Friday, 17 July 2015

राष्ट्रीय हित में दलीय स्वार्थों की बलि जरूरी

राष्ट्रीय हित में दलीय स्वार्थों की बलि जरूरी


पिछले दिनों भाजपा की केंद्र व कतिपय राज्य सरकारों के सामने कदाचार से जुड़े जो मामले सामने आएए उनसे निपटने के तौर.तरीकों से जनता में अच्छा संदेश नहीं गया। जिस भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाकर भाजपा ने केंद्र की सत्ता का वरण किया थाए उसके कारगर व पारदर्शी समाधान में केंद्र सरकार चूकती नजर आई। जनता में संदेश गया कि महज लीपापोती की कोशिश हो रही है। आखिरकार भारी विरोध के बाद मध्यप्रदेश सरकार व्यापम घोटाले पर सीबीआई जांच कराने पर सहमत हुई। शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप के बाद सीबीआई मामले की जांच कर रही है। ऐसा नहीं है कि सीण्बीण्आईण् की निष्पक्षता पर कभी उंगली नहीं उठी। कई बार सीण्बीण्आईण् विवादों के घेरे में आयी हैए कई बार सीण्बीण्आईण् पर केंद्र सरकार के दबाव में काम करने के आरोप लगे हैं। पर इसके बावजूद आम धारणा यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से सीण्बीण्आईण् की जांच बेहतर होती है।
ईमानदार छवि बनाने और उस छवि को बनाये रखने का दायित्व आज हमारी सरकारों पर अधिक है। खासतौर पर केंद्र सरकार को इस संदर्भ में अधिक सक्रिय और अधिक सावधान रहने की ज़रूरत है। मतदाता अभी भूला नहीं है कि भाजपा जिन मुद्दों को हथियार बनाकर आम चुनाव में मैदान में उतरी थीए उनमें सबसे प्रमुख मुद्दा पिछली सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का ही था। भाजपा मतदाता को यह समझाने में सफल रही थी कि भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार रहे होंए पर उनके नेतृत्व वाली सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही है। टूण् जीण् घोटालाए कोयला घोटाला जैसे आरोपों ने आग में घी का काम किया था। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। आम चुनाव में कांग्रेस को जिस हार का सामना करना पड़ाए उसे किसी भी राजनीतिक दल के लिए शर्मनाक ही कहा जा सकता है। चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया था कि देश कि जनता एक साफ.सुथरीए पारदर्शीए भ्रष्टाचार को न सहने वाली सरकार चाहती है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा समूचे चुनाव प्रचार के दौरान यही आश्वासन देती रही कि वह ऐसी ही सरकार देश को देगी। मतदाता ने इस बात पर भरोसा किया। उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार इस दिशा में तेज़ी से कुछ निर्णायक कदम उठायेगी। लेकिन साल भर के भीतर ही मतदाता कहीं न कहीं यह महसूस करने लगा है कि उसकी उम्मीदों की बुनियाद शायद कमज़ोर थी।
केंद्र और भाजपा.शासित राज्यों में जिस तरह के घोटाले सामने आ रहे हैंए उन्हें देखते हुए भाजपा के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी छवि सुधारने के लिए कुछ ठोस कदम उठाये। सरकारों का ईमानदार होना और ईमानदार दिखनाए दोनों ज़रूरी हैं। पिछले एक साल में इस दिशा में शायद ही कोई ऐसा कदम उठाया गया है जो भरोसा दिलाने वाला हो। ललित मोदी कांड में विदेशमंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री की भूमिका हो या मध्यप्रदेश का व्यापम कांडए या फिर छत्तीसगढ़ सरकार के विवादास्पद कामए सबमें कुछ नहींए बहुत कुछ ग़लत होने की गंध आ रही है। केंद्रीय मंत्रियोंए राज्यों के मंत्रियों से लेकर भाजपा के पदाधिकारियों के बयान पारदर्शिता को कम करने वाले ही साबित हो रहे हैं। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री का मौन भी बहुत कुछ कह रहा हैए और जो कुछ कह रहा हैए वह सरकार के लिए अच्छा नहीं है।
पिछले दिनों वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सीण्बीण्आईण् के संदर्भ में कहा था कि देश की सबसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसी को फैसलों में ग़लती और भ्रष्टाचार में फर्क को समझना होगा। उन्होंने ष्आनेस्ट एररष् शब्द काम में लिया था यानी ईमानदार ग़लती। हो सकता है यह कहते समय उनके दिमाग में कोई खास ष्गलतीष् होए पर कुल मिलाकर इससे जो बात समझ आती हैए वह यह है कि वित्तमंत्री बचाव का एक और रास्ता सुझा रहे थे। इस तरह के बयान संदेह पैदा करते हैं। ऐसे संदेहों से सरकारों की साख कम होती हैए और ज़रूरत साख बढ़ाने की है।

सवाल उठता है कि पिछले एक साल में केंद्र सरकार ने ऐसा कौन.सा काम किया हैए जो भ्रष्टाचार के संदर्भ में उसकी साख बढ़ाने वाला होघ् चुनाव प्रचार के दौरान जिन मामलों को भ्रष्टाचार के संदर्भ में उठाया गया थाए उन्हें लेकर भी सरकार कितनी सक्रिय हुईघ् ललित मोदी कांड में भी प्रवर्तन निदेशालय में अब हरकत हो रही है। आखिर साल भर तक क्यों चुप रहा निदेशालयघ् आदर्श घोटाला हो या वाड्रा कांड हो या फिर महाराष्ट्र का सिंचाई घोटालाए साल भर में इनमें कहीं कुछ तो होता दिखाई नहीं दिया। आखिर क्योंघ् व्यापम घोटाले को लेकर भी केंद्र सरकार राज्य सरकार का बचाव ही करती रही।
स्पष्ट नीति और ईमानदार नीयत के साथ.साथ संकल्प और साहस की भी ज़रूरत होती है। सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की रक्षा के लिए सरकार को अपने आप से पूछना होगा कि इस दिशा में उसने क्या कदम उठाये हैं। लोकपाल के मुद्दे पर पिछली सरकार की नीयत पर सवाल उठाने वाली भाजपा जब आज सत्ता में है तो इसके बारे में चुप क्यों हैघ् सूचना के अधिकार की कतर.ब्योंत क्यों हो रही हैघ्
एक बात औरए हाल ही में महाराष्ट्र में ष्चिकी.कांडष् की बात जब उठी तो सरकार ने कहा.वह इसी एक मामले की जांच नहीं करायेगीए दस साल के ऐसे सौदों की जांच की जायेगी। मतलब यह कि आज जो जांच की मांग कर रहे हैंए उनके दामन पर भी दाग़ हैं। होनी चाहिए उनकी भी जांचए पर वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हुए कांड की जांच की मांग पर ही सरकार को दस साल के कांड क्यों याद आयेघ् पहले भी एक केंद्रीय मंत्री कह चुके हैं.बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। सवाल उठता हैए इस संदर्भ में सरकार ने अब तक बात दूर तक पहुंचाने की दिशा में क्या कार्रवाई कीघ् कहीं इस तरह की धमकियां इसलिए तो नहीं दी जातीं कि आरोप लगाने वाले चुप हो जायेंघ् अकसर हमने देखा है राजनेताओं को यह कहते कि तुम्हारी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज़्यादा मैली है। दूर तक बात ले जाने की धमकी और दूसरे की कमीज़ को ज़्यादा मैली बताने की यह रणनीतिए दोनोंए नीयत में खोट का ही संकेत देती हैं।
साफ.सुथरी सरकार और बेहतर चाल.चरित्र का दावा करने वाली पार्टी को पारदर्शी व्यवहार का प्रमाण देना होगा। उसकी बातों से नहींए उसके कामों से लगना चाहिए कि वह ईमानदारी और पारदर्शिता के पक्ष में है। इस संदर्भ में अब तक जो कुछ हुआ हैए और जो कुछ नहीं हुआ हैए वह नयी सरकार की छवि अच्छी नहीं बना रहा। छवि बनाने के लिए स्वयं को सिद्ध करना होगा। स्वयं को सिद्ध करने का मतलब है भ्रष्टाचार के बारे में ठोसए निर्ममए निर्णायक कार्रवाई। पर यह खतरा उठाये बिना सरकार और प्रधानमंत्री की नीयत पर लग रहे दाग़ नहीं धुल सकते। राष्ट्रीय हितों के लिए दलीय स्वार्थोँ की बलि देनी ही होगी। तब पूरी होगी पारदर्शिता की शर्त। सवाल नीयत का है।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/

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