नीति ठीक नहीं और नीयत भी
पांच साल हो गये देश में शिक्षा के अधिकार कानून को लागू हुए। इस कानून के अनुसार 31 मार्च 2013 तक देश के हर बच्चे को स्कूल में होना चाहिए थाए हर स्कूल में उचित संख्या में प्रशिक्षित अध्यापक होने चाहिए थेए हर स्कूल की चारदीवारी होनी चाहिए थीए बच्चों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था होनी चाहिए थीए छात्र.छात्राओं के लिए हर स्कूल में शौचालयों की व्यवस्था होनी चाहिए थी३ लेकिन आज की तारीख तक इनमें से एक भी काम पूरा नहीं हुआ है! इस स्थिति को क्या नाम देंगे आपघ् संसाधनों की कमी का परिणाम अथवा कानून लागू करने के लिए जिम्मेदार लोगों की अापराधिक उपेक्षा का परिणामघ् व्यवस्था और सरकार कुछ भी कहती रहेए लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में आज जो अराजकता.सी बनी हुई हैए उसके लिए दोषी हमारी नीति भी है और नीयत भी। आज की हकीकत यह है कि देश के छह से चौदह वर्ष आयु के लगभग बीस करोड़ बच्चों में से साढ़े तीन करोड़ बच्चे स्कूलों के बाहर हैं। देश के कुछ स्कूलों में से आधे स्कूलों में भी लड़कियों और लड़कों के लिए पृथक शौचालय नहीं है। एक.तिहाई स्कूलों में पीने के स्वच्छ पानी की व्यवस्था नहीं है। दो.तिहाई स्कूलों में शिक्षा के अधिकार में वर्णित खेल.सामग्री नहीं है। देश में अध्यापकों के 12 लाख से अधिक स्थान रिक्त पड़े हैं। चौथी.पांचवीं तक आते.आते दस से बीस प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। बिहार में ऐसे बच्चों की संख्या 12ण्75 प्रतिशत है और उत्तर प्रदेश में 22ण्52 प्रतिशत। यह सारे आंकड़े ष्असरष् संस्था द्वारा सन् 2014 में किये गये सर्वेक्षण का परिणाम हैं। ष्असरष् हर साल इस तरह का सर्वेक्षण करता हैए हर साल ऐसे तथ्य सामने आते हैंए हर साल इस संदर्भ में बुलबुले.से उठते हैंए और फिर फूट जाते हैं। असरशिक्षा के स्तर के बारे में भी सर्वेक्षण करता है। सन् 2014 के सर्वेक्षण में बिहार में पांचवीं कक्षा के 51ण्9 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा में पढ़ायी जाने वाली किताब को भी ठीक से नहीं पढ़ पा रहे थेए राजस्थान में यह संख्या 53ण्3 प्रतिशत थी और उत्तर प्रदेश में 55ण्3 प्रतिशत। लगभग ऐसी ही स्थिति देश भर में उन स्कूलों में थीए जिनके माध्यम से हम देश के हर बच्चे को शिक्षा देने की स्थिति में पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा की दृष्टि से केरल हमारे देश का शायद सर्वाधिक उन्नत प्रदेश है। ष्असरष् की इस रिपोर्ट के अनुसार केरल में भी पांचवीं में पढ़ने वाले लगभग एक.तिहाई बच्चे ;33ण्2 प्रतिशतद्ध दूसरी कक्षा की किताबें ढंग से नहीं पढ़ पा रहे थे!पिछले साल विश्व.बैंक ने भी ष्दक्षिण एशियाई देशों में ज्ञानष् शीर्षक के अंतर्गत एक सर्वेक्षण किया था और उसका निष्कर्ष यह था कि भारत समेत दक्षिण एशियाई देशों में कक्षा पांच में पढ़ने वाले विद्यार्थी न ककहरा पूरी तरह से जानते हैं और न ही उन्हें दो अंकों का जोड़.घटाना ही ठीक तरह से आता है। विश्व बैंक के सर्वेक्षण में यह भी पाया गया था कि प्राथमिक शालाओं में पढ़ाने वाले.अध्यापक भी वह सब नहीं जानते थे जो उन्हें जानना चाहिए था! अपनी इस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि दक्षिण एशिया के देश शिक्षा पर खर्च तो कर रहे हैंए लेकिन शिक्षण की गुणवत्ता खराब होने के कारण इन देशों का आर्थिक विकास ही अवरुद्ध नहीं हो रहाए बल्कि युवाओं में बेरोजगारी भी बढ़ रही है। यह बेरोजगारी गरीबी को पालती है और यह गरीबी देश को पिछड़ा बनाती है।स्वैच्छिक संगठनों के इस तरह के सर्वेक्षणों से हम आखिर क्या सीख रहे हैंघ् सच तो यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में हमारी सरकारें दावे तो लगातार करती रही हैंए पर सारी कथित कोशिशों का परिणाम निराशाजनक ही रहा है। सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार जैसे बहुप्रचारित कदमों के बावजूद देश को शिक्षित बनाने जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में हम लड़खड़ाते हुए ही आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि सवाल यह भी उठता है कि इसे आगे बढ़ना भी कहा जा सकता है अथवा नहीं। आज हमारे सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 2ण्2 प्रतिशत ही हम शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं और इतना भी खर्च किस तरह से हो रहा हैए उसका अंदाज़ा परिणामों से लगाया जा सकता है। हम अपने बच्चों को न सही शिक्षा दे रहे हैंए न सही शिक्षक और न ही शिक्षा के लिए सही वातावरण।यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार 14 वर्ष तक के बीस प्रतिशत बच्चे स्कूलों में पढ़ने नहीं जा रहे। क ख ग सीखने की उम्र में इन बच्चों को झाड़ू लगाना और बर्तन मांजना सीखना पड़ता है। और जो स्कूल जा रहे हैंए उनके ज्ञान का नमूना भी हमने देख लिया है। देश की राजधानी दिल्ली से 40 किलोमीटर दूर के एक कस्बे में तीसरी कक्षा के एक.तिहाई बच्चे अपनी मातृभाषा भी नहीं पढ़ पा रहे थे! ष्असरष् नामक स्वैच्छिक संगठन पिछले पांच वर्ष से लगातार सर्वेक्षण कर रहा है। लगातार हकीकत सामने ला रहा है। जब भी ऐसी कोई रिपोर्ट आती हैए थोड़ी सुगबुगाहट होती है और फिर सब पुराने ही ढर्रे पर चलने लगता है। इन रिपोर्टों को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल नहीं हैए ऐसे संगठनों को भी ष्पांच सितारा एक्टिविस्टष् कहकर उनकी उपेक्षा की जा सकती हैए लेकिन प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में हो रही अनदेखी और उपेक्षा हमारे समूचे भविष्य पर एक सवालिया निशान लगा रही है।कितने छात्रए कितने स्कूलए कितने अध्यापक से अधिक महत्वपूर्ण सवाल कैसे छात्रए कैसे स्कूल और कैसे अध्यापक है। आज देश में प्रति छात्र प्रति वर्ष साढ़े चार हज़ार रुपये खर्च हो रहा है। सवाल यह नहीं है कि यह राशि पर्याप्त है या नहीं। सवाल यह है कि इस व्यय का परिणाम क्या निकल रहा है। हमारी सरकारें कहीं लैपटॉप बांट रही हैंए कहीं साइकिलेंए लेकिन सवाल यह है कि लैपटॉप से हम बच्चों को सिखा क्या रहे हैं और साइकिलों से जिन स्कूलों में पहुंचा रहे हैंए उन स्कूलों में कैसी व्यवस्था दे रहे हैं हम शिक्षा के लिए। विश्व बैंक या ष्असरष् या यूनेस्को के सर्वेक्षण हमारे लिए आंख खोलने वाले होने चाहिए। पांचवीं का बच्चा क्या पढ़ रहा हैए यह महत्वपूर्ण हैए लेकिन यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं कि वह दूसरी कक्षा की किताब क्यों नहीं पढ़ पा रहा। अध्यापक क्या सिखा रहे हैंए यह महत्वपूर्ण हैए लेकिन यह कम महत्वपूर्ण नहीं कि वे खुद क्या कुछ सीखे हुए हैं। शिक्षा का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैए लेकिन यह उससे अधिक महत्वपूर्ण है कि इस अधिकार का उपयोग कैसा हो रहा है।बरसों पहले एक विज्ञापन आया करता था दूरदर्शन पर.एक ग्रामीण महिला अपना नाम लिखना सीखती हुई दिखाई गयी थी। पिछले ही साल बिहार के एक गांव में पांचवीं कक्षा के 95 में से 91 विद्यार्थियों ने छात्रवृत्ति के लिए आवेदन देते समय अपना नाम ग़लत लिखा था! हमारी प्राथमिक शिक्षा की अराजक और शोचनीय स्थिति पर इससे सटीक टिप्पणी और क्या हो सकती हैघ्
पांच साल हो गये देश में शिक्षा के अधिकार कानून को लागू हुए। इस कानून के अनुसार 31 मार्च 2013 तक देश के हर बच्चे को स्कूल में होना चाहिए थाए हर स्कूल में उचित संख्या में प्रशिक्षित अध्यापक होने चाहिए थेए हर स्कूल की चारदीवारी होनी चाहिए थीए बच्चों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था होनी चाहिए थीए छात्र.छात्राओं के लिए हर स्कूल में शौचालयों की व्यवस्था होनी चाहिए थी३ लेकिन आज की तारीख तक इनमें से एक भी काम पूरा नहीं हुआ है! इस स्थिति को क्या नाम देंगे आपघ् संसाधनों की कमी का परिणाम अथवा कानून लागू करने के लिए जिम्मेदार लोगों की अापराधिक उपेक्षा का परिणामघ् व्यवस्था और सरकार कुछ भी कहती रहेए लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में आज जो अराजकता.सी बनी हुई हैए उसके लिए दोषी हमारी नीति भी है और नीयत भी। आज की हकीकत यह है कि देश के छह से चौदह वर्ष आयु के लगभग बीस करोड़ बच्चों में से साढ़े तीन करोड़ बच्चे स्कूलों के बाहर हैं। देश के कुछ स्कूलों में से आधे स्कूलों में भी लड़कियों और लड़कों के लिए पृथक शौचालय नहीं है। एक.तिहाई स्कूलों में पीने के स्वच्छ पानी की व्यवस्था नहीं है। दो.तिहाई स्कूलों में शिक्षा के अधिकार में वर्णित खेल.सामग्री नहीं है। देश में अध्यापकों के 12 लाख से अधिक स्थान रिक्त पड़े हैं। चौथी.पांचवीं तक आते.आते दस से बीस प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। बिहार में ऐसे बच्चों की संख्या 12ण्75 प्रतिशत है और उत्तर प्रदेश में 22ण्52 प्रतिशत। यह सारे आंकड़े ष्असरष् संस्था द्वारा सन् 2014 में किये गये सर्वेक्षण का परिणाम हैं। ष्असरष् हर साल इस तरह का सर्वेक्षण करता हैए हर साल ऐसे तथ्य सामने आते हैंए हर साल इस संदर्भ में बुलबुले.से उठते हैंए और फिर फूट जाते हैं। असरशिक्षा के स्तर के बारे में भी सर्वेक्षण करता है। सन् 2014 के सर्वेक्षण में बिहार में पांचवीं कक्षा के 51ण्9 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा में पढ़ायी जाने वाली किताब को भी ठीक से नहीं पढ़ पा रहे थेए राजस्थान में यह संख्या 53ण्3 प्रतिशत थी और उत्तर प्रदेश में 55ण्3 प्रतिशत। लगभग ऐसी ही स्थिति देश भर में उन स्कूलों में थीए जिनके माध्यम से हम देश के हर बच्चे को शिक्षा देने की स्थिति में पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। शिक्षा की दृष्टि से केरल हमारे देश का शायद सर्वाधिक उन्नत प्रदेश है। ष्असरष् की इस रिपोर्ट के अनुसार केरल में भी पांचवीं में पढ़ने वाले लगभग एक.तिहाई बच्चे ;33ण्2 प्रतिशतद्ध दूसरी कक्षा की किताबें ढंग से नहीं पढ़ पा रहे थे!पिछले साल विश्व.बैंक ने भी ष्दक्षिण एशियाई देशों में ज्ञानष् शीर्षक के अंतर्गत एक सर्वेक्षण किया था और उसका निष्कर्ष यह था कि भारत समेत दक्षिण एशियाई देशों में कक्षा पांच में पढ़ने वाले विद्यार्थी न ककहरा पूरी तरह से जानते हैं और न ही उन्हें दो अंकों का जोड़.घटाना ही ठीक तरह से आता है। विश्व बैंक के सर्वेक्षण में यह भी पाया गया था कि प्राथमिक शालाओं में पढ़ाने वाले.अध्यापक भी वह सब नहीं जानते थे जो उन्हें जानना चाहिए था! अपनी इस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि दक्षिण एशिया के देश शिक्षा पर खर्च तो कर रहे हैंए लेकिन शिक्षण की गुणवत्ता खराब होने के कारण इन देशों का आर्थिक विकास ही अवरुद्ध नहीं हो रहाए बल्कि युवाओं में बेरोजगारी भी बढ़ रही है। यह बेरोजगारी गरीबी को पालती है और यह गरीबी देश को पिछड़ा बनाती है।स्वैच्छिक संगठनों के इस तरह के सर्वेक्षणों से हम आखिर क्या सीख रहे हैंघ् सच तो यह है कि शिक्षा के क्षेत्र में हमारी सरकारें दावे तो लगातार करती रही हैंए पर सारी कथित कोशिशों का परिणाम निराशाजनक ही रहा है। सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा के अधिकार जैसे बहुप्रचारित कदमों के बावजूद देश को शिक्षित बनाने जैसे महत्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में हम लड़खड़ाते हुए ही आगे बढ़ रहे हैं। हालांकि सवाल यह भी उठता है कि इसे आगे बढ़ना भी कहा जा सकता है अथवा नहीं। आज हमारे सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 2ण्2 प्रतिशत ही हम शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं और इतना भी खर्च किस तरह से हो रहा हैए उसका अंदाज़ा परिणामों से लगाया जा सकता है। हम अपने बच्चों को न सही शिक्षा दे रहे हैंए न सही शिक्षक और न ही शिक्षा के लिए सही वातावरण।यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार 14 वर्ष तक के बीस प्रतिशत बच्चे स्कूलों में पढ़ने नहीं जा रहे। क ख ग सीखने की उम्र में इन बच्चों को झाड़ू लगाना और बर्तन मांजना सीखना पड़ता है। और जो स्कूल जा रहे हैंए उनके ज्ञान का नमूना भी हमने देख लिया है। देश की राजधानी दिल्ली से 40 किलोमीटर दूर के एक कस्बे में तीसरी कक्षा के एक.तिहाई बच्चे अपनी मातृभाषा भी नहीं पढ़ पा रहे थे! ष्असरष् नामक स्वैच्छिक संगठन पिछले पांच वर्ष से लगातार सर्वेक्षण कर रहा है। लगातार हकीकत सामने ला रहा है। जब भी ऐसी कोई रिपोर्ट आती हैए थोड़ी सुगबुगाहट होती है और फिर सब पुराने ही ढर्रे पर चलने लगता है। इन रिपोर्टों को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल नहीं हैए ऐसे संगठनों को भी ष्पांच सितारा एक्टिविस्टष् कहकर उनकी उपेक्षा की जा सकती हैए लेकिन प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में हो रही अनदेखी और उपेक्षा हमारे समूचे भविष्य पर एक सवालिया निशान लगा रही है।कितने छात्रए कितने स्कूलए कितने अध्यापक से अधिक महत्वपूर्ण सवाल कैसे छात्रए कैसे स्कूल और कैसे अध्यापक है। आज देश में प्रति छात्र प्रति वर्ष साढ़े चार हज़ार रुपये खर्च हो रहा है। सवाल यह नहीं है कि यह राशि पर्याप्त है या नहीं। सवाल यह है कि इस व्यय का परिणाम क्या निकल रहा है। हमारी सरकारें कहीं लैपटॉप बांट रही हैंए कहीं साइकिलेंए लेकिन सवाल यह है कि लैपटॉप से हम बच्चों को सिखा क्या रहे हैं और साइकिलों से जिन स्कूलों में पहुंचा रहे हैंए उन स्कूलों में कैसी व्यवस्था दे रहे हैं हम शिक्षा के लिए। विश्व बैंक या ष्असरष् या यूनेस्को के सर्वेक्षण हमारे लिए आंख खोलने वाले होने चाहिए। पांचवीं का बच्चा क्या पढ़ रहा हैए यह महत्वपूर्ण हैए लेकिन यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं कि वह दूसरी कक्षा की किताब क्यों नहीं पढ़ पा रहा। अध्यापक क्या सिखा रहे हैंए यह महत्वपूर्ण हैए लेकिन यह कम महत्वपूर्ण नहीं कि वे खुद क्या कुछ सीखे हुए हैं। शिक्षा का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण हैए लेकिन यह उससे अधिक महत्वपूर्ण है कि इस अधिकार का उपयोग कैसा हो रहा है।बरसों पहले एक विज्ञापन आया करता था दूरदर्शन पर.एक ग्रामीण महिला अपना नाम लिखना सीखती हुई दिखाई गयी थी। पिछले ही साल बिहार के एक गांव में पांचवीं कक्षा के 95 में से 91 विद्यार्थियों ने छात्रवृत्ति के लिए आवेदन देते समय अपना नाम ग़लत लिखा था! हमारी प्राथमिक शिक्षा की अराजक और शोचनीय स्थिति पर इससे सटीक टिप्पणी और क्या हो सकती हैघ्
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