Friday, 3 April 2015

जीत गये तो डर गये

जीत गये तो डर गये 

उनका असली नाम जंग बहादुर सिंह नहीं है। पर, वे हैं जंग बहादुर। उन्होंने एक बड़ी जंग लड़ी। और, तमाम उम्मीदों के खिलाफ जीती। फिर, बड़ी अनहोनी हो गयी। जंग बहादुर सिंह अपनी जीत से डर गये। आप कहेंगे, भला कोई जीत से डरता है। तो, ये हिंदुस्तान है, प्यारे! यहां क्या नहीं हो सकता? शायद जंग बहादुर ने सोचा नहीं था कि उनकी जीत इतनी बड़ी होगी। शायद, उन्होंने सोचा था कि वे कुछ गिनेचुने किले जीत लेंगे और आगे भी वहां से व्यवस्था पर हमले करते रहेंगे। पर, यहां तो अनसोचा हो गया। खुद व्यवस्था उनके गले पड़ गयी। यही जंग बहादुर की असली समस्या है, शायद। जब जंग बहादुर जीते तो सीको ताज्जुब हुआ था। न उनके पास धनबल था। न बाहुबल। और, न कोई वोट बैंक। एक ईमानदार छवि ज़रूर थी। पर, ईमानदारी से ला कोई जीतता है? और, वह भी चुनाव? पर वे जीत गये! और, यह जीत इतनी हैरतअंगेज़ हुई कि अब खुद उनकी समझ में नहीं आ रहा कि इस जीत का करें क्या? अगर, उन्हें जीत का भरोसा होता, तो जीतने के बाद की कुछ तो तैयारी की होती? पहले तो उन्होंने जितनी भी तैयारियां की थीं, सब विरोध की तैयारियां थीं। उन्होंने शायद सोचा ही नहीं था कि सरकार बनाने की तैयारी भी करनी पड़ेगी! जितनी बड़ी जीत, उतनी बड़ी दुविधा। जब से जीते हैं, उनका हर रास्ता मंत्रालय की ओर जाता दिखता है। दाएं जाएं तो मंत्रालय, बाएं जाएं तो मंत्रालय। आगे मंत्रालय, पीछे मंत्रालय। मंत्रालय ऐसा पीछे पड़ा है कि समझ में नहीं आता पीछा कैसे छुड़ाएं? उन्होंने कई बार कोशिश की कि पतली गली से निकल लें। लेकिन, हर पतली गली को कोई ऐसा बंदा रोके खड़ा है, जिसे उन्होंने उसके घोड़े से गिराया था। वैसे, जंग बहादुर की जीत ने एक चमत्कार तो किया है। हिंदुस्तान की डेमोक्रेसी में पहली बार ऐसा हुआ है कि विरोधी पार्टियां जि़द कर रही हैं− सरकार आप बनाएं। इधर जंग बहादुर 'बीटिंग द रिट्रीट' करना चाहते हैं, उधर विरोधी उनसे फ़तह का तराना गवाना चाहते हैं।
तो, जंग बहादुर की सेना जीत गयी। विरोधी घुड़सवारों को खींच कर नीचे पटक दिया गया। अब डेमोक्रेसी के घोड़े की पीठ खाली है। घोड़े पर कोई सवार न हो, तो घोड़ा बेकाबू हो जाता है। अब, जंग बहादुर क्या करें? शायद उनकी फ़ौज में ऐसे लोग नहीं हैं, जो रकाब और लगाम का फ़र्क जानते हों। ऐसे लोग सत्ता के घोड़े की सवारी कैसे करेंगे? हो सकता है, जंग बहादुर के पास दो−चार कुशल घुड़सवार हों। लेकिन डेमोक्रेसी में तो जितनी कुर्सियां, उतने घोड़े। अब इतने सवार कहां से आएंगे? जो कुर्सियां जंग बहादुर का सबसे बड़ा मुद्दा थीं, वे ही उनके गले की फांस बन गयीं। पहले उनकी शिकायत थी कि कुर्सियों पर नालायक लोग बैठे हैं। अब, उनके पास कुर्सियों पर बैठने लायक लोग नहीं हैं। जी नहीं, यहां बात ईमानदारी की नहीं हो रही है, लियाकत की हो रही है। ये डेमोक्रेसी भी कैसी−कैसी दुविधाएं पेश करती है। जिनको बैठना नहीं चाहिए, वे बैठने का तरीका जानते हैं। और, जिनको बैठना चाहिए, उन्हें बैठने का तरीका नहीं मालूम। जब जंग बहादुर सिंह जीत गये, तब उन्हें जंग की एक विशेष खासियत पता चली। जंग में हार भी होती है और जीत भी। लेकिन, हार आपको भागने की आज़ादी देती है। जबकि जीत भागने की आज़ादी नहीं देती। जीत जि़म्मेदारियों में जकड़ती है। एक ओर जीत आपको आज़ाद करती है, तो दूसरी ओर जि़म्मेदारियों का गुलाम भी बनाती है। दुनिया का हर ईमानदार आदमी जानता है कि जि़म्मेदारी कितनी विकट चीज़ होती है। शायद, यही जंग बहादुर की दुविधा है। पता नहीं जंग बहादुर इस दुविधा से कैसे निकलेंगे? पर उम्मीद है, वे भागेंगे नहीं। और, आगे जब भी जंग लड़ेंगे तो जीतने के बाद की तैयारी के साथ लड़ेंगे। क्योंकि, हिंदुस्तान की डेमोक्रेसी में आसन जमा कर बैठे हुए नेताओं को डराना बहुत ज़रूरी है। और, यह काम जंग बहादुर जैसे लोग ही कर सकते हैं।

No comments:

Post a Comment