यूरोपीय संघ पर ग्रीस संकट का साया
एक महान परिकल्पना के साथ यूरोपियन आर्थिक संघ की स्थापना की गई थी जो आगे चलकर यूरोपियन यूनियन ;ईयूद्ध में तबदील हो गयी थी। आज यह संगठन इसलिए मुश्किल में पड़ गया है क्योंकि इसका एक सदस्य यूनान ;ग्रीसद्ध बुरी तरह कर्ज में डूब चुका हैै। आने वाले दिनों या हफ्तों में यह भी तय हो जाएगा कि क्या यह देश उस यूरोऽजोन का सदस्य रह भी पाएगा या नहींए जिसमें यूरोपियन यूनियन के देश एक साझी मुद्रा में विनिमय करते हैं। लेकिन जिस तरह से परिस्थितियां शक्ल अख्तियार करती जा रही हैंए वह यूनान वाले संकट से ज्यादा गंभीर हैं।
ब्रिटेन की स्थिति भी विचित्र बन गयी है क्योंकि प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने चुनाव जीतने से पहले वोटरों से वादा किया था कि वर्ष 2017 खत्म होने से पहले जनमत संग्रह करवाया जाएगा कि क्या देश को यूरोपियन यूनियन का सदस्य आगे भी रहना चाहिए या नहीं। लेकिन इस महाद्वीप में वाम या दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर झुकाव रखने वाली ऐसी छोटी.मोटी पार्टियों का उद्भव होना यह दर्शाता है कि कईयों का इसके और मजबूत गठजोड़ वाले ध्येय से मोह भंग हो गया है और खासकर ब्रिटेन को यही तीन शब्द ज्यादा चुभते हैं।पहले पहल खुशी से अपने सरमाए के एक बड़े भाग को मदद के रूप में देने वाले यूरोपीय देश अब यह देख रहे हैं कि उन्होंने कुछ ज्यादा ही छोड़ दिया। यूनान में अतिवादियों से भरी और वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली सीरिऽजा पार्टी का उद्भव इसलिए भी हो पाया क्योंकि देश का कर संग्रह ढांचा बहुत कमजोर हो गया था। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम घाटे में चल रहे थे और अपनी आय से ज्यादा खर्च करने की आदत लोगों में घर कर गई थी। इसके अलावा मैरीन ली पेन की अगुवाई वाली अति दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल फ्रंट ऑफ फ्रांस का कहना है कि यूरो की बजाय विनिमय फिर से पुरानी मुद्रा में होना चाहिए और इसे लागू करने के लिए यूरोपिनय यूनियन के पास ज्यादा समय नहीं है।
लंबे समय तक अमीरी भोगने के बाद यूरोपियन यूनियन के अधिकांश देश इन दिनों मंदी की चपेट में हैं। अब चूंकि मौजूदा यूरोपियन पीढ़ी चाहती है कि उसे यूरोपियन यूनियन के जिस मर्जी सदस्य देश में जाकर रोजी.रोटी कमाने और रहने का हक होना चाहिएए ऐसा न होने पर मंदी की मार उन्हें और ज्यादा कचोटती है। जैसे कि यूनान का उदाहरण हैए मुख्यधारा से इतर पार्टियों का उद्भव अचानक हो गया है और हंगरी जैसे सदस्य देश में नेतृत्व अपनी किस्म का अलग अधिनायकवादी तंत्र विकसित करने में लगा है ताकि वहां के सर्ब समुदाय को यूरोपीय देशों से मिलने वाली इमदाद में रुकावटें खड़ी की जा सकें।
यूरोपियन देशों की संकुचित मानसिकता को इससे ज्यादा नहीं दर्शया जा सकता कि किस तरह वे अफ्रीका और मध्य.पूर्व में मची मारकाट और अफरातफरी से बचकर निकल आए लोगों के जत्थों को अपने मुल्कों में पनाह देने से बच रहे हैं। अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते इटली और यूनान को सबसे ज्यादा यह बोझ उठाना पड़ रहा है। जबकि यूरोपियन यूनियन ने अपनी मानवता हितैषी छवि की इज्जत बचाए रखने की खातिर यह फॉर्मूला तय किया था कि 40000 विस्थापितों को सभी सदस्य देशों में बांट कर पनाह दी जाएगीए लेकिन कई अन्यों के अलावा ब्रिटेन ने इन्हें लेने से साफ इनकार कर दिया।
यूनान संकट ने यूरोपीय देशों को यह सोचने का मौका दिया है कि किस प्रकार की समस्याएं आगे आने वाली हैं। इस बारे में सबसे बड़ी चेतावनी यूरोपियन यूनियन में सबसे ज्यादा रसूख रखने वाले जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल की ओर से आई है। यूनान के केस में यूरोपियन यूनियन पर भी बराबर का इल्जाम आएगा क्योंकि इसने उसे संकट से उबारने के लिए तब दूसरा विकल्प थाली में परोस डाला जबकि यूनान ने पहले वाले पर भी पूरी तरह अमल नहीं किया थाए तिस पर तुर्रा यह कि नाकाम रही आखिरी समझौता वार्ता के दौरान भी यूनानी नेता एलेक्सी सिपरास ने तीसरे संकटमोचन की मांग कर डाली। हालांकि यूनान के लोग सालों से चली आ रही मितव्ययता से तंग आ चुके थे लेकिन उनमें से एक भी ऐसा नेता पैदा नहीं हो सका जो इस संकट को नाथने का माद्दा रखता हो।
आर्थिक संकट से निकलने के लिए यूनान कौन सा रास्ता अख्तियार करेगाए इसका पता जनमत संग्रह के बाद ही चल पायेगा। ईयू के नेतृत्व को चाहिए कि वह उन्हें दरपेश मौजूदा संकट की तह में छिपी राजनीतिक समस्याओं पर अपना ध्यान दे। ब्रिटेन की समस्या को अलग तरीके से निबटाया जाना चाहिए क्योंकि वह सदा ही खुद को अन्य यूरोपियनों से अलग और विशिष्ट मानता आया है और उसे इससे बाहर रहकर जुड़े रहने की खास छूट भी मिली हुई है। ईयू की सदस्यता छोड़ने पर यूरोपियन भावना के अलावा स्वयं ब्रिटेन के हितों को भारी नुकसान होगा।
समस्या यह है कि कैसे यूरोप की नयी पीढ़ी में यह भावना जगाई जाए कि यूरोप की महानता और हित साथ रहने में हैं। आज हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां पर संपर्क साधनों की वजह से आपसी संबंध काफी बड़े पैमाने पर बने रहते हैंए लिहाजा 17वीं और 18वीं सदी सरीखे राष्ट्रवाद में फिर से लौटना संभव नहीं है।
परंतु सुश्री मर्केल भी असंभव को संभव नहीं कर सकतीं क्योंकि उन्हें भी अपने लोगों की राय को ध्यान में रखना है। जर्मनी के लोगों को खासतौर पर इस बात की आशंका है कि ऐसा न हो कि यूनान की मदद करने के फेर में कर्ज में दिया जाने वाला धन कहीं उनके देश के सारे पैसे को न लील ले। शायद यही समय है कि चांसलर मर्केल को चाहिए वह अगुवाई करके समस्या का हल निकालें। ध्यान देने योग्य है कि यूरोपियन यूनियन अपनी उस आरंभिक अवस्था से काफी आगे निकल आयी है जब यह कोयला और इस्पात समृद्ध देशों का गुट हुआ करता था।
फिर भी यूरोपियन यूनियन एक ऐसा कार्यक्रम है जिसे चलते रहना चाहिए और इसके सदस्य देशों को दरपेश समस्याओं का हल किसी न किसी तरह से निकाला जाना चाहिए।
SOURCE : dainiktribune.com
No comments:
Post a Comment