महसूस कीजिये संकट की आहट
प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग से न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। मानवीय स्वार्थ प्रदूषण का जनक है। महात्मा गांधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले ही कह दिया थाकृधरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हैए परन्तु किसी की तृष्णा को शांत नहीं कर सकती।
आईपीसीसी के अनुसार पिछले 250 साल के दौरान इनसानी कारगुजारियां इस बरबादी के लिए 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा है कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1ण्4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11ण्5 फारेनहाइट तक होने का अनुमान है। सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0ण्3 डिग्री से 4ण्8 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है। तापमान में यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। इससे समुद्र का जल स्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है। दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बढ़ोतरी हुई है। नतीजतन ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता जायेगा।
पिछले 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन के कारण तापमान में 0ण्5 से 1ण्3 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है। दो दशकों के दौरान अंटार्कटिका और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। समुद्र के जलस्तर में 0ण्19 मीटर की औसत से बढ़ोतरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। हवा में कार्बन डाई आक्साइड और नाइट्र्ोजन की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोतरी दर्ज हुई है जिसकी अहम वजह खनिज तेल का इस्तेमाल है। कैलीफोर्नियाए ब्रिस्टल और यूट्रेक्ट यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में इस बात को साबित किया है कि अंटार्कटिका में हिमखण्ड का वो हिस्सा तेजी से पिघल रहा है जो पानी के अंदर है।
उपग्रह और जलवायु मॉडलों के आंकड़ों के जरिये शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिका और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है। हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2ण्8 घन किलोमीटर बर्फ अंटार्कटिका की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर बढ़ रहा है। नतीजतन पिछले सालों में यूरोपए भारत व चीन सहित एशिया में रिकार्ड सर्दी पड़ी है और बर्फबारी हुई है।
यूनीवर्सिटी ऑफ मेलबर्न में अर्थसाइंस के प्रोफेसर केविन वॉल्श की मानें तो तापमान में बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। यूनीवर्सिटी कालेज ऑफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहां की वनस्पति में भी अप्रकाशित अंतर आ गया है। वहां हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियाें का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है।
ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुंचा ही रही हैए वैश्िवक तापमान में बढ़ोतरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर इसको साबित किया है। उत्तर भारत में गेहूं उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अंतरराष्ट्र्ीय मक्का व गेहूं उन्नयन केन्द्र के जेण् इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर हुए नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियां सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती हैए उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। इस नुकसान की भरपायी में हजारों.लाखों साल लग जायेंगे।
दरअसल जलवायु परिवर्तन में बदलाव एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है।
प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग से न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। मानवीय स्वार्थ प्रदूषण का जनक है। महात्मा गांधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले ही कह दिया थाकृधरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हैए परन्तु किसी की तृष्णा को शांत नहीं कर सकती।
आईपीसीसी के अनुसार पिछले 250 साल के दौरान इनसानी कारगुजारियां इस बरबादी के लिए 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा है कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1ण्4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11ण्5 फारेनहाइट तक होने का अनुमान है। सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0ण्3 डिग्री से 4ण्8 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है। तापमान में यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। इससे समुद्र का जल स्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है। दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बढ़ोतरी हुई है। नतीजतन ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता जायेगा।
पिछले 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन के कारण तापमान में 0ण्5 से 1ण्3 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है। दो दशकों के दौरान अंटार्कटिका और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। समुद्र के जलस्तर में 0ण्19 मीटर की औसत से बढ़ोतरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। हवा में कार्बन डाई आक्साइड और नाइट्र्ोजन की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोतरी दर्ज हुई है जिसकी अहम वजह खनिज तेल का इस्तेमाल है। कैलीफोर्नियाए ब्रिस्टल और यूट्रेक्ट यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में इस बात को साबित किया है कि अंटार्कटिका में हिमखण्ड का वो हिस्सा तेजी से पिघल रहा है जो पानी के अंदर है।
उपग्रह और जलवायु मॉडलों के आंकड़ों के जरिये शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिका और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है। हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2ण्8 घन किलोमीटर बर्फ अंटार्कटिका की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर बढ़ रहा है। नतीजतन पिछले सालों में यूरोपए भारत व चीन सहित एशिया में रिकार्ड सर्दी पड़ी है और बर्फबारी हुई है।
यूनीवर्सिटी ऑफ मेलबर्न में अर्थसाइंस के प्रोफेसर केविन वॉल्श की मानें तो तापमान में बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। यूनीवर्सिटी कालेज ऑफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहां की वनस्पति में भी अप्रकाशित अंतर आ गया है। वहां हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियाें का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है।
ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुंचा ही रही हैए वैश्िवक तापमान में बढ़ोतरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर इसको साबित किया है। उत्तर भारत में गेहूं उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अंतरराष्ट्र्ीय मक्का व गेहूं उन्नयन केन्द्र के जेण् इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर हुए नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियां सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती हैए उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। इस नुकसान की भरपायी में हजारों.लाखों साल लग जायेंगे।
दरअसल जलवायु परिवर्तन में बदलाव एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है।
No comments:
Post a Comment