Thursday, 2 April 2015

कैसे मंदिर, कैसी मस्जिद



 कैसे मंदिर, कैसी मस्जिद 




नगर नया हो या पुराना, हर मोहल्ले या कालोनी की अपनी कुछ विशेषता होती है। मेरे एक मित्र ने दो साल पूर्व एक कॉलोनी में मकान लिया। कई बार उसने बुलाया, पर व्यस्तता के कारण जा नहीं सका लेकिन पिछले महीने दो दिन का समय निकाल कर मैं वहां गया और उसके घर पर ही रुका।
मकान और कॉलोनी का वातावरण ऐसा ही था, जैसा भारत में प्रायः होता है। उस कॉलोनी का नाम भी कुछ अच्छा सा ही है, पर मेरे मित्र ने बताया कि लोग हंसी में उसे 'धर्मक्षेत्र' कहते हैं, क्योंकि कॉलोनी की हर सड़क और गली में कोई धार्मिक स्थान जरूर है। आज से 50 साल पहले जब नगरपालिका ने यहां मकान बनाने के लिए भूखंड काटे, तब शासन−प्रशासन में कुछ समन्वयवादी लोग रहे होंगे। अतः उन्होंने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च के लिए भी स्थान छोड़ दिया। इसके बाद जिन लोगों ने काम संभाला, उन्होंने जैन और बौद्ध मंदिर, राधास्वामी, ब्रह्मकुमारी, सिंधी पंचायत तथा विट्ठल मंदिर... आदि के लिए भी जगह निकाल दी। वहां 90 प्रतिशत हिन्दू रहते हैं। इसलिए सभी मंदिर तो कॉलोनी के साथ ही बन गये पर बाकी धर्मस्थलों को बनने में समय लग गया और वहां पूजा करने लोग प्रायः बाहर से ही आते हैं। लेकिन इतने पर भी लोगों को चैन नहीं आया। एक गली में थोड़ी खाली जगह बची, तो लोगों ने वहां हनुमान जी को बैठा दिया। यह देखकर दूसरी गली वालों ने उत्साहित होकर काली माता को रखवाली पर खड़ा कर दिया। बाकी गलियां भी अन्य देवी−देवताओं ने संभाल लीं। इससे और कुछ तो नहीं पर सुबह−शाम पूजा के नाम पर कुछ परिवार जरूर पलने लगे। कॉलोनी बनाने वाले मिस्त्री−मजदूरों में जो मुसलमान थे, उन्होंने भी चार ईंटें जोड़कर 'दरगाह' बना दी। अब वह भी खूब बड़ी हो गयी है। एक बंगाली बाबा उसकी देखभाल करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि वह बंगलादेशी हैं। नगरपालिका ने कॉलोनी बनाकर आंखें मूंद लीं। अब कैसे रहना है, यह वहां के लोग जानें।
सुबह यों तो जल्दी उठने का स्वभाव ही है, पर यहां आंख खुली लाउडस्पीकरों के शोर से। पता लगा कि प्रायः सभी धर्मस्थलों पर बड़े−बड़े भोंपू लगे हैं। कहीं भजन का शोर है, तो कहीं अजान का। कहीं गुरुवाणी तो कहीं कुछ और। यानि सुबह का प्रारम्भ ही अशांति और शोर से हुआ। उठकर हम दोनों मित्र घूमने निकल पड़े।
इस भ्रमण के दौरान ध्यान में आया कि धर्मस्थलों की बहुतायत होने के बावजूद अन्य मोहल्ले और कॉलोनियों की तरह यहां भी सर्वत्र गंदगी का साम्राज्य था। नगरपालिका की ओर से सभी गलियों में कूड़ेदान रखे गये थे पर जितनी गंदगी उनके अंदर थी, उससे कई गुना बाहर बिखरी थी। बासी खाद्य सामग्री से लेकर पुराने कपड़े और घरेलू कूड़ा आदि सब वहां था। कुछ गाय उसमें भोजन ढूंढ रही थीं। दुर्गन्ध के कारण वहां से निकलने वाले सब लोग नाक पर रूमाल रख रहे थे। हमने भी ऐसा ही किया और आगे बढ़ गये। घूमते हुए हम बड़े मंदिर के सामने से निकले। वहां पेड़ के नीचे टूटी मूर्तियों और देवी−देवताओं के चित्र वाले फटे−पुराने कैलेंडरों की भरमार थी। कुछ रोटी और प्रसाद भी बिखरा था, जिसमें कौए और कुत्ते मुंह मार रहे थे। पेड़ पर मन्नत वाली चुनरियां और धागे भी बंधे थे। हमने मंदिर में जाकर सिर झुकाया। पुजारी से इस बारे में चर्चा हुई कि आसपास की सफाई में मंदिर की क्या भूमिका हो सकती है, तो वह मुझे ऐसे देखने लगा मानो मैं किसी दूसरे ग्रह से आया हूं। फिर वह बोला कि उसकी जिम्मेदारी मंदिर में भोग, आरती और पूजा तक सीमित है। लोग उसे यज्ञ, पूजा, विवाह, नामकरण आदि के लिए घर पर भी बुलाते हैं। इसी से उसके बच्चे पलते हैं। मंदिर के बाहर क्या होता है, उसे इससे कोई मतलब नहीं है।
हम दूसरी सड़क पर गये, तो वहां भी यही माहौल था। मजार वाले बाबा ने आसपास का कूड़ा समेटकर सड़क के दूसरी ओर डाल दिया था। एक धर्मस्थल के बाहर बहुत से लोग सफाई में जुटे थे। उनके चेहरे और वस्त्र देखकर लग रहा था कि ये लोग सम्पन्न घरों के हैं। उनकी आस्था देखकर मन को बहुत अच्छा लगा। मैंने एक से पूछा कि क्या आप अपने मोहल्ले की सफाई भी ऐसे ही करते हैं, तो वे लाल−पीले होकर बोले, ''गली साफ करना सरकार का काम है। यहां तो हम सेवा कर रहे हैं।''
दिन में हम बाजार गये, तो वहां महिलाओं के गले से चेन खींचने वाले गिरोह की गिरफ्तारी की चर्चा हो रही थी। गिरोह के दो युवक इसी कॉलोनी के थे। लोग हैरान थे कि शिक्षित और समृद्ध घर के बच्चे चोर कैसे बन गये? रात को खाने के बाद हम फिर बाहर निकले। इस बार जिस ओर गये, वहां शराब की दुकान पर खूब भीड़ थी। दुकान के पास ही एक राजकीय विद्यालय भी था, जिस पर लगा बोर्ड कह रहा कि यहां से सौ मीटर की परिधि में बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला आदि नशीले पदार्थ बेचना मना है। गली में प्रकाश बहुत कम था। कुछ लोग अपनी कार में, तो कुछ वहां खड़ी छोटी बसों के पीछे बैठे पी रहे थे। खाली बोतल की प्रतीक्षा में कई निर्धन लड़के और लड़कियां भी वहां मंडरा रहे थे। मैंने सोचा कि यदि किसी नरपशु ने इन लड़कियों में से किसी को खींच लिया तो..? मेरे मित्र ने बताया कि ऐसी दुर्घटना एक बार हो भी चुकी है। उसके बाद कई बार पुलिस−प्रशासन को मिलकर तथा लिखित में भी आग्रह किया, पर शराब की दुकान नहीं हटी। दो दिन में ऐसी कई घटनाओं का मैं साक्षी बना। मैं सोचने लगा कि यदि वातावरण में कोई सार्थक परिवर्तन न हो, तो मंदिर, मस्जिद आदि के होने से क्या लाभ है? क्या पुजारी, ग्रन्थी या मुल्ला का काम केवल धन कमाना ही है? यदि ऐसा है, तो फिर धर्मस्थान और दुकान में क्या अंतर है? क्या इन लोगों को सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय नहीं होना चाहिए, समाज जिसके योगक्षेम की चिन्ता कर रहा है, क्या उसका कर्तव्य समाज के सुख−दुख की चिन्ता करना नहीं है? पुजारी और प्रबन्ध समिति के लोग चाहें, तो इन धर्मस्थानों का उपयोग समाजहित तथा नयी पीढ़ी को संस्कार देने में भी हो सकता है और यदि ऐसा नहीं है, तो उसे धर्मस्थान कहें या...?



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