Thursday, 30 April 2015

सामने आएं नेताजी से जुड़े सच

सामने आएं नेताजी से जुड़े सच
लगभग पंद्रह साल पहले एक बार मौका मिला था जापान जाने का। निमंत्रण जापान सरकार का था। कार्यक्रम तय करने से पहले उन्होंने जानना चाहा था कि यदि मैं किसी खास जगह जाना चाहूं तो उसे कार्यक्रम में जोड़ा जा सकता है। दो जगह बतायी थीं मैंने। मैंने उनसे कहा कि वे जहां ले जाना चाहेंए मैं तैयार हूंए पर दो स्थान मैं अवश्य देखना चाहूंगा। एक तो हिरोशिमा जहां मनुष्यता कलंकित हुई थीए और दूसरा रेंकोजी मंदिर जहां नेताजी सुभाषचंद्र बोस की ष्अस्थियांष् रखी गयी हैं। मुझे बताया गया कि जापान जाने वाला हर भारतीय इस मंदिर में अवश्य जाना चाहता है। सचमुचए मैं उस मंदिर में एक तीर्थ.यात्रा का भाव लेकर ही गया था। जापान में मेरा पहला कार्यक्रम वहीं रखा गया था।
सवेरे.सवेरे हमए यानी मैं और मेरी गाइड वहां पहुंचने के लिए निकले थे। तब तक सड़कें खाली.खाली थींए बाज़ार बंद। मैंने कुछ फूल लेने की इच्छा जतायी। यह श्रद्धा.सुमन मैं उस व्यक्ति के अस्थि.कलश पर अर्पित करना चाहता था जो करोड़ों भारतीयों के दिल और दिमाग में तब तक मरा ही नहीं था। रेंकोजी मंदिर के बाहर ही नेताजी की एक प्रतिमा लगायी गयी है और भीतर जहां अस्थि.कलश रखा थाए वहां अगरबत्तियां जल रही थीं। सारे वातावरण में एक मीठी.मीठी शांति जैसी चुप्पी थी। मुझे लगा मैं एक ऐसी उपस्थिति को महसूस कर रहा हूं जो अपनेपन और आश्वस्ति का भाव लिये है। मैं समझ रहा था कि जो मैं अनुभव कर रहा हूंए वह यथार्थ नहीं हैए लेकिन मन पर बुद्धि की लगाम कब लगी हैघ्

वहां रखी अस्थियां नेताजी की हैं भी या नहींए यह तब भी विवाद का विषय थाए अब भी है। लेकिन इस पर कोई विवाद नहीं हो सकता कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के प्रति भारत की जनता में एक कमाल की श्रद्धा है। जवाहरलाल नेहरू ने कभी कहा थाए श्नेताजी के प्रति भारत के भावों की इससे बेहतर और क्या अभिव्यक्ति हो सकती है कि उनके निधन के बाद भी हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नेताजी हमारे बीच नहीं हैं।ष्ष्
नेताजी की मृत्यु से जुड़े विवाद से जरा हटकर बात करें। मैं जब उस मंदिर में पहुंचा था तो और कोई वहां था नहीं। मंदिर के प्रमुख संत ने मुझे बताया था कि 18 अगस्त 1945 को नेताजी की अस्थियां उस मंदिर में लायी गयी थीं। तब वर्तमान प्रमुख संत के पिता वहां प्रमुख थे। अस्थियां लायी तो गयी थीं अंतिम क्रियाओं के लिएए पर उन्होंने अस्थियां सुरक्षित रखने का निर्णय किया और तब से यह मंदिर नेताजी की अस्थियों का मंदिर बन गया। जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे जो 1957 में उस मंदिर में गये थे।
क्या नेहरू यह निश्चित करने गये थे कि अस्थियां नेताजी की ही हैंघ् जहां एक ओर नेताजी की मृत्यु को लेकर रहस्य बना रहाए वहीं इस तरह के आरोप भी लगते रहे कि नेहरू हमेशा आशंकित रहे कि कहीं सुभाष आ न जायें। इस संदर्भ में यह भी कहा जाता रहा कि नेहरू नहीं चाहते थे कि सुभाष भारत लौटेंय नेहरू की तुलना में नेताजी देश में कहीं अधिक लोकप्रिय थेय नेताजी यदि होते तो वे ही देश के पहले प्रधानमंत्री बनते३।
नेहरू और सुभाष के रिश्तों को लेकर अब एक नया विवाद देश में उठ खड़ा हुआ है। सच तो यह है कि इसी विवाद से मुझे रेंकोजी मंदिर की अपनी यात्रा की याद आयी। कुछ ही दिन पहले मीडिया में यह खबर छपी कि जवाहरलाल नेहरू और बाद की सरकार 1969 तक नेताजी के परिवार वालों की जासूसी करती रही थी। इस संदर्भ में कुछ गोपनीय दस्तावेजों के खुलासे की बात सामने आयी और यह मांग ज़ोर पकड़ने लगी है कि नेताजी से जुड़ी सभी गोपनीय फाइलों को अब जनता की जानकारी में आने देना चाहिए। इस तरह की मांग पहले भी होती रही हैए लेकिन सरकार वैदेशिक रिश्तों की दुहाई देकर इससे इनकार करती रही है। कांग्रेस के शासन.काल में तो विपक्ष यह कहता रहा कि सरकार नेताजी से जुड़ी गोपनीय सूचनाएं जानबूझकर उजागर नहीं करना चाहतीए वह पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू को बचाना चाहती है आदिए लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस बीच जब कांग्रेस पार्टी की सरकार नहीं रहीए तब भी इन फाइलों को गोपनीय ही माना गया। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन.काल में भी ये फाइलें उजागर नहीं की गयीं और अब भीए यानी मोदी सरकार के शासन.काल में भीए सरकार के एक मंत्री ने वही तर्क दिया जो कांग्रेस पार्टी की सरकारें देती रही थीं। सुना हैए अब प्रधानमंत्री मोदी इस विषय में फिर से सोच रहे हैं।
कारण चाहे कोई भी रहे होंए नेताजी के सम्बन्ध में यह गोपनीयता अब खत्म होनी ही चाहिए। दुनिया भर के देशों में एक समय.सीमा के बाद गोपनीय फाइलें उजागर कर दी जाती हैं। यदि इन फाइलों में ऐसा कुछ है भी जो कुछ देशों से हमारे सम्बन्धों पर असर डाल सकता है तो पारदर्शिता के लिए इस खतरे को भी उठा लेना चाहिए। चर्चिल ने गांधीजी के लिए क्या.क्या नहीं कहा थाए आज चर्चिल के उसी ब्रिटेन में वहां का प्रधानमंत्री गांधी की प्रतिमा का अनावरण करता है!
नेताजी सुभाषचंद्र बोस आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं की पहली पंक्ति में थे। यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है कि गांधी के खुले विरोध के बावजूद वे दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे। यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण है। और यह लोकप्रियता तब न जाने कितना गुना बढ़ गयी थी जब उन्होंने देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए आज़ाद हिंद फौज बनायी थी। देश की भावी पीढ़ी को उनके बारे में सब कुछ जानने का हक है। महात्मा गांधी को सबसे पहले राष्ट्रपिता कहने वाले और जवाहरलाल को अपना बड़ा भाई मानने वाले सुभाष किन मुद्दों पर इनसे भिन्न सोच रखते थेघ् मुसोलिनी या हिटलर के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण थाघ् क्या उन्होंने देश की आज़ादी के लिए जापान और जर्मनी का सहयोग पाया अथवा इन ताकतों ने अपने स्वार्थों के लिए सुभाष का लाभ उठायाघ् आने वाली पीढ़ी को इन और ऐसे सवालों के उत्तर चाहिए।
सुभाष की मृत्यु का विवाद भी अभी तक सुलझा नहीं है। राजनीतिक हितों के लिए ऐसे मुद्दों को उलझा कर रखना भी अनुचित है। अब तक की जांच के नतीजे तो यही कहते हैं कि हमें मान लेना चाहिए कि उस विमान.दुर्घटना के नेताजी शिकार हो गये थे। रेंकोजी मंदिर में रखी अस्थियां भी अब भारत आनी चाहिए। उस दिन मंदिर के प्रमुख पुजारी ने मुझसे कहा थाए ष्आप पत्रकार हैंए अपनी सरकार से कहिए यह अमानत ले जाये। मैं नहीं जानता मेरे बाद इन अस्थियों को यही सम्मान मिलता रहेगा अथवा नहीं।ष् पता नहीं वे पुजारी अब जीवित हैं अथवा नहीं। पर अब समय आ गया हैए हम जो हो चुका हैए उसे स्वीकारें। सुभाषचंद्र बोस को समझने का एक तरीका यह भी है। देश के आने वाले कल को समझने के लिए बीते हुए कल के उस पन्ने को पढ़ना ज़रूरी हैए तभी दृष्टि साफ होगी।


सज़ा का डर रोकेगा अपराध

सज़ा का डर रोकेगा अपराध

नरेन्द्र मोदी सरकार ने बलात्कारए यौन हिंसाए तेजाब हमलों और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्त होने वाले 16 से 18 साल के किशारों पर भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। इस तरह के जघन्य अपराधों में संलिप्त किशारों को अब किशोर न्याय ;देखभाल एवं संरक्षणद्ध कानून का लाभ नहीं मिल सकेगा।
राजधानी में 2012 में हुए निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने पिछले साल लोकसभा में किशोर न्याय ;बच्चों की देखभाल एवं संरक्षणद्ध विधेयक 2014 पेश किया था। इस विधेयक को संसद की स्थाई समिति के पास भेजा गया थाए जिसने मार्च में पेश अपनी रिपोर्ट में किशोर की परिभाषा में संशोधन कर उनकी आयु सीमा 18 साल से घटाकर 16 साल करने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। इस बीचए जघन्य अपराधों में नाबालिगों को बढ़ती संलिप्तता के मद्दनजर किशोरों से संंबंधित कानूनी प्रावधानों पर फिर से गौर करने के लिये उच्चतम न्यायालय का दबाव भी सरकार पर पड़ रहा था।
केन्द्र सरकार ने संसद की स्थाई समिति की रिपोर्ट और बाल अधिकारों के लिये संघर्षरत वर्गों के प्रतिरोध को दरकिनार करते हुए बलात्कारए यौन हिंसाए हत्या और डकैती जैसे जघन्य अपराधों में संलिप्त किशोर पर वयस्क की तरह ही मुकदमा चलाने का प्रावधान करने के लिये संसद में लंबित किशोर न्याय ;देखभाल एवं संरक्षणद्ध विधेयकए 2014 में संशोधन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी।
सरकार ने यह भी निर्णय किया है कि 16 से 18 साल के आयु वर्ग के किसी भी आरोपी पर वयस्क आरोपी के रूप में मुकदमा चलाने का निर्णय किशोर न्याय बोर्ड करेगा। इस बोर्ड में एक मनोचिकित्सक और सामाजिक मुद्दों के एक विशेषज्ञ भी होंगे। किसी किशोर आरोपी पर वयस्क आरोपी के रूप में मुकदमा चलाने के बारे में बोर्ड ही अंतिम निर्णय करेगा।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने भी केन्द्र सरकार से कहा था कि बलात्कारए डकैती और हत्या जैसे मामलों में नाबालिग की स्थिति पर विचार किया जाये। न्यायालय का मत था कि वैसे तो ऐसी कई परिस्थितियां हो सकती हैं जिसमें नाबालिग को अपने कृत्य के परिणाम का एहसास नहीं हो लेकिन बलात्कारए हत्याए अपहरण और डकैती जैसे जघन्य अपराध में संलिप्त किशोरों के बारे में यह मानना कठिन होगा कि वे इसके नतीजों को नहीं जानते होंगे।
न्यायालय की चिंता से सहमत होते हुए अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने भी कहा था कि जघन्य अपराधों में किशोरों की संलिप्तता चिंता का विषय है और सरकार इस स्थिति से निबटने के उपाय कर रही है। भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने तो बाकायदा एक याचिका दायर कर उच्चतम न्यायालय से अनुरोध किया था कि इस तरह के जघन्य अपराध में संलिप्त आरोपी की उम्र की बजाय उसकी मानसिक और शारीरिक परिपक्वता को ध्यान में रखा जाये। उनका तर्क था कि इस तरह के अपराध करने वाला किशोर आमतौर पर मानसिक और शारीरिक रूप से परिपक्व होता है और वह अपने कृत्य के बारे में भलीभांति जानता भी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश में जघन्य अपराधों में 16 से 18 साल के किशोरों की भूमिका में लगातार वृद्धि हो रही है। महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने इस संबंध में सदन को बताया भी था कि इस तरह के अपराधों में किशोरों की संलिप्तता में 132 फीसदी तक की वृद्धि हुई है।
सरकार अब संसद के वर्तमान सत्र में ही किशोर न्याय ;बच्चों की देखभाल और संरक्षणद्ध विधेयकए 2014 अपेक्षित संशोधन के साथ पारित कराने का प्रयास करेगी। यदि यह विधेयक पारित हो गया तो निश्चित ही 16 से 18 साल के आयु वर्ग के किशोरों को यह संदेश मिल जायेगा कि जघन्य अपराधों में शामिल होने की स्थिति में अब उन्हें किशोर न्याय कानून के तहत संरक्षण नहीं मिल सकेगा और दूसरे अपराधियों की तरह ही उन्हें भी जेल की सलाखों के पीछे रहना पडेगा।
इससे पहले जुलाई 2013 में उच्चतम न्यायालय ने बलात्कार और बलात्कार के प्रयास तथा महिलाओं का शील भंग करने के प्रयास जैसे संगीन अपराधों में किशोरों की भूमिका के मद्देनजर किशोर न्याय कानून के तहत किशोर की आयु घटाकर 16 साल करने से इनकार दिया था। न्यायालय का मत था कि किशोर न्याय ;बच्चों की देखभाल और संरक्षणद्ध कानून 2000 के तहत जघन्य अपराध में दोषी पाये जाने के बावजूद एक किशोर 18 साल का होते ही रिहा कर दिया जाता था लेकिन इस कानून में 2006 में संशोधन के बाद स्थिति बदल गयी है। अब यदि कोई किशोर ऐसे अपराध का दोषी पाया जाता है तो उसे तीन साल की सजा काटनी ही होगीए भले ही वह 18 साल का हो चुका हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि नये प्रावधानों के सकारात्मक नतीजे सामने आयेंगे।

Wednesday, 29 April 2015

कहां गई ‘आप’ की ईमानदारी

कहां गई ‘आप’ की ईमानदारी


देवेश तिवारी
नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाली ‘आम आदमी पार्टी’ दिल्ली मे दोबारा से सरकार बनाने के बाद नैतिकता व ईमानदारी क्या होती है। यह बात वह स्वयं ही भूल गई है। तभी तो 49 दिनों की सरकार के बाद अब वह चाहे कुछ भी हो कान मे तेल डालकर बैठी नजर आती है। एक समय वह भी था जब लोकसभा चुनाव के पहले ‘आप’ के संयोजक देश के ईमानदार व बेईमानों की लिस्ट लेकर बैठे नजर आते थे उन्हे अब अपनी ही पार्टी मे कुछ भी गलत नही नजर आ रहा है। देश के नेताओं को पानी पीकर गाली देने वाले अरविन्द केजरीवाल अपने ही पार्टी मे चल रही उठापटक के लिये बोलना तो दूर उस ओर देखना तक नही चाहते हैं। बल्कि मीडिया को ही भला बुरा कहकर उसे बिका हुआ करार देते हैं। जिस दिल्ली मे कानून बनाने का काम सरकार का हो और उसी के मंत्री के डिग्री मामले मे समूची दिल्ली मे उठापटक मची हो लेकिन ‘आप’ के सर्वेसर्वा अरविन्द केजरीवाल उस मामले पर चुप्पी साधे बैठे हैं। जबकि दिल्ली के कानून मंत्री जितेन्द्र तोमर के इस्तीफे को लेकर पूरा विपक्ष एक सुर मे सुर मिलाकर साथ खड़ा दिख रहा है। आपको यह भी याद होगा कि इससे पहले 49 दिन की सरकार मे आप के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती भी विवादों मे खूब रहे हैं। अब ऐसी दिल्ली मे कानून व्यवस्था पटरी पर कैसे रहेगी इसका तो भगवान ही मालिक है।

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भूकंपरोधी निर्माण में ही है बचाव

भूकंपरोधी निर्माण में ही है बचाव



वर्ष 2001 में गुजरात के भुज और इधर नेपाल समेत भारत.तिब्बत में आए भूकंप में समानता सिर्फ यह नहीं है कि यहां आए पहले झटकों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7ण्9 थीए बल्कि यह भी है कि इन सभी जगहों पर हुए आधे.अधूरे विकास और खराब निर्माण की वजह से ही हजारों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। नेपाल के भूकंप का असर कई उत्तर भारतीय राज्यों में भी हुआ और वहां भी कच्ची नींवों पर खड़ी जर्जर इमारतें भूकंप को सह नहीं पाईं और ताश के पत्तों से बने महल की तरह ढह गईं। यह असल में आपराधिक स्तर की लापरवाही है जिसने बाढ़ए भूकंप जैसी प्राकृतिक और कई मायनो में स्वाभाविक प्राकृतिक आपदाओं के आगे इनसान को कमजोर साबित किया हैए पर इनसे सबक लेने की कोई पुरजोर कोशिश अब तक नहीं दिखाई दी है।
सदियों से निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रही पृथ्वी की भूगर्भीय संरचनाओं में चल रहे सतत परिवर्तन भूकंप पैदा करते हैं। अनुमान है कि हर साल पृथ्वी पर करीब दस करोड़ भूकंप आते हैं। इनमें से ज्यादातर यानी 98 फीसदी समुद्रतल में आते हैं। दो से तीन फीसदी भूकंप जमीन पर आते हैं और इनमें से करीब सौ भूकंपों को ही हर साल रिक्टर पैमाने पर दर्ज किया जाता है। इनमें से हमारा ज्यादा वास्ता हिमालय क्षेत्र में आने वाले भूकंपों से पड़ता है। असल मेंए जमीन के भीतर भारतीय और यूरेशिया प्लेटों की आपसी टकराहट ने पूरे हिमालयी क्षेत्र को भूकंप की सर्वाधिक आशंका वाले इलाके में तबदील कर रखा है। भूगर्भ शास्त्रियों के मुताबिक ये प्लेटें प्रति वर्ष एक.दूसरे से टकराते हुए धंस रही हैंए जिससे हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में ऊर्जा जमा हो गई है। भूगर्भवेत्ताओं के मुताबिक लाखों साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप का विशाल भूखंड एशियाई भूभाग से आ भिड़ा था। इस भूगर्भीय घटना के कारण ही हिमालय का जन्म हुआ था और इसी कारण उपमहाद्वीप की नींव में मौजूद विशालकाय चट्टानों में लचक आ गई थी। इस लचक और आंतरिक चट्टानों पर पड़ते सतत दबाव के कारण हिमालय की पर्वत शृंखलाओं के निचले तलों में अचानक किसी भी वक्त खिसकन की आशंका जताई जाती रही है।
भूगर्भ विज्ञानी दावा करते हैं कि आंतरिक विचलनों के कारण मध्य हिमालय की भूगर्भीय संरचनाओं में दबाव पैदा हो गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र का भीतरी भूभाग कुल 13 सेंटीमीटर से ज्यादा का दबाव सहन नहीं कर सकता। इसीलिए दबाव से पैदा होकर चट्टानों से उत्पन्न हुई घनीभूत ऊर्जा धरती के भीतर से फूट कर बाहर निकलने को तैयार बैठी है। इसी कारण हिमालयी इलाकों में लगभग नौ की तीव्रता तक के भूकंप की आशंका बनी रहती है।

ऐसा एक अध्ययन अमेरिका के कोलराडो विश्वविद्यालय के भूविज्ञानियों. रोजर विल्मए पीटर मोलनार और बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर एस्ट्रोफिजिक्स के विनोद गौड़ कर चुके हैं। इस टीम ने भी भारतए नेपालए बांग्लादेशए भूटान और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र में तेज भूकंप आने और करीब पांच करोड़ लोगों पर उसका असर पड़ने की घोषणा कर रखी है। दो साल पहले विनाशकारी बारिश का प्रकोप झेल चुके देश के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड में बड़े भूकंप की आशंका तो गृह मंत्रालय का आपदा प्रबंधन विभाग भी जता चुका है। इस विभाग ने नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के तीन साल के अध्ययन का हवाला देकर कहा था कि उत्तराखंड की पहाड़ियों पर काफी अलग.अलग ढंग की ढांचागत संरचनाएं मिली हैं जिनसे इस पूरे इलाके की जमीन के भीतर भारी मात्रा में ऊर्जा जमा होने की संभावना है। वर्षों से जमा यह ऊर्जा जब एक झटके में बाहर निकलने का प्रयास करेगी तो उत्तराखंड समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में भारी भूकंप आ सकता है।
भूकंप जापानए अमेरिकाए कनाडाए ऑस्ट्रेलिया में भी आते हैंए लेकिन वहां ऐसे विनाश के समाचार नहीं मिलते। जापान तो भूकंप से सबसे ज्यादा पीड़ित देशों में हैए लेकिन हादसों की बारम्बारता से सबक लेकर वहां न केवल मजबूत और भूकंपरोधी इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया गया हैए बल्कि समय.समय पर लोगों को दैवीय आपदाओं के वक्त किए जाने वाले उपायों की जानकारी भी असरदार तरीके से दी जाती है। इसके बरअक्स नेपाल.भारत जैसे देशों को देखें तो यहां आज भी पुरानी जर्जर इमारतों में लाखों.करोड़ों लोग भूकंप की परवाह किए बगैर रह रहे हैं।
देश में शहरीकरण के नाम पर जैसा अनियोजित और अनियंत्रित विकास हो रहा हैए वह एक गंभीर मर्ज बन चुका है। दिल्ली और उसके आसपास के राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र में तो ऐसी सैकड़ों बहुमंजिला इमारतें बन चुकी हैंए जिन्हें साधारण शक्ति वाला भूकंप कभी भी ढहा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र का आशय सिर्फ उत्तरांचलए हिमाचल प्रदेशए जम्मू.कश्मीर से ही नहीं हैए बल्कि इसमें दिल्लीए उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे विशाल आबादी वाले उत्तर भारत के अनेक राज्य शामिल किए जा सकते हैं। दिल्ली और एनसीआर के इर्दगिर्द जमीन के नीचे जो फॉल्ट लाइंस मौजूद हैंए वे देश की राजधानी को भी संवेदनशील इलाके में ला देते हैं। हमारे यहां भूकंप से बचाव की तैयारियों का आलम यह है कि गुजरात और उत्तरकाशी जैसे अनुभव के बाद भी भूकंप से पूर्णतया सुरक्षित इमारतों के निर्माण की ठोस पहल सिरे से नदारद है। यही आलम आपदाओं से खुद बचाव के वास्ते शिक्षण और भविष्यवाणी का ठोस मैकेनिज्म बनाने में नजर आता है।
कहने को तो 1992 में केंद्र सरकार ने नौ करोड़ रुपये खर्च करके प्राकृतिक आपदा प्रबंधन कार्यक्रम की शुरुआत भी कर दी थी और इसके तहत हर साल दर्जनों आयोजन करके व्यापक स्तर पर जनजागरूकता का कार्यक्रम भी चलाया जाता हैए पर अब तक का हासिल यह है कि कुछ ही राज्यों ने भूकंप जैसी आपदा से निपटने की चंद तैयारियां की हैं। यही हाल भूकंप की पूर्व सूचना का है। यूं इस मामले में देसी.विदेशी वैज्ञानिक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं। सीस्मोलॉजिस्ट यानी भूकंपवेत्ता धरती की भीतरी चट्टानों की चालए अंदरूनी फाल्ट लाइनों की बढ़वार और ज्वालामुखियों से निकल रही गैसों के दबाव पर नजर रखकर पूर्वानुमान लगाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस बार मौसमी उपग्रहों से मिले चित्रों के आधार पर नेपाल के बड़े भूभाग से रेडॉन गैसों की बड़ी मात्रा निकलने की बात कही गई थीए पर इन सूचनाओं का विश्लेषण कर भूकंप की चेतावनी जारी नहीं की जा सकी। इससे साबित होता है कि दैवीय आपदाओं का समय पर पता लगाकर उनकी सूचनाएं लोगों तक पहुंचाने और उन्हें सतर्क करने वाले सिस्टम दोषपूर्ण हैं। ध्यान रहे कि भूकंप हमें गलतियों को सुधारने का मौका नहीं देताए इसलिए सरकार और जनता को खुद पहल करके भूकंप से बचाव का ठोस जतन करना होगा।

Tuesday, 28 April 2015

एक ही डंडे से न हांकें

एक ही डंडे से न हांकें


अमेरिकी फंडिंग एजेंसी श्फोर्ड फाउंडेशनश् को निगरानी सूची में डाले जाने के बाद केंद्र सरकार और स्वैच्छिक संस्थाओं ;एनजीओद्ध के बीच तकरार और बढ़ गई है। इससे पहले पर्यावरण के लिए काम करने वाले संगठन श्ग्रीनपीसश् का लाइसेंस रद्द करके भारत में इसके सभी बैंक खातों को सील कर दिया गया था।

केंद्रीय गृह मंत्रालय का कहना है कि विदेशों से आर्थिक सहायता प्राप्त गैर सरकारी संगठनों में से 10 हजार से ज्यादा ने 2009 से अब तक के आय.व्यय का हिसाब नहीं दिया है। ये संगठन मनी.लॉन्ड्रिग और आतंकी गतिविधियों में लिप्त हो सकते हैं। फरवरी में मंत्रालय की खुफिया रिपोर्ट में कहा गया कि ये संस्थाएं विदेशी पैसे के बल पर ऐसा माहौल बनाने में जुटी हैंए जिससे विकास की कई परियोजनाएं बाधित हो रही हैं।

सरकार के रवैये के खिलाफ कुछ संगठनों ने कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है। उनका कहना है कि सरकार बदले की भावना से काम कर रही है। उन्हीं संगठनों को निशाना बनाया जा रहा है जो सरकार की नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं। हालांकि सरकार के अलावा देश के कई बुद्धिजीवियों ने भी इन संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। उनका मानना है कि कई परियोजनाओं को लेकर इन संगठनों का विरोध अतार्किक है और लगता हैए ये सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं।

यह बहस अभी दूर तक जाने वाली हैए लेकिन यह प्रश्न तो बचा रहेगा कि आखिर सरकार को एनजीओ सेक्टर के प्रति कैसा रुख अपनाना चाहिएघ् आज के दौर में स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकताए लेकिन हमें अपने राष्ट्रीय हितों का ध्यान सबसे पहले रखना होगा।

एनजीओ क्षेत्र को विदेश से धन भारतीय रिजर्व बैंक के जरिए ही आता है। सरकार और उसकी खुफिया एजेंसियों को इस धन के स्रोत और इसके इस्तेमाल पर नजर रखनी चाहिए। किसी भी संस्था की भूमिका अगर किसी खास मामले में संदिग्ध दिखती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई भी की जा सकती हैए बशर्ते मामला ठोस हो। किसी स्थानीय गड़बड़ी को लेकर पूरे संगठन को या पूरे एनजीओ सेक्टर को ही दोषी ठहराना गलत है।

प्रतिबंध को एकदम आखिरी विकल्प की तरह ही देखना ठीक है। एनजीओ सेक्टर के लिए हमारे यहां एक स्पष्ट और पारदर्शी कानून का अभाव है। कॉर्पोरेट जगत पर फंडिंग और इनकम टैक्स के नियम साफ हैंए जबकि एनजीओ सेक्टर को लेकर कुछ भी साफ नहीं है। ऐसे संगठनों के पंजीकरण का कानून ही डेढ़ सौ साल पुराना है। आयकर के नियम एनजीओ को मिलने वाले पैसे पर लागू नहीं होते। इन संगठनों को अपने मुनाफे पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता।

एफसीआरए मूलतरू राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा कानून है। इसमें बीच.बीच में बदलाव भी हुए हैंए लेकिन इसे एक मुकम्मल कानून बनाने के लिए इसमें काफी बदलाव की गुंजाइश है। समय आ गया है कि सरकार एनजीओ सेक्टर को लेकर एक तार्किक रवैया अपनाए। इसके बजाय एक झटके में कुछ कर गुजरने की नीति भारत जैसे बड़े लोकतंत्र की छवि के लिए नुकसानदेह साबित होगी।

भूकंप और बेफिक्री

भूकंप और बेफिक्री

नेपाल और भारत के कई राज्यों में आए भयानक भूकंप से पूरी दुनिया को सदमा पहुंचा है। इससे सबसे ज्यादा तबाही नेपाल में हुई है और पड़ोसी देश होने के नाते भारत वहां जोर.शोर से राहत कार्य में जुटा हुआ है। हालांकि बचाव अभियान अभी तक काठमांडू और आसपास के इलाकों तक ही सीमित है। छोटे शहरों और गांवों काए जहां सबसे ज्यादा तबाही हुई हैए अभी तक हालचाल भी नहीं लिया जा सका हैए राहत तो बहुत दूर की बात है। बाहर से गई राहत वहां तक पहुंचाने की जरूरत हैए ताकि उन जगहों पर फंसे लोग भी इस बुरे सपने से बाहर आ सकें।

नेपाल में हालात इतने ज्यादा इसलिए बिगड़े हैं क्योंकि अन्य विकासशील देशों की तरह वहां भी आपदा.पूर्व प्रबंधन पर कुछ खास काम नहीं हुआ है। इस तबाही से भारत को भी सबक लेने की जरूरत है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश के 38 शहर हाई रिस्क जोन में आते हैं। अहमदाबाद स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ सीस्मोलॉजिकल रिसर्च के विशेषज्ञों का मानना है कि कश्मीरए हिमाचल प्रदेशए पंजाब और उत्तराखंड के नीचे भूकंपीय खाइयां मौजूद हैंए जिनके चलते यहां अगले 50 वर्षों के अंदर कभी.भी नेपाल जैसा भूकंप आ सकता है।

जाहिर हैए हमें बड़े स्तर पर एहतियाती उपाय करने होंगे। हालांकि वर्ष 2001 में गुजरात में आए भूकंप के बाद देश में इस मामले को लेकर जागरूकता कुछ हद तक बढ़ी है। बड़े शहरों में अब ज्यादातर भूकंप.रोधी इमारतें ही बन रही हैं। हाल में जो नई मल्टीस्टोरी रिहायशी कॉलोनियां बसी हैंए उनमें से ज्यादातर में कम से कम ढांचे के मामले में सारे एहतियाती उपाय किए गए हैं। फिर भी कई जगहों पर बिल्डिंग कोड का पालन नहीं होता। खासकर कम ऊंची इमारतों के मामले मेंए और वह भी निजी निर्माण में। ऐसा उन जगहों पर भी हो रहा हैए जो भूकंप के हिसाब से संवेदनशील मानी जाती हैं।

गौरतलब है कि 2005 में डिजास्टर मैनेजमेंट ऐक्ट बना। आज हमारे पास एनडीआरएफ ;राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बलद्ध की एक मजबूत टीम हैए जो पड़ोसी देशों तक को मदद पहुंचाने में सक्षम है। पर भूकंप को लेकर कोई राष्ट्रीय योजना हमारे पास नहीं है। 2013 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ;सीएजीद्ध की रिपोर्ट में इसके लिए सरकार की आलोचना भी की गई थी।

समय आ गया है कि भूकंप को लेकर एक राष्ट्रीय योजना पर काम किया जाए। जन.जागरूकता इसका एक अहम हिस्सा होना चाहिए। लोगों में अब भी भूकंप को लेकर कई तरह की गलतफहमियां हैं। बचाव के उनके तरीके गलत हैं। जैसे पिछले ही दिनों भूचाल आने पर लोग अपनी बिल्डिंगों से निकलकर उनके आसपास खड़े हो गएए जबकि ऐसा करना बेहद खतरनाक है। जापान की तरह हमारे यहां भी शिविर लगाकर या स्कूलों में कुछ बेसिक ट्रेनिंग दी जा सकती है।

Monday, 27 April 2015

जीएसटी को फिर विवाद में न घसीटें पार्टियां

जीएसटी को फिर विवाद में न घसीटें पार्टियां


लोकसभा में विचित्र नज़ारा था। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वस्तु एवं सेवा कर ;जीएसटीद्ध विधेयक पेश किया तो अनेक विपक्षी दल अड़ गए कि बिल को संसदीय समिति के पास भेजा जाए। तब जेटली ने कांग्रेस को याद दिलाया कि यह उसके नेतृत्व वाली सरकार का ही बनाया हुआ बिल है। सोनिया गांधी ने इसके जवाब में जेटली को याद दिलाया कि तब भाजपा ने उसका विरोध किया था। इसके बाद कांग्रेसए सपाए तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के सदस्य वॉक आउट कर गए।
यह घटनाक्रम उल्लेखनीय है क्योंकि जीएसटी को लागू करने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत है। फिर इसकी सफलता केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग पर निर्भर है। यानी जीएसटी राजनीतिक दायरे में व्यापक सहमति के बिना लागू नहीं हो सकता। मगर सहमति कैसे बनेगीए जब सियासी पार्टियों का रुख किसी कदम के गुण.दोष पर नहींए बल्कि उनके सत्ता अथवा विपक्ष में होने से तय होता हैघ् जानकारों का कहना है कि जीएसटी के लागू होने मात्र से सकल घरेलू उत्पाद में डेढ़ से दो फीसदी की बढ़ोतरी होगी। कर प्रणाली आसान होगी और उद्योग जगत को भी सहूलियत होगी। चूंकि उत्पाद करए सेवा करए केंद्रीय बिक्री करए वैटए एंट्री टैक्सए लग्ज़री टैक्सए मनोरंजन कर आदि जैसे तमाम परोक्ष कर इसमें समाहित हो जाएंगेए अतः सारे देश में टैक्स का समान ढांचा लागू होगा। इससे पूरा भारत समरूप बाजार बन सकेगा। इसीलिए उद्योग और कारोबार जगत ने इससे ऊंची उम्मीदें जोड़ी हैं। हर राज्य में टैक्स का एक जैसा सिस्टम होने से करों को लेकर निश्चितता कायम होगी।
माना जाता है कि इससे कर वसूली भी आसान होगीए जिससे राजकोष की सेहत सुधरेगी। कुछ महीने पहले खबर आई थी कि राजस्व संबंधी राज्यों की चिंताओं का समाधान हो गया है। तब लगा था पांच वर्ष से लटकी जीएसटी व्यवस्था का रास्ता साफ हो गया है। मगर शुक्रवार को यह उम्मीद कमजोर हुई। ध्यानार्थ है कि विधेयक का पास होना जीएसटी पर अमल की दिशा में सिर्फ एक कदम है। उसके बाद भी अमल के नियम और तौर.तरीके निर्धारित करने की चुनौती बनी रहेगी। बहरहालए राजनीतिक दलों में मतभेद बने रहे तो पहला कदम ही नहीं उठेगा। अतः बेहतर होगा कि पार्टियां अपने स्वार्थ पर राष्ट्र.हित को तरजीह दें। वे जीएसटी को फिर से विवाद में न घसीटें।

नई सोच से उभरे समग्र विकास के अभिनव सुझाव

नई सोच से उभरे समग्र विकास के अभिनव सुझाव

नरेंद्र मोदी ने अभिनव सोच सामने रखी। नतीजतनए ऐसे व्यावहारिक सुझाव आए हैंए जिन पर अमल होने से देश की सूरत बदल सकती है। प्रधानमंत्री ने केंद्रीय सचिवों को निर्देश दिया था कि वे उन स्थानों का दौरा करेंए जहां उनकी पहली नियुक्ति हुई थी। वहां देखें कि गुजरे वर्षों में वहां क्या बदला हैघ् स्थितियां बेहतर नहीं हुईंए तो क्योंघ् अब सुधार के लिए क्या किया जा सकता हैघ्
46 सचिव विगत जनवरी में संबंधित स्थानों पर गए और हाल में उन्होंने अपनी रिपोर्ट पेश की है। इस रिपोर्ट से खासकर पिछड़े क्षेत्रों में बुनियादी ढांचेए स्वास्थ्य सुविधाओंए रोजगारए शिक्षा आदि की ठोस सूरत.ए.हाल सामने आई है। पहली पोस्टिंग के बाद केंद्र में सचिव बनने के क्रम में अधिकारी प्रशासन की सीमाओं और संभावनाओं से बेहतर परिचित हो चुके हैं। अतः समस्याओं के जो समाधान उन्होंने बताएए वे यथार्थवादी हैं। मसलनए यह जाना पहचाना तथ्य है कि डॉक्टर गांवों में नहीं जाना चाहते। तो सुझाव दिया गया है कि सेवारत और रिटायर्ड डॉक्टरों का एक राष्ट्रीय पूल ;समुच्चयद्ध बनाया जाएए जिनकी अल्प अवधि के लिए आदिवासीध्ग्रामीण इलाकों में पोस्टिंग हो। एक निश्चित समयसीमा के बाद उनके लिए अपनी पुरानी जगह पर लौटने का विकल्प खुला रहे। इसके साथ ही सब.डिवीजन स्तर पर ऐसा सुविधाजनक बुनियादी ढांचा तैयार किया जाएए जिससे ऐसे पढ़े.लिखे कर्मी वहीं नियुक्ति लेने के लिए प्रेरित हो सकें। इसी तरह यह सुझाव आया है कि सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी योजनाओं को चलाने वाले मंत्रालयों को संसाधनों का समन्वित रूप से उपयोग करना चाहिए।
उद्देश्य हर गांव में कम.से.कम एक ऐसे सरकारी कर्मचारी की तैनाती हो जो वहां सभी सरकारी विभागोंध्मंत्रालयों के प्रतिनिधि के रूप में काम करे। इससे संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल संभव होगाए योजनाओं में तालमेल बनेगा और उत्तरदायित्व तय होगा। इसी तरह मनरेगा में कौशल विकास का काम भी शामिल कर दिया जाए तो नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन द्वारा उच्च गुणवत्ता के प्रशिक्षण देने के लिए बेहतर जमीन तैयार होगी। स्पष्टतः योजनाओं को घिसे.पिटे अंदाज में चलाने के बजाय उनमें नई सोच जोड़ने और उनसे बेहतर परिणाम प्राप्त करने की दिशा में एक प्रभावी पहल हुई है। लीक से हटकर सोचने का यही लाभ होता है। संतोष की बात है कि भारत ने अब यह रास्ता अपना लिया है।

Saturday, 25 April 2015

मूकदर्शक व्यवस्था

मूकदर्शक व्यवस्था


गजेंद्र की मौत के अपराधी हैं सभी
देश की राजधानी दिल्ली के जंतर मंतर पर बुधवार की दोपहर राजस्थान के एक किसान गजेंद्र सिंह द्वारा आत्महत्या पूरी व्यवस्था को ही कठघरे में खड़ा करने वाली है। किसान के नाम पर दशकों से देश में राजनीति हो रही हैए सत्ता परिवर्तन भी होते रहे हैंए पर एक किसान ने बुधवार की दोपहर किसान रैली के ही मंच से कुछ दूर पेड़ से लटककर जान दे दीए लेकिन उसे बचाने कोई आगे नहीं आया। राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए अब दावे चाहे जो भी किये जायेंए पर माना तो यही जायेगा कि दौसा निवासी गजेंद्र भी आम आदमी पार्टी द्वारा भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में आयोजित किसान रैली में भाग लेने आया होगाए लेकिन उस रैली के आयोजक और वक्ताए सभी उसे फंदे पर झूलता देखते रहे और उसके बाद भी उनके भाषणों का सिलसिला रुका नहीं। बेशक किसान रैली में ही आये दो युवाओं ने उसे अपने स्तर पर बचाने का प्रयास कियाए लेकिन वह अपर्याप्त साबित हुआ। सुसाइड नोट बताता है कि बेमौसम बारिश से फसल बर्बाद हो जाने पर पिता ने गजेंद्र को घर से निकाल दिया था और उसे तीन बच्चों वाले परिवार के भरण.पोषण का कोई जरिया नजर नहीं आ रहा थाए लेकिन अब हमारे राजनेताओं को उसकी आत्महत्या में भी राजनीति नजर आ रही है। नजर ही नहीं आ रहीए वे खुद भी बेशर्मी से राजनीति कर रहे हैं। जाहिर हैए ऐसी आपदाओं की घड़ी में अगर सत्ता व्यवस्था ने तत्काल मदद और मरहम की संवेदना दिखायी होती तो गजेंद्र राजस्थान से दिल्ली आकर जान नहीं देता। अपने घर.खेत में जान देने वालों की तो संख्या ही अनगिनत है।
आम आदमी की राजनीति के नाम पर सत्ता में पहुंचे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने डिप्टी मनीष सिसौदिया और अन्य सिपहसालारों के साथ उस समय मंच पर ही थेए पर पेड़ पर चढ़कर फंदा लगाने वाले गजेंद्र को बचाने के लिए उनमें से कोई आगे नहीं आया। बेशक दिल्ली पुलिस भी इसे राजनीतिक रैलियों के दौरान आये दिन की नौटंकी मानकर मूकदर्शक बने रहने के अपराध से मुक्त नहीं हो सकतीए पर वोट के लिए बिजली के खंभे पर चढ़ जाने वाले केजरीवाल गजेंद्र को बचाने मंच से उतरकर पेड़ तक क्यों नहीं गयेघ् मीडिया के लिए भी यह हादसा एक खबर से ज्यादा नहीं था। सोए सारा ध्यान और ऊर्जा कैमरों के फोकस और सुसाइड नोट तक सीमित रहे। किसान के नाम पर राजनीति करने वालों ने एक किसान की ऐसी दर्दनाक मौत के बाद रैली.भाषण स्थगित करने की संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखायीघ् खुद को कवि बताने वालों का हृदय भी नहीं पसीजा। सत्ता.केंद्रित राजनीति की विद्रूपता यहीं समाप्त नहीं होती। बाद में कमोबेश सभी दलों के नेता अपना चेहरा दिखाने राममनोहर लोहिया अस्पताल जरूर पहुंचेए जहां गजेंद्र को मृत घोषित कर दिया गया था। गजेंद्र की दर्दनाक मौत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि किसान स्वयं को अकेला न समझेंए पर सवाल यह है कि ऐसी संवेदनहीन व्यवस्था में वह अपना समझें भी तो किसेघ्

उम्र बनाम अपराध

उम्र बनाम अपराध
सुधार संग दंड भय भी जरूरी


आखिरकार केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भी किशोर न्याय अधिनियम में उस संशोधन को मंजूरी दे दी हैए जिसके मुताबिक जघन्य अपराधों में लिप्त 16 से 18 वर्ष आयु वर्ग के किशारों के विरुद्ध वयस्क अपराधियों की तरह भारतीय दंड संहिता के तहत मुकदमा चलाया जा सकेगा। ऐसा करने की मांग पुरानी थीए जिसने निर्भया कांड के नाम से चर्चित बर्बर सामूहिक बलात्कार कांड के बाद जोर पकड़ लिया। देश की राजधानी दिल्ली में चलती बस में एक पेरा मेडिकल छात्रा के साथ हुए उस सामूहिक बलात्कार कांड में एक 17 साल का नाबालिग भी शामिल था। गवाहों और सबूतों से उजागर हुआ कि उस नाबालिग का आचरण सबसे बर्बर थाए जिसके चलते उस छात्रा की अंततरू मौत भी हो गयीए लेकिन किशोर न्याय अधिनियम से हासिल संरक्षण के कारण उसे बहुत मामूली सजा ही सुनायी जा सकी। बेशक वयस्कता की दहलीज पर खड़े किशोरों द्वारा जघन्य अपराध को अंजाम दिये जाने का न तो वह पहला मामला था और न ही अंतिमए लेकिन किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन का श्रेय निर्भया कांड को ही जाता हैए क्योंकि उसने पूरे देश के जनमानस को उद्वेलित कर दिया था। हालांकि तब न्यायमूर्ति जेण् एसण् वर्मा की अध्यक्षता में गठित समिति ने देश में सामाजिक संरचना का हवाला देते हुए किशोर आयु सीमा में संशोधन की सिफारिश करने से इनकार कर दिया था। बाद में संसद की स्थायी समिति ने भी किशोर आयु सीमा को घटा कर 18 से 16 वर्ष किये जाने के सुझाव को खारिज कर दियाए लेकिन अंततरू केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उपरोक्त संशोधन को मंजूरी दे दी हैए तो उसका कारण इस मुद्दे पर मुखर होता जनमत भी है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका और ब्रिटेन सरीखे देशों में भी हत्या और बलात्कार सरीखे अपराधों में संलिप्त किशोरों के विरुद्ध वयस्कों की तरह ही मुकदमा चलाया जाता है। फिर हमारे यहां तो इस बीच आये तमाम आंकड़ों से संकेत मिलते हैं कि महिलाओं के उत्पीड़न समेत जघन्य अपराधों में नाबालिगों की संलिप्तता लगातार बढ़ रही है। यह भी कि 16 से 18 आयु वर्ग के ऐसे नाबालिग किशोर न्याय अधिनियम में हासिल कवच से भी अपराधों के प्रति प्रेरित होते हैं। आश्चर्य नहीं होगा अगर इस कानूनी कवच के चलते किशारों के जरिये जघन्य अपराधों को अंजाम देने का सुनियोजित सिलसिला भी चल रहा हो।
संभवतरू ऐसी ही परिस्थितियों के मद्देनजर पिछले दिनों केंद्रीय महिला एवं बाल मंत्री मेनका गांधी ने संकेत दे दिया था कि सरकार 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों के हत्या.बलात्कार सरीखे जघन्य अपराधों में संलिप्त पाये जाने पर उनके विरुद्ध वयस्कों की तरह ही भारतीय दंड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने के प्रति गंभीर है। केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन को मंजूरी उसी गंभीरता का प्रमाण है। बेशक केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस संशोधन में भी इस बात का ध्यान रखा है कि किशोर अकारण ही कड़े कानूनी दंड का शिकार न हो जाये। इसलिए जघन्य अपराधों में संलिप्त 16 से 18 आयु वर्ग के किशोर के विरुद्ध वयस्क की तरह भारतीय दंड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने का फैसला भी किशोर न्याय बोर्ड ही इस आधार पर लेगा कि अपराध किशोर मानसिकता के तहत किया गया है या फिर वयस्क मानसिकता के तहत। निश्चय ही यह निर्धारण बहुत आसान नहीं होगाए लेकिन परिस्थितिवश या अज्ञानतावश अपराध कर बैठने वाले किशोरों को उचित संरक्षण भी उतना ही जरूरी हैए जितना अपराधी मानसिकता वाले किशाेरों को कठोर दंड। नहीं भूलना चाहिए कि हमारे दंड विधान के मूल में सुधार प्रक्रिया प्रमुख है। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि जेल जाने के बाद किशोरों के पेशेवर अपराधी बनने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। कोई भी सही सोच वाला शांतिप्रिय नागरिक इस संशोधन का स्वागत ही करेगाए लेकिन अपनी सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर हमें किशोर संरक्षण एवं सुधार के लिए भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। क्या यह आंकड़ा हमारी प्रतिबद्धता और व्यवस्था को ही कठघरे में खड़ा नहीं करता कि देश में कुल 815 किशोर सुधार गृह ही हैंए जिनमें 35 हजार किशोरों को ही रखने की व्यवस्था हैए लेकिन किशोर अपराधियों की संख्या 17 लाख के आसपास है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब यह संशोधन संसद में पेश किया जायेगाए तब इसके तमाम पहलुओं के मद्देनजर बहस भी होगी और सरकार कुछ ठोस कदम उठाने को प्रेरित भी होगी।

Friday, 24 April 2015

ज़िंदगी का जादू

ज़िंदगी का जादू

मुझे अपने घर में फूल लगाने का बेहद शौक है और हर मौसम के फूल मेरे घर में ज़रूर खिलते हैं। कोई फूल तोड़े तो गुस्सा उमड़ता है। एक दिन मैंने खुद ही अपने बगीचे से बहुत दुर्लभ रंगों के गुलाब के सात.आठ फूल तोड़ेए उनका एक गुलदस्ता.सा बनाया और कांच के गिलास में जंचाकर अपने कमरे की मेज पर रख दिये। बहुत पास से उन्हें निहारा तो आनंद आ गया। कुदरत के करिश्मे के लिये मन में कलाकार उमड़ने लगा। उस दिन किसी निकटतम संबंधी ने मिलने आना था। मुझे लगा कि इन विरले फूलांे को देखकर आने वाले का दिल खिल जायेगा और उन्हें एहसास होगा कि खूब खास फूलों से उनका स्वागत हुआ है। इस बहाने फूलों की बात भी होगी। जनाब आयेए बैठेए चाय पीए कई विषयों पर चर्चा हुई और जाने लगे। फूलों का कोई जिक्र ही नहीं हुआ। विदा करते समय गेट पर मैंने पूछ ही लिया कि आपको हमारे फूल कैसे लगेघ् जवाब ने सन्नाटा पैदा कर दिया। बोलेकृकौन से फूलघ् मैंने कहाकृजो चाय वाली मेज पर रखे थे गुलाब के फूल। उत्तर में वे इतना ही कह पायेकृओह! सॉरीए मैंने नहीं देखे। इस टिप्पणी से कालजा फुंक.सा गया। अनेक बार हम प्राकृतिक रंग.रूप के जादू से कोसों दूर रह जाते हैं। मुझे तो समूचा जीवन किसी जादू से कम नज़र नहीं आता। जिन्दगी बेहद चकित करने वाली प्रतीत होने लगी है। हम देखेंए न देखें पर प्रकृति तो हर पल जादू दिखा ही रही है। आकाशए बादलए बूंदेंए बर्फए ओलेए आन्धीए तूफानए हवायेंए धूप.चांदनीए गर्मी.सर्दीए पतझड़ए वसन्त सब करामात लगते हैं। कलियां कब फूल बन गईं और फूलों ने कब फलों का दामन ओढ़ लियाए फलों के बीज कब में फिर पौधे बन कर वृक्ष बन गएए कोई माई का लाल इस रहस्य को भेद नहीं सका है। ऐन हमारे सामने हमारे बच्चे बढ़ते तथा फलते.फूलते हैं पर वे किस पल बढ़ेए वह अज्ञात है। ये तथ्य बहुत सम्मोहित करते हैं। इससे भी बड़ा मैजिक वह है जो औरतें रचती हैं। दानों की रोटियां बना देती हैंए कपड़ों से तरह.तरह की पोशाकेंए कच्ची सब्जियों से अनेक पकवान। ईंट.काठ के मकान को घर बना देती हैं। जिस महिला ने दूध से दही और मक्खन.घी बनाया होगाए वह क्या किसी जादूगर से कम रही होगीघ् दाल को बेल कर पापड़ बनाना क्या किसी मैजिक से कम हैघ् पर हम तभी दंग होते हैं जब कोई जादूगर टोपी में से कबूतर निकालता है।

न्याय की मिसाल

न्याय की मिसाल

जहांगीर अपनी न्यायप्रियता के लिए जाने जाते थे। एक बार बेगम नूरजहां ने अपने महल की छत से एक पक्षी का बंदूक से निशाना लगाना चाहा। लेकिन निशाना चूक गया और धोबी के जा लगा। धोबी मर गया। धोबिन रोती.कलपती बादशाह जहांगीर के सामने आयी। सभी लोग यह जानने को उत्सुक थे कि बादशाह धोबिन को क्या न्याय देते हैंघ् बेगम नूरजहां भी चिक की ओट में बैठी सारा हाल सुन रही थी। बादशाह ने कहाए ष्राजा और प्रजाए न्याय सबके लिए है। बेगम नूरजहां की वजह से यह विधवा हो गई है। बेगम को दंड मिलना ही चाहिए।ष् यह कहकर बादशाह जहांगीर अपने हाथ में तलवार लेकर धोबिन के सामने जा खड़े हुए और सिर झुकाकर बोलेए ष्बहनए तुझे मेरी बेगम ने विधवा बनायाए तू मेरा सिर काटकर उसे विधवा बना दे। धोबिन बादशाह जहांगीर का न्याय देखकर दंग रह गयी और तलवार फेंककर बोलीए ष्महाराजए जिस देश में आप जैसा बादशाह होए उसका अस्तित्व तो युगों.युगों तक जीवित रहना चाहिए। मैं बेगम नूरजहां को माफ करती हूं।' इसके बाद बादशाह जहांगीर ने आजीवन उसकी पेंशन निश्चित कर दी।'

STORY

ऊंची सोच  


चीन के एक राजा क्यांग ने शुनशुनाओ नाम के एक व्यक्ति को तीन बार अपना मंत्री बनाया और तीन बार मंत्री पद से हटाया। पर राजा के इन फैसलों का शुनशुनाओ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। एक दिन विद्वान किनबू ने उनके इस अपार धैर्य का रहस्य पूछ ही लिया। शुनशुनाओ ने सहज होकर बतायाकृइसमें धैर्य की क्या बात है। जब मुझे मंत्री बनाया गया तो मैंने सोचा कि देश और राजा को अवश्य मेरे कौशल की जरूरत होगी। इसलिएए पद को अस्वीकार करना ठीक नहीं। जब मुझे हटाया गया तो मैंने सोचा कि राजकाज में शायद मेरी उपयोगिता नहीं रही होए इसलिए मैंने इसका भी बुरा नहीं माना। मंत्री पद मिलने से न मुझे कुछ मिला और इसके जाने से न मेरा कुछ गया। जो सम्मान मुझे मिलाए वह इस पद का थाए वह पद के साथ ही बना रहा। शुनशुनाओ की बात सुन किनबू मुग्ध हुए बिना न रह सका। उसने मन ही मन सोचाकृजो व्यक्ति इतनी ऊंची सोच रखता होए उसे भला किसी पद की क्या जरूरत।

Thursday, 23 April 2015

महसूस कीजिये संकट की आहट

महसूस कीजिये संकट की आहट


प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग से न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। मानवीय स्वार्थ प्रदूषण का जनक है। महात्मा गांधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले ही कह दिया थाकृधरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हैए परन्तु किसी की तृष्णा को शांत नहीं कर सकती।
आईपीसीसी के अनुसार पिछले 250 साल के दौरान इनसानी कारगुजारियां इस बरबादी के लिए 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा है कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिए ठोस कदम उठाये जाने की बेहद जरूरत है। पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1ण्4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11ण्5 फारेनहाइट तक होने का अनुमान है। सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0ण्3 डिग्री से 4ण्8 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है। तापमान में यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। इससे समुद्र का जल स्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है। दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बढ़ोतरी हुई है। नतीजतन ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता जायेगा।
पिछले 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन के कारण तापमान में 0ण्5 से 1ण्3 डिग्री की बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है। दो दशकों के दौरान अंटार्कटिका और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। समुद्र के जलस्तर में 0ण्19 मीटर की औसत से बढ़ोतरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है। हवा में कार्बन डाई आक्साइड और नाइट्र्ोजन की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोतरी दर्ज हुई है जिसकी अहम वजह खनिज तेल का इस्तेमाल है। कैलीफोर्नियाए ब्रिस्टल और यूट्रेक्ट यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में इस बात को साबित किया है कि अंटार्कटिका में हिमखण्ड का वो हिस्सा तेजी से पिघल रहा है जो पानी के अंदर है।
उपग्रह और जलवायु मॉडलों के आंकड़ों के जरिये शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिका और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है। हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2ण्8 घन किलोमीटर बर्फ अंटार्कटिका की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर बढ़ रहा है। नतीजतन पिछले सालों में यूरोपए भारत व चीन सहित एशिया में रिकार्ड सर्दी पड़ी है और बर्फबारी हुई है।
यूनीवर्सिटी ऑफ मेलबर्न में अर्थसाइंस के प्रोफेसर केविन वॉल्श की मानें तो तापमान में बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। यूनीवर्सिटी कालेज ऑफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहां की वनस्पति में भी अप्रकाशित अंतर आ गया है। वहां हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियाें का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है।
ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुंचा ही रही हैए वैश्िवक तापमान में बढ़ोतरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर इसको साबित किया है। उत्तर भारत में गेहूं उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अंतरराष्ट्र्ीय मक्का व गेहूं उन्नयन केन्द्र के जेण् इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूं की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है। विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर हुए नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीबन 30 फीसदी प्रजातियां सदी के अंत तक लुप्त हो सकती हैं। दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित होती हैए उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। इस नुकसान की भरपायी में हजारों.लाखों साल लग जायेंगे।
दरअसल जलवायु परिवर्तन में बदलाव एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है।

गति बढ़े तो न्याय मिले

गति बढ़े तो न्याय मिले


अनेक प्रयासों और उपायों के बावजूद न्यायपालिका में लंबित मुकदमों की संख्या में अपेक्षित कमी नहीं होना चिंता का सबब बना हुआ है। उच्चतम न्यायालय से लेकर अधीनस्थ अदालतों में अभी भी तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। स्थिति का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ अदालतों में किसी भी समय न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के 25 फीसदी से अधिक पद रिक्त होना अब आम बात हो चुकी है।
देश के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 984 स्वीकृत पद हैं लेकिन अभी भी करीब तीन सौ पद रिक्त हैं। ऐसी स्थिति में सहज ही कल्पना की जा सकती है कि उच्च न्यायालयों में लंबित 44 हजार से भी अधिक मुकदमों का निबटारा तेजी से कैसे हो। इसी तरहए देश की अधीनस्थ न्यायपालिका में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के 19756 स्वीकृत पद हैं लेकिन यहां भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। अधीनस्थ अदालतों में करीब 15400 न्यायाधीश और न्यायिक अधिकारी पदस्थ हैं जबकि इन अदालतों में करीब पौने तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं।
अदालतों में लंबित मुकदमों की समस्या से निबटने के लिये लोक अदालतों का भी आयोजन किया जा रहा है। लेकिन इसके बावजूद न्यायपालिका को इनकी संख्या घटाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है। अदालतों में मुकदमों के बढ़ते बोझ को कम करने के लिये सबसे अधिक आवश्यक न्यायपालिका में बुनियादी सुविधाओं में वृद्धि करना और नयी अदालतों के साथ ही न्यायाधीशों तथा न्यायिक अधिकारियों के नये पदों का सृजन और पहले से रिक्त पदों पर यथाशीघ्र नियुक्तियां करना है।
कानून मंत्री सदानंद गौडा के अनुसार 2013 में मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पदों में 25 फीसदी वृद्धि करने का प्रस्ताव पारित किया गया था। इस प्रस्ताव के अनुरूप न्यायाधीशों के नये पदों के सृजन के प्रयास किये जा रहे हैं। नये पदों के सृजन का प्रयास सराहनीय हो सकता है लेकिन इससे कहीं अधिक जरूरी मौजूदा रिक्त स्थानों पर नियुक्ति की प्रक्रिया को तेज करना है। हो सकता है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून लागू हो जाने की वजह से उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में विलंब हो लेकिन अधीनस्थ अदालतों में तो इस तरह की नियुक्तियों में कोई अड़चन नहीं है।
सरकार ने ग्रामीणों को उनके दरवाजे पर ही सुगमता से न्याय सुलभ कराने के इरादे से करीब सात साल पहले ग्राम न्यायालय कानून के तहत पांच हजार से अधिक ग्राम अदालतों की स्थापना की कल्पना की थी लेकिन इस दिशा में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। प्राप्त जानकारी के अनुसार दस राज्यों में सिर्फ 194 ग्राम न्यायालय ही स्थापित हो सके हैं। इनमें सबसे अधिक 89 ग्राम न्यायालय मध्य प्रदेश में हैं जबकि पंजाब और हरियाणा में तो सिर्फ दो.दो ग्राम न्यायालय ही काम कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के बाद सबसे अधिक 45 ग्राम न्यायालय राजस्थान में और 18 ग्राम न्यायालय महाराष्ट्र में काम कर रहे हैं।
यह सही है कि देश में लगातार बढ़ती आबादी और समय.समय पर बन रहे नये कानूनों के कारण भी अदालतों में मुकदमों की संख्या बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में जरूरी है कि कोई भी नया कानून बनाते वक्त न्यायपालिका पर इसके संभावित प्रभाव का आकलन किया जाये। इस संबंध में केन्द्र और राज्य सरकारों को गंभीरता से विचार करना होगा। इस स्थिति से निबटने के लिये केन्द्र के साथ ही राज्य सरकारों को भी न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये धन की कमी का बहाना बनाये बगैर ही इस क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं में वृद्धि के लिये राजनीतिक इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा।
न्याय प्रदान करने की व्यवस्था को गति प्रदान करने के इरादे से प्रधान न्यायाधीश ने जनवरीए 2014 में ई.कोर्ट कार्ययोजना सरकार के पास मंजूरी के लिये भेजी थी। एक अनुमान के अनुसार इस परियोजना पर करीब 2700 करोड़ रुपए खर्च होने थे लेकिन पिछले करीब सवा साल से यह कार्ययोजना सरकार के पास ही है। न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के रिक्त पदों के संबंध में लंबे समय से यह सुझाव दिया जा रहा है कि ये रिक्तियां होने से करीब छह महीने पहले ही इनके लिये भर्ती की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए ताकि वास्तव में पद रिक्त होने की स्थिति में समय पर इन्हें भरा जा सके। लेकिन देखा यह जा रहा है कि न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के पदों पर भर्ती की प्रक्रिया में अपेक्षित तेजी नजर नहीं आती ।
सरकार अगर वास्तव में न्याय पालिका में सुधार के प्रति गंभीर है तो उसे सबसे पहले अदालतों के कंम्प्यूटरीकरण और वीडियो कानफ्रेंसिंग की सुविधा आदि के बारे में न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा पेश कार्ययोजना को यथाशीघ्र स्वीकृति प्रदान करनी होगी। अब देखना यह है कि हाल ही में संपन्न मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन से सामने आये मुद्दों पर अमल के प्रति सरकार कितनी गंभीरता से और कितनी तत्परता से कदम उठाती है।

Wednesday, 22 April 2015

सूर्य काम.वासना का केंद्र होता है

सूर्य काम वासना का केंद्र होता है 




बाहर के सूर्य की भांति मनुष्य के भीतर भी सूर्य छिपा हुआ हैए बाहर के चांद की ही भांति मनुष्य के भीतर भी चांद छिपा हुआ है।रस इसी में है कि वे अंतर्जगत के आंतरिक व्यक्तित्व का संपूर्ण भूगोल हमें दे देना चाहते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि . श्भुवन ज्ञानम्‌ सूर्ये संयमात।श् . सूर्य पर संयम संपन्न करने से सौर ज्ञान की उपलब्धि होती है।श् तो उनका संकेत उस सूर्य की ओर नहीं है जो बाहर है। उनका मतलब उस सूर्य से है जो हमारे भीतर है।

हमारे भीतर सूर्य कहां हैघ् हमारे अंतस के सौर.तंत्र का केंद्र कहा हैघ् वह केंद्र ठीक प्रजनन.तंत्र की गहनता में छिपा हुआ है। इसीलिए कामवासना में एक प्रकार की ऊष्णताए एक प्रकार की गर्मी होती है।

कामवासना का केंद्र सूर्य होता है। इसीलिए तो कामवासना व्यक्ति को इतना ऊष्ण और उत्तेजित कर देती है। जब कोई व्यक्ति कामवासना में उतरता है तो वह उत्तप्त से उत्तप्त होता चला जाता है। व्यक्ति कामवासना के प्रवाह में एक तरह से ज्वर.ग्रस्त हो जाता हैए पसीने से एकदम तर.बतर हो जाता हैए उसकी श्वास भी अलग ढंग से चलने लगती है। और उसके बाद व्यक्ति थककर सो जाता है।

जब व्यक्ति कामवासना से थक जाता है तो तुरंत भीतर चंद्र ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। जब सूर्य छिप जाता है तब चंद्र का उदय होता है। इसीलिए तो काम.क्रीड़ा के तुरंत बाद व्यक्ति को नींद आने लगती है। सूर्य ऊर्जा का काम समाप्त हो चुकाए अब चंद्र ऊर्जा का कार्य प्रारंभ होता है।

भीतर की सूर्य ऊर्जा काम.केंद्र है। उस सूर्य ऊर्जा पर संयम केंद्रित करने सेए व्यक्ति भीतर के संपूर्ण सौर.तंत्र को जान ले सकता है। काम.केंद्र पर संयम करने से व्यक्ति काम के पार जाने में सक्षम हो जाता है। काम.केंद्र के सभी रहस्यों को जान सकता है। लेकिन बाहर के सूर्य के साथ उसका कोई भी संबंध नहीं है।

लेकिन अगर कोई व्यक्ति भीतर के सूर्य को जान लेता है तो उसके प्रतिबिंब से वह बाहर के सूर्य को भी जान सकता है। सूर्य इस अस्तित्व के सौर.मंडल का काम.केंद्र है। इसी कारण जिसमें भी जीवन हैए प्राण हैए उसको सूर्य की रोशनीए सूर्य की गर्मी को आवश्यकता है। जैसे कि वृक्ष अधिक से अधिक ऊपर जाना चाहते हैं।

किसी अन्य देश की अपेक्षा अफ्रीका में वृक्ष सबसे अधिक ऊँचे हैं। कारण अफ्रीका के जंगल इतने घने हैं और इस कारण वृक्षों में वापस में इतनी अधिक प्रतियोगिता है कि अगर वृक्ष ऊपर नहीं उठेगा तो सूर्य की किरणों तक पहुंच ही नहीं पाएगाए उसे सूर्य की रोशनी मिलेगी ही नहीं। और अगर सूर्य की रोशनी वृक्ष को नहीं मिलेगी तो वह मर जाएगा। इस तरह से सूर्य वृक्ष को उपलब्ध न होगा और वृक्ष सूर्य को उपलब्ध न होगाए वृक्ष को सूर्य की जीवन ऊर्जा मिल ही न पाएगी।
जैसे सूर्य जीवन हैए वैसे ही कामवासना भी जीवन है। इस पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही हैए और ठीक इसी तरह से कामवासना से ही जीवन जन्म लेता है. सभी प्रकार के जीवन का जन्म काम से ही होता है।
अफ्रीका में वृक्ष अधिक से अधिक ऊंचे जाना चाहते हैंए ताकि वे सूर्य को उपलब्ध हो सकें और सूर्य उन्हें उपलब्ध हो सके। इन वृक्षों को ही देखो। जिस तरह से वृक्ष इस ओर हैं. यह पाइन के वृक्षए ठीक वैसे ही वृक्ष दूसरी ओर भी हैं. और उस तरफ के वृक्ष छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर छोटे ही रह गए हैं। इस तरह के वृक्ष ऊपर ऊपर बढ़ते ही चले जा रहे हैं। क्योंकि इस ओर सूर्य की किरणें अधिक पहुँच रही हैंए दूसरी ओर सूर्य की किरणें अधिक नहीं पहुँच पा रही हैं।
काम भीतर का सूर्य हैए और सूर्य सौर.मंडल का काम.केंद्र है। भीतर के सूर्य के प्रतिबिंब के माध्यम से व्यक्ति बाहर के सौर.तंत्र का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता हैए लेकिन बुनियादी बात तो आंतरिक सौर.तंत्र को समझने की है।
श्सूर्य पर संयम संपन्न करने सेए संपूर्ण सौर.ज्ञान की उपलब्धि होती है।श्
इस पृथ्वी के लोगों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता हैए सूर्य.व्यक्ति और चंद्र.व्यक्तिए या हम उन्हें यांग और यिन भी कह सकते हैं। सूर्य पुरुष का गुण हैय स्त्री चंद्र का गुण है। सूर्य आक्रामक होता हैए सूर्य सकारात्मक हैय चंद्र ग्रहणशील होता हैए निष्क्रिय होता है।
सारे जगत के लोगों को सूर्य और चंद्र इन दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है। और हम अपने शरीर को भी सूर्य और चंद्र में विभक्त कर सकते हैंय योग ने इसे इसी भांति विभक्त किया है।
योग में तो संपूर्ण शरीर को ही विभक्त कर दिया गया है रू मन का एक हिस्सा पुरुष हैए मन का दूसरा हिस्सा स्त्री है। और व्यक्ति को सूर्य से चंद्र की ओर बढ़ना हैए और अंत में दोनों के भी पार जाना हैए दोनों का अतिक्रमण करना है।

Tuesday, 21 April 2015

ओम थानवी को वर्ष 2014 का बिहारी पुरस्कार

ओम थानवी को वर्ष 2014 का बिहारी पुरस्कार


केके बिरला फाउंडेशन का वर्ष 2014 का बिहारी पुरस्कार ओम थानवी को उनके यात्रा वृत्तांत ष्मुअनजोदड़ोष् के लिए दिया जाएगा।

यहां सोमवार को जारी विज्ञप्ति के अनुसार वर्ष 2014 के 24वें बिहारी पुरस्कार के लिए ओम थानवी के यात्रा वृत्तांत ष्मुअनजोदडोष् को चुना गया है। इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2011 में हुआ था।

विज्ञप्ति के अनुसार थानवी को पुरस्कार के रूप में 1 लाख रुपएए प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिह्न प्रदान किया जाएगा।

केके बिरला फाउंडेशन द्वारा स्थापित बिहारी पुरस्कार राजस्थान के हिन्दी या राजस्थानी भाषा के लेखकों को प्रदान किया जाता है। पिछले 10 वर्षों में प्रकाशित राजस्थानी लेखकों की कृतियों में से विजेता का चयन किया जाता है।

वर्ष 1991 में स्थापित पहला बिहारी पुरस्कार डॉण् जयसिंह नीरज को उनके काव्य संकलन ष्ढाणी का आदमीष् के लिए दिया गया था। 

राहुल के तेवर

राहुल के तेवर

लगभग दो माह की छुट्टियां मनाकर लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने रविवार को दिल्ली में आयोजित किसान खेत मजदूर रैली में नरेंद्र मोदी सरकार पर जैसे तीखे प्रहार कियेए वे अनपेक्षित नहीं थे। पिछले साल लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक पराजय के बाद से ही लगातार चुनावी हार के झटके झेल रही कांग्रेस मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून में अपने पुनरुत्थान की राह ढंूढ़ रही है। पूर्ववर्ती संप्रग सरकार के समय बने भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की उतावली में मोदी सरकार जिस तरह दो बार अध्यादेश जारी कर चुकी है और कमोबेश पूरा विपक्ष ही नहींए बल्कि किसान संगठन भी इसके विरोध में मुखर हैंए उससे लगता भी है कि यह मुद्दा सरकार के लिए अग्निपरीक्षा साबित हो सकता है। फिर भी महज एक मुद्दे पर रैली के सहारे कांग्रेस का हताशा के गहरे गर्त से निकल पाना आसान नहीं होगा। इसलिए भी कि कांग्रेस की चुनौतियां सिर्फ बाहरी नहींए आंतरिक भी हैं। लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही पार्टी में कई तरह के स्वर मुखर हो रहे हैं। राहुल गांधी की ताजपोशी के नाम पर तो कांग्रेस में साफ.साफ दो धड़े ही नजर आ रहे हैं। यंग ब्रिगेड माने जाने वाले नेता जल्द से जल्द राहुल को अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैंए तो शीला दीक्षित से लेकर कैप्टन अमरेंद्र सिंह तक अनेक वरिष्ठ नेता अभी सोनिया के ही कमान संभाले रहने के पक्षधर हैं।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में धड़ेबंदी नयी बात नहीं हैए लेकिन शीर्ष नेतृत्वए वह भी नेहरू परिवार के ही सदस्यों को लेकरए ऐसा पहली बार देखा जा रहा है। यही कारण है कि संसद का बजट सत्र शुरू होते ही राहुल के लंबी छुट्टी पर चले जाने को भी इस धड़ेबंदी के विरोध तथा खुली छूट के लिए दबाव से जोड़कर देखा गया। कथित रूप से उद्योगपति परस्त मोदी सरकार से किसान हितों की रक्षा के संघर्ष के ऐलान के लिए आयोजित कांग्रेस की किसान खेत मजदूर रैली में भी यह धड़ेबंदी साफ नजर आयी। सोनिया के करीबी माने जाने वाले जनार्दन द्विवेदीए अहमद पटेलए अंबिका सोनीए शीला दीक्षितए कैप्टन अमरेंद्र सिंह और वीरभद्र सिंह सरीखे नेताओं को मंच पर भी जगह नहीं दी गयीए जबकि राहुल राग अलापने वाले अजय माकनए प्रताप सिंह बाजवा और सुनील जाखड़ आदि मंच पर छाये रहे। कहना नहीं होगा कि इस रैली के जरिये कांग्रेस किसानों से एकजुटता का संदेश भले ही देना चाहती होए पर खुद अपनी एकता का संदेश देने में विफल रही है। इसलिए रैली से चंद दिन पहले ही 56 दिन की छुट्टी मनाकर लौटे राहुल गांधी के लिए भी आगे की राह आसान हरगिज नहीं होगी। उन्हें न सिर्फ कांग्रेस के अंदर अपनी प्रतिभा.क्षमता पर शक करने वालों से जूझना होगाए बल्कि मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में एक हुए जनता परिवार तथा नये माकपा महासचिव सीताराम येचुरी के नेतृत्व में नये उत्साह से सक्रिय हो सकने वाले वाम मोर्चा के बीच अपनी पार्टी की प्रासंगिकता और बढ़त भी साबित करनी होगी।

Monday, 20 April 2015

अक्षय तृतीया पर जन्‍में भगवान परशुराम थे मां के हत्‍यारे

अक्षय तृतीया पर जन्‍में भगवान परशुराम थे मां के हत्‍यारे
मां की आज्ञा का पालन करने वाले तो कई बेटे हुए लेकिन परशुराम ऐसे बेटे थे जो मां से अधिक पिता की आज्ञा मानते थे। अक्षय तृतीया के दिन शाहजहांपुर में पैदा हुये परशुराम ने अपने पिता के कहने पर अपनी मां का सिर काट दिया था। पौराणिक कथाओं में परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार कहा गया है और उनके जन्म दिवस से ही वर्ष की शुरूआत मानी जाती है। भगवान परशुराम का जन्म अक्षय तृतीया के दिन हुआ था। परशुराम का जन्म भले ही उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के जलालाबाद में हुआ हो मगर उनकी कर्म एवं तपोभूमि जौनपुर जिले का आदि गंगा गोमती के पावन तट पर स्थित जमैथा गांव ही रहा जहां उनके पिता महर्षि यमदग्नि ऋषि का आश्रम आज भी है। उन्हीं के नाम पर जौनपुर जिले का नाम यमदग्निपुरम पड़ा था लेकिन बाद में लोगों ने इसे जौनपुर कहना शुरू कर दिया।
परशुराम यमदग्नि और रेणुका की संतान थे। इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चला कि एक बार उनके पिता ने मां का सिर काट देने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा को मानते हुये उन्होंने पलक झपकते ही मां रेणुका का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद ऋषि यमदग्नि ने परशुराम से कहा कि वरदान मांगों इस पर उन्होंने कहा कि यदि वरदान ही देना है तो मेरी मां को पुनरू जीवित कर दों इस पर पिता यमदग्नि ने रेणुका को दोबारा जीवित कर दिया। जीवित होने के बाद रेणुका ने कहा कि परशुराम तुमने मां के दूध का कर्ज अदा कर दिया। इस प्रकार पूरे विश्व में परशुराम ही ऐसे व्यक्ति हैं जो मां और बाप दोनों के रिण से उरिण हुये। परशुराम के गुरू भगवान शिव थे। उनसे उन्हें आर्शीवाद स्वरूप फरसा मिला था। महर्षि यमदग्नि ऋषि जमैथा स्थित अपने आश्रम पर तपस्या करते थे। आसुरी प्रवृत्ति का राजा कीर्तिवीर उन्हें परेशान करता था। यमदग्नि ऋषि तमसा नदी के किनारे बसे आजमगढ़ गये जहां भृगु ऋषि रहते थे। उन्होंने यमदग्नि को अयोध्या जाने और राजा दशरथ के दो पुत्र राम लक्ष्मण की सहायता लेने की सलाह दी। यमदग्नि ऋषि अयोध्या गये और राम लक्ष्मण को अपने साथ लाये। राम लक्ष्मण ने कीर्तिवीर को मारा और गोमती नदी में स्नान किया तभी से इस घाट का नाम रामघाट हो गया। भगवान परशुराम ने तत्कालीन आसुरी प्रवृति वाले क्षत्रियों का ही वध किया था। जौनपुर के जमैथा में अभी भी उनकी मां रेणुका का मंदिर है जहां लोग पूजा अर्चना करते हैं।

Sunday, 19 April 2015

परशुराम का कुछ ऐसा था जीवन

 परशुराम का कुछ ऐसा था जीवन

परशुराम एक ऐसा शख्स है जिसने क्षत्रियों को बेरहमी से मार डाला। सभी हथियारों से लेस पर्शुरामने तमाम क्षत्रियोंको बच्चे ए बूढ़ेए अच्छे बुरे सभी को मार डाला ;महाभारत 1रू2द्ध एक दो बार नहीं बल्कि 21 बार! अब एक किसीको मार डालोगे तो दूसरी बार कैसे आप उसको मार सकते होघ् तीसरी बारघ् बार बारघ् इक्कीस बार घ् कोई मूर्ख ही इसपर यकीन कर सकता है। येही नहीं परशुराम ने क्षत्रिय औरतों पर बलात्कार करके उन्हें गर्भवती बनाया। उन क्षत्रिय औरतों की कोख से पैदा हुए बच्चे परशुराम की नाजायज़ औलादे थी जिनको बाद में कायस्थ कहा गया। कायस्थ ये ब्राह्मण और क्षत्रिय के सयोंग से बनी दूसरी जाती है। बाल ठाकरे कायस्थ है। अमिताभ बच्चन आधा कायस्थ है। खैरए परशुराम ने खुदकी माता का सीर अपने बाप जमदग्नि के कहने पर उड़ा डाला। परशुराम ने अपने माँ का सीर उड़ाने का साहस तो किया। और बीचारी का क्या दोष थाघ् इंद्र देवता जमदग्नि की बीवी रेणुका की तरफ बहोत ही आकर्षित हुआ और उससे रहा ना गया और इंद्रा देवता ने जमदग्नि का रूप धारण करके रेणुका से सम्भोग किया। जमदग्नि ने अपने दिव्या दृष्टी से ये देखा तो उसने तुरंत अपने बीवी का सीर काट डालने की आज्ञा की जिसने टेररिस्ट पर्शुराम ने तुरंत मान ली। दूसरी कहाँनि ये भी कही जाती है कीए रेणुका ने आसमान से जाते देख इंद्रा देव को देखके प्रसन्न हुईए उसकी तरफ आकर्षित हुई और जअमदग्नी ने अपने दिव्या दृष्टी से देखा। अब सोचने की बात है की भला कोई पति अपने से ख़ूबसूरत इंसान को देखने की वजह से अपनी बीवी का सर उड़ा सकता हैघ् इसका उत्तर है एनहीं! ये दूसरी कहानी झूटी हैए ब्राह्मनोने बनायीं हुयीए क्यों की सत्य को छोड़ कर झूठी कहानिया बनाके लोगोंको मूर्ख बनाना ये ब्राह्मणों का पुराना धंदा हैए जिसमे ये वे माहिर है। खैर जो है सो हैए लेकिन परशुराम दुनिया का पहला आतंकवादी हैए इसमें कोई दो राय नहीं होगी। परशुराम दुनिया का पहला आतंकी है जिसने हत्याए और लूट पात और क्षत्रिय औरतों पर बलात्कार जैसी घिनोनी हरकत की है।

कितना असरकारी होगा जनता परिवार?



कितना असरकारी होगा जनता परिवार?



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भारतीय राजनीति में 'जनता परिवार' के उदय का कुछ खास असर होता दिखाई नहीं दे रहा है, बल्कि अभी से यह सवाल जरूर उठने शुरू हो गए हैं कि यह 'परिवार' आखिर कितने दिन तक एकजुट रह पाएगा। इन पार्टियों का अमूमन अपने ही राज्य में असर है, अत: ऐसा नहीं लगता कि ये एक दूसरे को फायदा पहुंचा सकते हैं। हालांकि फिलहाल यह तय हो गया है कि जनता परिवार मुलायमसिंह के नेतृत्व में काम करेगा। 
 
क्या है राज्यों में स्थिति : 
उत्तर प्रदेश में इस समय समाजवादी पार्टी की सरकार है और वहां उसके 232 (कुल 403) विधायक हैं, जबकि बिहार में सत्तारूढ़ जदयू के पास 110 (कुल 243) विधायक हैं, जिसे राजद के 24 विधायकों का बाहर से समर्थन प्राप्त है। कर्नाटक में प्रभाव रखने वाली एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जदएस के पास 225 सदस्यीय विधानसभा में मात्र 40 सीटें हैं, यही हाल हरियाणा में चौटाला की इनेलोद का है, जहां 90 सदस्यीय विधानसभा में उसके पास महज 19 सीटें हैं। 
 
संसद में क्या है स्थिति : 
यदि संसद की बात करें तो लोकसभा में यह दल सरकार के लिए कोई मुसीबत पैदा नहीं कर सकते, क्योंकि भाजपा के साथ बहुमत का पूरा आंकड़ा है साथ ही सहयोगी दलों का समर्थन भी उसे प्राप्त है। लोकसभा में सपा के 5, राजद 4, जदयू 2, जेडीएस 2 और आईएनएलडी के दो सांसद हैं। 
 
...और राज्यसभा में : 
राज्यसभा में जरूर ये दल सरकार के लिए मुश्किल का सबब बन सकते हैं क्योंकि उच्च सदन में सत्तारूढ़ दल की स्थिति अच्छी नहीं है। यहां सपा के पास सर्वाधिक 15 सांसद हैं, जबकि जदयू के पास 12 सांसद हैं, जबकि जदयू, जेडीएस और आईएनएलडी का एक-एक सांसद है।



Saturday, 18 April 2015

प्रधानमंत्री की सार्थक विदेश यात्रा



प्रधानमंत्री की सार्थक विदेश यात्रा

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प्रधानमंत्री की अभी तक की विदेश यात्राएं कूटनीतिक और आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ करने के लिए थीं  किन्तु पिछले सप्ताह की यात्रा सामरिक संबंधों को मज़बूत करने, देश की रक्षा व्यवस्था को शक्तिशाली बनाने एवं मेक इन इंडिया के अपने इरादे को अमली जामा पहनाने के लिए थी। यात्रा की पहले पड़ाव में से राफेल लड़ाकू विमानों का सौदा हुआ। अभी तक हमारी वायु सेना की मारक क्षमता रुसी विमानों सुखोई, मिग 21 और मिग 29  पर आधारित है। फ्रांस का केवल मिराज विमान ही इस टोली में शामिल है। मिग विमान अब बूढ़े होने लगे हैं और उनकी निवृत्ति का समय निकट आने लगा है ऐसे में भारत को तुरंत आधुनिक विमानों की दरकार थी जो हमारी वायु सेना को फिर एक बार हवाई श्रेष्ठता दे। वायु सेना की इसी आपात स्थिति का ध्यान रखते हुए प्रधानमंत्री ने स्थिति को अपने हाथों में लेते हुए ताबड़तोड़ 36 राफेल विमानों को खरीदने का निर्णय लिया। ये विमान दो वर्षों के भीतर ही वायु सेना का हिस्सा बन जाएंगे। यह करार सरकार से सरकार के बीच में है अर्थात बीच में कोई भी दलाल नहीं है। अतः इस सौदे पर कोई ऊँगली भी नहीं उठाई जा सकती। प्रधानमंत्री की व्यग्रता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने महत्वपूर्ण अभियान 'मेक इन इंडिया' को भी  इस सौदे के बीच में नहीं  दिया अन्यथा आज कल अधिकांश सौदों में प्रोद्योगिकी हस्तांतरण की धारा अनिवार्य हो गई है। रणनीतिकारों के अनुसार चीन और पाकिस्तान से एक साथ निपटने के लिए भारत को कम से कम 44 लड़ाकू हवाई दस्ते चाहिए जबकि अभी उसके पास मात्र 34 हवाई दस्ते ही हैं। इन विमानों के शामिल होते ही भारत के पास हवाई दस्तों की जरुरी संख्या पूरी हो जाने की उम्मीद है। हवा से जमीन और हवा से हवा में मारक क्षमता रखने वाले राफेल विमान कई मामलों में अद्भुत सामर्थ्य वाले हैं। किसी भी गतिशील लक्ष्य पर निशाना साध सकते हैं तो आकाश से जमीन पर निशाना भी बड़ी परिशुद्धता से लगा सकते हैं। युद्ध पोतों पर निशाना साध सकते हैं साथ ही परमाणु प्रतिरोधक क्षमता भी रखते हैं। ये टोही विमान की तरह भी उपयोग में लिए जा सकते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये विमान भारत की वायु सेना में नया जोश फूकेंगे। अगला पड़ाव जर्मनी उनका 'मेक इन इंडिया' अभियान के लिए था और उन्होंने हनोवर औद्योगिक मेले का भरपूर लाभ लिया। उन्होंने इस अवसर पर जर्मनी की नामी कंपनियों को न्योता दिया भारत में निवेश करने का। निवेशकों की मांगों के अनुकूल वातावरण बनाने का वादा किया और जर्मनी के उद्योग जगत के प्रतिनिधियों की सलाह को सुना। भारत में जर्मनी और फ्रांस से निवेश कई मायनों में फायदेमंद रहेगा क्योंकि इन देशों से निवेश के साथ तकनीक भी आती है जो भारत के औद्योगिक विकास के लिए आवश्यक है।  
अंतिम पड़ाव कनाडा था। 42 वर्षों बाद भारत के कोई प्रधानमंत्री द्विपक्षीय यात्रा पर गए थे। कनाडा में यूरेनियम के भंडार हैं। जाहिर है कनाडा से रिश्ते भारत की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करेंगे। प्रधानमंत्री ने पहुँचते ही सबसे पहले यूरेनियम का सौदा पक्का किया। 3000  टन का यह सौदा अगले पांच वर्षों तक भारत के परमाणु बिजली घरों में लगने वाले कच्चे  माल के लिए पर्याप्त रहेगा। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी सुरक्षा सर्वोपरि होती है। उत्तर की विस्तारवादी ताकतें और पश्चिम की शैतानी हरकतों से सीमाओं को सुरक्षित रखने के लिए सेना में आत्मविश्वास होना चाहिए और आत्मविश्वास आने के लिए सेना आधुनिक उपकरणों से सज्जित होनी चाहिए। उसके बाद नंबर आता ऊर्जा की आपूर्ति का। यदि ऊर्जा के स्रोत पर्याप्त हों तो गरीबी, खाद्यान्य सुरक्षा, परिवहन, जल आदि की समस्याओं से निपटने में आसानी हो जाती है। विकास की अवधारणा बिना औद्योगीकरण के संभव नहीं और औद्योगीकरण बिना ऊर्जा के। इसी बात से अंदाज़ लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की यह यात्रा जो सुरक्षा, ऊर्जा और औद्योगिक विकास पर केंद्रित थी कितनी महत्वपूर्ण थी। कोई भले कुछ भी कहें प्रधानमंत्री दुनिया में भारत की साख में वृद्धि करने तथा  विदेशी निवेशकों में एक जिज्ञासा पैदा करने में सफल रहे हैं। ऐसी हलचल याद नहीं पहले कभी किसी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में हुई हो। अब तो यह विश्वास हो चला है कि वे अपने इरादों में सफल होंगें।   

Friday, 17 April 2015

शनिश्चरी अमावस्या पर करें विशेष दान



शनिश्चरी अमावस्या पर करें विशेष दान




शनिदेव को काला रंग अतिप्रिय है। उन्हें प्रसन्न करने के लिए काली वस्तुओं का दान करना चाहिए। जातक अपने सामर्थ्य के अनुसार दान करें। 
शास्त्रों के अनुसार शनि से शुभ फल पाने के लिए काली गाय का दान करना चाहिए। 
यदि काली गाय दान करने की क्षमता नहीं है तो काली गाय के निमित्त चारा दान करें या किसी गौशाला में जाकर काली गाय के महीने या सालभर के चारे के निमित्त भी धन दिया जा सकता है।
इसी तरह कोई भी काला वस्त्र (कंबल हो तो उत्तम), काली उड़द की दाल, काले तिल, काले चमड़े का जूता या चप्पल, नमक, सरसों का तेल या अनाज का दान भी किया जा सकता है। ध्यान रहे कि लोहे के बर्तन में चावल भरकर दान करें। ध्यान रहे कि शनि का दान शनिवार की शाम को श्रेष्ठ माना गया है। यह भी ध्यान रखें कि किसी जरूरतमंद व्यक्ति को ही दान दें। इसके अलावा सरसों का तेल, फूल, व तेल से बने पकवानों का भी दान दिया जा सकता है।