Thursday, 30 April 2015

सामने आएं नेताजी से जुड़े सच

सामने आएं नेताजी से जुड़े सच
लगभग पंद्रह साल पहले एक बार मौका मिला था जापान जाने का। निमंत्रण जापान सरकार का था। कार्यक्रम तय करने से पहले उन्होंने जानना चाहा था कि यदि मैं किसी खास जगह जाना चाहूं तो उसे कार्यक्रम में जोड़ा जा सकता है। दो जगह बतायी थीं मैंने। मैंने उनसे कहा कि वे जहां ले जाना चाहेंए मैं तैयार हूंए पर दो स्थान मैं अवश्य देखना चाहूंगा। एक तो हिरोशिमा जहां मनुष्यता कलंकित हुई थीए और दूसरा रेंकोजी मंदिर जहां नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ष्अस्थियांष् रखी गयी हैं। मुझे बताया गया कि जापान जाने वाला हर भारतीय इस मंदिर में अवश्य जाना चाहता है। सचमुचए मैं उस मंदिर में एक तीर्थ.यात्रा का भाव लेकर ही गया था। जापान में मेरा पहला कार्यक्रम वहीं रखा गया था।
सवेरे.सवेरे हमए यानी मैं और मेरी गाइड वहां पहुंचने के लिए निकले थे। तब तक सड़कें खाली.खाली थींए बाज़ार बंद। मैंने कुछ फूल लेने की इच्छा जतायी। यह श्रद्धा.सुमन मैं उस व्यक्ति के अस्थि.कलश पर अर्पित करना चाहता था जो करोड़ों भारतीयों के दिल और दिमाग में तब तक मरा ही नहीं था। रेंकोजी मंदिर के बाहर ही नेताजी की एक प्रतिमा लगायी गयी है और भीतर जहां अस्थि.कलश रखा थाए वहां अगरबत्तियां जल रही थीं। सारे वातावरण में एक मीठी.मीठी शांति जैसी चुप्पी थी। मुझे लगा मैं एक ऐसी उपस्थिति को महसूस कर रहा हूं जो अपनेपन और आश्वस्ति का भाव लिये है। मैं समझ रहा था कि जो मैं अनुभव कर रहा हूंए वह यथार्थ नहीं हैए लेकिन मन पर बुद्धि की लगाम कब लगी हैघ्

वहां रखी अस्थियां नेताजी की हैं भी या नहींए यह तब भी विवाद का विषय थाए अब भी है। लेकिन इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति भारत की जनता में एक कमाल की श्रद्धा है। जवाहरलाल नेहरू ने कभी कहा थाए श्नेताजी के प्रति भारत के भावों की इससे बेहतर और क्या अभिव्यक्ति हो सकती है कि उनके निधन के बाद भी हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नेताजी हमारे बीच नहीं हैं।ष्ष्
नेताजी की मृत्यु से जुड़े विवाद से जरा हटकर बात करें। मैं जब उस मंदिर में पहुंचा था तो और कोई वहां था नहीं। मंदिर के प्रमुख संत ने मुझे बताया था कि 18 अगस्त 1945 को नेताजी की अस्थियां उस मंदिर में लायी गयी थीं। तब वर्तमान प्रमुख संत के पिता वहां प्रमुख थे। अस्थियां लायी तो गयी थीं अंतिम क्रियाओं के लिएए पर उन्होंने अस्थियां सुरक्षित रखने का निर्णय किया और तब से यह मंदिर नेताजी की अस्थियों का मंदिर बन गया। जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे जो 1957 में उस मंदिर में गये थे।
क्या नेहरू यह निश्चित करने गये थे कि अस्थियां नेताजी की ही हैंघ् जहां एक ओर नेताजी की मृत्यु को लेकर रहस्य बना रहाए वहीं इस तरह के आरोप भी लगते रहे कि नेहरू हमेशा आशंकित रहे कि कहीं सुभाष आ न जायें। इस संदर्भ में यह भी कहा जाता रहा कि नेहरू नहीं चाहते थे कि सुभाष भारत लौटेंय नेहरू की तुलना में नेताजी देश में कहीं अधिक लोकप्रिय थेय नेताजी यदि होते तो वे ही देश के पहले प्रधानमंत्री बनते३।
नेहरू और सुभाष के रिश्तों को लेकर अब एक नया विवाद देश में उठ खड़ा हुआ है। सच तो यह है कि इसी विवाद से मुझे रेंकोजी मंदिर की अपनी यात्रा की याद आयी। कुछ ही दिन पहले मीडिया में यह खबर छपी कि जवाहरलाल नेहरू और बाद की सरकार 1969 तक नेताजी के परिवार वालों की जासूसी करती रही थी। इस संदर्भ में कुछ गोपनीय दस्तावेजों के खुलासे की बात सामने आयी और यह मांग ज़ोर पकड़ने लगी है कि नेताजी से जुड़ी सभी गोपनीय फाइलों को अब जनता की जानकारी में आने देना चाहिए। इस तरह की मांग पहले भी होती रही हैए लेकिन सरकार वैदेशिक रिश्तों की दुहाई देकर इससे इनकार करती रही है। कांग्रेस के शासन.काल में तो विपक्ष यह कहता रहा कि सरकार नेताजी से जुड़ी गोपनीय सूचनाएं जानबूझकर उजागर नहीं करना चाहतीए वह पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू को बचाना चाहती है आदिए लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस बीच जब कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं रहीए तब भी इन फाइलों को गोपनीय ही माना गया। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन.काल में भी ये फाइलें उजागर नहीं की गयीं और अब भीए यानी मोदी सरकार के शासन.काल में भीए सरकार के एक मंत्री ने वही तर्क दिया जो कांग्रेस पार्टी की सरकारें देती रही थीं। सुना हैए अब प्रधानमंत्री मोदी इस विषय में फिर से सोच रहे हैं।
कारण चाहे कोई भी रहे होंए नेताजी के सम्बन्ध में यह गोपनीयता अब खत्म होनी ही चाहिए। दुनिया भर के देशों में एक समय.सीमा के बाद गोपनीय फाइलें उजागर कर दी जाती हैं। यदि इन फाइलों में ऐसा कुछ है भी जो कुछ देशों से हमारे सम्बन्धों पर असर डाल सकता है तो पारदर्शिता के लिए इस खतरे को भी उठा लेना चाहिए। चर्चिल ने गांधीजी के लिए क्या.क्या नहीं कहा थाए आज चर्चिल के उसी ब्रिटेन में वहां का प्रधानमंत्री गांधी की प्रतिमा का अनावरण करता है!
नेताजी सुभाषचंद्र बोस आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की पहली पंक्ति में थे। यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है कि गांधी के खुले विरोध के बावजूद वे दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे। यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है। और यह लोकप्रियता तब न जाने कितना गुना बढ़ गयी थी जब उन्होंने देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए आज़ाद हिंद फौज बनायी थी। देश की भावी पीढ़ी को उनके बारे में सब कुछ जानने का हक है। महात्मा गांधी को सबसे पहले राष्ट्रपिता कहने वाले और जवाहरलाल को अपना बड़ा भाई मानने वाले सुभाष किन मुद्दों पर इनसे भिन्न सोच रखते थेघ् मुसोलिनी या हिटलर के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण थाघ् क्या उन्होंने देश की आज़ादी के लिए जापान और जर्मनी का सहयोग पाया अथवा इन ताकतों ने अपने स्वार्थों के लिए सुभाष का लाभ उठायाघ् आने वाली पीढ़ी को इन और ऐसे सवालों के उत्तर चाहिए।
सुभाष की मृत्यु का विवाद भी अभी तक सुलझा नहीं है। राजनीतिक हितों के लिए ऐसे मुद्दों को उलझा कर रखना भी अनुचित है। अब तक की जांच के नतीजे तो यही कहते हैं कि हमें मान लेना चाहिए कि उस विमान.दुर्घटना के नेताजी शिकार हो गये थे। रेंकोजी मंदिर में रखी अस्थियां भी अब भारत आनी चाहिए। उस दिन मंदिर के प्रमुख पुजारी ने मुझसे कहा थाए ष्आप पत्रकार हैंए अपनी सरकार से कहिए यह अमानत ले जाये। मैं नहीं जानता मेरे बाद इन अस्थियों को यही सम्मान मिलता रहेगा अथवा नहीं।ष् पता नहीं वे पुजारी अब जीवित हैं अथवा नहीं। पर अब समय आ गया हैए हम जो हो चुका हैए उसे स्वीकारें। सुभाषचंद्र बोस को समझने का एक तरीका यह भी है। देश के आने वाले कल को समझने के लिए बीते हुए कल के उस पन्ने को पढ़ना ज़रूरी हैए तभी दृष्टि साफ होगी।


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