इस्राइल ने बीडीएस आंदोलन पर पूर्ण युद्ध छेड़ दिया है क्योंकि यह उसे आर्थिक रूप से मुश्किल में डालने लगा है और पश्चिम में इस्राइल की स्पष्टवादी तस्वीर बनाने में मदद कर रहा है। यहूदी विरोधी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं।
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नया करने की सोच बदलेगी ज़िंदगी

नया करने की सोच बदलेगी ज़िंदगी

कुछ नया करके चीजों को बेहतर बनाने की प्रक्रिया नवाचार है। आज की युवा पीढ़ी न सिर्फ नवाचार में विश्वास रखती हैए अपितु इसी तरीके से काम भी करती है और सफल भी होती है। नवाचार लीक की सोच से हटकर होता है। वैज्ञानिकों का कहना है किए ष्मनुष्य द्वारा अपने मस्तिष्क का केवल दस प्रतिशत अंश ही प्रयोग किया जाता है। मन के इस विशाल भंडार गृह का यदि समुचित व नए तरीके से सदुपयोग किया जाए तो नए.नए समाधान हाथों.हाथ प्रस्तुत हो जाते हैं।ष् नवाचार की भावना प्रत्येक व्यक्ति में रहती हैए यदि उसे उभारकर सक्रिय बना दिया जाए तो जिंदगी में न सिर्फ प्रसन्नता एवं कामयाबी की प्रतिशतता बढ़ सकती हैए बल्कि व्यक्ति की जिंदगी भी सफल हो जाती है।
अब्राहम लिंकन बचपन में बहुत निर्धन थे। उनके घर में दो वक्त का खाना भी मुश्किल से बन पाता था। लेकिन विपरीत परिस्थितियों से हार मान हिम्मत खोने वालों में वह नहीं थे। वह कुछ न कुछ नवीन करते रहते थे। उन्हें विश्वास था कि वह अपने संकल्पए बुद्धिए आत्मबल और कुछ न कुछ नया करते रहने के कारण सब कुछ पा सकते हैं। उन्हें पढ़ने का शौक था पर वह पुस्तकें खरीदने में असमर्थ थे। किंतु उन्हें जब भी यह पता चलता कि किसी व्यक्ति के पास पुस्तक है तो वह तुरंत उसके पास पहुंच जाते थे और उसका काम करने के बदले पुस्तक पढ़ने का अधिकार प्राप्त कर लेते थे। पुस्तकों से नई बातें व नए विचार पढ़कर उनमें जोश और आत्मविश्वास का संचार हो जाता था। एक बार उन्हें पता चला कि नदी के दूसरी ओर ओगमोन नामक गांव में एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश रहते हैंए जिनके पास कानून की पुस्तकों का अच्छा संग्रह है। इसलिए लिंकन कड़ाके की सर्दी के दिनों में उस बर्फीली नदी में नाव में बैठ गए। नाव वह स्वयं चला रहे थे। उन्होंने आधी नदी तो किसी तरह पार कर ली किंतु बर्फ का ढेर इतना अधिक था कि नाव एक बर्फ के ढेर से टकराकर चकनाचूर हो गई। विकट घड़ी में लिंकन ने स्वयं से कहाए ष्यह कठिन अनुभव मुझे जीवन में ऐसी नई बातें व ज्ञान प्रदान करेगा जो मेरे जीवन को बदल देगा।ष् उन्होंने किसी तरह खुद को संभाला और अनेक मुश्किलों का सामना करते हुए नदी पार कर ली। वह ढूंढ़ते.ढंूढ़ते रिटायर्ड जज के घर जा पहुंचे। जज उन्हें घर में मिल गए। िलंकन ने उनसे अपनी पुस्तकें पढ़ने के लिए दिखाने को कहा। उन दिनों जज का नौकर छुट्टी पर गया हुआ थाए इसलिए उन्हें अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। उन्होंने लिंकन को पुस्तकें इस शर्त पर दिखाना मंजूर कर लिया कि वह उनके नौकर के आने तक घर का काम संभालेगा। लिंकन ने जज की यह बात स्वीकार कर ली। उन्होंने सोचा कि जज के घर में रहकर कुछ न कुछ नया सीखने को मिलेगा। इसके बाद वह दिनभर जज का काम करते। जंगल से लकड़ियां काट कर लाते और सारा काम करते। रात को थक.हार कर वह आराम करने के बजाय पुस्तकें लेकर बैठ जाते। जज बालक की मेहनतए लगन व दृढ़ संकल्प से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने लिंकन को काफी सारी पुस्तकें उपहार में दे दीं। इस प्रकार लिंकन अपनी इसी मेहनतए संकल्पए लगन और हर परिस्थिति में कुछ नया सीखने की चाहत के बल पर एक दिन अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर विराजमान हुए।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक माइकल फैराडे तो कहते थे किए ष्उद्यमियों की सफलता के लिए पांच अनिवार्य गुण हैंकृएकाग्रताए संगठनए विवेकशीलताए नवाचार और संवाद।ष् नवाचार के कारण ही थॉमस अल्वा एडीसनए वॉल्ट डिजनीए चार्ली चैपलिनए रे क्रॅाक आदि ने ऐसी सफलता अपने जीवन में प्राप्त की जिसने उन्हें दुनिया के सामने अमर कर दिया। थॉमस अल्वा एडीसन ने बिजली के आविष्कार के लिए लगभग सात सौ नए.नए तरीके ढूंढ़े। वॉल्ट डिजनी ने जगह.जगह ठोकरें खाकर भी नवाचार की प्रक्रिया को जीवित रखा और चूहे के माध्यम से कार्टून जगत में हलचल मचा दी। चार्ली चैपलिन में जीवन के अंत तक नई चीजें सीखने की उमंग थी। वे कहते थेए ष्मैं स्वयं दर्शकों के बीच बैठकर देखता हूं कि उन्हें कहां मेरी गलती लगीघ् मैं लगातार और हर बार कुछ नया सीखता हूं।ष् उनकी नवाचार की आदत ने उन्हें आज तक लोगों के बीच जीवित रखा हुआ है। जॉन सी मैक्सवेल ने अपनी अत्यंत प्रसिद्ध पुस्तक ष्द 21 इनडिस्पेंसबल क्वालिटीज़ आॅफ ए लीडरष् में लिखा है कि ष्यदि आप अपने जीवन में उस जगह पर नहीं हैंए जहां आप इस समय तक पहुंचना चाहते थेए तो शायद आप में नई बातें सीखने की योग्यता नहीं है।ष् रे क्राक हर बार कुछ नया सीखते रहे। उन्हें असफलता मिलती रही पर उन्होंने हार नहीं मानी। लगातार जिंदगी के अनुभवों व नए कार्यों से सीखते हुए 53 वर्ष की उम्र में मैकडोनल्ड्स फ्रैंचाइजी की स्थापना की। आज पूरे विश्व में मैकडोनल्ड्स्ा फ्रैंचाइजी अत्यंत प्रसिद्ध है। अहंकार व्यक्ति को गिराता हैए सीखने की इच्छा व्यक्ति को कामयाबी की सीिढ़यों पर चढ़ाती है। लगातार सीखने से व्यक्ति चुनौतियांे का दृढ़ता से मुकाबला करता है। प्रतिभाए धन और अन्य विशेषताएं सभी को समान रूप से नहीं मिलतींए लेकिन लगातार सीखने की लगन हर व्यक्ति को सफलए प्रेरक और कामयाब बना सकती है।
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Sunday, 28 June 2015

कंपल्सरी वोटिंग

कंपल्सरी वोटिंग

पिछले कुछ चुनावों में वोटिंग परसेंटेज में दस प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई है। जिस शहरी मध्यवर्ग को पहले पोलिंग बूथ के पास भी फटकते नहीं देखा जाता थाए वह अब अपने एक.दो बेशकीमती घंटे लगाकरए लंबी.लंबी लाइनों में खड़ा होकर पूरे उत्साह से वोट देता नजर आता है। लेकिन निश्चित रूप से मतदान प्रतिशत में अब भी सुधार की गुंजाइश है और इसके लिए जो कुछ भी किया जा सकता हैए उसे करने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए। गुजरात में इसे लेकर जल्द ही एक बड़े प्रयोग की शुरुआत होने जा रही है। आने वाले नगरपालिका चुनावों में वहां वोट देना अनिवार्य बनाया जा सकता है। यानी अगर मतदाता सूची में नाम होते हुए भी आप अपना वोट नहीं डालते तो इसके लिए आपको कुछ जुर्माना देना पड़ सकता है।

जाहिर हैए वोट डालना या न डालना सिर्फ वोटर की इच्छा.अनिच्छा पर निर्भर नहीं करता। वोट न डालने को गैरकानूनी बनाने से पहले सरकार को इसका इंतजाम करना होगा कि सभी वोटरों को आसानी से और कम समय में वोट डालने की सुविधा उपलब्ध हो। अगर पोलिंग बूथ दूर है और वोटर के पास एक घंटा लगाकर वहां जाने और दो घंटा वोट डालने की लाइन में लगने का समय नहीं हैए या फिर उसके स्वास्थ्य की हालत ऐसी नहीं है कि सारी सुविधाएं मौजूद होने के बावजूद अपना वोट डाल सकेए तो फिर उसे अपराधी ठहराते हुए उस पर जुर्माना ठोक देना गलत होगा। कोई भी व्यक्ति इसे अपने मानवाधिकार का उल्लंघन बताते हुए इसके खिलाफ अदालत में जा सकता है।

इसलिए गुजरात सरकार के सामने असली चुनौती अपने राज्य के सभी मतदाताओं को वोट डालने की इतनी अधिक सुविधा मुहैया कराने की होगी कि किसी को शिकायत का मौका ही न मिले। इसके लिए मतदान केंद्र बढ़ाने से लेकर ऑनलाइन वोटिंग तक के उपायों पर काम किया जा रहा है। इस सब के बावजूद वोट न डालने का जुर्माना सांकेतिक ही रखना चाहिएए और भूल.चूक लेनी.देनी के लिए भी कुछ गुंजाइश जरूर छोड़ी जानी चाहिएए ताकि एक भी व्यक्ति को ऐसा न लगे कि उसकी कोई गलती न होने के बावजूद सरकार ने व्यर्थ ही उसे अपराधियों की श्रेणी में डाल दिया है।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/

क्या कर बैठा चीन

क्या कर बैठा चीन


मुंबई आतंकी हमले के मुख्य आरोपी और लश्कर ए तैयबा के प्रमुख आतंकवादी जकी उर रहमान लखवी को जेल से छोड़े जाने के मुद्दे पर चीन का पाकिस्तान के साथ खड़ा होना भारत नहींए पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी घटना है। 26 नवंबर 2008 को मुंबई शहर में कत्लेआम जैसी इस घटना ने संसार के सभी शांतिप्रिय लोगों को झकझोर कर रख दिया था। जिस तरह से भारतीय सुरक्षा बलों और मुंबई पुलिस के जवानों ने इस घटना का मुकाबला किया और दस में से एक हमलावर आतंकी अजमल कसाब को जिंदा पकड़ लियाए उसका पूरी दुनिया में चल रही आतंकवाद विरोधी मुहिम पर जबरदस्त असर पड़ा।

कसाब के जरिए मिले ठोस सबूतों की बदौलत ही सभी अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक मंचों पर यह माना जाने लगा कि कुछ श्नॉन स्टेट ऐक्टर्सश् पाकिस्तान को अपना अड्डा बनाकर वहीं से आतंकवादी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं। उसके बाद स्वाभाविक रूप से पाकिस्तान सरकार पर इन आतंकवादी गिरोहों और उनके नेताओं पर अंकुश लगाने का दबाव बढ़ा तो उसकी ओर से की जाने वाली हीला.हवाली भी सबकी नजरों में आई। इन्हीं सब का मिला.जुला नतीजा था कि इस बार जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र की पाबंदी समिति ;सैंक्शन कमिटीद्ध में यह बात उठाई कि लखवी को जेल से रिहा किया जाना संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 1267 ;जो आतंकवादी समूहों से जुड़े नामित व्यक्तियों और संस्थाओं से संबंधित हैद्ध का उल्लंघन है और इसके लिए पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिएए तो पाबंदी समिति के सारे सदस्य इसके पक्ष में थे।

एकमात्र अपवाद रहा चीनए जिसने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल करते हुए इस प्रस्ताव को रुकवा दिया। दिलचस्प बात है कि चीन ने अपने इस स्टैंड के पक्ष में दलील भी ठीक वही दीए जिसकी आड़ अब तक पाकिस्तान लेता रहा है। यानी यह कि भारत लखवी के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं दे पाया है। अगर एक सरकार किसी अपराधी को बचाने में जुट जाए तो उसके खिलाफ संसार के सारे सबूत नाकाफी साबित होंगे। चीन को इस संबंध में अलग से कुछ बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन उसे यह याद दिलाना जरूरी है कि आतंकवाद जितनी बड़ी समस्या भारत के लिए हैए उतनी हीए बल्कि उससे भी ज्यादा बड़ी यह खुद चीन के लिए है।

पाकिस्तान को किसी भी मुद्दे पर समर्थन देने या न देने का फैसला चीन अपनी दूरगामी रणनीति के तहत ही करेगाए लेकिन उसका जो भी कदम आतंकवाद के प्रति नरमी बरतने या उसे संरक्षण देने का बहाना साबित होगाए उसके नतीजे अंततरू उसे ही भुगतने पड़ेंगे। आज विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होए जो किसी न किसी रूप में आतंकवाद की आंच को महसूस न कर रहा हो। ऐसे में वैश्विक कूटनीतिक मंचों पर किसी भी देश को ऐसा कोई स्टैंड नहीं लेना चाहिएए जिसका फायदा आतंकवाद के लिए जिम्मेदार किसी नॉन स्टेट ऐक्टर को मिलता हो। ऐसा करना एक नया भस्मासुर पैदा करने जैसा ही हैए क्योंकि अंततरू उसे पैदा करने वाला भी उसका शिकार होने से बच नहीं पाएगा।
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Friday, 26 June 2015

ग्लोबल वार्मिंग संकट के सबक

ग्लोबल वार्मिंग संकट के सबक

जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत के लोग बाकी दुनिया खासकर धनी देशों के मुकाबले अधिक सजग और चिंतित हैं। इस मामले में भारतीय अपने पड़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान से अधिक जागरूक हैं। इस बात की पुष्टि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क संधि ;यूएनएफसीसीसीद्ध की पहल पर हुए एक विश्वव्यापी सर्वेक्षण में हुई है। इस सर्वे के अनुसार दुनियाभर में 78ण्53 प्रतिशत लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर बेहद चिंतित हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा 83ण्65 प्रतिशत है। दूसरी ओर दुनिया के सात धनी और विकसित देशों कनाडाए फ्रांसए जर्मनीए इटलीए जापानए ब्रिटेन और अमेरिका ;जी.7द्ध में 73ण्59 प्रतिशत ही लोग जलवायु परिवर्तन को लेकर बेहद चिंतित हैं। सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि चीन में मात्र 32 प्रतिशत लोग ही जलवायु परिवर्तन को लेकर अधिक चिंतित हैंए वहीं पाकिस्तान में ऐसे लोगों का प्रतिशत 68 है।
करीब एक साथ 75 देशों में हुआ है यह विश्वव्यापी सर्वेक्षण। इस साल दिसंबर में फ्रांस की राजधानी पेरिस में होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन से ठीक पहले दुनिया भर में नागरिकों से परामर्श की अब तक की यह सबसे बड़ी कवायद है। इसी माह छह जून को हुए इस सर्वे में शामिल लोगों में से 78 प्रतिशत ने कहा कि उच्च आय वाले देशों को निम्न आय वाले देशों में जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए 2020 तक सालाना 100 अरब डालर की तुलना में अधिक धनराशि देनी चाहिएए जिसका उपयोग अल्प.विकसित और विकासशील देशों में प्रदूषण को कम करने के उपायों पर खर्च में किया जा सकेगा।
इससे भी अधिक इस बात की आवश्यकता है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न वित्तपोषण की चुनौती को हरित अर्थव्यवस्था और सतत विकास के व्यापक संदर्भ में देखा जाए। तकरीबन 90 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि पेरिस में जो समझौता होने जा रहा हैए उसमें इस सदी के अंत तक जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य तय किया जाना चाहिए।

बहरहालए जर्मनी के बवेरिया आल्प्स में जी.7 समूह के नेताओं ने वैश्विक स्तर पर इस शताब्दी के अंत तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन आधा करने का संकल्प लिया। पेरिस में इस साल के अंत में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु सम्मेलन से पहले इस ऐलान को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। मालूम हो कि 2015 में पेरिस में होने वाला समझौता 2020 से प्रभावी होगा। बहरहालए अब नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। गौरतलब है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में चीन शीर्ष पर है। अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर है। असल में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता।
जी.7 के नेताओं ने ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए गरीब देशों को संसाधन और पैसा मुहैया कराने की बात भी कही है। गौर करने वाली बात यह है कि ब्रिटेनए कनाडाए फ्रांसए जर्मनीए इटलीए जापान और अमेरिका में दुनिया की महज 10 फीसदी आबादी रहती हैए लेकिन एक चौथाई ग्रीन हाउस का ये देश उत्सर्जन करते हैं। हालांकि दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण पैदा करने वाला चीन इस समूह का सदस्य नहीं है। वहीं भारतए रूस और ब्राजील जैसे ग्रीन हाउस का उत्सर्जन करने वाले देश भी इस समूह का हिस्सा नहीं हैं। ऐसे में वैश्विक स्तर पर इसे अंजाम देने के लिए समूह को अभी लंबा सफर तय करना होगा। जी.7 का दो दिवसीय सम्मेलन इसी माह 7 जून को शुरू हुआ थाए जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामाए ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरनए जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल मौजूद थे।
जलवायु परिवर्तन आज पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा संकट बन गया है। इसको लेकर कई तरह की नकारात्मक भविष्यवाणियां भी की जा चुकी हैं। ज्यादातर ऐसे शोर पश्चिमी देशों से ही उठते रहे हैंए जिन्होंने अपने विकास के लिए न जाने प्रकृति के विरुद्ध कितने ही कदम उठाये हैं और लगातार उठ ही रहे हैं। आज भी कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन करने वाले देशों में 70 प्रतिशत हिस्सा पश्चिमी देशों का ही है जो विकास की अंधी दौड़ का परिणाम है।
जाहिर हैए आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिये जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है। भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है। वायु शुद्धता का स्तरए भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही ख़राब रहा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल 24 करोड़ लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। पूर्व में भी वायु प्रदुषण को रोकने के अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं पर प्रदूषण निरंतर बढ़ता ही रहा है।
हालांकि भारत चाहता है कि ष्हरित जलवायु कोषष् ;ळब्थ्द्ध की राशि से पर्यावरण की सुरक्षा के अनुकूल ऊर्जा के अपारंपरिक साधनों.जैसे सौरए पवन और अणु ऊर्जा की टेक्नोलोजी विकासशील देशों को सस्ते दामों पर मुहैया करवाई जाएं। भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बल देकर कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उठाये जाने वाले हर कदम पर खर्च आता है और वे अमीर देश जो गत पचास सालों से प्रदूषण फैला रहे थेए अब इस खर्च की भरपाई करें। उल्लेखनीय है कि भारत की तरह चीन भी अमेरिका और पश्चिमी देशों के दबाव का शिकार बना है। उल्लेखनीय है 196 देशों के बॉन सम्मलेन में भारत और चीन ने साथ मिलकर काम करने का फैसला किया है।
असल में जलवायु परिवर्तन एक ऐसा मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता की बात है और इसे बिना आपसी सहमति और ईमानदार प्रयास के हल नहीं किया जा सकता है। भूमण्डलीकरण के कारण आज पूरा विश्व एक विश्वग्राम में तबदील हो चुका है। ऐसे में कोई भी प्रगति एवं विनाश के अवसर मनुष्य के लिये साझा है। बहरहालए ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को राजनीतिक चश्मे से देखना बंद करना होगा। पर्यावरण पर एक ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में 1950 से लेकर अब तक 95 फीसदी ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए इनसान ही जि़म्मेदार है। इसको 21वीं शताब्दी का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है। पूरी दुनिया इससे प्रभावित हो रही है। अगर इसे नहीं संभाला गया तो यह किसी विश्वयुद्ध से ज्यादा जान.माल की हानि कर सकता है।
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अादिवासियों पर भारी रसूखदार

अादिवासियों पर भारी रसूखदार

आदिवासी समुदाय के लोग सालों से हाशिए पर रहे हैं। उन पर अब एक नई मुसीबत और आ गई है। जंगल के आसपास जिस जमीन पर वह सालों से खेतीबाड़ी करते आ रहे थेए उस जमीन पर अब गैर.आदिवासी कब्जा करने लगे हैं। झारखंडए बिहारए मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमाओं से घिरे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में जिस तरह से जंगल की जमीन की लूट मची हुई हैए वो पर्यावरण के लिए खतरनाक तो है हीए प्रदेश में कानून.व्यवस्था की चिंतनीय तस्वीर भी पेश करती है। इस जिले में अब तक एक लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन अवैध रूप से बाहर से आए ष्रसूखदारोंष् या उनकी संस्थाओं के नाम की जा चुकी है। इतना ही नहींए राजस्व और वन विभाग के मुलाजिमों की मिलीभगत से कब्जाई गई इस जमीन के अच्छे.खासे हिस्से पर अवैध रूप से खनन भी किया जा रहा है।
फरवरी में सोनभद्र के खनन सर्वेयर ने उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त के यहां बयान दिए थे कि उसके चार्ज लेने से पहले तक वहां अवैध खनन और परिवहन से हर दिन 5.6 लाख रुपये की वसूली की जाती थी। लेकिनए हाल ही में मीडिया को लीक हुई वन विभाग के मुख्य वन संरक्षक एके जैन की रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि हकीकत इससे कहीं ज्यादा भयावह है। जिले में बाहर से आए गैर.आदिवासी ष्रसूखदारोंष् ने स्थानीय अधिकारियों की कृपा से बड़े पैमाने पर जमीन कब्जा ली है। इस जमीन को धीरे.धीरे प्राइवेट भूमि में तबदील किया जा रहा है।
इस रिपोर्ट के अनुसारए सोनभद्र में 1987 से लेकर अब तक एक लाख हेक्टेयर भूमि को अवैध रूप से गैर वन भूमि घोषित कर दिया गया है। जबकिए भारतीय वन अधिनियम.1927 की धारा.4 के तहत यह जमीन ष्वन भूमिष् घोषित की गई थी। सुप्रीमकोर्ट की अनुमति के बिना इसे किसी व्यक्ति या प्रोजेक्ट के लिए नहीं दिया जा सकता। इतना ही नहींए अवैध कब्जेदारों को असंक्रमणीय से संक्रमणीय भूमिधर अधिकार यानी जमीन एक.दूसरे को बेचने के अधिकार भी दिए जा रहे हैं।
इस तरह से जमीन का कब्जाया जाना वन संरक्षण अधिनियम.1980 का सरासर उल्लंघन है। गौर करने की बात यह है कि वर्ष 2009 में राज्य सरकार की ओर से उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी। इसमें सरकार ने माना था कि सोनभद्र में गैर वन भूमि घोषित करने में वन बंदोबस्त अधिकारी ;एफएसओद्ध ने खुद को प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग किया। लेकिनए जिस तरह से इस याचिका को 19 सिंतबर 2012 को तत्कालीन सचिव ;वनद्ध के मौखिक आदेश पर विभागीय वकील ने चुपचाप वापस ले लियाए उससे पूरे मामले में षड्यंत्र की गहनता का पता चलता है।
हालात का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि चार दशक पहले सोनभद्र के रेनूकूट इलाके में 175896 हेक्टेयर भूमि को भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा.4 के तहत लाया गया थाए लेकिन अभी तक इसमें से मात्र 49044 हेक्टेयर जमीन ही वन विभाग को पक्के तौर पर ;धारा.20 के तहतद्ध मिल सकी है। यही हाल ओबरा व सोनभद्र वन प्रभाग और कैमूर वन्य जीव विहार क्षेत्र में है। यहां धारा.4 और धारा.20 के तहत होने वाली प्रक्रियागत कार्यवाही को समझ लेना भी जरूरी है।
भारतीय वन अधिनियम.1927 की धारा.4 के तहत जब सरकार किसी भूमि को वन भूमि में दर्ज करने की मंशा जाहिर करती है तो इस पर आम लोगों से आपत्तियां भी मांगी जाती हैं। इन आपत्तियों की सुनवाई एसडीएम स्तर का कोई अधिकारी करता हैए जिसे सुनवाई की प्रक्रिया के दौरान वन बंदोबस्त अधिकारी ;एफएसओद्ध का दर्जा दिया जाता है। इन आपत्तियों पर सुनवाई के बाद धारा.20 के तहत कार्यवाही होती हैए जिसमें भूमि को अंतिम रूप से बतौर वन भूमि दर्ज कर लिया जाता है। आपत्तियां जायज होने पर वन बंदोबस्त अधिकारी धारा.4 की जमीन को वादी के पक्ष में गैर वन भूमि घोषित करने का न्यायिक निर्णय भी सुना सकता हैए लेकिन इस पर अमल के लिए सुप्रीमकोर्ट की अनुमति जरूरी है।
देखने में आया है कि सोनभद्र में राजस्व विभाग के अधिकारी धारा.4 के विज्ञापित क्षेत्रफल को अलग करने के लिए बंदोबस्त अधिकारी के न्यायालय में वाद दायर करते हैं। इस वाद को स्वीकार करते हुए वन बंदोबस्त अधिकारी उस जमीन को धारा.20 के लिए प्रस्तावित जमीन से अलग करते हुए राजस्व विभाग के खाते में डाल देते हैं। बाद में राजस्व विभाग खनन के लिए इस जमीन को पट्टे पर दे देता है।
एक मोटे अनुमान के मुताबिकए सोनभद्र में 40 हजार करोड़ रुपये मूल्य का जमीन घोटाला अब तक हो चुका है। इसमें राजनेताओं और नौकरशाहों की संलिप्तता किसी से छिपी नहीं है। इन हालात में यह जंगल तभी बच सकता हैए जब सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में जमीन घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपी जाए। दोषियों को सजा दिलाने और बचे जंगल को सुरक्षित रखने के लिए सख्त कदम उठाने ही होंगे।
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Thursday, 25 June 2015

निजी क्षेत्र की भागीदारी से उम्मीद

निजी क्षेत्र की भागीदारी से उम्मीद

भारतीय रेल के वर्तमान प्रारूप में आमूलचूल सुधारों की आवश्यकता हैए इस बात को लेकर कभी दो राय नहीं रही। बहुत.सी सरकारें आयीं और चली गयींए बहुत.सी समितियों का गठन किया गया व उनकी रिपोर्टों को रद्दी की टोकरी में भी डाल दिया गयाए पर रेलवे में कोई सुधार देखने को नहीं मिला। अस्वच्छ प्लेटफ़ॉर्मए अपने निर्धारित समय से घंटों देरी से चल रही ट्रेनें व सुरक्षा मानकों की अनदेखीए वर्षों से भारतीय रेलवे की यही पहचान रही है। इतना सब होने के बाद भी रेल भारत में आवागमन का सबसे प्रचलित साधन है। इसका कारण है देश के कोने.कोने में फैला रेलवे नेटवर्क। वर्ष 1853 से शुरू हुई भारतीय रेल सेवा को दुनिया के सबसे बड़े व व्यापक रेलवे नेटवर्क होने का गौरव प्राप्त है।
रेलवे सुधारों के लिये गठित समितियों में सबसे नया नाम बिबेक देबराय समिति का हैए जिसने हाल ही में अपनी रिपोर्ट दी है। रेलवे में निजीकरण को बढ़ावा देनाए रेल भाड़ों के निर्धारण हेतु एक स्वतंत्र नियामक संस्था ष्रेलवे रेग्यूलेटरी अथारिटी ऑफ़ इंडियाष् का गठन करनाए रेलवे स्कूलों व रेलवे के अस्पतालों का संचालन निजी हाथों में दिया जानाए रेलवे के उच्च पदस्थ काडर में फेरबदल व रेलवे बज़ट को आम बज़ट के साथ ही समावेशित करनाए समिति की अनुशंसाओं में से कुछ प्रमुख हैं। इन सुझावों के प्रति रेलवे कर्मचारियों के विभिन्न वर्गों में अलग.अलग प्रतिक्रियाएं व व्याख्याएं सामने आयीं। एक तरफ़ जहां रेलवे मजदूर यूनियन को रेलवे में निजी क्षेत्र की घुसपैठ की आशंका सता रही हैए वहीं अफ़सरों को प्रस्तावित ष्फेरबदलष् को लेकर चिंताएं हैं।
जैसे ही देबराय समिति की रिपोर्ट सामने आयीए टेलीविजन पर हुई विभिन्न बहसों में इसकी रेलवे के निजीकरण के प्रबल पक्षधर के रूप में व्याख्या की गयीए पर वास्तव में यह सच नहीं है। यह रिपोर्ट साफ़.साफ़ कहती है कि निजी क्षेत्र को रेलवे की कुछ निजी परियोजनाएं तथा इसकी कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारियां यथा अस्पतालोंए जमीनों व स्कूलों के संचालन का उत्तरदायित्व दिया जाना चाहिएए जिससे रेलवे अपने मूल दायित्वए ष्रेलों के संचालनष् पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके। चूंकि संपूर्ण रेल ढांचे का अनुरक्षण व सार.संभाल रेलवे द्वारा किया जाता रहा हैए अतरू प्राइवेट सेक्टर द्वारा निजी रेलों के संचालन के लिये नियम व शर्तें तय करने हेतु समग्र व व्यापक बातचीत की आवश्यकता पड़ेगी। लेकिन ये वार्ताएं सरकार को इस दिशा में कदम उठाने के लिये हतोत्साहन का कारण नहीं बननी चाहिये। यह सर्वविदित है कि दुनिया के हर क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ती जा रही है। भारत का ही उदाहरण ले लीजियेए यहां विमानन व दूरसंचार क्षेत्र में निजी कंपनियों के आगमन के बाद इन दोनों क्षेत्रों में आशातीत विकास हुआ है। लोगों को विश्वस्तरीय सुविधाएं सुलभ हुई हैं। निजीकरण अपने साथ प्रतियोगिताए गुणवत्ता और संसाधन लेकर आता हैए जो एक सफ़ल व्यवसाय के लिये आवश्यक गुण है।
देश की वर्तमान भाजपा सरकार व औद्योगिक घरानों के बीच घनिष्ट संबंध किसी से छुपे नहीं हैं। यह देखते हुए इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि रेलवे में जल्द ही निजी क्षेत्र का प्रवेश हो जायेगा। यहीं पर खतरे की घंटी सुनाई देती है। एकाधिकार व क्रोनी केपिटलिज्मए निजीकरण के दो सबसे खतरनाक पहलू हैं। अतरू एक तरफ़ सरकार को जहां निजी क्षेत्र के आगमन को प्रोत्साहित करना चाहियेए वहीं साथ.साथ यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि यह एक सख्त नियामक संस्था के अधीन काम करेए अन्यथा स्थिति बद से बदतर भी हो सकती है।
इसके अलावा रेलवे के विकल्प तलाशने की भी आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश हमने कभी जल परिवहन के महत्व को नहीं समझा। देश में अंतर्देशीय जलमार्गों द्वारा मालवाहन कुल अंतर्देशीय परिवहन का मात्र 0ण्1 प्रतिशत है। अमेरिका में यह आंकड़ा 21 प्रतिशत है। चीन में जहाज परिवहन के लिये उपयुक्त अंतर्देशीय जलमार्गों की कुल दूरी 1ए25ए000 किण्मीण् हैए जबकि भारत में यह मात्र 14ए500 किण्मीण् है। जलमार्गों का पूर्ण दोहन न होने सेए पहले से ही कमजोर रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर पर अतिरिक्त बोझ आ पड़ा है। पिछले महीने सरकार ने लोकसभा में राष्ट्रीय जलमार्ग बिल पेश कियाए जिसमें देश में 101 नये राष्ट्रीय जलमार्गों की स्थापना प्रस्तावित है।
भारतीय रेलवे का अध्ययन एक पेचीदा केस स्टडी है। जरा सोचियेए एक ऐसा व्यापारए जिसमें ग्राहक महीनों पहले लाइन लगाकर खड़ा हो जाता हैए और सालभर मांग अपनी चरम सीमा पर बनी रहती है। ग्राहक सेवा के बदले कीमत चुकाने को तैयार हैए परन्तु फिर भी सेवा प्रदाता ;रेलवेद्ध गुणवत्ता देने से इंकार कर देता है। माना कि रेलवे को एक पूर्णतरू व्यावसायिक प्रतिष्ठान के रूप में देखना सही नहीं होगाए इसके बहुत से सामाजिक दायित्व भी हैंए जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। परन्तु हम इससे कम से कम एक सुरक्षित व आरामदायक सफ़र की अपेक्षा तो रख ही सकतें हैंए आखिर रेलवे इसी के लिये बना है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

ऑनलाइन शिक्षा.परीक्षा भी विकल्प

ऑनलाइन शिक्षा.परीक्षा भी विकल्प 

देश में अब शायद ही कोई ऐसी भर्ती या प्रतियोगी परीक्षा बची होगी जिसमें नकल और पेपरलीक जैसी समस्या सामने न आई हो। ये कारनामे कानून की नजर में अपराध हैंए लेकिन हाईस्कूलए इंटरमीडिएट और स्नातक स्तर से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं तक में देश के कोने.कोने से खुलेआम नकल की खबरें भी लगातार आ रही हैं। इधर रेलवे ने ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए ऑनलाइन परीक्षा के एक उपाय पर अमल करने के बारे में सोचा है।
भारतीय रेलवे में 25 से 30 हजार रिक्त पदों पर भर्तियों की तैयारी चल रही हैं। ये पद अगले साल तक भरे जाने हैं। भर्ती का तरीका क्या होए इस पर रेलवे में मंथन चल रहा है क्योंकि प्रश्नपत्र और उत्तर.पुस्तिका वाले प्रचलित विकल्प से परीक्षा कराने की काफी ज्यादा खामियां इधर उजागर हुई हैं। खास तौर पर हाल ही में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने ऑल इंडिया प्री.मेडिकल टेस्ट.2105 को रद्द कर परीक्षा दोबारा कराने को कहा हैए उससे परीक्षा तंत्र का यह गंभीर मर्ज फिर से उजागर हुआ है। इस परीक्षा में बैठे छह लाख से ज्यादा छात्रों के लिए यह सच में हैरानी की बात है कि ऐसे महज 44 छात्रों की करतूत की सज़ा उन्हें भी मिली हैए जिन्होंने इसका पर्चा लीक कराया था। रेलवे की भर्ती परीक्षा में ऐसा न होए इसके लिए ऑनलाइन परीक्षा का विकल्प अपनाने की बात हो रही है। माना जा रहा है कि ऑनलाइन परीक्षा से पेपरलीक और नकल का एक साथ तोड़ निकल आएगा।
आईटी में अगुवा होने और साइंस के मामले में काफी बढ़त हासिल कर लेने का तब तक कोई फायदा नहीं हैए जब तक कि देश में ज्यादातर परीक्षाएं ऑनलाइन कराने का इंतजाम नहीं हो जाता है। हालांकिए देश में पिछले करीब आधे दशक के दौरान कई प्रतिष्ठित कोर्सों और पाठ्यक्रमों की प्रवेश परीक्षाएं ऑनलाइन होने लगी हैं और शुरुआती दिक्कतों के बाद अब उनका समुचित संचालन होने लगा है। लेकिन अभी भी कई परीक्षाएं पारंपरिक तरीकों से संचालित की जा रही हैं। यूं इस बीच ऑनलाइन परीक्षाओं की कुछ समस्याएं भी उजागर हो चुकी हैंए जैसे परीक्षा लिए जाते वक्त सर्वर के ठीक से काम नहीं करने के कारण परीक्षा में बाधा पड़ना अथवा देश के दूर.दराज के अभ्यर्थियों का कंप्यूटर.इंटरनेट साक्षर नहीं होना। लेकिन अब यह ध्यान में रखना चाहिए कि कंप्यूटर और इंटरनेट की जानकारी के बिना किसी भी नौकरी या रोजगार में अभ्यर्थी अपने अलावा उन लोगों के लिए भी समस्या बन सकता है जिनका कामकाज के दौरान उसे सामना करना है। रेलगाड़ियों के संचालन से लेकर टिकटिंग तक के काम में कंप्यूटर.इंटरनेट जरूरी हो गया है। ऐसे में कम से कम भर्ती परीक्षाओं को ऑनलाइन करने का अर्थ ऐसे युवाओं को रोजगार में प्राथमिकता देना होगा जो इन तकनीकों के जानकार होंगे और अवसर आने पर वे कंप्यूटर.इंटरनेट की सहायता से तेजी के साथ काम कर सकेंगे।
दरअसलए शिक्षा को भी यानी कई जरूरी पाठ्यक्रमों को भी ऑनलाइन किया जाना चाहिए। कई प्रोफेशनल कोर्स जैसे कि आईआईटी या आईआईएम जैसी शिक्षा को ऑनलाइन किए जाने की दिशा में सरकार खुद प्रयासरत है। पिछले ही साल मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने ष्स्वयंष् यानी ष्स्टडी वेब्स ऑफ एक्टिव दृ लर्निंग फॉर यंग एस्पायरिंग माइंडष् नाम से जो परियोजना शुरू की है उसका उद्देश्य युवाओं को आईआईटीए आईआईएम जैसे देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों की पढ़ाई घर बैठे कराना है। इस योजना के तहत आईआईटीए आईआईएम और सेंट्रल यूनिवर्सिटी अपने.अपने कोर्स युवाओं को ऑनलाइन उपलब्ध कराएंगी। ये कोर्स पहले चरण में चार आईआईटी ;आईआईटी बॉम्बेए चेन्नईए कानपुर और गुवाहाटीद्धए दो आईआईएम ;आईआईएम बेंगलुरु और कोलकाताद्ध और तीन सेंट्रल यूनिवर्सिटियों ;जेएनयूए बीएचयू और इग्नूद्ध से शुरू कराए जाने हैं। इनके जरिये शुरुआत में पांच विषयों ;इंजीनियरिंगए सोशल साइंसए एनर्जीए मैनेजमेंट और बेसिक साइंसद्ध पर ऑनलाइन पढ़ाई कराई जाएगी। खास तौर से यह देखते हुए कि देश के प्रतिष्ठित आईआईटीए आईआईएम जैसे संस्थानों में गिनती की सीटें उपलब्ध होती हैंए ऐसे ऑनलाइन कोर्स एक बड़ा समाधान साबित हो सकते हैं। यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि हर साल इन संस्थानों में दाखिला पाने की होड़ में हजारों.लाखों छात्र पिछड़ जाते हैं।
प्रतिभाशाली युवाओं की पहचान और उन्हें किसी कोर्स या नौकरी में अवसर देने के लिए ली जाने वाली परीक्षा में भी पारदर्शिता जरूरी है ताकि योग्यता का चयन हो सके। ऑनलाइन शिक्षा और परीक्षा ने इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर दिया है। हालांकि ये समस्याएं अभी भी बनी हुई हैं कि शिक्षा उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैए जो उसे हासिल करना चाहते हैं। जैसे अभी भी हर साल हजारों छात्र सिर्फ इसलिए अपने मनमाफिक कोर्सों में दाखिला नहीं ले पातेए क्योंकि वे जो कोर्स करना चाहते हैंए वे उनके घर से बहुत दूर स्थित विश्वविद्यालयों या संस्थानों में कराए जा रहे होते हैं जहां पहुंचना काफी मुश्किल रहता है। भौगोलिक दूरियां उनके प्रयास में बाधा बनती है। इसके अलावाए जनसंख्या के अनुपात में प्रायरू सभी विश्वविद्यालयों और संस्थानों में उतनी सीटें नहीं होतीं कि सभी इच्छुक छात्रों को दाखिला मिल सके। साथ हीए विश्वविद्यालयों में रहकर यानी कैंपस एजुकेशन पाने के लिए वक्त और धन की कमी भी एक बाधा बनती हैं। चौथेए कई जगहों.राज्यों तक में ऐसे मान्यताप्राप्त या प्रतिष्ठित संस्थान नहीं होते हैंए जहां की गई पढ़ाई कोई ढंग का रोजगार दिला सके। इन समस्याओं का एक समाधान ऑनलाइन या दूरस्थ शिक्षा का विकल्प आजमाना ही है। अब तो खुद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ;यूजीसीद्ध भी दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से पीएचडी की इजाजत देने के प्रयास कर रहा है। इससे देश में उन शोधार्थियों को मौका मिलेगा जो नए क्षेत्रों में अनुसंधान कर कुछ मौलिक काम करना चाहते हैं। यही नहींए आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थानों में शिक्षा पाने का जो स्वप्न हजारों युवा देखते हैंए उसे पूरा करने का एक उपाय यही है कि इन महत्वपूर्ण शिक्षण संस्थानों के कोर्सों को इंटरनेट के जरिए मुहैया कराया जाए यानी इन्हें ऑनलाइन किया जाए।
उच्च शिक्षा में इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी और अन्नामलाई विश्वविद्यालय काफी लंबे अरसे से दूरस्थ शिक्षा मुहैया करा रहे हैंए पर उनके जरिये शिक्षा पाना छात्रों को आसान नहीं लगता क्योंकि उनमें पाठ्यक्रमों के मुश्किल अध्यायों.सवालों का सही समाधान उनके स्टडी सेंटर नहीं दे पाते हैं। नेशनल ओपन स्कूल की डिस्टेंस लर्निंग एजूकेशन को कभी शिक्षा के संबंध में एक महान प्रयोग माना जाता थाए पर बाद में साबित हुआ है कि इसके जरिए हाईस्कूल करने वाले छात्रों काे आगे दाखिला लेने में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए उच्च शिक्षा और आईआईएम व आईआईटी जैसे प्रोफेशनल कोर्सों को ऑनलाइन किए जाने की सार्थकता तभी हैए जब उन्हें करने वाले छात्रों को शिक्षा व रोजगार के क्षेत्र में कैंपस एजुकेशन पाने वालों के समकक्ष रखा जाए। ऑनलाइन शिक्षा और परीक्षा का विकल्प देते समय यह ध्यान में रखना होगा कि वे कोर्स और उनका मूल्यांकन कहीं से कमजोर न हो।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

Wednesday, 24 June 2015

यह शराबए वह शराब

यह शराबए वह शराब

मुंबई के मालवणी इलाके में जहरीली शराब पीकर सौ से ज्यादा लोगों के मारे जाने के बाद एक बार फिर इस जानलेवा धंधे से जुड़े लंबे.चौड़े नेटवर्क की बात होने लगी है। बताया जा रहा है कि लोगों को सस्ती और गैरकानूनी शराब कहां और कैसे मुहैया कराई जाती है। ऐसी मौतों की खबरें अक्सर देश के पिछड़े इलाकों से आती हैंए लेकिन मुंबई जैसे महानगर के लिए भी यह कोई अजूबा नहीं है। सन 2004 में इसी तरह वहां जहरीली शराब पीने से 87 लोग मारे गए थे।

जब भी कोई बड़ी घटना होती हैए पुलिस.प्रशासन के साथ.साथ राजनीतिक नेतृत्व भी चौंक उठता है। कुछ ऐसे कि श्अरेए हमारे यहां भी ऐसा हो सकता हैघ्श् इस घटना के बाद भी मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने बिना वक्त गंवाए न केवल इसकी निंदा की बल्कि जांच के आदेश भी दिए। पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। अगले कुछ दिनों में उस कथित नेटवर्क के खिलाफ कड़े कदम उठाए जाने की खबरें भी आ सकती हैं। जैसा अतीत में होता रहा हैए बिल्कुल संभव है कि इसके बाद शांति छा जाए और कुछ समय बाद ऐसा ही घटनाचक्र बदले हुए चरित्रों के साथ ठीक इसी क्रम में दोहराया जाए।

सवाल यह है कि सरकारें जहरीली शराब के मामले को तात्कालिकता से ऊपर उठ कर क्यों नहीं देखतींघ् देश भर में जब भीए जहां कहीं भी ऐसी घटना होती हैए उसमें मौतें झुग्गी.झोपड़ियों में रहने वाले गरीब लोगों की ही होती हैं। आज तक ऐसी एक भी घटना नहीं हुई है जिसमें महंगी विदेशी शराब से जुड़ा कोई बड़ा हादसा सामने आया हो। सवाल हैए आखिर गरीबों की ही शराब जहरीली क्यों होती हैघ् ऐसे हर हादसे के वक्त प्रशासन की लापरवाही और अवैध शराब माफिया के लालच का जिक्र होता है। साथ में उन श्बेचारोंश् पर तरस खाया जाता हैए जो इनके चंगुल में फंस जाते हैं। परोक्ष रूप से भाव उपदेशात्मक ही होता है कि या तो ये लोग शराब पीना छोड़ देंए या ठेके पर लाइन लगाकर महंगी शराब खरीदें। इस बारे में कभी कोई बात ही नहीं होती कि एक उपभोक्ता के रूप में उन्हें सस्ते और सुरक्षित उत्पाद की सप्लाई क्यों नहीं मिलतीघ् जो शराब पीकर वे मरते हैंए वह भी उन्हें मुफ्त में तो नहीं मिलती। वे बाकायदा उसकी कीमत चुकाते हैं।

आज टेलीकॉम कंपनियां पांच.दस रुपये का टॉक.टाइम बेच रही हैं। वे तो अपने उपभोक्ता को महंगा टॉक.टाइम खरीदने या फोन का शौक छोड़ देने का उपदेश नहीं देतीं। एक मजदूर को दिन भर की मशक्कत के बाद दस.पंद्रह रुपये का मोहरबंद पाउच मिल जाए तो ऐसा क्या गजब हो जाएगाघ् समाज के ऊपरी तबकों को कीमत चुकाने के बाद सुरक्षित शराब मिलती है। सरकारें इससे मिलने वाले टैक्स से अपना खजाना भरती हैं। इस खजाने में जरा सी कमी लाकर अवैध शराब का धंधा बंद किया जा सकता है और हर साल सैकड़ों निर्दोष नागरिकों की जान बचाई जा सकती है।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/opinion/editorial/why-they-speak-so-much/articleshow/47786853.cms

इतना बोलते क्यों हैं

इतना बोलते क्यों हैं

केंद्र सरकार ने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से माफी मांग कर उस अप्रिय विवाद पर मिट्टी डालने की कोशिश की हैए जो बीजेपी महासचिव राम माधव के निहायत गैरजरूरी ट्वीट से शुरू हो गया था। आयुष मंत्री श्रीपाद नाईक ने विस्तार से बताया कि कैसे प्रोटोकॉल संबंधी विवशताओं के चलते उपराष्ट्रपति को योग कार्यक्रम के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था और कैसे राम माधव को ट्वीट करते समय यह बात मालूम नहीं रही होगी।

राम माधव ने दो ट्वीट किए थे। पहले उन्होंने राज्यसभा टीवी द्वारा योग दिवस संबंधी खबरों को कथित तौर पर ब्लैक आउट किए जाने और उपराष्ट्रपति के योग कार्यक्रम से गैरहाजिर रहने पर सवाल उठायाए लेकिन फिर थोड़ी देर में कहा कि उन्हें बताया गया हैए उपराष्ट्रपति की तबीयत ठीक नहीं थी। इस श्सूचनाश् के बाद उन्होंने अपना ट्वीट वापस लेने का ऐलान करते हुए माफी भी मांगीए क्योंकि उनके मुताबिक श्उपराष्ट्रपति पद का सम्मान होना चाहिए।श् थोड़ी ही देर में साफ हो गया कि न सिर्फ राम माधव के सवाल बेतुके थेए बल्कि उनकी सूचना भी सही नहीं थी।

इसके बाद उन्होंने बिना कुछ कहे दोनों ट्वीट डिलीट कर दिए। अब राम माधव समेत पूरी पार्टी और सरकार कह रही है इस विवाद को भूल जाना चाहिए। लेकिनए ध्यान रहे कि यह पहला मामला नहीं है जब संघ और बीजेपी समर्थकों की ओर से उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को जलील करने की कोशिश की गई है। इससे पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर सोशल मीडिया में जारी कुछ तस्वीरों के जरिए आरोप लगाया गया कि उनके मन में तिरंगे के लिए कोई सम्मान नहीं है क्योंकि वे तस्वीर में तिरंगे को सलामी देते नहीं दिख रहे थे। कहने की जरूरत नहीं कि किसी राजनीतिक कारणवश नहींए सिर्फ और सिर्फ हामिद अंसारी के खास धर्म से जुड़े होने के कारण ही राम माधव जैसे लोग उन पर ऐसे सवाल उठाते रहते हैं। यह न तो कोई संयोग हैए न कोई भूल।

समय.समय पर ऐसे बयानों और ट्वीटों के जरिये खड़े किए जाने वाले विवादों का मकसद समाज में आपसी संदेह और अविश्वास की उस आंच को लगातार सुलगाए रखना हैए जिसे जब भी जी करेए तेज करके सांप्रदायिक राजनीति की रोटियां सेंकी जा सकें। आज योग हैए कल क्रिकेट हो सकता हैए परसों मंदिरए मस्जिद या खाली पड़ा कोई मैदान। मुद्दा कोई भी होए बहाना कोई भी होए इन्हें मतलब सिर्फ इस बात से है कि एक खतरनाक किस्म की भनभनाहट समाज में चलती रहे। विकास के नाम पर दिए गए वोटों से चुन कर आई मोदी सरकार खुद को लगातार अपने इस डिफॉल्ट मोड में बनाए रखना चाहती हैए इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि विकास जैसी सेक्युलर चीजें सचमुच इस सरकार के अजेंडे पर हैं भी या नहीं। सरकार अगर इस मामले में अपनी छवि साफ रखना चाहती है तो उसे अपने भीतर के बड़बोले और विघ्नसंतोषी तत्वों के खिलाफ एक्शन लेते दिखना चाहिए।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/opinion/editorial/why-they-speak-so-much/articleshow/47786853.cms

Tuesday, 23 June 2015

नोट बदलने से क्या हालात भी बदलेंगे

नोट बदलने से क्या हालात भी बदलेंगे

वर्ष 2005 से पहले जारी करेंसी नोटों को चलन से बाहर करने की रिजर्व बैंक द्वारा तय 30 जून तक समय.सीमा समाप्त होने वाली है। इसके बाद 2005 से पहले छपे करेंसी नोट वैध रहेंगेए लेकिन उनका चलन बंद हो जायेगा। केन्द्रीय बैंक ने 2005 से नोटों के पिछले भाग में छोटे अक्षरों में उसे जारी करने का वर्ष छापना शुरू किया है। कहा जा रहा है कि ऐसे करेंसी नोटों में सुरक्षा फीचर 2005 के पहले के करेंसी नोटों से बेहतर है।
बहरहालए 2005 के करेंसी नोटों की वैधता अगले दिशा.निर्देश के जारी होने तक बनी रहेगी। हांए इस तरह के करेंसी नोटों को बदलने के लिये लोगों को 30 जून के बाद बैंक की शरण में जाना होगा। कहने का तात्पर्य है कि दुकानदार या व्यक्ति ऐसे करेंसी नोटों को लेने से मना कर सकता हैए लेकिन बैंक ग्राहकों एवं गैर.ग्राहकों से 2005 से पहले जारी करेंसी नोटों को बदलने का काम करते रहेंगे। 1 जुलाई 2015 से 500 रुपये और 1000 रुपये के 10 से अधिक नोट बदलने के लिए गैर.ग्राहकों को करेंसी नोट बदलने वाली शाखा में पहचान प्रमाणपत्र और आवास प्रमाणपत्र जमा कराना होगा।
यहां बताना समीचीन होगा कि रिजर्व बैंक पहली बार इस तरह का कदम नहीं उठाने जा रहा है। इसके पहले 1978 में जनता पार्टी की सरकार के समय 1000ए 5000 और 10000 रुपये के करेंसी नोटों को रिजर्व बैंक ने चलन से बाहर किया था। उल्लेखनीय है कि 1949 में 5000 और 10000 रुपये के करेंसी नोट जारी किये गये थे। उस कालखंड में देश में काले धन की व्यापकता में जबरदस्त इजाफा हुआ था। यह कदम विशेष तौर पर काले धन पर नियंत्रण कायम करने के लिए उठाया गया था।
बीते सालों में देश में नकली करेंसी नोटों के चलन में गुणात्मक वृद्धि हुई है। भ्रष्टाचार की वजह से भी काले धन में अकूत बढ़ोतरी हुई है। इस आलोक में कहा जा सकता है कि सरकार अपने प्रस्तावित कदम की मदद से नकली करेंसी नोटों और काले धन पर अंकुश लगाना चाहती है। एक अनुमान के अनुसार 2011.12 के दौरान देश में 69ण्38 करोड़ रुपये के जाली करेंसी नोट चलन में थे। जानकारों की मानें तो 27 अरब के जाली करेंसी नोट 100 और 500 रुपये के हैं। यह महज एक अनुमान हैए जो हकीकत से बहुत ही कम है। नकली करेंसी नोटों की पहचान जरूर थोड़ी मुश्किल हैए लेकिन इस दिशा में उम्मीद की किरण यह है कि 2005 के बाद छपे करेंसी नोटों में सुरक्षा के कई नये मानकोंए मसलनए मशीन से देखे जा सकने वाले सिक्योरिटी थ्रेडए इलेक्ट्रोटाइप वाटर मार्कए प्रकाशन का वर्ष आदि को जोड़ा गया हैए जिसकी पहचान से नकली करेंसी नोटों को चलन से बाहर किया जा सकता है।
अपने ताजा फैसले के माध्यम से इस बार भी रिजर्व बैंक काले धन पर नियंत्रण करना चाहता है। इस क्रम में 1978 की तरह 2005 के पहले के करेंसी नोट को बदलने के क्रम में अफरातफरी की स्थिति बनने से इनकार नहीं किया जा सकता। उम्मीद है कि कालांतर में बड़ी संख्या में बड़े करेंसी नोटों के रूप में नकदी का खुलासा होगा। सीएमएस की रिपोर्ट के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में खर्च की गई एक तिहाई राशि काला धन थी। भारत की 70 प्रतिशत आबादी अभी भी गांवों में रहती है। इस आबादी में निरक्षर लोगों की संख्या ज्यादा है। दूसरी बात यह कि हमारे देश में वित्तीय समावेशन की प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई है। मौजूदा समय में बैंकिंग सुविधाओं से एक बड़ी आबादी महरूम है। लिहाजाए 2005 से पहले छपे करेंसी नोटों को चलन से बाहर करने से ग्रामीणों की एक बड़ी आबादी भी प्रभावित होगी। इसलिए ग्रामीणों को इस दिशा में जागरूक करने की जरूरत हैए जो निश्चित रूप से आसान नहीं है। जाहिर है ईमानदार लोगों के पास भी 2005 से पहले के करेंसी नोट होंगे और अनजाने में या जानकारी के अभाव में उनके पास रखे करेंसी नोट भी बेकार हो सकते हैंए जिनकी भरपाई करना उनके लिए आसान नहीं होगा।
जहां तक नकली करेंसी नोटों के देश में चलन की बात है तो उसका एक अहम हिस्सा पड़ोसी देशों से आता है। बावजूद इसके सरकार इस पर काबू पाने में नाकाम रही है। इस बाबत दूसरा पहलू यह है कि 2005 के बाद के करेंसी नोट भी बड़ी संख्या में नकली हैंए लेकिन उस पर अंकुश लगाने के संबंध में सरकार चुप्पी साधे हुए है। लिहाजा 2005 के पहले के करेंसी नोट और उसके बाद के करेंसी नोट के बीच सीमा रेखा खींचना औचित्य से परे है। सच कहा जाये तो नकली करेंसी नोटों से निजात पाने के लिए सरकार को अपने खुफिया तंत्र को मजबूत बनाना होगा। पूर्व में भी रिजर्व बैंक ने इस तरह का निर्णय लिया थाए जिसका परिणाम संतोषजनक नहीं रहा। तब गेहूं के साथ घुन पिसाने वाली कहावत ग्रामीण इलाकों में खूब चरितार्थ हुई थी।
देश में नकली करेंसी नोटों का चलन और काला धन जरूर एक गंभीर मुद्दा हैए लेकिन इस पर लगाम लगाने के लिए रिजर्व बैंक द्वारा करेंसी नोट को चलन से बाहर करना तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। इसके लिये प्रशासनिक स्तर पर कड़े कदम उठाने की जरूरत है। सीमा रेखा पर चौकसी बढ़ानेए पुलिस को चुस्त.दुरुस्त करनेए खुफिया तंत्र को चौकस व काबिल बनाने आदि की कवायद से स्थिति में सुधार आ सकता है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

सिर्फ पौधारोपण से नहीं बचेगा पर्यावरण

सिर्फ पौधारोपण से नहीं बचेगा पर्यावरण

विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने सरकारी आवास पर कदम्ब का एक पौधा लगाया। उन्होंने सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता को दोहराया रू.
ष्यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता यमुना के तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे.धीरे।ष्
मोदी की भावनाओं का स्वागत है परंतु पर्यावरण का विषय इससे ज्यादा गम्भीर है। सुभद्रा कुमारी चौहान मान कर चली थीं कि यमुना तो बहती ही रहेगी। विषय केवल कदम्ब के पेड़ को लगाने का था। देश की नदियां और जंगल ही नहीं बचेंगे तो रेसकोर्स रोड परिसर में कदम्ब का पेड़ लगाने की क्या सार्थकता हैघ्
आइये देखें कि इन दोनों उद्देश्यों को मोदी सरकार किस प्रकार एक साथ हासिल कर रही है। देश के पर्यावरण कानूनों की समीक्षा करने के लिए मोदी सरकार ने पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में एक हाई लेवल कमेटी गठित की थी। कमेटी में पर्यावरण से सम्बन्ध रखने वाले केवल एक ही व्यक्ति थे विश्वनाथ आनन्द। नेशनल इंवायरमेंट अपेलेट अथारिटी के उपाध्यक्ष के पद पर इनके सामने पर्यावरण रक्षा के जितने वाद आये थेए सबको इन्होंने खारिज कर दिया था।
दो माह पूर्व राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों को सम्बोधित करते हुए मोदी ने कहा कि कोयले की खदानों से पर्यावरण संरक्षण के लिये पहले जो शुल्क राशि ली जाती थीए उसे चार गुणा बढ़ाया जा रहा है। यह राशि काटे गये जंगल के मूल्य की ली जाती है। वर्तमान में घने जंगलों के लिये 10 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की राशि वसूल की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मूल्य को रिवाइज करने को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फारेस्ट मैनेजमेंट को कहा गया था। इन्होंने इस रकम को बढ़ा कर 56 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर कर दिया था।

यानी इन्होंने 5ण्6 गुणा वृद्धि की संस्तुति की है। मोदी ने इसे घटाकर मात्र चार गुणा करने की बात की है।
वर्तमान में सभी संरक्षित क्षेत्रों जैसे इको.सेंसेटिव जोनए वाइल्ड लाइफ पार्क इत्यादि में कोयले की खदानें प्रतिबन्धित हैं। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि संरक्षित क्षेत्रों के केवल उन हिस्सों में कोयले की खदानों को प्रतिबन्धित रखा जाये जहां जंगल का घनत्व 70 प्रतिशत से अधिक है। संरक्षित क्षेत्रों के शेष हिस्सों को खदान आदि के लिये खोल दिया जाये। अतः आने वाले समय में संरक्षित क्षेत्र में कोयले की खदान को छूट देने की तरफ मोदी बढ़ रहे हैं।
पर्यावरण और विकास को साथ.साथ लेकर चलने के लिये जरूरी है कि इस संतुलन की सरकारी समझ को न्यायालय में चुनौती दी जा सके। जैसे सरकार ने मन बनाया कि जंगल में कोयले की खदान करने से पर्यावरण और विकास साथ.साथ चलेंगे। दूसरा मत हो सकता है कि संरक्षित क्षेत्रों में कोयले की खदान पूर्णतया प्रतिबन्धित रखी जाये। पर्यावरण और विकास दोनों तरह से साथ.साथ चलते हैंए ऐसा कहा जा सकता है। वर्तमान में ऐसे मुद्दों पर जनता नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में वाद दायर कर सकती है। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि ऐसे वाद को सुनने के लिये एक अपीलीय बोर्ड बनाया जायेए जिसके अध्यक्ष हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज होंगे और सदस्य दो सरकार के सचिव होंगे। अपीलीय बोर्ड में पर्यावरणविद् के लिये कोई जगह नहीं है। यानी पर्यावरण सम्बन्धी विवाद निपटाने के लिये इन्हें पर्यावरण विशेषज्ञों के ज्ञान की जरूरत नहीं है।
मोदी ने गंगा की सफाई की बात की है। इस बिन्दु पर सरकार द्वारा कुछ सार्थक कदम भी उठाये गये हैंए विशेषकर गंगा बेसिन में प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर नकेल कसने की दिशा मेंए लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। नदी में बहता पानी हो तो नदी प्रदूषण को स्वयं दूर कर लेती है। दुर्भाग्य है कि मोदी गंगा को बहने नहीं देना चाहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में गंगा पर बन रहे बांधों का वाद चल रहा है। दिसम्बर में पर्यावरण मंत्रालय ने कोर्ट में कहा कि जल विद्युत परियोजनायें इस प्रकार बनाई जानी चाहिये कि नदी की मूल धारा अविरल बहती रहे। सरकार का यह मन्तव्य सही दिशा में था। परन्तु फरवरी में सरकारी वकील ने सुप्रीम कोर्ट से 6 ऐसी बांध परियोजनाओं को चालू करने का आग्रह किया जिनमें बांध बनाकर गंगा के बहाव को पूरी तरह रोका जाना था। ज्ञात हुआ कि सरकारी वकील को आदेश सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से मिला था। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गंगा को बहने देने की तरफ जो सही कदम उठाया गया थाए उसे प्रधानमंत्री ने पलट दिया। गंगा पर इलाहाबाद से बक्सर के बीच मोदी सरकार ने 3.4 बेराज बनाने का प्रस्ताव भी रखा था। उत्तर प्रदेश तथा बिहार की राज्य सरकारों द्वारा इस प्रस्ताव का विरोध किये जाने पर इस परियोजना को फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। परंतु जल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इलाहाबाद के ऊपर ऐसे बेराज बनाने का विकल्प खुला छोड़ रखा है।
प्रधानमंत्री ने प्रसन्नता व्यक्त की है कि देश में बाधों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह पूर्व सरकारों का कारनामा हैए जिस पर आज संकट मंडरा रहा है। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि वन्यजीव पार्कों के चारों ओर इको सेंसेटिव जोन की सीमा शीघ्र निर्धारित की जाये। सच यह है कि सुप्रीमकोर्ट ने यह सीमा 10 किलोमीटर निर्धारित कर दी थी। कमेटी इस क्षेत्र को सीमित करना चाहती है।
वर्तमान में पर्यावरण स्वीकृति हासिल करने के लिये जन.सुनवाई की व्यवस्था है। इस जन.सुनवाई में देश का कोई भी नागरिक अपनी बात कह सकता है। सुब्रह्मण्यम कमेटी ने संस्तुति दी है कि जन.सुनवाई में केवल स्थानीय लोगों को भाग लेने दिया जायेगा। कहा जा सकता है कि सुब्रह्मण्यम कमेटी की संस्तुतियां मोदी के मंतव्य को नहीं दर्शाती हैं। परंतु कमेटी का गठन तो मोदी ने ही किया था। यदि मोदी को भारतीय संस्कृति और पर्यावरण से स्नेह होता तो वे कमेटी में संस्कृति एवं पर्यावरण के जानकारों को अवश्य स्थान देते।
कदम्ब का पेड़ मोदी ने लगाया इसके लिये उनका साधुवाद। परन्तु उनके तमाम प्लान पर्यावरण को नष्ट करने की तरफ बढ़ रहे हैं। ऐसे में एक कदम्ब के पेड़ को लगाना जनता को गुमराह करना मात्र है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

Monday, 22 June 2015

मोदी सरकार को दरपेश राजनीतिक तूफान

मोदी सरकार को दरपेश राजनीतिक तूफान

ठीक उस वक्त जब नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के लोग केंद्र में भाजपा की मौजूदा सरकार का पहला साल पूरा होने परए जिसे वह घोटाला.मुक्त राज भी कहते हैंए खुद को बधाइयां देने में व्यस्त थे तो अचानक एक धमाका हुआ। यह विस्फोट मानवता के आधार पर अपनाए गए कृत्य के रूप में था और इसने जिस राजनीतिक तूफान को उठायाए उसके केंद्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज हैं।
साधारण तौर पर देखें तोए यह मुद्दा एकदम सीधा हैए क्या सुषमा स्वराज को ऐसे व्यक्ति जो क्रिकेट की दुनिया में कुख्यात रहेए ललित मोदी की ब्रिटिश यात्रा.दस्तावेज प्राप्त करने में आधिकारिक तौर पर मदद करनी चाहिए थी और वह भी तब जब वह देश के कानून से भाग कर विदेशों में पनाह लिए हुए है और जिस पर देश की आर्थिक अपराध शाखा और अन्य एंजेसियां जांच कर रही हैंघ् ललित मोदी पिछले कुछ अरसे से लंदन में रह रहे हैं और पहले उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया था और वे अपनी पत्नी की कैंसर सर्जरी करवाने हेतु पुर्तगाल जाना चाह रहे थे।
लेकिन भारत के एक टेलीविजन चैनल ने उस वक्त यह खबर प्रसारित कर सनसनी मचा दीए जब उसने लंदन के साप्ताहिक समाचार पत्र संडे टाइम्स का हवाला देते हुए यह दिखाया कि कैसे उक्त अखबार के पत्रकारों ने ललित मोदी का शिद्दत से पीछा करते हुए यूरोप के छोटे से मुल्क मोंटेनीग्रो में मौज.मस्ती करते पाया। यदि इस पहेली के ताने.बाने को जोड़ें तो अफसोसनाक तस्वीर उभरकर आती है कि लेन.देन के धंधे में माहिर इन महोदय का साथ देने में जिन लोगों का नाम सामने आया हैए उनमें ब्रिटिश सांसद कीथ वाज़ के अलावा सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे सिंधिया भी शामिल हैं।

इस बारे में सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि क्या मोदी के साथ लंबे अरसे से चले आ रहे पारिवारिक रिश्तों के चलते सुषमा ने उनकी मदद का फैसला लिया है। लेकिन क्रिकेट के इस सुल्तान के लिए काम करने वाली वकीलों की टीम में सुषमा की बेटी बांसुरी भी एक है। इसके अलावा सुषमा के पति स्वराज कौशल ने अपने भतीजे को एक ब्रिटिश यूनिवर्सिटी में दाखिला दिलवाने के लिए ललित मोदी की मदद भी ली थी।
इसके अतिरिक्त राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने भी ललित मोदी की मदद करते हुए उनकी पत्नी को दो साल पहले पुर्तगाल के अस्पताल में स्वयं भर्ती करवाया था। कहा जाता है कि ललित मोदी ने वसुंधरा राजे सिंधिया के बेटे दुष्यंत की कंपनी में पैसा भी लगा रखा है।
कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी पार्टियों के लिए यह ड्रामा एक तोहफे की तरह आया है ताकि वे खुद को पाक.साफ बताने वाली उस भाजपा पर निशाना साध सकें जिसने यूपीए के कार्यकाल में हुए घोटालों का खूब फायदा उठाकर इस गठबंधन को भ्रष्टाचार का पर्याय बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मोंटेनीग्रो में पत्रकार राजदीप सरदेसाई को दिए गए साक्षात्कार में ललित मोदी ने अपना बचाव इस तरह कियाए गोया यह कोई लड़ाई का मैदान हो। वैसे भी इस इंटरव्यू से सुषमा स्वराज के हित संवरने में कोई मदद नहीं मिली। बल्कि इसने इस विचार को और अधिक पुख्ता कर दिया कि एक हेराफेरी करने वाला इनसान भारत सरकार से टक्कर लेने को तैयार है।
एक ओर विपक्षी पार्टियां सरकारी पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गयी कहानी में दिख रहे विरोधाभासों को उठा रही हैं वहीं दूसरी तरफ अरुण जेटली मंत्रिमंडल की अपनी सहयोगी सुषमा को बचाने में लगे हुए हैं। यह कैसे संभव है कि अपनी लीक से हटकर सुषमा ब्रिटिश अधिकारियों को कहें कि यदि ब्रिटेन ललित मोदी को जरूरी यात्रा दस्तावेज मुहैया करवा देता है तो भारत सरकार को इस बारे में कोई आपत्ति नहीं हैघ्
यहां बहुत सारे सवाल उठ खड़े होते हैं। क्यों नहीं भारत के विदेश मंत्रालय ने ललित मोदी को पुर्तगाल के अस्पताल में भर्ती अपनी पत्नी को देखने जाने के लिए आरजी यात्रा दस्तावेज इस शर्त पर दिलवाए कि इसके बाद ललित मोदी स्वदेश लौटकर अपने ऊपर लगे आरोपों का सामना भारतीय अदालतों के सामने प्रस्तुत होकर करेंगेघ् जबकि पिछली यूपीए सरकार ने ब्रिटिश प्रशासन को स्पष्ट बता दिया था कि यदि ललित मोदी को यात्रा दस्तावेज मुहैया करवाकर कहीं आने.जाने की सुविधा दी जाती है तो इससे भारत.ब्रिटेन के द्विपक्षीय संबधों पर खराब असर पड़ेगा। इसलिए ललित मोदी को ब्रिटेन से बाहर जाकर अपनी पत्नी का हाल.चाल पूछने के अलावा मोंटनीग्रो में एक पारिवारिक शादी में शिरकत करने और अन्य पर्यटन स्थलों पर घूमने लायक बनाने में सुषमा स्वराज ने अहम भूमिका निभाई है।
विपक्षी पार्टियों की यह भी मांग है कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को भी अपने पद से इस्तीफा देना चाहिए। पहले जिस तरह से केंद्रीय नेतृत्व उनकी मुश्किलों की ओर अपेक्षाकृत नरम रुख रखे हुए था उससे तो लगता था कि अभी उनकी राजनीतिक पारी लंबी खिंचने वाली है। लेकिन जिस तरह से बताया जा रहा है कि ललित मोदी और सिंधिया परिवार के आर्थिक हित जुड़े हुए हैंए उसके परिप्रेक्ष्य में वसुंधरा की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं।
इन घटनाओं का असर बृहद रूप से होगा। एक तोए यदि प्रधानमंत्री अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए भाजपा के इन दो प्रभावशाली नेताओं का बचाव करते हैं तो ऐसा करना भ्रष्टाचार का खात्मा करने पर जोर देने वाले प्रयासों को धक्का पहुंचाना होगा। दूसरेए जो ईमानदारी का चोगा भाजपा नेतृत्व इतनी शिद्दत से पहनता हैए उसमें छेद हो जाएंगे।
कांग्रेस पार्टी को काफी खुशी मिली होगी कि उसे यह मुद्दा नरेंद्र मोदी सरकार को आड़े हाथों लेने के लिए मिल गया है। लेकिन अभी उसे काफी लंबा सफर तय करना है और राहुल गांधी को अपनी नेतृत्व क्षमता अभी सिद्ध करनी बाकी है।
प्रधानमंत्री पद पर नया अनुभव होने के बावजूद नरेंद्र मोदी ने देश के प्रशासनिक ढांचे के मकड़जालों को साफ करने का जो बीड़ा उठाया हैए वह एक लंबी प्रकिया की शुरुआत भर है। सुषमा स्वराज वाला मामला प्रधानमंत्री के लिए अलग तरह की समस्या है। लालकृष्ण आडवाणी की जबरी रिटायरमेंट के बाद प्रधानमंत्री की गद्दी के लिए सुषमा को भी एक दावेदार माना जाता थाए लेकिन जब इस पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम का अनुमोदन हो गया तो आम चुनाव जीतने के बाद सुषमा को मंत्रिमंडल में बतौर वरिष्ठ सदस्य लेना पड़ा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें विदेश मंत्री का विभाग खुशी से सौंपा। लेकिन एक कर्मठ और उत्साही व्यक्ति होने के नाते प्रधानमंत्री ने विदेश मामलों में भी खुद को एक समर्थ राजनेता सिद्ध कर दिखाया और सुषमा स्वराज को एक दायरे में समेट दिया गया।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

मुश्किलों के पत्थर को बनाएं सीढ़ी

मुश्किलों के पत्थर को बनाएं सीढ़ी

हर मनुष्य सफल होना चाहता है और सफलता के लिये जरूरी है समस्याओं से संघर्ष। समस्याओं रूपी चुनौतियों का सामना करनेए उन्हें सुलझाने में जीवन का उसका अपना अर्थ छिपा हुआ है। समस्याएं तो एक दुधारी तलवार होती हैंए वे हमारे साहसए हमारी बुद्धिमत्ता को ललकारती हैं और दूसरे शब्दों में वे हममें साहस और बुद्धिमानी का सृजन भी करती हैं। मनुष्य की तमाम प्रगतिए उसकी सारी उपलब्धियों के मूल में समस्याएं ही हैं। यदि जीवन में समस्याएं नहीं हों तो शायद हमारा जीवन नीरस ही नहींए जड़ भी हो जाए। किसी ने ठीक कहा है कि.
हर मुश्किल के पत्थर को बनाकर सीढि़यां अपनीए
जो मंजिल पर पहुंच जाए उसे ष्इनसानष् कहते हैं।
प्रख्यात लेखक फ्रेंकलिन ने सही ही कहा था. ष्ष्जो बात हमें पीड़ा पहुंचाती हैए वही हमें सिखाती भी है।ष्ष् और इसलिए समझदार लोग समस्याओं से डरते नहींए उनसे दूर नहीं भागते। बाबा आमटे ने भी एक जगह लिखा है. ष्ष्समस्याओं को आगे बढ़कर गले लगाइए। उसी तरह जैसे कोई जवां मर्द बैल से डरकर भागता नहींए आगे बढ़कर उसके सींग पकड़ता हैए उससे जूझता हैए उसे काबू करता है। हम सब में ऐसा ही उत्साहए ऐसी ही ललकए ऐसी ही बुद्धि होनी चाहिएए समस्याओं से जूझने के लिए।ष्ष्
पर अधिकांश लोग इतने बुद्धिमानए ऐसे उत्साह से भरे नहीं होेते। समस्याओं में छिपे दर्द से बचने के लिए हममें से अधिकांश लोगए उन समस्याओं से कतराने की कोशिश करते हैंए हम उनसे मुंह मोड़ना चाहते हैंए उन्हें अनदेखा करना चाहते हैंए उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखना चाहते हैंए उन्हें भूल जाना चाहते हैं। समस्याओं का अस्तित्व भी हैए यह ही नहीं मानते। सोचते हैंए ऐसा रुख अपनाने से शायद समस्याएं अपने आप गायब हो जायेंगी। कभी.कभी इन समस्याओं की उपेक्षा करनेए उन्हें भूलने के लिए मादक द्रव्यों का सहारा भी लेते हैं. शराबए सिगरेटए नींद की गोलियां। समस्याओं से आगे बढ़कर जूझने की बजाय हम उनसे बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। समस्याओं से कतरानेए उनमें छिपी भावनात्मक व्यथा से बचकर निकल जाने की यह प्रवृत्ति ही मनुष्य की तमाम मानसिक रुग्णता का मूल कारण है।
जिंदगी कठिन है.अधिकांश लोग इस सत्य को नहीं देख पाते या देखना नहीं चाहते। इसके बदले वे संताप करते रहते हैं कि उनकी जिंदगी में समस्याएं ही समस्याएं हैं। वे उनकी विकरालताए उनके बोझ की ही शिकायत करते रहते हैं। परिवार मेंए मित्रों में इसी बात का रोना रोते रहते हैं कि उनकी समस्याएं कितनी पेचीदाए कितनी दुःखदायक हैं और उनकी दृष्टि में ये समस्याएं न होतीं तो उनका जीवन सुखदए आसान होता। असल में समस्याएं विकराल होती ही इसलिये हैं कि हम उनको अपनी गलतियों का परिणाम न मानकर दूसरों को इनका कारण मानते हैं।
समस्याएं हैं तो उनका समाधान भी होता ही है। एक बार एक महिला ने स्वामी विवेकानंद से कहाए ष्स्वामी जीए कुछ दिनों से मेरी बायीं आंख फड़क रही है। यह कुछ अशुभ घटने की निशानी है। कृपया मुझे कोई ऐसा तरीका बताएं जिससे कोई बुरी घटना मेरे यहां न घटे।ष् उसकी बात सुन विवेकानंद बोलेए ष्देवीए मेरी नजर में तो शुभ और अशुभ कुछ नहीं होता। जब जीवन है तो इसमें अच्छी और बुरी दोनों ही घटनाएं घटित होती हैं। उन्हें ही लोग शुभ और अशुभ से जोड़ देते हैं।ष्
समस्याएं आकाश की तरह बनने पर ही मिट सकती हैंए मिटाई जा सकती हैंए किन्तु यदि हम केवल चर्ममय रह जाएंगे तो समस्याएं कभी नहीं सुलझने वाली। अनन्तकाल बीत गया किन्तु समस्याओं का कभी अंत हुआ होए ऐसा नहीं दिखाई देता। जब तक मनुष्य हैए उसके पास चिन्तन और विचार हैंए तब तक समस्याएं रहेंगी। यदि व्यक्ति गहरी निद्रा में सो जाएए चिन्तन बंद हो जाए और प्रलय जैसा ही कुछ हो जाए तो संभव है समस्या नहीं रहेए अन्यथा समस्या रहेगी।
ष्जो अध्यात्म को जानता हैए वह भौतिकता को जानता हैएष् धार्मिकों ने इसे पकड़कर सोच लिया कि धर्म से धनए रोटीए पुत्रए सुखए वैभव सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। धर्म के द्वारा इन सभी समस्याओं को सुलझाना कठिन होगा। प्यास पानी पीने से मिटेगीए भूख रोटी खाने से शांत होगी और पैसा पुरुषार्थ से प्राप्त होगा। समस्याओं के सुलझाने में यथार्थ दृष्टि होनी चाहिए। दूसरी ओर व्यवहार को पकड़ने वाले व्यक्ति सभी समस्याओं को सुलझाने में केवल व्यवहार को ही उपयोगी मानते हैं। वे धर्म और अध्यात्म को अनुपयोगी कहते हैंए अनावश्यक समझते हैं। समस्या बाहर से आती है किन्तु उसका मूल कहां हैघ् प्रयाग में त्रिवेणी हैए किन्तु उसका मूल स्रोत कैलाश है। हमारी समस्याएं भी बाहर के विस्तार से आ रही हैं किन्तु उनका मूल हमारे मन में है। क्रोधए लोभए भयए मोहए वासनाए घृणाए ईर्ष्याए शोक आदि मन के ये आवेग जब तक जीवित हैंए तब तक समस्या सुलझने वाली नहीं।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/2015/06/

Sunday, 21 June 2015

पगार चकाचक

पगार चकाचक

इकॉनमी के मोर्चे पर बढ़ती मुश्किलों के बीच कम से कम सैलरीड तबकों के लिए यह खबर राहत देने वाली है कि भारतीय कंपनियां इस साल उन्हें बेहतर सैलरी हाइक देने की तैयारी में हैं। ग्लोबल एचआर कन्सल्टिंग फर्म टावर्स वॉटसन की 2015.16 की एशिया.पैसिफिक सैलरी बजट प्लानिंग रिपोर्ट पर यकीन करें तो भारतीय उद्योग जगत इस बार अपने एंप्लॉयीज को औसतन 10ण्8 फीसदी की हाइक देने की सोच रहा है।

पड़ोसी देशों की स्थिति पर नजर डालें तो इस आंकड़े की अहमियत और साफ हो जाती है। इंडोनेशिया में 9ण्5 फीसदीए चीन में 8ण्6 फीसदी और फिलीपींस में 6ण्7 फीसदी ही बढ़ोतरी के आसार हैं। हालांकि इंडस्ट्री के सामने मौजूद चुनौतियों पर नजर डालें तो हालात बहुत अच्छे नहीं नजर आतेए लेकिन टावर्स वॉटसन के मुताबिक महंगाई दर में कमीए घटती तेल कीमतें और बाजार में अनुकूल माहौल की बदौलत भारत में ऐसी आकर्षक वेतन वृद्धि के आसार बने हैं।

19 देशों की करीब 2000 कंपनियों से मिले जवाबों के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट में श्वास्तविक वेतन वृद्धिश् यानी महंगाई को एक तरफ रखकर बढ़ाई गई तनख्वाह पर विचार किया गया है। इस लिहाज से भी इस बार की बढ़ोतरी हाल के वर्षों में सबसे आकर्षक जान पड़ती है। महंगाई दर काबू में होने की वजह से कर्मचारियों का वास्तविक सैलरी इन्क्रीमेंट अच्छा खासा हो जाएगा। पिछले साल मोटे तौर पर सैलरी हाइक 10ण्5 फीसदी हुई थीए मगर महंगाई दर 7ण्2 फीसदी होने के चलते कर्मचारियों की जेब तक पहुंचा वास्तविक फायदा 3ण्3 फीसदी ही रहा। 2013 में तो और बुरा हाल था। सैलरी हाइक थी 10ण्3 फीसदीए पर महंगाई दर रही 10 फीसदी। यानी कर्मचारियों को महज 0ण्3 फीसदी वृद्धि पर ही संतोष करना पड़ा। यानी कुल मिला कर यह साल कर्मचारियों के लिहाज से काफी फायदेमंद रहने वाला है।

अगले साल पर जरूर कुछ आशंकाओं के बादल मंडराते दिख रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अभी 2016 के बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन रिपोर्ट मानती है कि अगले साल भी वेतन में बढ़ोतरी का प्रतिशत इसी साल के आसपास रहने की संभावना है। तेल कीमतों में उलटफेर का डर और कमजोर मानसून की भविष्यवाणी महंगाई के मोर्चे पर ज्यादा आशावादी होने की इजाजत नहीं देतीए लेकिन वित्त मंत्री ने जिस तरह आर्थिक सुधारों की राह पर तेजी से आगे बढ़ने के सुदृढ़ इरादे जाहिर किए हैंए उन्हें अगर अमल में उतारा जा सका तो अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार इधर.उधर से आने वाली मुश्किलों का इलाज खुद ही ढूंढ लेगी।

कुल मिलाकर हाल यह है कि किसानों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए अभी हालात जितने चिंताजनक बने हुए हैंए उसकी तुलना में कर्मचारियों का मामला बिल्कुल अलग है। अगर आप अपनी कंपनी को अपना बेस्ट देने को तैयार हैं तो आपकी कंपनी के पास आपको खुश रखने का पूरा इंतजाम है।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/opinion/editorial/salary-spick-and-span/articleshow/47738705.cms

न्यूनतम पारदर्शिताए अधिकतम दखल

न्यूनतम पारदर्शिताए अधिकतम दखल

मोदी दूसरे मोदी के मुद्दे पर अपनी साख पर बट्टा लगा चुकी सुषमा स्वराज ने यह कह कर मजा किरकिरा कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 जून को राजपथ पर होने वाले योग महोत्सव की शोभा तो बढ़ाएंगेए मगर खुद योगासन नहीं करेंगे। यह एक तरह का धक्का देने वाली बात थीए क्योंकि टेलीविजन चैनल जोश से भरे मोदी को जोशीले अंदाज में भस्तरिका प्राणायाम करते हुए दिखाकर पहले ही सबकी भूख बढ़ा चुके थे और मुंह में पानी लाने की चाहत जगा चुके थे। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता सुश्री स्वराजए क्योंकि दूरदर्शन के सौजन्य से पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ में जिस अंदाज में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने और इस अवसर पर भव्य आयोजन करने का प्रचार किया गया थाए उसने हमें लबालब कर दिया। टीवी के प्रोमोज में उन्होंने देशवासियों को देश के कोने.कोने में योग दिवस पर योग करने का उपदेश दिया। मोदी सरकार इस मामले में इतनी अधिक ऊर्जाए प्रतिष्ठा व जिद दिखा चुकी है कि ष्योगष् अचानक एक निजी आनंददायक अनुभव से अलगए बड़ा प्रतीत होने लगा है।
करदाताओं के खर्च पर होने वाला प्रस्तावित भव्य योग आयोजन हिंदुत्व के रस से सराबोर है। स्वाभाविक रूप से इसने हमारे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग को असहज बना दिया है। आखिरकार इस देश में ऐसा राज चल रहा हैए जिसने दोनों आस्तीनों पर आरएसएस के संबंधों को गर्व से लाद रखा है। यद्यपि महंतों व गुरुओं की टोली ने यह चेतावनी दे रखी है कि जो भी उनके कहे पर नहीं चलेगाए उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। फिर भी सुषमा स्वराज और दूसरे मंत्री खूबसूरती से कह रहे हैं कि मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक अभिषेक दिवस पर योग न करना चाहें तो यह उनकी मर्जी है. और उनका नुकसान भी। देखा जाए तो इस बहाने ष्कृपाष् बेमतलब हैए क्योंकि ष्सूर्य नमस्कारष् और ष्ओउम‍्ष् को लेकर छिड़ा विवाद ष्हमष् तथा ष्वोष् में नागरिकों को विभाजित करने के मूल उद‍्देश्य को पुख्ता कर ही चुका है। साफ है कि जो भी इसमें शामिल न होने का रास्ता चुनेगाए उसे बहुमत की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के कुकृत्य का फल भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
अल्पसंख्यकों को जबरदस्ती का एहसास होए इससे ज्यादा यह बहुमत की बाड़ेबंदी है कि हर लोकतांत्रिक आत्मा हतोत्साहित हो। इससे पहले कभी भी किसी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर एक सामूहिक आयोजन करने के लिए सरकारी संसाधनों व शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया। अभी तक शायद एकमात्र गणतंत्र दिवस ही हैए जिसके समारोह में सरकार वर्दीधारी लोगों ;और स्कूली विद्यार्थियोंद्ध को शामिल होने के लिए कहती है। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण के लिए कुछ स्कूलों के बच्चे दर्शक दीर्घा में ;वाहवाही करने के लिएद्ध आमंत्रित किये जाते रहे हैं। लेकिन इस बार तो कैबिनेट सचिव से लेकर हर जिलाधीश तक ;खासकर भाजपा शासित राज्यों मेंद्ध को सख्ती से कार्यक्रम में शिरकत करने को कहा गया है। साथ ही सुनिश्चित करने को कहा गया है कि सेनाए अर्द्ध सैनिक बलों के संगठनोंए स्कूल व विश्वविद्यालयों और सामाजिक समूहों की 21 जून के कार्यक्रम में भागीदारी हो। यह भी कम विवाद का विषय नहीं है कि अपने व्यापक व्यापारिक हितों व राजनीतिक संबंधों के चलते विवादों में रहने वाले बाबा को राजपथ के आयोजन का सूत्रधार बनाया गया है।
इस मौके पर गहरी यौगिक सांस लेने व ध्यान करने की सलाह देने वाले सरकार द्वारा अधिकृत एचण्आरण् नगेंद्र ने आरएसएस के मुखपत्र ष्ऑर्गेनाइजरष् को बताया कि ष्इस दिन इस मौके पर एक ही समय तीस करोड़ लोग योग करेंगे।ष् संशय पैदा करने वाला यह आंकड़ा उत्तर कोरिया के उन तानाशाहों के लिए एक नसीहत हैए जो विशाल अनुशासित आयोजनों को बलपूर्वक करने की अपनी क्षमताओं पर बड़ा घमंड किया करते थे।
दरअसल ऐसे कर्मकांडी कार्यक्रमों के आयोजक खास मकसद के लिए ऐसे आयोजन करते हैं। अकसर यह विचार इस प्रवृत्ति का पोषण करने वाला होता है कि शासक व वर्ग विशेष के संबंधों व वफादारियों को गहरा रंग दिया जाए और अन्य को जोड़ा जाए। मसलन नौवें दशक में महासमागम आरती व नमाज के प्रतिस्पर्धी आयोजन हुएए जिसके अप्रिय परिणाम सामने आये तथा परिणति अलगाव के रूप में नजर आई। अब भारतीय शासन की शक्ित का प्रयोग लोगों को अनुसारक कार्य के लिए तैयार करने में किया जा रहा है।
हमें यह मानकर चलना चाहिए कि यह हुकूमत बखूबी जानती है कि कैसे विशाल भीड़ वाले आयोजनों को गढ़ा और क्रियान्वित किया जाए। देश ने पहली बार इस कौशल को तब देखाए जब नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान वाराणसी में रोड शो किया। टीवी चैनलों के प्रस्तोता व बुद्धिजीवी वर्ग संकरी गलियों में उमड़े जनसैलाब को देखकर मंत्रमुग्ध हुए। इस रोमांच ने टीवी चैनलों को निहाल किया। कई सप्ताह तक विश्लेषक.लेखक इस मोहपाश से मुक्त न हो सके। इस बार वाराणसी जैसे अंदाज में इसे देशव्यापी स्तर पर बड़े पैमाने में जनाकांक्षाओं एवं निहितार्थों के बीच किया जा रहा है।
अपेक्षित रूप से 21 जून की अतिरंजना को लेकर तार्किक आधार तैयार किया गया है। दरअसल सरकार चुपचापए लेकिन अधिकारपूर्वक नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप कर रही है। यह दावा परोपकार के मुलम्मे के साथ  आगे बढ़ाया जा रहा है कि उनका जीवन बेहतरए उन्नत और आदर्श शैली में ढलेगा। इसके पीछे तर्क यह है कि यह प्रकटतरू एक बेहतर श्रेष्ठ व आदर्श जीवनशैली के लिए हानि.रहित प्रयास है। जैसा कि ष्ऑर्गेनाइजरष् ने अपने संपादकीय में लिखा कि ष्21 जून का आयोजन एक उत्सव की तरह हैए जो प्राचीन ऋषि.मुनियों द्वारा बतायी गयी स्वस्थ व सद्भाव की जीवनशैली के अनुरूप है।ष् मामला राजपथ पर आलीशान ढंग से होने वाले आयोजन तक सीमित नहीं रह जाताए बल्कि हो.हल्ले के साथ मांग की जा रही है कि योग को स्कूल व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये।
दरअसल जबरन थोपी गई चीजें सदैव साथ में प्रतिकार को भी जन्म देती हैं। केंद्र में आसीन सत्ताधीश पहले भी हमारी निजी खान.पान की आदतों व पसंद में हस्तक्षेप की कोशिश कर चुके हैं। वास्तव में बड़ी विषय वस्तु को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें की जा रही हैंए जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति का हिस्सा है। यह हमारे सांस्कृतिक संस्थानों में हस्तक्षेप की कोशिश है। हो सकता है कल कहा जाये कि हम खास किस्म की फिल्में देखेंए खास किस्म की किताबें पढ़ें तथा खास तरह का इतिहास पढ़ें और पढ़ायें। यह सब इस नयी गढ़ी सोच के साथ किया जा रहा है कि बहुसंख्यकों की भावना का सम्मान होना चाहिए।
साधारण से बाहर कुछ भी नहीं है। आखिरकारए संघ परिवार सदैव से ही संवैधानकि प्रावधानों के अनुरूप लोकतांत्रिक मान्यताओंए धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों तथा सर्वधर्म समभाव के दर्शन के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाता रहा है। वह सदैव से ही बहुसंख्यकों और उनकी धार्मिक मान्यताओं को सर्वोच्च बताते हुए उन्हें संवैधानिक प्रावधानों पर अधिमान देता रहा है। मोदी सरकार की कोशिश रही है कि बहुसंख्यकों की भावनाओं तथा आकांक्षाओं का दोहन किया जाये। इसे नये सिरे से परिभाषित की जा रही लोकतांत्रिक परिभाषाओं की तर्कसंगति में महसूस किया जा सकता है। इसी 21 जून की सामूहिक झांकी के पीछे मंशा हमें उसी नयी कथा के प्रति नरम होने के लिए तैयार करना है।

बीसवीं सदी का यूरोप का इतिहास हमें काफी कुछ सिखाता है। यह बताता है कि कैसे सत्ता में बने रहने के लिए शासक जनता को अनुशासन के सिद्धांत का सहारा लेकर भारी भीड़ वाले आयोजन करते रहे हैं। इसके जरिये वे जनता को भ्रमित करके उसके अधिकारों में ही कटौती करते रहे हैं और अपने एजेंडे को अमलीजामा पहनाते रहे हैं। न्यूरेमबर्ग की ऐतिहासिक रैली के दिनों में काल्पनिक परिदृश्य से जनता को भ्रमित करके उसे शासन से सवाल करने का अधिकार त्यागने के लिए भरमाया गया था।
देश पहले ही हर्ष के साथ प्रधानमंत्री के इर्द.गिर्द सत्तावादी व्यक्तिवाद को स्वीकार कर चुका है। राजपथ पर होने वाले सामूहिक आयोजन से उत्पन्न बेचैनी को इसके निहितार्थ के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतांत्रिक आयोजन से इतर किसी भी चीज को यह घातक मिश्रण आसानी से अपनी तरह ढाल सकता है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/p/

Saturday, 20 June 2015

सिर पर एक छत

सिर पर एक छत

केंद्र सरकार ने शहरी गरीब तबकों के लिए अपनी फ्लैगशिप परियोजना श्हाउसिंग फॉर ऑल बाई 2022श् के तहत अगले सात वर्षों में सभी बेघरों को घर मुहैया कराने के फैसले पर मोहर लगा दी है। यह योजना तीन चरणों में लागू होगीए जिसमें तीन सौ शहरों को समेटने वाले दो चरण इसके कार्यकाल में पड़ने वाले हैं।

योजना के दो स्पष्ट हिस्से हैं। एकए झुग्गी.झोपड़ियों में रहने वालों को तैयार फ्लैट देना और दूसराए निजी पहल पर अपना मकान बनाने या खरीदने वालों को बैंकों से मिलने वाले कर्ज में जबर्दस्त राहत देना। झुग्गी पुनर्वास के तहत केंद्र सरकार की ओर से प्रति फ्लैट एक लाख रुपये का अंशदान दिया जाएगाए जबकि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों द्वारा निजी पहल पर बनने या खरीदे जाने वाले घरों के लिए 15 साल के कर्ज पर लगने वाले ब्याज में 6ण्5 फीसदी हिस्सा सरकार बैंकों को अपनी तरफ से मुहैया कराएगी।

दूसरे शब्दों में कहें तो गरीब तबके मौजूदा दरों पर मात्र 4 फीसदी ब्याज वाला बेहद सस्ता होम लोन बैंकों से उठा सकेंगे। जबर्दस्त मंदी से जूझ रहे हाउसिंग सेक्टर के लिए ये दोनों सरकारी पहलकदमियां काफी राहत देने वाली साबित होंगीए हालांकि अतीत में ऐसी पहलकदमियों को जिन अड़चनों का सामना करना पड़ा हैए वे अभी और भी मजबूत ढंग से इस परियोजना के आड़े आएंगी और सरकार को उनसे निपटने के लिए शुरू से ही सतर्क रहना होगा।

झुग्गियों की जगह फ्लैट खड़े करने की पहल आज तक कहीं भी परवान नहीं चढ़ पाई हैए क्योंकि इनमें रहने वालों को यह फायदे का सौदा नहीं लगता। झुग्गी.झोपड़ियों में रहने वाले लोग या तो अपनी रहने की जगह में ही कोई छोटा.मोटा काम.धंधा चलाते हैंए या फिर उनकी काम की जगह कहीं आस.पास ही होती है। पुनर्वास में उनका कारोबार या रोजगार चल पाने की कोई गारंटी नहीं होतीए लिहाजा वे इसके लिए राजी नहीं होते। कई बार ऐसा भी होता है कि उजाड़ा कोई और जाता है और पुनर्वास किसी और का होता है ;अक्सर उसकाए जिसके पास पहले से ही एक या एक से ज्यादा फ्लैट होते हैंद्ध।

इस प्रक्रिया में मुख्य भूमिका राज्य सरकारों को निभानी पड़ती हैए लिहाजा झुग्गी पुनर्वास की कामयाबी के लिए केंद्र सरकार को राज्यों से समझदारी बनाकर चलना होगा। होम लोन में राहत की योजना अपेक्षाकृत कम उलझी हुई है। मुश्किल सिर्फ एक है कि खासकर महानगरों में आम तौर पर सारे शहरों में फ्लैटों की न्यूनतम कीमतें ही इतनी ज्यादा हो चुकी हैं कि सस्ते से सस्ता ब्याज भी कमजोर तबकों को घर खरीदने के लिए प्रेरित नहीं कर पा रहा है। इन सारी उलझनों के बावजूद एनडीए सरकार की यह पहल स्वागत योग्य है और अपनी पूरी ताकत लगाकर अगर वह अपने कार्यकाल में इसके एक हिस्से को भी अमल में उतार पाई तो शहरी गरीब तबकों की नजर में वह अपनी एक यादगार छवि बना ले जाएगी।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/other/opinion/editorial/articlelist/2007740431.cms

न्यूनतम पारदर्शिताए अधिकतम दखल

न्यूनतम पारदर्शिताए अधिकतम दखल

दूसरे मोदी के मुद्दे पर अपनी साख पर बट्टा लगा चुकी सुषमा स्वराज ने यह कह कर मजा किरकिरा कर दिया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 21 जून को राजपथ पर होने वाले योग महोत्सव की शोभा तो बढ़ाएंगेए मगर खुद योगासन नहीं करेंगे। यह एक तरह का धक्का देने वाली बात थीए क्योंकि टेलीविजन चैनल जोश से भरे मोदी को जोशीले अंदाज में भस्तरिका प्राणायाम करते हुए दिखाकर पहले ही सबकी भूख बढ़ा चुके थे और मुंह में पानी लाने की चाहत जगा चुके थे। इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता सुश्री स्वराजए क्योंकि दूरदर्शन के सौजन्य से पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ में जिस अंदाज में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने और इस अवसर पर भव्य आयोजन करने का प्रचार किया गया थाए उसने हमें लबालब कर दिया। टीवी के प्रोमोज में उन्होंने देशवासियों को देश के कोने.कोने में योग दिवस पर योग करने का उपदेश दिया। मोदी सरकार इस मामले में इतनी अधिक ऊर्जाए प्रतिष्ठा व जिद दिखा चुकी है कि ष्योगष् अचानक एक निजी आनंददायक अनुभव से अलगए बड़ा प्रतीत होने लगा है।
करदाताओं के खर्च पर होने वाला प्रस्तावित भव्य योग आयोजन हिंदुत्व के रस से सराबोर है। स्वाभाविक रूप से इसने हमारे बड़े अल्पसंख्यक वर्ग को असहज बना दिया है। आखिरकार इस देश में ऐसा राज चल रहा हैए जिसने दोनों आस्तीनों पर आरएसएस के संबंधों को गर्व से लाद रखा है। यद्यपि महंतों व गुरुओं की टोली ने यह चेतावनी दे रखी है कि जो भी उनके कहे पर नहीं चलेगाए उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। फिर भी सुषमा स्वराज और दूसरे मंत्री खूबसूरती से कह रहे हैं कि मुसलमान और दूसरे अल्पसंख्यक अभिषेक दिवस पर योग न करना चाहें तो यह उनकी मर्जी है. और उनका नुकसान भी। देखा जाए तो इस बहाने ष्कृपाष् बेमतलब हैए क्योंकि ष्सूर्य नमस्कारष् और ष्ओउम‍्ष् को लेकर छिड़ा विवाद ष्हमष् तथा ष्वोष् में नागरिकों को विभाजित करने के मूल उद‍्देश्य को पुख्ता कर ही चुका है। साफ है कि जो भी इसमें शामिल न होने का रास्ता चुनेगाए उसे बहुमत की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के कुकृत्य का फल भुगतने के लिए तैयार रहना होगा।
अल्पसंख्यकों को जबरदस्ती का एहसास होए इससे ज्यादा यह बहुमत की बाड़ेबंदी है कि हर लोकतांत्रिक आत्मा हतोत्साहित हो। इससे पहले कभी भी किसी सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर एक सामूहिक आयोजन करने के लिए सरकारी संसाधनों व शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया। अभी तक शायद एकमात्र गणतंत्र दिवस ही हैए जिसके समारोह में सरकार वर्दीधारी लोगों ;और स्कूली विद्यार्थियोंद्ध को शामिल होने के लिए कहती है। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण के लिए कुछ स्कूलों के बच्चे दर्शक दीर्घा में ;वाहवाही करने के लिएद्ध आमंत्रित किये जाते रहे हैं। लेकिन इस बार तो कैबिनेट सचिव से लेकर हर जिलाधीश तक ;खासकर भाजपा शासित राज्यों मेंद्ध को सख्ती से कार्यक्रम में शिरकत करने को कहा गया है। साथ ही सुनिश्चित करने को कहा गया है कि सेनाए अर्द्ध सैनिक बलों के संगठनोंए स्कूल व विश्वविद्यालयों और सामाजिक समूहों की 21 जून के कार्यक्रम में भागीदारी हो। यह भी कम विवाद का विषय नहीं है कि अपने व्यापक व्यापारिक हितों व राजनीतिक संबंधों के चलते विवादों में रहने वाले बाबा को राजपथ के आयोजन का सूत्रधार बनाया गया है।
इस मौके पर गहरी यौगिक सांस लेने व ध्यान करने की सलाह देने वाले सरकार द्वारा अधिकृत एचण्आरण् नगेंद्र ने आरएसएस के मुखपत्र ष्ऑर्गेनाइजरष् को बताया कि ष्इस दिन इस मौके पर एक ही समय तीस करोड़ लोग योग करेंगे।ष् संशय पैदा करने वाला यह आंकड़ा उत्तर कोरिया के उन तानाशाहों के लिए एक नसीहत हैए जो विशाल अनुशासित आयोजनों को बलपूर्वक करने की अपनी क्षमताओं पर बड़ा घमंड किया करते थे।
दरअसल ऐसे कर्मकांडी कार्यक्रमों के आयोजक खास मकसद के लिए ऐसे आयोजन करते हैं। अकसर यह विचार इस प्रवृत्ति का पोषण करने वाला होता है कि शासक व वर्ग विशेष के संबंधों व वफादारियों को गहरा रंग दिया जाए और अन्य को जोड़ा जाए। मसलन नौवें दशक में महासमागम आरती व नमाज के प्रतिस्पर्धी आयोजन हुएए जिसके अप्रिय परिणाम सामने आये तथा परिणति अलगाव के रूप में नजर आई। अब भारतीय शासन की शक्ित का प्रयोग लोगों को अनुसारक कार्य के लिए तैयार करने में किया जा रहा है।
हमें यह मानकर चलना चाहिए कि यह हुकूमत बखूबी जानती है कि कैसे विशाल भीड़ वाले आयोजनों को गढ़ा और क्रियान्वित किया जाए। देश ने पहली बार इस कौशल को तब देखाए जब नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान वाराणसी में रोड शो किया। टीवी चैनलों के प्रस्तोता व बुद्धिजीवी वर्ग संकरी गलियों में उमड़े जनसैलाब को देखकर मंत्रमुग्ध हुए। इस रोमांच ने टीवी चैनलों को निहाल किया। कई सप्ताह तक विश्लेषक.लेखक इस मोहपाश से मुक्त न हो सके। इस बार वाराणसी जैसे अंदाज में इसे देशव्यापी स्तर पर बड़े पैमाने में जनाकांक्षाओं एवं निहितार्थों के बीच किया जा रहा है।
अपेक्षित रूप से 21 जून की अतिरंजना को लेकर तार्किक आधार तैयार किया गया है। दरअसल सरकार चुपचापए लेकिन अधिकारपूर्वक नागरिकों के जीवन में हस्तक्षेप कर रही है। यह दावा परोपकार के मुलम्मे के साथ  आगे बढ़ाया जा रहा है कि उनका जीवन बेहतरए उन्नत और आदर्श शैली में ढलेगा। इसके पीछे तर्क यह है कि यह प्रकटतरू एक बेहतर श्रेष्ठ व आदर्श जीवनशैली के लिए हानि.रहित प्रयास है। जैसा कि ष्ऑर्गेनाइजरष् ने अपने संपादकीय में लिखा कि ष्21 जून का आयोजन एक उत्सव की तरह हैए जो प्राचीन ऋषि.मुनियों द्वारा बतायी गयी स्वस्थ व सद्भाव की जीवनशैली के अनुरूप है।ष् मामला राजपथ पर आलीशान ढंग से होने वाले आयोजन तक सीमित नहीं रह जाताए बल्कि हो.हल्ले के साथ मांग की जा रही है कि योग को स्कूल व विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाये।
दरअसल जबरन थोपी गई चीजें सदैव साथ में प्रतिकार को भी जन्म देती हैं। केंद्र में आसीन सत्ताधीश पहले भी हमारी निजी खान.पान की आदतों व पसंद में हस्तक्षेप की कोशिश कर चुके हैं। वास्तव में बड़ी विषय वस्तु को अमलीजामा पहनाने की कोशिशें की जा रही हैंए जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रणनीति का हिस्सा है। यह हमारे सांस्कृतिक संस्थानों में हस्तक्षेप की कोशिश है। हो सकता है कल कहा जाये कि हम खास किस्म की फिल्में देखेंए खास किस्म की किताबें पढ़ें तथा खास तरह का इतिहास पढ़ें और पढ़ायें। यह सब इस नयी गढ़ी सोच के साथ किया जा रहा है कि बहुसंख्यकों की भावना का सम्मान होना चाहिए।
साधारण से बाहर कुछ भी नहीं है। आखिरकारए संघ परिवार सदैव से ही संवैधानकि प्रावधानों के अनुरूप लोकतांत्रिक मान्यताओंए धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों तथा सर्वधर्म समभाव के दर्शन के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया अपनाता रहा है। वह सदैव से ही बहुसंख्यकों और उनकी धार्मिक मान्यताओं को सर्वोच्च बताते हुए उन्हें संवैधानिक प्रावधानों पर अधिमान देता रहा है। मोदी सरकार की कोशिश रही है कि बहुसंख्यकों की भावनाओं तथा आकांक्षाओं का दोहन किया जाये। इसे नये सिरे से परिभाषित की जा रही लोकतांत्रिक परिभाषाओं की तर्कसंगति में महसूस किया जा सकता है। इसी 21 जून की सामूहिक झांकी के पीछे मंशा हमें उसी नयी कथा के प्रति नरम होने के लिए तैयार करना है।

बीसवीं सदी का यूरोप का इतिहास हमें काफी कुछ सिखाता है। यह बताता है कि कैसे सत्ता में बने रहने के लिए शासक जनता को अनुशासन के सिद्धांत का सहारा लेकर भारी भीड़ वाले आयोजन करते रहे हैं। इसके जरिये वे जनता को भ्रमित करके उसके अधिकारों में ही कटौती करते रहे हैं और अपने एजेंडे को अमलीजामा पहनाते रहे हैं। न्यूरेमबर्ग की ऐतिहासिक रैली के दिनों में काल्पनिक परिदृश्य से जनता को भ्रमित करके उसे शासन से सवाल करने का अधिकार त्यागने के लिए भरमाया गया था।
देश पहले ही हर्ष के साथ प्रधानमंत्री के इर्द.गिर्द सत्तावादी व्यक्तिवाद को स्वीकार कर चुका है। राजपथ पर होने वाले सामूहिक आयोजन से उत्पन्न बेचैनी को इसके निहितार्थ के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतांत्रिक आयोजन से इतर किसी भी चीज को यह घातक मिश्रण आसानी से अपनी तरह ढाल सकता है।
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