Wednesday, 15 July 2015

अंतरिक्ष कारोबार में भारत की छलांग

अंतरिक्ष कारोबार में भारत की छलांग

अंतरिक्ष विज्ञान के व्यापार में अब हम अग्रणी देशों में शामिल हो गए हैं। इसका प्रमाण हमें 9 जुलाई 2015 को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के श्रीहरिकोटा से तब मिल गयाए जब हमारे वैज्ञानिक और अभियंताओं ने ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यानए यानी पीएसएलवी सी.28 से ब्रिटेन के पांच उपग्रहों को प्रक्षेपित करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया। हालांकि इसके पहले यहीं से 30 जून 2014 को इसी तरह की वाणिज्यिक पहल की गई थी। इसमें विकसित देशों के पांच उपग्रहों को सवार करके उन्हें गंतव्य तक पहुंचाया गया था।
इस उपलब्धि में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि अब हमारे वैज्ञानिक शोध संस्थानों को बाजार में जगह मिल रही है और ये लाभदायी कारोबार की ओर बढ़ रहे हैं। लिहाजा अब भारत उपग्रह प्रक्षेपित करके खरबों डॉलर कमाने के वैश्विक क्षेत्र में प्रवेश कर गया है। यदि देश के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय भी आविष्कारों के व्यापार से जुड़ जाएं तो देश के छोटे वैज्ञानिकों को तो मान्यता मिलेगी हीए हमारे शोध संस्थान विदेशी मुद्रा कमाने का भी एक बड़ा जरिया बन सकते हैं।
हमारे पूर्वजों ने शून्य और उड़न तश्तरियों जैसे विचारों की परिकल्पना की। शून्य का विचार ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का केंद्र बिंदु है। बारहवीं सदी के महान खगोल विज्ञानी आर्यभट्ट और उनकी गणितज्ञ बेटी लीलावती के अलावा वराहमिहिरए भास्कराचार्य और यवनाचार्य ब्रह्मांड के रहस्यों को खंगालते रहे हैं। इसीलिए हमारे वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रमों के संस्थापक वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और सतीश धवन ने देश के पहले स्वदेशी उपग्रह का नामकरण आर्यभट्ट के नाम से किया है। अंतरिक्ष विज्ञान के स्वर्ण.अक्षरों में पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा का नाम भी लिखा गया है। उन्होंने 3 अप्रैल 1984 को सोवियत भूमि से अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाले यान सोयूज टी.11 में यात्रा की थी।
दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के  छह.सात देशों के पास ही हैए लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया की इस तकनीक से महरूम देश अमेरिकाए रूसए चीनए जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम ;एंट्रिक्स कार्पोरेशनद्ध के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं हैएजो हमारे पीएसएलवी .सी के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। इसलिए इसकी व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं।
दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरुआत 26 मई 1999 में हुई थी और जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी.3 ने 22 अक्तूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थेए इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार 22 अप्रैल 2007 को ध्रुवीय यान पीएसएलवी सी.8 के मार्फत इटली के ष्एंजाइलष् उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती हैए जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरुआत 21 जनवरी 2008 को हुईए जब पीएसएलवी सी.10 ने इस्राइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया।
हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलाब्धियां हासिल की हैंए वे गर्व करने लायक हैं। एक समय ऐसा भी था जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अश्व.शक्ति हैए जो भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे जीएसएलवी मसलन भू.उपग्रह प्रक्षेपण यान की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी।
नई और अहम चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में भी हैं। फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। भारत वाकई दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा.उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी होना ही चाहिए। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस और अमेरिका ने जिस तरह से भारत को धोखा दिया थाएउसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में भी मुंह की खानी पड़ सकती है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/p/

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