संतुलित विकास ही है समाधान
देश की विदेशमंत्री पर एक ष्भगोड़े अपराधीष् की सहायता का आरोप लगा हैय एक राज्य की मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में हैय एक पश्चिमी राज्य के चार मंत्री कथित घोटालों के विवादों में घिरे हैंय एक अन्य राज्य में परीक्षाओं को लेकर चल रहे विवाद की आंच से सरकार झुलस रही है. ये सारे उदाहरण भाजपा.शासित प्रदेशों के हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि संसद के मानसून सत्र में विपक्षए भले ही वह कितना कमज़ोर क्यों न हो गया हैए सरकार को लगातार मुश्किल में डाले रखेगा। जो महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में सदन में रखे जाने हैंए उनमें वह भूमि अधिग्रहण विधेयक भी हैए जिसे सरकार पिछले सत्र में पारित नहीं करवा पायी थी। आसार जो बन रहे हैंए उनके संकेत तो यही हैं कि इस सत्र में भी शायद ही यह महत्वपूर्ण काम पूरा हो सके। वैसे भीए इस विधेयक पर विचार कर रही समिति ने निर्णय के लिए कुछ और समय मांग लिया है। लेकिनए इसका अर्थ यह नहीं है कि देश में इस विवादास्पद विधेयक पर चर्चा न हो।पिछली सरकार ने काफी विचार.विमर्श और तत्कालीन प्रमुख विरोधी दल भाजपा की सहमति से 2013 में भूमि अधिग्रहण संबंधी विधेयक पारित करवाया था। लेकिन अबए जबकि भाजपा सत्ता में हैए उसे उस विधेयक में ष्गंभीर खामियांष् नज़र आ रही हैं। सत्ता में न होने और सत्ता में आने के बीच आखिर ऐसा क्या हो गया कि भाजपा को इस संदर्भ में नया विधेयक लाना पड़ाघ् संघ.परिवार के अपने सहयोगी संगठनों के विरोध के बावजूद केंद्र की भाजपा सरकार अड़ी हुई है कि भूमि.अधिग्रहण संबंधी परिवर्तित विधेयक पारित हो जाएघ् हालांकि विरोध के चलते कुछ संशोधन सरकार मानने के लिए तैयार हैए पर सहमति बन नहीं रही। बड़ा विरोध जिन दो मुद्दों पर हैए उनका संबंध उन लोगों से हैए जिनकी ज़मीन का अधिग्रहण होना है। सन् 2013 के तत्संबंधी विधेयक में दो महत्वपूर्ण बातें थीं. पहली तो यह कि उन लोगों से सहमति ली जाएए जिनकी ज़मीन अधिगृहीत की जानी है। दूसरीए अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव को भी निर्णय का आधार बनाया जाए। ये दोनों बातें जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हैं। लेकिनए भाजपा सरकार को लगता है कि इनसे विकास का रास्ता रुकने की आशंका है! सवाल उठता हैए क्या सचमुच जनतंत्र और विकास परस्पर.विरोधी हैंघ्
अपनी सारी खामियों के बावजूद जनतंत्र शासन की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। हम इसे छोड़ नहीं सकते। और विकास को भी स्थगित नहीं किया जा सकता। इसलिएए जो भी रास्ता निकलेए उसमें जनतंत्र और विकास दोनों से कोई समझौता नहीं होना चाहिए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शासन की चाहे जो भी प्रणाली होए उसमें केंद्रीय बात जनता का हित है। और सच्चाई यह भी है कि पिछले 68 सालों में विकास के सारे दावों के बावजूद आज भी देश का आम आदमी स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। ऐसा नहीं है कि विकास नहीं हुआ। बहुत कुछ हुआ हैए पर विकास का लाभ जनता में बराबर.बराबर बंटा नहीं। देश की बहुसंख्यक जनताए यानी सत्तर प्रतिशत जनता अभी भी अभावों में जी रही है। देश की अस्सी प्रतिशत संपत्ति देश के बीस प्रतिशत लोगों के पास है। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही हैए पर गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीने वालों की संख्या कम नहीं हो रही। देश के विधायकोंए सांसदों की सम्पत्ति हर पांच साल बाद दुगनी.चौगुनी हो जाती हैए पर जिनका प्रतिनिधित्व वे करते हैंए उनकी विवशताएं कम नहीं हो रहीं! स्पष्ट हैए विकास की हमारी अवधारणा में ही कहीं कोई गड़बड़ है और विकास की हमारी कोशिशों में भी कहीं न कहीं ईमानदारी की कमी है।
भूमि.अधिग्रहण की बात करें। निस्संदेह विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण ज़रूरी है। पर कैसे हो रहा है यह कामघ् सरकारी अनुमान के अनुसार सन् 2006 से लेकर 2013 के बीच विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध के लिए 60 हज़ार हेक्टेयर से अधिक ज़मीन अधिगृहीत की गयी थी। इसमें से 53 प्रतिशतए अर्थात आधी से भी अधिक ज़मीन का अभी तक कोई उपयोग नहीं हुआ है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि आज़ादी प्राप्त होने के बाद से लेकर अब तक विकास.कार्यों के नाम पर छह करोड़ लोगों को अपनी ज़मीन से हटाया गया था। इनमें से एक.तिहाई को भी समुचित तरीके से पुनर्स्थापित नहीं किया गया है। और बेदखल होने वाले ये लोग कौन हैंघ् ग्रामीणए गरीबए छोटे किसानए मुछआरेए खानों में काम करने वाले। इनमें 40 प्रतिशत आदिवासी हैं और 20 प्रतिशत दलित। ये आदिवासी और दलित विकास के पिरामिड में सबसे नीचे हैं और यही विकास के लिए विस्थापित किये जाने वाले लोग नगरों.महानगरों में रोज़गार के लिए अमानवीय स्थितियों में जी रहे हैंए ष्स्मार्ट सिटीष् के सपने देखना ग़लत नहीं हैए पर यह भी देखा जाये कि हमारे नगरों.महानगरों की संरचना किस तरह चरमरा रही है। इसके साथ ही जुड़ा है यह तथ्य कि पिछले बीस सालों में देश में दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। जानना यह भी ज़रूरी है कि हमारी नब्बे प्रतिशत के लगभग कोयला खदानें और पचास प्रतिशत के लगभग अन्य खानें आदिवासी इलाकों में हैं। स्पष्ट हैए हमारे विकास के लिए सबसे ज़्यादा कीमत यही चुकायेंगे। इसीलिए ज़रूरी है भूमि अधिग्रहण के काम में इनकी पूरी भागीदारी। और इसीलिए ज़रूरी है यह आकलन करना भी कि भूमि.अधिग्रहण की किसी भी योजना का सामाजिक प्रभाव क्या होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी यह विधेयक संसद में आयेगाए इस प्रक्रिया से जुड़े मानवीय पहलुओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जायेगा।
औद्योगिकीकरण और नगरीकरण की प्रक्रियाओं को रोका नहीं जा सकता। विकास के लिए ज़रूरी हैं ये दोनों। पर यह काम कैसे होए कैसे देश की गरीबी और विकास की आवश्यकताओं में संतुलन बनाये रखा जा सकेए इसके बारे में नीयत की ईमानदारी और नीति की पारदर्शिता का होना ज़रूरी है। दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति में यही दोनों कम दिखाई देती हैं। इसीलिए राजनीति और राजनेताओं में जनता का भरोसा नहीं रहा। जनतंत्र स्वस्थ रहेए पनपेए इसकी पहली शर्त यह भरोसा है। आज हमारी समूची राजनीति विश्वसनीयता के इस संकट से ग्रस्त हैए और संकट की पीड़ा को देश की आम जनता भोग रही है। इसलिए ज़रूरी है कि भूमि.अधिग्रहण के लिए कानून बनाते समय इन सभी संदर्भों को ध्यान में रखा जाये। ध्यान में रखा जाये कि औद्योगिक विकास की अनिवार्यता को आम आदमी की आवश्यकताओं से संतुलित करना होगा। उद्योग चाहिएए पर शर्त यह है कि हर हाथ को काम मिलेय स्मार्ट सिटी भी समय की ज़रूरत हैए पर गांवों के विकास की कीमत पर नहीं। एक सम्यक विकास ही हमारी समस्याओं का समाधान है। यह काम नारों से नहीं होगा। सबका साथए सबका विकास का उद्देश्य हमारी नीतियों में झलकना चाहिएए हमारी नीयत से उजागर होना चाहिए।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/
No comments:
Post a Comment