आसान नहीं मेक इन इंडिया की राह
प्रधानमंत्री मोदी की मेक इन इंडिया योजना कुछ रंग लाती दिख रही है। बीते समय में कम से कम पांच बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में स्मार्ट फोन बनाने की मंशा व्यक्त की है। इनमे सोनीए लेनोवोए एप्पल जैसी प्रमुख कंपनियां शामिल हैं। यूरोप की हवाई जहाज बनाने वाली प्रमुख कंपनी एयरबस ने भी ऐसी मंशा जताई है। इसके विपरीत माइक्रोसाफ्ट ने फिलहाल हाथ खींच रखे हैं। ध्यान देने की बात यह भी है कि दिलचस्पी लेने वाली कंपनियों में अधिकतर स्मार्ट फोन निर्माता हैं। दूसरे उद्योग जैसे स्टीलए मेडिकल सामग्रीए इलेक्ट्रिकल स्विचगेयरए दवाएंए चाकलेट आदि के निर्माताओं में उदासी बनी हुई है। विश्व के मैन्यूफैक्चरिंग बाजार में स्मार्ट फोन का हिस्सा एक प्रतिशत से बहुत कम होने का अनुमान है।मैन्यूफैक्चरिंग के मूल में मेक इन इंडिया में प्रगति होती नहीं दिख रही है। फिर भी संभव है कि स्मार्ट फोन के भारत में बनने के बाद दूसरे उत्पाद भी यहां बनने लगें। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से हमें आधुनिक तकनीकें मिलने लगेंगी। ये तकनीकें भविष्य में हमारे आर्थिक विकास की आधारशिला बन सकती हैं।
इस स्ट्रेटेजी में खतरा दूसरे स्थान पर है। सामान्यतः माना जाता है कि विदेशी कम्पनियों द्वारा आधुनिक तकनीकें लाई जाती हैंए जैसे सुजुकी नई पीढ़ी की कारों को भारत में लायी। लेकिन जरूरी नहीं कि इन तकनीकों को हासिल करने के लिए सुजुकी जैसी विदेशी कंपनी का आगमन जरूरी हो। तमाम क्षेत्रों में भारतीय कंपनियों ने अपने बलबूते पर वैश्विक बाजार में अपनी पैठ बनाई है। जैसे दवाओंए कपड़ों और चमड़े के सामान के क्षेत्रों में। संभव है कि सुजुकी के प्रवेश के बगैर भी महिन्द्रा और टाटा के द्वारा आधुनिक कारें बना ली जातीं।
दूसरी समस्या है कि अनेक अध्ययन बताते हैं कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा आधुनिक तकनीकों को ट्रांसफर कम ही किया जाता है। यूनिवर्सिटी आफ आक्सफोर्ड द्वारा किये गये अध्ययन में पाया गया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा तकनीकों का ट्रांसफर आटोमेटिक नहीं होता है। विशेष दबाव बनाने पर ही ये तकनीकों का ट्रांसफर करती हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी अंकटाड ने पाया कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा तकनीकों का ट्रांसफर मुख्यतः विकसित देशों के बीच ही होता है।
जैसे अमेरिकी कम्पनियों द्वारा फ्रांस में निवेश करने पर तकनीक का ट्रांसफर होता है परन्तु उसी कम्पनी द्वारा भारत में निवेश करने पर तकनीक का ट्रांसफर नहीं होता। विश्व बैंक के अधिकारियों द्वारा किये गये अध्ययन में पाया गया कि विदेशी निवेश के लाभ हासिल करने के लिये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर कुछ प्रतिबंध लगाना जरूरी हैं। निष्कर्ष है कि उचित प्रतिबन्धों के अभाव में तकनीकी ट्रांसफर नहीं होता। यहां समस्या है कि प्रतिबंध लगाएंगे तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां आएंगी ही नहीं। दोनों तरफ संकट है। प्रतिबंध नहीं लगाएंगे तो तकनीकों का ट्रांसफर नहीं होगा और मेक इन इंडिया मुट्ठी भर विदेशी कंपनियों तक सिमट कर रह जाएगा।
यहां चीन के अनुभव को समझने की जरूरत है। यह सही है कि चीन ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आह्वान किया और विश्व का मैन्यूफैक्चरिंग हब बन गया। परन्तु चीन की इस सफलता में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के योगदान के विषय में संशय बना हुआ है। चीन में मैन्यूफैक्चरिंग के विकास में घरेलू कंपनियों का भारी योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में चीन की विकास दर में आ रही गिरावट लाने में इन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा प्राॅफिट तथा रायल्टी को स्वदेश भेजने की अहम भूमिका दिखती है। अतः चीन के माडल का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
इस दृष्टि से मोदी द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का खुला आह्वान करने पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। विशेषकर चूंकि इनके आगमन से देश को वित्तीय नुकसान अवश्य ही झेलना पड़ता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा मेजबान देश में कमाये गये लाभ के बड़े हिस्से को अपने मुख्यालय भेज दिया जाता है। तकनीकों की रायल्टी के मद पर भी रकम भेजी जाती है। मुख्यालय से खरीदे गये रा.मेटीरियल का दाम बढ़ाकर भी रकम को भेज दिया जाता है।
जैसे कोका कोला द्वारा अमेरिका स्थित अपने मुख्यालय से कनसन्ट्रेट का आयात किया जाता है। इसकी पेमेंट कोका कोला इंडिया द्वारा कोकाकोला अमेरिका को की जाती है। 100 रुपये के कनसन्ट्रेट का पेमेंट 1000 रुपये किया जाये तो 900 रुपये को गैर कानूनी तौर से भेज दिया जायेगा। इस रकम पर भारत को इनकम टैक्स नहीं मिलेगा। कोका कोला का उत्पादन यदि भारतीय कम्पनी द्वारा किया जाता तो इस रकम को बाहर नहीं भेजना होता।
मोदी के सामने चुनौती है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तकनीकों को ट्रांसफर करा लें तथा रकम को बाहर भेजने पर रोक लगायें। तब इनका प्रवेश देश के लिये लाभप्रद होगा। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निवेश के प्रस्तावों पर भारत सरकार से स्वीकृति ली जाती है। मोदी को चाहिये कि इन प्रस्तावों के साथ ष्तकनीकी आडिटष् करने की शर्त लगायें। वर्तमान में बड़ी कम्पनियों द्वारा ष्इनर्जी आडिटष् कराकर अपनी वार्षिक बैलेंस शीट के साथ प्रस्तुत की जाती है। बताना होता है कि ऊर्जा की खपत कम करने के लिये इन्होंने क्या कदम उठाये हैं।
इसी तर्ज पर विदेशी कम्पनियों के लिये अनिवार्य कर देना चाहिये कि वे बतायें कि कौन.सी आधुनिक तकनीकें वे लेकर आयेंगे और किस प्रकार भारतीय कम्पनियों को उनका ट्रान्सफर किया जायेगा। इन प्रस्तावों को उद्योग मंत्रालय की वेबसाइट पर डाल देना चाहिये और स्वीकृति देने के पहले जन.सुनवाई करनी चाहियेए जिससे इनके प्रभाव की जानकारी रखने वाले उद्यमी तथा अर्थशास्त्री अपनी बात कह सकें। इनकी बात का संज्ञान लेने के बाद सरकार निर्णय ले।
ऐसा करने से भारत का तकनीकी उच्चीकरण करने में मोदी सफल होंगे। जर्मनी के साथ ग्रीन इनर्जीए फ्रांस के साथ हाई स्पीड ट्रेन तथा कनाडा के साथ एटॉमिक रियेक्टर के समझौतों को भी इस प्रक्रिया के अन्तर्गत लाना चाहियेए जिससे सही स्थिति की जानकारी जनता तथा सरकार को मिले। केवल राफेल जैसे रक्षा सौदों को इस प्रक्रिया से मुक्त किया जाना चाहिये।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/
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