भूकंपरोधी निर्माण में ही है बचाव
वर्ष 2001 में गुजरात के भुज और इधर नेपाल समेत भारत.तिब्बत में आए भूकंप में समानता सिर्फ यह नहीं है कि यहां आए पहले झटकों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7ण्9 थीए बल्कि यह भी है कि इन सभी जगहों पर हुए आधे.अधूरे विकास और खराब निर्माण की वजह से ही हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। नेपाल के भूकंप का असर कई उत्तर भारतीय राज्यों में भी हुआ और वहां भी कच्ची नींवों पर खड़ी जर्जर इमारतें भूकंप को सह नहीं पाईं और ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह गईं। यह असल में आपराधिक स्तर की लापरवाही है जिसने बाढ़ए भूकंप जैसी प्राकृतिक और कई मायनो में स्वाभाविक प्राकृतिक आपदाओं के आगे इनसान को कमजोर साबित किया हैए पर इनसे सबक लेने की कोई पुरजोर कोशिश अब तक नहीं दिखाई दी है।
सदियों से निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही पृथ्वी की भूगर्भीय संरचनाओं में चल रहे सतत परिवर्तन भूकंप पैदा करते हैं। अनुमान है कि हर साल पृथ्वी पर करीब दस करोड़ भूकंप आते हैं। इनमें से ज्यादातर यानी 98 फीसदी समुद्रतल में आते हैं। दो से तीन फीसदी भूकंप जमीन पर आते हैं और इनमें से करीब सौ भूकंपों को ही हर साल रिक्टर पैमाने पर दर्ज किया जाता है। इनमें से हमारा ज्यादा वास्ता हिमालय क्षेत्र में आने वाले भूकंपों से पड़ता है। असल मेंए जमीन के भीतर भारतीय और यूरेशिया प्लेटों की आपसी टकराहट ने पूरे हिमालयी क्षेत्र को भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले इलाके में तबदील कर रखा है। भूगर्भ शास्त्रियों के मुताबिक ये प्लेटें प्रति वर्ष एक.दूसरे से टकराते हुए धंस रही हैंए जिससे हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में ऊर्जा जमा हो गई है। भूगर्भवेत्ताओं के मुताबिक लाखों साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप का विशाल भूखंड एशियाई भूभाग से आ भिड़ा था। इस भूगर्भीय घटना के कारण ही हिमालय का जन्म हुआ था और इसी कारण उपमहाद्वीप की नींव में मौजूद विशालकाय चट्टानों में लचक आ गई थी। इस लचक और आंतरिक चट्टानों पर पड़ते सतत दबाव के कारण हिमालय की पर्वत शृंखलाओं के निचले तलों में अचानक किसी भी वक्त खिसकन की आशंका जताई जाती रही है।
भूगर्भ विज्ञानी दावा करते हैं कि आंतरिक विचलनों के कारण मध्य हिमालय की भूगर्भीय संरचनाओं में दबाव पैदा हो गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र का भीतरी भूभाग कुल 13 सेंटीमीटर से ज्यादा का दबाव सहन नहीं कर सकता। इसीलिए दबाव से पैदा होकर चट्टानों से उत्पन्न हुई घनीभूत ऊर्जा धरती के भीतर से फूट कर बाहर निकलने को तैयार बैठी है। इसी कारण हिमालयी इलाकों में लगभग नौ की तीव्रता तक के भूकंप की आशंका बनी रहती है।
ऐसा एक अध्ययन अमेरिका के कोलराडो विश्वविद्यालय के भूविज्ञानियों. रोजर विल्मए पीटर मोलनार और बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर एस्ट्रोफिजिक्स के विनोद गौड़ कर चुके हैं। इस टीम ने भी भारतए नेपालए बांग्लादेशए भूटान और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र में तेज भूकंप आने और करीब पांच करोड़ लोगों पर उसका असर पड़ने की घोषणा कर रखी है। दो साल पहले विनाशकारी बारिश का प्रकोप झेल चुके देश के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में बड़े भूकंप की आशंका तो गृह मंत्रालय का आपदा प्रबंधन विभाग भी जता चुका है। इस विभाग ने नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के तीन साल के अध्ययन का हवाला देकर कहा था कि उत्तराखंड की पहाड़ियों पर काफी अलग.अलग ढंग की ढांचागत संरचनाएं मिली हैं जिनसे इस पूरे इलाके की जमीन के भीतर भारी मात्रा में ऊर्जा जमा होने की संभावना है। वर्षों से जमा यह ऊर्जा जब एक झटके में बाहर निकलने का प्रयास करेगी तो उत्तराखंड समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में भारी भूकंप आ सकता है।
भूकंप जापानए अमेरिकाए कनाडाए ऑस्ट्रेलिया में भी आते हैंए लेकिन वहां ऐसे विनाश के समाचार नहीं मिलते। जापान तो भूकंप से सबसे ज्यादा पीड़ित देशों में हैए लेकिन हादसों की बारम्बारता से सबक लेकर वहां न केवल मजबूत और भूकंपरोधी इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया गया हैए बल्कि समय.समय पर लोगों को दैवीय आपदाओं के वक्त किए जाने वाले उपायों की जानकारी भी असरदार तरीके से दी जाती है। इसके बरअक्स नेपाल.भारत जैसे देशों को देखें तो यहां आज भी पुरानी जर्जर इमारतों में लाखों.करोड़ों लोग भूकंप की परवाह किए बगैर रह रहे हैं।
देश में शहरीकरण के नाम पर जैसा अनियोजित और अनियंत्रित विकास हो रहा हैए वह एक गंभीर मर्ज बन चुका है। दिल्ली और उसके आसपास के राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में तो ऐसी सैकड़ों बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैंए जिन्हें साधारण शक्ति वाला भूकंप कभी भी ढहा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र का आशय सिर्फ उत्तरांचलए हिमाचल प्रदेशए जम्मू.कश्मीर से ही नहीं हैए बल्कि इसमें दिल्लीए उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे विशाल आबादी वाले उत्तर भारत के अनेक राज्य शामिल किए जा सकते हैं। दिल्ली और एनसीआर के इर्दगिर्द जमीन के नीचे जो फॉल्ट लाइंस मौजूद हैंए वे देश की राजधानी को भी संवेदनशील इलाके में ला देते हैं। हमारे यहां भूकंप से बचाव की तैयारियों का आलम यह है कि गुजरात और उत्तरकाशी जैसे अनुभव के बाद भी भूकंप से पूर्णतया सुरक्षित इमारतों के निर्माण की ठोस पहल सिरे से नदारद है। यही आलम आपदाओं से खुद बचाव के वास्ते शिक्षण और भविष्यवाणी का ठोस मैकेनिज्म बनाने में नजर आता है।
कहने को तो 1992 में केंद्र सरकार ने नौ करोड़ रुपये खर्च करके प्राकृतिक आपदा प्रबंधन कार्यक्रम की शुरुआत भी कर दी थी और इसके तहत हर साल दर्जनों आयोजन करके व्यापक स्तर पर जनजागरूकता का कार्यक्रम भी चलाया जाता हैए पर अब तक का हासिल यह है कि कुछ ही राज्यों ने भूकंप जैसी आपदा से निपटने की चंद तैयारियां की हैं। यही हाल भूकंप की पूर्व सूचना का है। यूं इस मामले में देसी.विदेशी वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं। सीस्मोलॉजिस्ट यानी भूकंपवेत्ता धरती की भीतरी चट्टानों की चालए अंदरूनी फाल्ट लाइनों की बढ़वार और ज्वालामुखियों से निकल रही गैसों के दबाव पर नजर रखकर पूर्वानुमान लगाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस बार मौसमी उपग्रहों से मिले चित्रों के आधार पर नेपाल के बड़े भूभाग से रेडॉन गैसों की बड़ी मात्रा निकलने की बात कही गई थीए पर इन सूचनाओं का विश्लेषण कर भूकंप की चेतावनी जारी नहीं की जा सकी। इससे साबित होता है कि दैवीय आपदाओं का समय पर पता लगाकर उनकी सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने और उन्हें सतर्क करने वाले सिस्टम दोषपूर्ण हैं। ध्यान रहे कि भूकंप हमें गलतियों को सुधारने का मौका नहीं देताए इसलिए सरकार और जनता को खुद पहल करके भूकंप से बचाव का ठोस जतन करना होगा।
वर्ष 2001 में गुजरात के भुज और इधर नेपाल समेत भारत.तिब्बत में आए भूकंप में समानता सिर्फ यह नहीं है कि यहां आए पहले झटकों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7ण्9 थीए बल्कि यह भी है कि इन सभी जगहों पर हुए आधे.अधूरे विकास और खराब निर्माण की वजह से ही हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। नेपाल के भूकंप का असर कई उत्तर भारतीय राज्यों में भी हुआ और वहां भी कच्ची नींवों पर खड़ी जर्जर इमारतें भूकंप को सह नहीं पाईं और ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह गईं। यह असल में आपराधिक स्तर की लापरवाही है जिसने बाढ़ए भूकंप जैसी प्राकृतिक और कई मायनो में स्वाभाविक प्राकृतिक आपदाओं के आगे इनसान को कमजोर साबित किया हैए पर इनसे सबक लेने की कोई पुरजोर कोशिश अब तक नहीं दिखाई दी है।
सदियों से निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही पृथ्वी की भूगर्भीय संरचनाओं में चल रहे सतत परिवर्तन भूकंप पैदा करते हैं। अनुमान है कि हर साल पृथ्वी पर करीब दस करोड़ भूकंप आते हैं। इनमें से ज्यादातर यानी 98 फीसदी समुद्रतल में आते हैं। दो से तीन फीसदी भूकंप जमीन पर आते हैं और इनमें से करीब सौ भूकंपों को ही हर साल रिक्टर पैमाने पर दर्ज किया जाता है। इनमें से हमारा ज्यादा वास्ता हिमालय क्षेत्र में आने वाले भूकंपों से पड़ता है। असल मेंए जमीन के भीतर भारतीय और यूरेशिया प्लेटों की आपसी टकराहट ने पूरे हिमालयी क्षेत्र को भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले इलाके में तबदील कर रखा है। भूगर्भ शास्त्रियों के मुताबिक ये प्लेटें प्रति वर्ष एक.दूसरे से टकराते हुए धंस रही हैंए जिससे हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में ऊर्जा जमा हो गई है। भूगर्भवेत्ताओं के मुताबिक लाखों साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप का विशाल भूखंड एशियाई भूभाग से आ भिड़ा था। इस भूगर्भीय घटना के कारण ही हिमालय का जन्म हुआ था और इसी कारण उपमहाद्वीप की नींव में मौजूद विशालकाय चट्टानों में लचक आ गई थी। इस लचक और आंतरिक चट्टानों पर पड़ते सतत दबाव के कारण हिमालय की पर्वत शृंखलाओं के निचले तलों में अचानक किसी भी वक्त खिसकन की आशंका जताई जाती रही है।
भूगर्भ विज्ञानी दावा करते हैं कि आंतरिक विचलनों के कारण मध्य हिमालय की भूगर्भीय संरचनाओं में दबाव पैदा हो गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र का भीतरी भूभाग कुल 13 सेंटीमीटर से ज्यादा का दबाव सहन नहीं कर सकता। इसीलिए दबाव से पैदा होकर चट्टानों से उत्पन्न हुई घनीभूत ऊर्जा धरती के भीतर से फूट कर बाहर निकलने को तैयार बैठी है। इसी कारण हिमालयी इलाकों में लगभग नौ की तीव्रता तक के भूकंप की आशंका बनी रहती है।
ऐसा एक अध्ययन अमेरिका के कोलराडो विश्वविद्यालय के भूविज्ञानियों. रोजर विल्मए पीटर मोलनार और बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर एस्ट्रोफिजिक्स के विनोद गौड़ कर चुके हैं। इस टीम ने भी भारतए नेपालए बांग्लादेशए भूटान और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र में तेज भूकंप आने और करीब पांच करोड़ लोगों पर उसका असर पड़ने की घोषणा कर रखी है। दो साल पहले विनाशकारी बारिश का प्रकोप झेल चुके देश के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में बड़े भूकंप की आशंका तो गृह मंत्रालय का आपदा प्रबंधन विभाग भी जता चुका है। इस विभाग ने नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के तीन साल के अध्ययन का हवाला देकर कहा था कि उत्तराखंड की पहाड़ियों पर काफी अलग.अलग ढंग की ढांचागत संरचनाएं मिली हैं जिनसे इस पूरे इलाके की जमीन के भीतर भारी मात्रा में ऊर्जा जमा होने की संभावना है। वर्षों से जमा यह ऊर्जा जब एक झटके में बाहर निकलने का प्रयास करेगी तो उत्तराखंड समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में भारी भूकंप आ सकता है।
भूकंप जापानए अमेरिकाए कनाडाए ऑस्ट्रेलिया में भी आते हैंए लेकिन वहां ऐसे विनाश के समाचार नहीं मिलते। जापान तो भूकंप से सबसे ज्यादा पीड़ित देशों में हैए लेकिन हादसों की बारम्बारता से सबक लेकर वहां न केवल मजबूत और भूकंपरोधी इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया गया हैए बल्कि समय.समय पर लोगों को दैवीय आपदाओं के वक्त किए जाने वाले उपायों की जानकारी भी असरदार तरीके से दी जाती है। इसके बरअक्स नेपाल.भारत जैसे देशों को देखें तो यहां आज भी पुरानी जर्जर इमारतों में लाखों.करोड़ों लोग भूकंप की परवाह किए बगैर रह रहे हैं।
देश में शहरीकरण के नाम पर जैसा अनियोजित और अनियंत्रित विकास हो रहा हैए वह एक गंभीर मर्ज बन चुका है। दिल्ली और उसके आसपास के राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में तो ऐसी सैकड़ों बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैंए जिन्हें साधारण शक्ति वाला भूकंप कभी भी ढहा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र का आशय सिर्फ उत्तरांचलए हिमाचल प्रदेशए जम्मू.कश्मीर से ही नहीं हैए बल्कि इसमें दिल्लीए उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे विशाल आबादी वाले उत्तर भारत के अनेक राज्य शामिल किए जा सकते हैं। दिल्ली और एनसीआर के इर्दगिर्द जमीन के नीचे जो फॉल्ट लाइंस मौजूद हैंए वे देश की राजधानी को भी संवेदनशील इलाके में ला देते हैं। हमारे यहां भूकंप से बचाव की तैयारियों का आलम यह है कि गुजरात और उत्तरकाशी जैसे अनुभव के बाद भी भूकंप से पूर्णतया सुरक्षित इमारतों के निर्माण की ठोस पहल सिरे से नदारद है। यही आलम आपदाओं से खुद बचाव के वास्ते शिक्षण और भविष्यवाणी का ठोस मैकेनिज्म बनाने में नजर आता है।
कहने को तो 1992 में केंद्र सरकार ने नौ करोड़ रुपये खर्च करके प्राकृतिक आपदा प्रबंधन कार्यक्रम की शुरुआत भी कर दी थी और इसके तहत हर साल दर्जनों आयोजन करके व्यापक स्तर पर जनजागरूकता का कार्यक्रम भी चलाया जाता हैए पर अब तक का हासिल यह है कि कुछ ही राज्यों ने भूकंप जैसी आपदा से निपटने की चंद तैयारियां की हैं। यही हाल भूकंप की पूर्व सूचना का है। यूं इस मामले में देसी.विदेशी वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं। सीस्मोलॉजिस्ट यानी भूकंपवेत्ता धरती की भीतरी चट्टानों की चालए अंदरूनी फाल्ट लाइनों की बढ़वार और ज्वालामुखियों से निकल रही गैसों के दबाव पर नजर रखकर पूर्वानुमान लगाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस बार मौसमी उपग्रहों से मिले चित्रों के आधार पर नेपाल के बड़े भूभाग से रेडॉन गैसों की बड़ी मात्रा निकलने की बात कही गई थीए पर इन सूचनाओं का विश्लेषण कर भूकंप की चेतावनी जारी नहीं की जा सकी। इससे साबित होता है कि दैवीय आपदाओं का समय पर पता लगाकर उनकी सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने और उन्हें सतर्क करने वाले सिस्टम दोषपूर्ण हैं। ध्यान रहे कि भूकंप हमें गलतियों को सुधारने का मौका नहीं देताए इसलिए सरकार और जनता को खुद पहल करके भूकंप से बचाव का ठोस जतन करना होगा।
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