Sunday, 19 July 2015

सच से साक्षात्कार का समय

सच से साक्षात्कार का समय


अगर ष्डोभाल सिद्धांतष् पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है तो शायद ऐसा इसलिए है कि इसकी एक प्रकार से शिथिल शुरुआत हुई थी। तार्किक तौर पर यह बात कही जा सकती है कि इस सिद्धांत की अभिव्यक्ति नवनियुक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा सर्वप्रथम सितंबर 2014 में बीजिंग यात्रा के दौरान की गयी थी। चीन स्थित भारतीय मीडिया से बातचीत के दौरान डोभाल ने चीन.भारत संबंधों में एक बड़ा बदलाव आने की संभावना देखी क्योंकि राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री मोदी ष्दोनों बहुत ही ताकतवरए लोकप्रिय और बहुत ही दृढ़निश्चयी नेता हैं।ष् अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि दोनों ही संजीदा नेता हैं और दोनों को ही पार्टी तथा संसद में बहुमत प्राप्त है और इसके अलावा दोनों के ही पास आगे पर्याप्त समय भी है।
हालांकि डोभाल ने यह सुझाव देने में सावधानी बरती कि यह संबंध आवश्यक तौर पर ष्केवल एक ही कारक पर निर्भर नहीं करताष् लेकिन उन्होंने नयी दिल्ली के सामूहिक चिंतन का आभास जरूर करा दिया। काम करने की नयी भीतरी समझदारी के अनुसार यह मान लिया गया है कि भारत की कूटनीतिक स्वायत्तता और विकल्प रातोंरात अधिकतम हो गये हैंए सिर्फ इसलिए कि हमारे पास एक उच्चतम नेता है। पिछले एक वर्ष की बहुत.सी कूटनीतिक बौखलाहटों का स्रोत इसी आंतरिक कार्यशील सूक्ति में तलाशा जा सकता है।
नेता की निर्णायक भूमिका पर नये सिरे से जो बल दिया गया है वह संघ परिवार की समग्र राजनीतिक विचारधारा के पूरी तरह अनुकूल है। यहां एक नेता की राष्ट्रभक्ति ही रणनीतिक संरचनागत सीमाओं से पार पाने के लिए पर्याप्त से कहीं ज्यादा मानी गयी है। जनसंघ के प्रारंभिक दिनों से ही यह विश्वदृष्टि ऐसे नेता या नेताओं के पक्ष में रही है जो पर्याप्त राष्ट्रवादी हो और जो किसी के भी प्रति आक्रामकए टकराववादी रवैया अपना सके। इसका झुकाव खास तौर पर ऐसे नेता के पक्ष में रहा है जो ष्हिंदू कायरताष् से ग्रस्त न हो। ये शब्द संघ से संबद्ध एक व्यक्ति द्वारा कभी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए प्रयुक्त किये गये थे। ऐसे नेता की खोज पिछले उन दो दशकों में ज्यादा हुई हैए जिनमें भारतीय मध्य वर्ग अधिकाधिक राष्ट्रवादी हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को ठीक एक ऐसे ही नेता के रूप में प्रस्तुत किया जो विश्व के ताकतवर नेताओं से आंख में आंख डालकर बात कर सके।
डोभाल.मोदी के संबंधों के बारे में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है। लोकसभा के 2009 के चुनावों तक जिनमें एक ष्कमजोर प्रधानमंत्रीष् ने एलण्केण्आडवाणी और भाजपा को पटकनी दी थीए डोभाल पूरी तरह आडवाणी टोली का हिस्सा थे। यह कहना कठिन है कि उन्होंने अपनी निष्ठा कब बदली। तथापिए नयी दिल्ली के जानकार क्षेत्रों में यह माना जाता है कि जिस समय तक गुजरात में 2012 में मोदी ने तीसरी बार विजय हासिल की थीए तब तक वह उनके एक सम्मानित सलाहकार बन चुके थे। गैर राजनीतिक लोगों की रहस्यमय दुनिया और गुप्तचर एजेंसियों के मायावी कार्य व्यापार के साथ उनकी अंतरंगताए व्यक्ति और वस्तुओं के स्याह पक्ष को समझने की नरेन्द्र मोदी की अपनी प्राथमिकता के साथ अच्छी तरह मेल खाती थी। डोभाल नरेन्द्र मोदी को राजनय की कठिन और जटिल दुनिया से प्रशंसा प्राप्त करने के बारे में सलाह देते रहने के लिए जाने जाते हैं। तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दोनों पूरी तरह एक.दूसरे के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
डोभाल का ष्शक्तिशाली नेताष् का सिद्धांत इसलिए आकर्षक हो गया क्योंकि यह प्रधानमंत्री के अपनी लोकप्रियताए विवेक और क्षमता में अगाध विश्वास से पूरी तरह मेल खाता था। हमारी विदेश नीति में जो अत्यधिक उत्साह दिखाई दे रहा हैए उसके अधिकांश का श्रेय आयोजन प्रबंधन के प्रति मोदी की अत्यधिक अभिरुचि को आसानी से दिया जा सकता है।
डोभाल.मोदी की जोड़ी ने वे खूबसूरत फोटो.अवसर उपलब्ध कराए हैं जो भारतीय मध्य वर्ग की वैश्विक कद और ष्सम्मानष् प्राप्त करने की नवजागृत जरूरत को संतुष्ट करते हैं। औरए भारत का कॉर्पोरेट वर्ग मोदी के साथ चलने और इक्कीसवीं सदी के दलाल बुर्जुआ की भूमिका निभाने में खासा खुश है।
एक वर्ष उपरांतए डोभाल सिद्धांत की सीमाएं सामने आने लगी हैंए विशेषकर हमारे पड़ोस में। और यह अच्छा ही हुआ है। वहां की दुनिया इतनी ज्यादा जटिल है कि बिसात बदल देने वाले नेता की हमारी अवधारणा का समर्थन नहीं कर सकती। अपनी तन्मयता के चलते हम यह देखने में असफल रहे कि चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी ने एक परिष्कृत मगर घातक धार प्राप्त कर ली है। दरअसलए वहां प्रधानमंत्री को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ दोस्ताना हो जाने देने की कोई जरूरत नहीं थी। जकीउर्रहमान लखवी पर बीजिंग का मतय और फिर एक गंभीर प्रधानमंत्री की ओर से चीनी नेता को एक सीधा संदेश जो अपने शब्दाडंबरपूर्ण घुमाव के साथ वैश्विक हो गया। अगले ही दिन बीजिंग की ओर से खुली झिड़की मिली.हालांकि यह सिद्धांतों की बड़ी.बड़ी बातों में लिपटी हुई थी। एक प्रधानमंत्री की कठोर हो जाने की चाह अगर यह सुविचारित व्यावहारिक राजनीति से समर्थित न हो तो ज्यादा दूर तक नहीं जातीए न जा सकती है।
पिछले एक वर्ष के समय में दूसरों ने भी मोदी को समझा है। ठीक जिस तरह गेंदबाजी के कोच नये बल्लेबाजों में उनकी खामियों को देखते.समझते हैंए उसी तरह कूटनीतिक विश्लेषकों ने भी प्रधानमंत्री की उनकी अपनी खूबियों और साथ ही उनकी खामियों को जाना.समझा है। चीनी और पाकिस्तानी मिलकर उनकी कमजोरियों का पता लगा रहे हैं।
बाकी दुनिया ने भी इस पर ध्यान दिया है.और बाहरी लोग ऐसे मूल्यांकन करने में कहीं ज्यादा क्रूर हैं.कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय मतैक्य कोए चाहे यह कितना भी भंगुर क्यों न रहा होए ध्वस्त करने में गर्व महसूस किया है। और कोई नया मतैक्य निर्मित भी नहीं हुआ हैय न ऐसे मतैक्य की जरूरत ही महसूस की गयी है। चीनी लोगए जैसा कि प्रत्येक विद्वान हमको बताता हैए जो किसी भी मामले में दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाते हैंए जरूर इस बात पर आश्चर्य कर रहे होंगे कि भारत जैसा विशाल और महत्वाकांक्षी देश बिना एक विशिष्ट मतैक्य के एक कारगर विदेश नीति को कैसे बनाए रख सकता है।

इसके अलावाए पूर्व प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत शिष्टाचार और राजनयिक आचार.संहिता के प्रति सम्मान को कमजोरी का लक्षण बताकर मजाक उड़ाया जाता है। वैश्विक मंच पर कठोर और उग्र दिखने की चाहत घरेलू दर्शकों या प्रवासी भारतीयों की भीड़ को तो प्रभावित कर सकती है लेकिन यह किसी भी विदेशी राजनयिक गलियारे में स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ती। जैसा कि एक अनुभवी कूटनीतिक प्रेक्षक ने बेलाग कहा कि भारत को सुरक्षा परिषद में कोई सिर्फ इसलिए जगह नहीं दे देगा क्योंकि राजपथ के विशाल योग प्रदर्शन का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री ने किया। डोभाल सिद्धांत के साथ समस्या यह है कि यह कूटनीतिक कमजोरी की क्षतिपूर्ति के लिए नेता पर असंगत दबाव बनाता है। जैसा कि हेनरी किसिंजर ने एक बार टिप्पणी की थीए ष्अपनी क्षमताओं को पहचानना भी राजनीतिमत्ता की एक कसौटी है।ष् इसके अतिरिक्त डोभाल सिद्धांत एक ऐसे दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है जो अनजाने ही राजनय के पारंपरिक औजारों और शासन कला के उपकरणों की अवहेलना करता है। यह भय भी है कि नेता.केंद्रित दृष्टिकोण हमारी उस राष्ट्रीय रक्षा संपदा को भी क्षति पहुंचा सकता है जो हमने पिछले 15 वर्षों में बड़ी मेहनत से तैयार की है।
और कोई भी नेता प्रतिकूल राजनीतिक हवाओं से अछूता नहीं रहता। नरेन्द्र मोदी को भी देर.सवेर बुरे मौसम का सामना करना पड़ेगा। यही वह समय होगा जब हमें अपने स्थायी राष्ट्रीय हितों को नेता की व्यक्तिगत दुर्बलताओं और राजनीतिक प्रमाद में उलझने से पूरी शक्ति से बचाना पड़ेगा।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/

No comments:

Post a Comment