Thursday, 16 July 2015

बौद्ध विरासत के सहारे कूटनीति

बौद्ध विरासत के सहारे कूटनीति

अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों की ओर से म्यांमार के प्रति लगातार बढ़ते विरोध के चलते वहां के सैनिक शासकों का झुकाव आर्थिक और सैन्य मदद पाने की खातिर चीन की ओर होता चला गया था। जैसे.जैसे म्यांमार और साथ लगती बंगाल की खाड़ी और अंडमान सागर में उभरते चीनी अड्डों की खबरें आने लगीं वैसे.वैसे भारत की फिक्र में इजाफा होता चला गया। मैंने भी म्यांमार के वरिष्ठ मंत्री के साथ भारत की ऐसी चिंता को साझा किया था। इस पर उनका जवाब था.आप लोगों को इस बारे में फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं हैए हो सकता है कि मैं हथियार और समर्थन पाने की खातिर चीन जाऊंए लेकिन अपनी मोक्ष प्राप्ति के लिए तो मुझे आखिरकार बोधगया जाना ही पड़ेगा! कोई हैरानी नहीं जब म्यांमार एकदम अलग.थलग पड़ गया थाए तब भी उसने चीन को नौसैनिक अड्डा बनाने की इजाजत नहीं दी थी और इसकी बजाय आसियान संगठन की सदस्यता ग्रहण की ताकि उसके राजनयिक विकल्पों का विस्तार हो सके।
परंतु क्या हम अपनी बौद्ध विरासतों का फायदा पूर्व में स्थित पड़ोसी देशों के साथ सामरिक हितों को बढ़ाने में कर सकते हैंघ् क्या हम ऐसा पर्यटक गंतव्य बन सकते हैं जो न सिर्फ अमेरिका और यूरोप बल्कि लगातार समृद्ध होती हमारी पूर्वी सीमा के पार देशों से आने वाले पर्यटकों की भी मेजबानी कर पाएघ् भारत स्थित बौद्ध तीर्थस्थलों और खासकर बोधगया के बारे में व्याख्या करते हुए अमेरिका स्थित भूटानी मूल के विद्वान द्जुंग्सर जाम्यांग किहिंत्से रिनपोछे ने कहा.इस इलाके की समृद्धि की ऐतिहासिक सच्चाई कुछ भी होए लेकिन आज का अफसोसनाक यथार्थ यह है कि नेपाल की सरकार और वहां के लोगों के अलावा भारत और बिहार प्रदेश उन हजारों.लाखों तीर्थयात्रियों के लिए एक बदनाम मेजबान हैं जो वहां पर गौतम बुद्ध की शिक्षा और जीवनदर्शन के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि प्रकट करने आते हैं।
किहिंत्स आगे कहते हैं कि भारत और नेपाल ने संसार को एक सबसे कीमती विचारधारा दी थीए जिसका नाम है गौतम बुद्ध। फिर भी इन दोनों देशों ने इस असाधारण विरासत का सच्चा मोल नहीं जानाए इस पर गर्व करना तो दूर की बात है। यहां तक कि ऐतिहासिक नालंदा विश्वविद्यालय जो 1193 में आक्रांता बख्तियार खिलजी द्वारा ढहाए जाने से पहले तक तिब्बतए चीनए कोरिया और मध्य एशिया से आए बौद्ध विद्वानों का सदियों तक आशियाना हुआ करता थाए आज उसके मौजूदा प्रारूप में बौद्ध विरासत पर शिक्षा पाठ्यक्रम ही नदारद है। इससे एकदम उलट परिदृश्य चीन में हैए हालांकि वहां पर माओ युग में धार्मिक विरासतों और मान्यताओं का त्याग करने के तमाम उपाय किए गए थेए फिर भी 1970 के दशक से वहां पर बौद्ध शिक्षाओं के प्रति खुलापन पुनरू आने लगा था। अब वहां पर बौद्ध सिद्धांतों का पुनर्जागरण होने के चिन्ह दिखाई देने लगे हैं। आज चीन को अपने यहां मौजूद सबसे भव्य बौद्ध विरासत स्थलों की गिनती पर नाज है। यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त विश्व विरासत स्थलों में चीन के गांसू प्रांत की मोगाओ गुफाएंए हेनान राज्य में ग्रोट्टोए चोकिंग के पास द्जू शिलाओं पर हुई नक्काशी और लेशान की पहाड़ी का एक हिस्सा खोदकर बनाई गई बुद्ध की विशालकाय मूर्ति जो तीन नदियों के संगम का अवलोकन करती प्रतीत होती हैए इनमें शामिल हैं। चीन में बौद्ध तीर्थयात्रियोंए पर्यटकों और विद्वानों को जो उम्दा सुविधाएं मिलती हैंए उसकी तुलना भारत के घटिया और देसी तरीकों से करना बेमानी है।
थाईलैंड के शाही परिवार के सदस्य और सहयोगी जब बोधगया और अन्य बौद्ध स्थलों की यात्रा पर आए थे तो अपने देश की तुलना में वे भारत की घटिया पर्यटन सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमियों को नजरअंदाज नहीं कर पाए थे। कंबोडिया के अंगकोर वाट स्थित और 12वीं सदी में बने आलीशान हिंदू मंदिर का वहां पर जितना सम्मानजनक स्थान है और उतने ही चाव से उसे सहेज कर रखा गया है जितना कि देश में मौजूद अन्य बौद्ध स्थलों को। म्यांमार के यांगोन शहर के स्वर्ण पटल जडि़त पगोडा मंदिरए मांडले और अन्य जगहों पर मौजूद 2200 बौद्ध पूजा स्थल और पगान इलाके के बौद्ध मंदिर जिनका निर्माण 9वीं और 12वीं सदी के बीच हुआ थाए इन्हें बड़े गर्व के साथ सहेज कर रखा गया है। इसी तरह की रिवायत जापानए दक्षिण कोरिया और ताईवान में भी बड़ी दक्षता से निभाई जाती है।
आज संसार भर में लगभग 60 करोड़ बौद्ध धर्मावलंबी हैं। केवल चीन में ही इनकी गिनती लगभग 22 से 24 करोड़ के बीच है। समय के साथ यह गिनती बिना रुकावट और आगे बढ़ने वाली है। हालांकि यह एक ऐसा विषय हैए जिस पर वहां की एकल पार्टी तानाशाही बड़ी चौकस निगाह रखनी चाहेगी। आखिरकार यह मूल रूप से पोलैंड से संबंध रखने वाले और ईसाइयों के सर्वोच्च धार्मिक गुरु पोप ही थेए जिन्होंने वारसा संधि के विखंडन की भूमिका बनाने का आगाज किया था और जिसके नतीजे में सोवियत संघ का विघटन हुआ था। इन परिस्थितियों के मद्देनजर यदि हम कल्पनाशीलता से आधारभूत पर्यटन ढांचे का निर्माण करें तो इससे भारत की पूर्व से संबंध बनाओ नीतियों को बढ़ावा मिलेगाए जो आगे देश में बौद्ध पर्यटन के साथ.साथ अकादमिक कार्यों में इजाफे के अलावा बुद्ध की शिक्षाओं और जीवनदर्शन से रूबरू होने वालों की संख्या बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करेंगी।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह भारत को एशिया में बौद्ध पर्यटन और अध्ययन के केंद्र बिंदु के रूप में विकसित करे। भारत.नेपाल सीमा पर स्थित लुंबिनी से लेकर बोधगयाए भारहटए अमरावतीए नागरकोंडाए श्रावस्तीए संकशयए नालंदा और राजगीर जैसे विरासती बौद्ध स्थलों को आपस में सड़कए रेल और वायु मार्ग से जोड़ने के लिए निर्माण और विकास कार्य करना होगा। इसके अलावा अन्य स्मरणीय स्थलों जैसे कि सांचीए अमरावतीए अजंताए एलोराए कानहेड़ी और कारली तक पहुंचने के लिए विकसित साधन और मार्ग जुटाने पड़ेंगे। गुजरात भी अनेक बौद्ध विरासतों का घर है। म्यांमार और श्रीलंका से ऐसे हजारों तीर्थयात्री यहां आने को तैयार हो सकते हैं बशर्ते उन्हें हम अपेक्षाकृत सस्ता नौवहन और सड़क परिवहन साधन मुहैया करवा सकें।
भारत को बौद्ध तीर्थयात्रा और पर्यटन के केंद्र बिंदु के रूप में विकसित करने की खातिर अगर एशिया के पूर्व और दक्षिण.पूर्व के देशों को भागीदार बनाया जाए तो इस काम में बाहरी निवेश और मदद भी मिल सकती है। इन सबको सिरे चढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को घरेलू पर्यटन उद्योग और उनके विदेशी सहयोगियों के साथ कल्पनाशील और बड़े पैमाने के यत्न करने की जरूरत है। इन उपायों से विदेश नीति को कितना फायदा पहुंचेगाए यह स्वयंसिद्ध है। ऐसा होने पर न सिर्फ देश के बड़े हिस्से में पर्यटन उद्योग को भारी पैमाने पर बढ़ावा मिलेगा बल्कि स्थानीय लोगों को मिलने वाले रोजगार में भी काफी इजाफा होगा।
SOURCE : http://dainiktribuneonline.com/

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