Monday, 20 July 2015

एक समझौते ने जगाई कई उम्मीदें

एक समझौते ने जगाई कई उम्मीदें

अमेरिका के नेतृत्व में विश्व की छह बड़ी ताकतों और ईरान के बीच हुआ ऐतिहासिक परमाणु समझौता एक युगांतर घटना हैए जिसकी वजह से मध्य.पूर्व एशिया की बड़ी शक्तियों के आपसी रिश्तों के समीकरण में बदलाव आने के अलावा ईरान एवं अमेरिका के बीच धीरे.धीरे फिर से दोस्ती कायम होने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। यह सच है कि इस समझौते को अभी कई रुकावटों से पार पाना होगा।
अभी इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू व अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और अन्य अमेरिकी सांसद इसके विरोध में हैंए जबकि राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए यह उपलब्धि एक जीत की तरह हैए जिसके लिए उन्होंने काफी मेहनत की। यह समझौता एक ऐसी थाती हैए जिसे वह अपने पीछे छोड़कर जाएंगे।
ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी का निष्कर्ष है कि रचनात्मक वार्ता कारगर होती है। यह समझौता मुख्यतरू ईरानी परमाणु कार्यक्रम के सैन्य उद्देश्यों पर दीर्घकालीन रोक लगाने के लिए बनाया गया है। इसके लागू होने से ईरान के यूरेनियम उच्च संवर्धन कार्यक्रम पर तो रोक लगेगी ही बल्कि निम्न कोटि के यूरेनियम का संचयन भी इतना कम हो जाएगा कि परमाणु बम बनाने लायक माल इकट्ठा होने में कई दशक और लग जाएंगे। बदले में अमेरिका और पश्चिमी जगत द्वारा ईरान के लिए सांसत बने कड़े आर्थिक प्रतिबंधों को उठा लिया जाएगा। उसके परमाणु संयंत्रों की बृहद जांच नियुक्त किए गए विशेषज्ञों द्वारा लगातार की जाती रहेगी। हालांकि ईरान पर लगा हथियार प्रतिबंध अगले पांच साल तक भी जारी रहेगा और इस समझौते में यह प्रावधान है कि यदि ईरान किसी शर्त का उल्लंघन करता है तो तमाम प्रतिबंधों को फिर से लागू कर दिया जाएगा।
लेकिन जहां एक ओर ईरान के कट्टरपंथी इस समझौते को पलीता लगाने का पूरा.पूरा यत्न करेंगे। वहीं दूसरी ओर इसे सबसे बड़ा खतरा अमेरिका के रिपब्लिकनों और कुछ डेमोक्रेट सांसदों से दरपेश है। अमेरिकी संसद के ऊपरी सदन सीनेट के पास इस समझौते को पारित करने या निरस्त करने के वास्ते 60 दिन का समय है। इसे वीटो करने के लिए सदन के दोनों सदनों के दो.तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी हैए जो कि मौजूदा हालात में संभव नहीं लगता। लेकिन जिस तरह से अमेरिका का अगला राष्ट्रपति बनने के चाहवानों की कतार लंबी होती जा रही हैए उससे डर है कि कहीं यह मुद्दा प्रचार पाने के लिए एक आसान निशाना न बन जाए।
इस समझौते को जिस तरह से सिरे चढ़ाया गया हैए उससे न सिर्फ ईरान का क्रांति के दिनों से चला रहा अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार खत्म हो जाएगा बल्कि अमेरिका.ईरान के बीच दुबारा दोस्ती होने से एक नए आयाम का सूत्रपात होगा। इस्लामिक स्टेट के उद्भव ने इस इलाके के परिदृश्य को जटिल बना दिया है। यह गुट शिया.सुन्नी के बीच फूट और इराक में अमेरिका के नाकाम आक्रमण से उपजी परिस्थितियों का लाभ उठा कर मजबूत हुआ है। इससे यहां के मुल्कों के बीच जो रिवायती क्षेत्रीय गुटबंदी थीए उसमें भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। जहां ईरान के साथ परमाणु समझौते के मुद्दे पर सऊदी अरब और इस्राइल एक साथ खड़े नजर आते हैं वहीं सीरिया के मामले में एक.दूसरे के खिलाफ रहे अमेरिका और ईरान आईएस के खिलाफ जंग में साथ मिलकर भले ही न लड़ रहे हों लेकिन समांतर रूप से उनकी सेनाएं एक ही ध्येय के लिए युद्धरत हैं। ईरान के पास इस इलाके में पहले से ही अपरोक्ष या परोक्ष समर्थकों का जमावड़ा है। इराक में ताकतवर हुई नई शिया.बहुल सरकार इसकी पक्की सहयोगी है। यमन में ईरान की मदद से उग्र हुए हूती लड़ाके सऊदी अरब के नेतृत्व में होने वाले हवाई हमलों का सामना कर रहे हैं और बहरीनए जो अमेरिका के पांचवें नौसैनिक बेड़े का अड्डा भी हैए वहां के शिया बहुसंख्या में होने के बावजूद सुन्नी सरकार के नीचे दबकर रहने से कुंठित हैंए इसलिए वे भी ईरान के पक्ष में हैं। इसके अलावा लेबनान का शिया अतिवादी गुट हिजबुल्लाह भी ईरान के प्रति स्नेह रखता है।
अमेरिका के निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के मन में भी ईरान के प्रति संदेह है क्योंकि उन्हें अच्छी तरह याद है कि कैसे अमेरिका से घनिष्ठ मित्रता रखने वाले ईरान के पूर्व शाह मुहम्मद रजा पहलवी के खिलाफ जब क्रांति हुई थी तो अमेरिका द्वारा शाह की मदद करने से चिढ़े क्रांतिकारियों ने तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास में सैकड़़ों अमेरिकी नागरिकों और राजनयिकों को सालों तक बंधक बना कर रखा था और अमेरिकी कमांडो कार्रवाई से छुड़वाने की नाकाम कोशिश ने उनका जीवन खतरे में डाल दिया था। अमेरिका के अगले शीर्ष सेनाध्यक्ष बनने जा रहे जनरल जोसेफ डनफोर्ड जूनियर का कहना है कि मध्य.पूर्व के इलाके में ईरान का बुरा प्रभाव आगे भी बना रहेगा।
एक दफा यह परमाणु समझौता जब सारी अड़चनों को पार कर लेगा तो अंत में वैश्विक स्तर पर इससे ऐसा संवेग बन जाएगा जो अमेरिका की यहूदी लॉबी के इरादों को परास्त करके रख देगा और इसके सिरे चढ़ने से इलाके के बड़े देशों और अग्रणी शक्तियों को माहौल में बदलाव लाने और राजनीतिक समीकरण बनाने का ज्यादा मौका मिल सकेगा। पहला तो यह होगा कि पंगु करके रख देने वाले प्रतिबंधों ने ईरान को इस इलाके में अपना वैध प्रभाव बनाने से वंचित कर रखा था और इसके चलते सऊदी अरब ने अपनी तरह के इस्लाम को फैलाने में बड़ी भूमिका अदा कीए लेकिन ईरान के आगे आने से उसके पंख स्वतरू कतरे जाएंगे।
ओबामा प्रशासन के लिए जो एक राहत की बात होगीए वह यह  है  कि अगर अमेरिका की यहूदी लॉबी रिपब्लिकन सांसदों का इस्तेमाल करके इस समझौते को पारित न होने देने में कामयाब हो भी गई तो ऐसी स्थिति में यूरोपियन देश ईरान पर लगे प्रतिबंधों को जारी रखने के लिए अनिवार्य रूप से बाधित नहीं होंगे। सच तो यह है कि यूरोपियन देशों के मन में इस्राइल के प्रति खटास भरती जा रही है। फिलहाल राष्ट्रपति ओबामा के पास मुस्कुराने के कारण हैं और बाकी संसार भी चैन की सांस ले सकता है।
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जीवन को गति देगी सुमति

जीवन को गति देगी सुमति

जिस तरह कण.कण में भगवान हैंए ठीक उसी तरह कण.कण में जीवन भी समाया है। संगीत की स्वर.लहरियोंए पंछियों की चहचहाहटए सागर की लहरोंए पत्तों की सरसराहटए मंदिर की घंटियोंए मस्जिद की अजानए कोयल की कूकए मयूर के नयनाभिराम नृत्यए लहलहाते खेतए कृषक के मुस्कराते चेहरेए सावन की रिमझिम फुहारए इंद्रधनुषी रंगोंए बादलों की गर्जनाए बच्चे की मोहक मुस्कानए फूलों की खुशबूए बारिश की सौंधी.सौंधी महकए मां की लोरियांए पानी की गगरियांकृ यही हैं जीवन के वास्तविक उत्सव और यही है मनुष्य.मन की उत्सवमयता।
प्रकृति के अनुपम सौंदर्य में भी जीवन का विलक्षण आनंद समाहित है। जीवन एक उत्सव हैए नाचो गाओ और मुस्कराओ। जिंदादिली का नाम है जिंदगी। जीवन पुष्प हैए प्रेम उसका मधु। जिंदगी में सदा मुस्कराते रहोए फासले कम करोए दिल मिलाते रहो। जीवन एक चुनौती है। विपत्तियों से जूझकर चुनौती स्वीकार करना ही जिंदादिली हैए साहस है तथा इसी में रोमांच भी है। लाओत्से ने कहा है कि इसकी फिक्र मत करो कि रीति.रिवाज का क्या अर्थ है। रीति.रिवाज आनन्द देते हैंए बस काफी है। आनन्द का जीवन में बहुत महत्व है। होली मनाओए दीवाली मनाओए बसन्तोत्सव मनाओ। कभी दीये भी जलाओए कभी रंग.गुलाल उड़ाओ तो कभी जीवन के गीत गाओ। कभी संयम के गीत गाओ तो कभी साधना के। जिन्दगी को सहजए सरल और नैसर्गिक रहने दो। मिलनसार होना अच्छा हैए खाने.पीने के संस्कार देना अच्छा हैए मैत्री अच्छी हैए बड़ों के प्रति सम्मानभाव व्यक्त करनाकृयह सब करते हुए स्वयं की पहचान भी जरूरी है। जैसे हो वैसे ही अपने को स्वीकार करो। और इस सरलता और सहजता से ही धीरे.धीरे स्वयं की स्वयं के द्वारा पहचान हो सकेगी।
अपने प्रति सकारात्मकता होनी जरूरी है। एक दिव्यदृष्टि जरूरी होती है जीवन की सफलता एवं सार्थकता के लिये। सर विलियम ब्लैकस्टोन ने लिखा हैकृरेत के एक कण में एक संसार देखनाए एक वन पुष्प में स्वर्ग देखनाए अपनी हथेली में अनन्तता को देखना और एक घंटे में शाश्वतता को देखना। सचमुच यही जीवन का वास्तविक आनन्द हैए उत्सव है।
जीवन का लक्ष्य होना चाहिएए निरंतर चलते रहोए तब तक चलते रहोए जब तक कि मंजिल न पा लो। जीवन चलायमान हैए चलता ही रहता हैए अपनी निर्बाध गति से। जीवन न तो रुकता है और न ही कभी थकता है। जीवन पानी की तरह निरंतर बहता रहता है। जीवन कभी नहीं हारता हैए उससे हम ही हार जाते हैं। चलते रहो और पीछे मुड़कर कभी न देखोए लक्ष्य शिखर की ओर रखो। इसीलिये नेपोलियन कहते हैंए जो व्यक्ति अकेले चलते हैंए वे तेजी से आगे की ओर बढ़ते हैं।  जीवन एक प्रयोग हैए नित नए प्रयोग करते रहोए अनुभवों का विस्तार करो और नवजीवनए नवसृष्टि का सृजन करो। गिरकर उठना और उठकर पुनः अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ना ही कामयाब जीवन का राज़ है।
चलना ही जीवन है। बसए चलते ही रहो क्योंकि ठहराव जीवन में नीरसताए विराम व शून्य लाता है। जीवन की गति रुकने पर सांसों के थमने का सिलसिला शुरू हो जाता है। गीता में कहा हैए व्यक्ति पृथ्वी पर अकेला ही आता है व अकेला ही जाता है। प्रगति के नाम पर आज जो कुछ हो रहा हैकृउससे मानव व्यथित हैए समाज परेशान हैए राष्ट्र चिंतित है। अपेक्षा है आज तक जो अतिक्रमण हुआ हैए स्वयं से स्वयं की दूरी बढ़ाने के जो उपक्रम हुए हैं उनसे पलट कर पुनः स्वभाव की ओर लौटने कीए स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की। जीवन शांति हैए सुव्यवस्था हैए समाधि है। अज्ञात की यात्रा है। विभाव से स्वभाव में लौट आने की यात्रा है। समाधि समाधानों का केन्द्र है। अतः अपनी सक्रिय ऊर्जा और जीवनी शक्ति को उपयोगी दिशा प्रदान करें। व्यक्ति जिस दिन रोना बंद कर देगाए उसी दिन से वह जीना शुरू कर देगा। यह अभिव्यक्ति थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक उत्साह का संगीत गुंजायमान कर देगी। नैराश्य पर मनुष्य की विजय का सबसे बड़ा प्रमाण है आशावादिता और यही है जीत हासिल करने का उद्घोष।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत होए अजंता के चित्र होंए वाल्ट व्हिटमैन की कविता होए कालिदास की भव्य कल्पनाएं होंए प्रसाद का उदात्त भाव.जगत हो३ सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होतेए रंगों.रेखाओंए शब्दों.ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होताए तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनीए थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव.जाति ने जो कुछ रचा हैए उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव.नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाताए समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी.शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त हैए सुंदर हैए सार्थक और रचनामय हैए वह सब जीवन दर्शन है। यह दर्शन ऐसे ही हैं जैसे एक सुंदर पुस्तक पर सुंदरतम पंक्तियों को चित्रित कर दिया गया। ये रोज.रोज के भाव की ही केन्द्रित अभिव्यक्तियां हैं। कोई एक दिन ही उत्सव नहीं होता। वह तो सिर्फ रोज.रोज के उत्सव की याद दिलाने वाला एक सुनहरा प्रतीक होता है।
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Sunday, 19 July 2015

सच से साक्षात्कार का समय

सच से साक्षात्कार का समय


अगर ष्डोभाल सिद्धांतष् पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है तो शायद ऐसा इसलिए है कि इसकी एक प्रकार से शिथिल शुरुआत हुई थी। तार्किक तौर पर यह बात कही जा सकती है कि इस सिद्धांत की अभिव्यक्ति नवनियुक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा सर्वप्रथम सितंबर 2014 में बीजिंग यात्रा के दौरान की गयी थी। चीन स्थित भारतीय मीडिया से बातचीत के दौरान डोभाल ने चीन.भारत संबंधों में एक बड़ा बदलाव आने की संभावना देखी क्योंकि राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री मोदी ष्दोनों बहुत ही ताकतवरए लोकप्रिय और बहुत ही दृढ़निश्चयी नेता हैं।ष् अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि दोनों ही संजीदा नेता हैं और दोनों को ही पार्टी तथा संसद में बहुमत प्राप्त है और इसके अलावा दोनों के ही पास आगे पर्याप्त समय भी है।
हालांकि डोभाल ने यह सुझाव देने में सावधानी बरती कि यह संबंध आवश्यक तौर पर ष्केवल एक ही कारक पर निर्भर नहीं करताष् लेकिन उन्होंने नयी दिल्ली के सामूहिक चिंतन का आभास जरूर करा दिया। काम करने की नयी भीतरी समझदारी के अनुसार यह मान लिया गया है कि भारत की कूटनीतिक स्वायत्तता और विकल्प रातोंरात अधिकतम हो गये हैंए सिर्फ इसलिए कि हमारे पास एक उच्चतम नेता है। पिछले एक वर्ष की बहुत.सी कूटनीतिक बौखलाहटों का स्रोत इसी आंतरिक कार्यशील सूक्ति में तलाशा जा सकता है।
नेता की निर्णायक भूमिका पर नये सिरे से जो बल दिया गया है वह संघ परिवार की समग्र राजनीतिक विचारधारा के पूरी तरह अनुकूल है। यहां एक नेता की राष्ट्रभक्ति ही रणनीतिक संरचनागत सीमाओं से पार पाने के लिए पर्याप्त से कहीं ज्यादा मानी गयी है। जनसंघ के प्रारंभिक दिनों से ही यह विश्वदृष्टि ऐसे नेता या नेताओं के पक्ष में रही है जो पर्याप्त राष्ट्रवादी हो और जो किसी के भी प्रति आक्रामकए टकराववादी रवैया अपना सके। इसका झुकाव खास तौर पर ऐसे नेता के पक्ष में रहा है जो ष्हिंदू कायरताष् से ग्रस्त न हो। ये शब्द संघ से संबद्ध एक व्यक्ति द्वारा कभी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए प्रयुक्त किये गये थे। ऐसे नेता की खोज पिछले उन दो दशकों में ज्यादा हुई हैए जिनमें भारतीय मध्य वर्ग अधिकाधिक राष्ट्रवादी हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को ठीक एक ऐसे ही नेता के रूप में प्रस्तुत किया जो विश्व के ताकतवर नेताओं से आंख में आंख डालकर बात कर सके।
डोभाल.मोदी के संबंधों के बारे में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है। लोकसभा के 2009 के चुनावों तक जिनमें एक ष्कमजोर प्रधानमंत्रीष् ने एलण्केण्आडवाणी और भाजपा को पटकनी दी थीए डोभाल पूरी तरह आडवाणी टोली का हिस्सा थे। यह कहना कठिन है कि उन्होंने अपनी निष्ठा कब बदली। तथापिए नयी दिल्ली के जानकार क्षेत्रों में यह माना जाता है कि जिस समय तक गुजरात में 2012 में मोदी ने तीसरी बार विजय हासिल की थीए तब तक वह उनके एक सम्मानित सलाहकार बन चुके थे। गैर राजनीतिक लोगों की रहस्यमय दुनिया और गुप्तचर एजेंसियों के मायावी कार्य व्यापार के साथ उनकी अंतरंगताए व्यक्ति और वस्तुओं के स्याह पक्ष को समझने की नरेन्द्र मोदी की अपनी प्राथमिकता के साथ अच्छी तरह मेल खाती थी। डोभाल नरेन्द्र मोदी को राजनय की कठिन और जटिल दुनिया से प्रशंसा प्राप्त करने के बारे में सलाह देते रहने के लिए जाने जाते हैं। तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दोनों पूरी तरह एक.दूसरे के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
डोभाल का ष्शक्तिशाली नेताष् का सिद्धांत इसलिए आकर्षक हो गया क्योंकि यह प्रधानमंत्री के अपनी लोकप्रियताए विवेक और क्षमता में अगाध विश्वास से पूरी तरह मेल खाता था। हमारी विदेश नीति में जो अत्यधिक उत्साह दिखाई दे रहा हैए उसके अधिकांश का श्रेय आयोजन प्रबंधन के प्रति मोदी की अत्यधिक अभिरुचि को आसानी से दिया जा सकता है।
डोभाल.मोदी की जोड़ी ने वे खूबसूरत फोटो.अवसर उपलब्ध कराए हैं जो भारतीय मध्य वर्ग की वैश्विक कद और ष्सम्मानष् प्राप्त करने की नवजागृत जरूरत को संतुष्ट करते हैं। औरए भारत का कॉर्पोरेट वर्ग मोदी के साथ चलने और इक्कीसवीं सदी के दलाल बुर्जुआ की भूमिका निभाने में खासा खुश है।
एक वर्ष उपरांतए डोभाल सिद्धांत की सीमाएं सामने आने लगी हैंए विशेषकर हमारे पड़ोस में। और यह अच्छा ही हुआ है। वहां की दुनिया इतनी ज्यादा जटिल है कि बिसात बदल देने वाले नेता की हमारी अवधारणा का समर्थन नहीं कर सकती। अपनी तन्मयता के चलते हम यह देखने में असफल रहे कि चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी ने एक परिष्कृत मगर घातक धार प्राप्त कर ली है। दरअसलए वहां प्रधानमंत्री को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ दोस्ताना हो जाने देने की कोई जरूरत नहीं थी। जकीउर्रहमान लखवी पर बीजिंग का मतय और फिर एक गंभीर प्रधानमंत्री की ओर से चीनी नेता को एक सीधा संदेश जो अपने शब्दाडंबरपूर्ण घुमाव के साथ वैश्विक हो गया। अगले ही दिन बीजिंग की ओर से खुली झिड़की मिली.हालांकि यह सिद्धांतों की बड़ी.बड़ी बातों में लिपटी हुई थी। एक प्रधानमंत्री की कठोर हो जाने की चाह अगर यह सुविचारित व्यावहारिक राजनीति से समर्थित न हो तो ज्यादा दूर तक नहीं जातीए न जा सकती है।
पिछले एक वर्ष के समय में दूसरों ने भी मोदी को समझा है। ठीक जिस तरह गेंदबाजी के कोच नये बल्लेबाजों में उनकी खामियों को देखते.समझते हैंए उसी तरह कूटनीतिक विश्लेषकों ने भी प्रधानमंत्री की उनकी अपनी खूबियों और साथ ही उनकी खामियों को जाना.समझा है। चीनी और पाकिस्तानी मिलकर उनकी कमजोरियों का पता लगा रहे हैं।
बाकी दुनिया ने भी इस पर ध्यान दिया है.और बाहरी लोग ऐसे मूल्यांकन करने में कहीं ज्यादा क्रूर हैं.कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय मतैक्य कोए चाहे यह कितना भी भंगुर क्यों न रहा होए ध्वस्त करने में गर्व महसूस किया है। और कोई नया मतैक्य निर्मित भी नहीं हुआ हैय न ऐसे मतैक्य की जरूरत ही महसूस की गयी है। चीनी लोगए जैसा कि प्रत्येक विद्वान हमको बताता हैए जो किसी भी मामले में दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाते हैंए जरूर इस बात पर आश्चर्य कर रहे होंगे कि भारत जैसा विशाल और महत्वाकांक्षी देश बिना एक विशिष्ट मतैक्य के एक कारगर विदेश नीति को कैसे बनाए रख सकता है।

इसके अलावाए पूर्व प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत शिष्टाचार और राजनयिक आचार.संहिता के प्रति सम्मान को कमजोरी का लक्षण बताकर मजाक उड़ाया जाता है। वैश्विक मंच पर कठोर और उग्र दिखने की चाहत घरेलू दर्शकों या प्रवासी भारतीयों की भीड़ को तो प्रभावित कर सकती है लेकिन यह किसी भी विदेशी राजनयिक गलियारे में स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ती। जैसा कि एक अनुभवी कूटनीतिक प्रेक्षक ने बेलाग कहा कि भारत को सुरक्षा परिषद में कोई सिर्फ इसलिए जगह नहीं दे देगा क्योंकि राजपथ के विशाल योग प्रदर्शन का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री ने किया। डोभाल सिद्धांत के साथ समस्या यह है कि यह कूटनीतिक कमजोरी की क्षतिपूर्ति के लिए नेता पर असंगत दबाव बनाता है। जैसा कि हेनरी किसिंजर ने एक बार टिप्पणी की थीए ष्अपनी क्षमताओं को पहचानना भी राजनीतिमत्ता की एक कसौटी है।ष् इसके अतिरिक्त डोभाल सिद्धांत एक ऐसे दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है जो अनजाने ही राजनय के पारंपरिक औजारों और शासन कला के उपकरणों की अवहेलना करता है। यह भय भी है कि नेता.केंद्रित दृष्टिकोण हमारी उस राष्ट्रीय रक्षा संपदा को भी क्षति पहुंचा सकता है जो हमने पिछले 15 वर्षों में बड़ी मेहनत से तैयार की है।
और कोई भी नेता प्रतिकूल राजनीतिक हवाओं से अछूता नहीं रहता। नरेन्द्र मोदी को भी देर.सवेर बुरे मौसम का सामना करना पड़ेगा। यही वह समय होगा जब हमें अपने स्थायी राष्ट्रीय हितों को नेता की व्यक्तिगत दुर्बलताओं और राजनीतिक प्रमाद में उलझने से पूरी शक्ति से बचाना पड़ेगा।
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राजस्व से ज्यादा जरूरी सेहत

राजस्व से ज्यादा जरूरी सेहत

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते दिनों यह ऐलान किया कि अगली बार वह सत्ता में आएंगे तो बिहार में शराबबंदी लागू कर देंगे। परए बड़ा सवाल ये है कि वे शराबबंदी के लिए दुबारा से सत्ता में आने का इंतजार क्यों कर रहे हैं। उन्हें विलंब करने की क्या जरूरत है। क्या उन्हें मालूम है कि हरियाणा में एक दौर में मुख्यमंत्री बंसीलाल ने शराबबंदी की कोशिश की थी घ् उसमें वे बुरी तरह से फेल हुए थे। बेहतर होगा कि नीतीश कुमार अपने शराबबंदी अभियान को तुरंत शुरू करें और उन कारणों पर चिंतन करेंए जिसके चलते हरियाणा में शराबबंदी की योजना फेल हो गई थी। नब्बे के शुरुआती सालों में बंसीलाल ने भी शराबबंदी की पहल की थी पर हरियाणा ने उनका साथ नहीं दिया। हालांकि बंसीलाल बेहद सख्त मुख्यमंत्री थे। उन्हें आधुनिक हरियाणा का शिखर नेता माना जाता है। पर वे नाकाम रहे थे।
पटना के एसके मेमोरियल हाल में महिलाओं की एक कार्यशाला में नीतीश कुमार ने शराबबंदी की दिशा में काम करने की बात कही। इस मौके पर उन्होंने कहा कि महिलाओं के उत्थान के बिना समाज का उत्थान संभव नहीं है। पर बात वही आ जाती है। चुनाव से पहले वादे करना आसान हैए उन्हें पूरा करना कठिन।
बेहतर तो ये होगा कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्र में शराबबंदी को शामिल करते हुए इस पर प्राथमिकता के आधार पर अमल करें। माना जा सकता है कि शराबबंदी कार्यक्रम अभी केवल गुजरात और केरल में लागू हो पाया है। पर इसे अखिल भारतीय स्तर पर लागू करने की सख्त जरूरत है। जहां तक केरल की बात है तो वहां पर सरकार का उद्देश्य अगले दस सालों में शराब को पूरी तरह से प्रतिबंधित करना है। शुरुआत में सात सौ बार और शराब बेचने वाली कुछ दुकानें बंद की जाएंगी और हर महीने शराब.मुक्त दिनों की संख्या बढ़ाई जाएगी। केरल में प्रति व्यक्ति शराब की खपत आठ लीटर प्रति वर्ष है जो पूरे भारत में सबसे ज़्यादा है।
देश में शराब की खपत बढ़ती जा रही है। राजधानी दिल्ली के मिडिल क्लास आवासीय क्षेत्र मयूर विहार में शराब की 10 से ज्यादा दुकानें हैं। सबमें हमेशा भीड़ लगी रहती है। आखिऱ कैसे एक आवासीय इलाके में इतनी शराब की दुकानें खुलने दी गईं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसारए लगभग तीस फीसदी भारतीय अल्कोहल का सेवन करते हैं। इनमें चार से 13 फीसदी लोग तो नियमित रूप से शराब का सेवन करते हैं। मुंहए लीवर और स्तन समेत कैंसर की कई किस्मों का संबंध शराब के सेवन से है। आश्चर्य की बात यह है कि इन आंकड़ों के बावजूद सरकारें इस गंभीर मामले पर कोई ध्यान नहीं दे रही हैं। शराब का सेवन दिलए दिमागए लीवर और किडनी की 200 से भी ज्यादा बीमारियों को न्योता देता है। कई मामलों में यह कैंसर का भी प्रमुख कारण बन जाता है।
कम उम्र के किशोरों में शराब पीने की बढ़ती प्रवृत्ति का उनके भविष्य और रोजगार पर सीधा असर पड़ता है। शराब पीकर काम पर आने वाले कर्मचारियों की वजह से उत्पादकता का जो नुकसान होता हैए उससे भारत जैसे विकासशील देश को सालाना उत्पादन में लगभग एक फीसदी नुकसान होता है। यह एक मोटा अनुमान है।
शराब की बिक्री से मिलने वाले भारी राजस्व ने ही सरकार के कदमों में बेड़ियां डाल रखी हैं। राजस्व को ध्यान में रख कर ही पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम ने 18 वर्षों से जारी शराबबंदी खत्म कर दी है। महज राजस्व के लिए देश के भविष्य से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। नई नीति बनाने से पहले नफा.नुकसान का हिसाब होना चाहिए। सरकार एक निश्चित उम्र से पहले किसी के शराब पीने को कानूनी जुर्म बना कर इस समस्या पर काफी हद तक अंकुश लगा सकती है।
बहरहालए शराब का बढ़ता सेवन गंभीर रूप ले रहा है। इसके साथ जहरीली शराब के सौदागरों पर कड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है। जहरीली शराब पीने से हर साल सैकड़ों लोग मर जाते हैं। अब बिहार में ही नहींए सारे देश में शराबबंदी की दिशा में कदम उठाए जाने की जरूरत है।
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Friday, 17 July 2015

उनके हुनर की भी कीजिए कद्र

उनके हुनर की भी कीजिए कद्र

प्रधानमंत्री मोदी ने स्किल इंडिया के लांच के अवसर पर अन्य बातों के अलावा कहा कि आदमी को मल्टी स्किल आनी चाहिए। मल्टी टास्किंग कारपोरेट का बहुत ही प्यारा शब्द और मुहावरा हैए जो आजकल बात.बात पर सुनाई भी देता है। सरकारें भी अब ऐसी बातें कर रही हैं तो अच्छा है। आम जीवन में बड़े व्यापारियों से लेकर मामूली कामकाज करने वाले तक आज एक काम पर निर्भर नहीं रहना चाहते। अपने आसपास देखें तो आपको ऐसे उदाहरण हर जगह मिल जाएंगे। कल जो कपड़े प्रैस कर रहा थाए अचानक भुट्टे के मौसम में उसी के परिवार का कोई बाल.बच्चा भुट्टे का फड़ भी लगा लेता है। शाम तक बोरी भरकर भुट्टे बिक जाते हैं।
पुरानी कहावत है.बैठे से बेगार भली। कोई अखबार वाला अखबार मैगजीन तो बेचता ही हैए अपने यहां प्रापर्टी डीलिंग का बोर्ड लगा लेता है। यही नहीं ठंडे पेयए चाय बनाने का सामान और पान आदि की दुकान एक साथ चलाने लगता है। पूरा परिवार इस काम में जुटा रहता है। कायदे से तो किसी बड़े से बड़े बिजनेस स्कूल से ज्यादा ये मामूली लोग हमें बहुत कुछ सिखा सकते हैं। जिस तरह मुम्बई के डिब्बा वालों को अहमदाबाद आईआईएम में बुलाया गया थाए इन मामूली लोगों की अक्ल और अनुभव से भी बहुत कुछ सीखना चाहिए। इन्होंने किसी पाठशाला में इन बातों की शिक्षा नहीं लीए मगर दूसरों के अनुभव से सीखकर और देखकरए अपने काम में महारथ हासिल की है। और काम भी कौन साए जिसमें कम से कम लागत में इतनी आय की जा सके कि घर की जरूरतें पूरी हो सकें और कुछ कल के लिए बच भी जाए। घर के पास में बहुत से लड़के ऐसे भी दिखते हैं जो सवेरे ग्यारह बजे तक किसी मदर डेयरी के पास ब्रेडए दूधए अंडाए तरह.तरह के बिस्कुटए नमकीनए कुलचेए पापड़ीए भेलपूरी आदि का सामान बेचते हैं। फिर ग्यारह से एक तक आपके बिजलीए पानीए टेलीफोन आदि के बिल जमा कराने का काम करते हैं। ये इस काम से भी अच्छा.खासा पैसा कमा लेते हैं।
यही नहींए अगर ध्यान से देखें तो इस कौशल में हमारे घरों की औरतों का कोई मुकाबला नहीं है। खासतौर से पिछली पीढ़ी या उससे पहली वाली पीढ़ी की औरतों का। चूंकि उनके घरेलू काम उन्हें पैसे नहीं दिलवाते थेए इसलिए उनके काम को घरेलू कहकर फर्श के नीचे खिसका दिया गया। उनके काम में कितनी मेहनत लगती हैए दिन के कितने घंटे लगते हैंए इससे घर की कुल कितनी बचत होती हैए इसे अकसर आंकने की कोई कोशिश भी नहीं की गई। उन्हें कभी कोई प्रशंसा भी नहीं मिली।
आखिर हमारी दादीए नानीए ताईए मांए बुआए चाची तथा घर के आसपास की अन्य औरतें क्या.क्या करती थींए क्या हमें याद है। उनकी दिनचर्या कैसी होती थी। एक नजर डालें। सवेरे.सवेरे उठकर वे घरों को बुहारती थींए धोती थीं। कच्चे घरों की लिपाई.पुताई का जिम्मा भी उन्हीं का था। जानवरों को दुहनाए उनका दाना.पानी भी वे ही करती थीं। फिर दही को मथनाए मक्खन निकालनाए नहानाए पूजा.पाठए घर के हर सदस्य की रुचि के अनुसार समय से पहले खाना पकानाए बर्तन मांजनाए दोपहर में चिप्सए पापड़ बड़ियां बनानाए मौसम के अनुसार अचार डालनाए शरबत बनानाए कपड़े सिलनाए स्वेटरए मोजेए पुराने स्वेटरों से नए स्वेटर बनानाए मफलरए शाल बुननाए कढ़ाई करनाए रजाइयां भरवाकर उनमें डोरे डालनाए पुराने कपड़ों से तरह.तरह की नई चीजें बनानाए किसी त्योहार पर सारी मिठाइयां और पकवान तैयार करना।
मगर ये सारे काम औरतों के कर्तव्यों की सूची में इस तरह से शामिल थे कि उन्हें कभी काम भी नहीं माना गया। घर के कुछ पुरुष तो इसमें अपनी शान समझते थे कि घर की औरतों ने जो भी काम किए हैंए वे उसमें खोट निकालें। जबकि आज इनमें से अधिकांश काम हम पैसे देकर कराते हैं। और अगर सीखने हों तो किसी इंस्टीट‍्यूट में मोटी फीस देकर सीखते हैं। जबकि हमारी ये औरतें ये सारे काम देखकर और अपने घर की औरतों से विरासत में सीखती थीं। इन औरतों के कामों को अगर गिनें तो इनसे ज्यादा मल्टी स्किल और मल्टी टास्किंग क्या होगी।  सबसे बड़ी बात कि इनके समय में कोई तकनीकी सुविधा जैसे कि फ्रिजए कुकरए मिक्सीए गैसए माइक्रोवेवए कपड़े धोने की मशीनए घर की सफाई की मशीन आदि भी उपलब्ध नहीं थीं। जबकि आज की पीढ़ी की औरतों के पास ये सब साधन उपलब्ध हैं। फिर भी वे थकान और समय की कमी का रोना रोती हैं।
पिछली पीढ़ी की इन औरतों ने कितना अन्याय सहा हैए सिर्फ इसलिए कि वे आज की औरत की तरह चार पैसे नहीं कमाती थीं। लड़कियों की आत्मनिर्भरता ने पिछली पीढ़ी की औरतों की तमाम विद्याओं और कलाओं को पीछे धकेल दिया। ये कलाएं पीछे हुईं भी इसलिए कि इनके करने से इन औरतों के हाथ में चार पैसे नहीं आते थे।
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राष्ट्रीय हित में दलीय स्वार्थों की बलि जरूरी

राष्ट्रीय हित में दलीय स्वार्थों की बलि जरूरी


पिछले दिनों भाजपा की केंद्र व कतिपय राज्य सरकारों के सामने कदाचार से जुड़े जो मामले सामने आएए उनसे निपटने के तौर.तरीकों से जनता में अच्छा संदेश नहीं गया। जिस भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाकर भाजपा ने केंद्र की सत्ता का वरण किया थाए उसके कारगर व पारदर्शी समाधान में केंद्र सरकार चूकती नजर आई। जनता में संदेश गया कि महज लीपापोती की कोशिश हो रही है। आखिरकार भारी विरोध के बाद मध्यप्रदेश सरकार व्यापम घोटाले पर सीबीआई जांच कराने पर सहमत हुई। शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप के बाद सीबीआई मामले की जांच कर रही है। ऐसा नहीं है कि सीण्बीण्आईण् की निष्पक्षता पर कभी उंगली नहीं उठी। कई बार सीण्बीण्आईण् विवादों के घेरे में आयी हैए कई बार सीण्बीण्आईण् पर केंद्र सरकार के दबाव में काम करने के आरोप लगे हैं। पर इसके बावजूद आम धारणा यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से सीण्बीण्आईण् की जांच बेहतर होती है।
ईमानदार छवि बनाने और उस छवि को बनाये रखने का दायित्व आज हमारी सरकारों पर अधिक है। खासतौर पर केंद्र सरकार को इस संदर्भ में अधिक सक्रिय और अधिक सावधान रहने की ज़रूरत है। मतदाता अभी भूला नहीं है कि भाजपा जिन मुद्दों को हथियार बनाकर आम चुनाव में मैदान में उतरी थीए उनमें सबसे प्रमुख मुद्दा पिछली सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का ही था। भाजपा मतदाता को यह समझाने में सफल रही थी कि भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार रहे होंए पर उनके नेतृत्व वाली सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही है। टूण् जीण् घोटालाए कोयला घोटाला जैसे आरोपों ने आग में घी का काम किया था। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। आम चुनाव में कांग्रेस को जिस हार का सामना करना पड़ाए उसे किसी भी राजनीतिक दल के लिए शर्मनाक ही कहा जा सकता है। चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया था कि देश कि जनता एक साफ.सुथरीए पारदर्शीए भ्रष्टाचार को न सहने वाली सरकार चाहती है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा समूचे चुनाव प्रचार के दौरान यही आश्वासन देती रही कि वह ऐसी ही सरकार देश को देगी। मतदाता ने इस बात पर भरोसा किया। उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार इस दिशा में तेज़ी से कुछ निर्णायक कदम उठायेगी। लेकिन साल भर के भीतर ही मतदाता कहीं न कहीं यह महसूस करने लगा है कि उसकी उम्मीदों की बुनियाद शायद कमज़ोर थी।
केंद्र और भाजपा.शासित राज्यों में जिस तरह के घोटाले सामने आ रहे हैंए उन्हें देखते हुए भाजपा के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी छवि सुधारने के लिए कुछ ठोस कदम उठाये। सरकारों का ईमानदार होना और ईमानदार दिखनाए दोनों ज़रूरी हैं। पिछले एक साल में इस दिशा में शायद ही कोई ऐसा कदम उठाया गया है जो भरोसा दिलाने वाला हो। ललित मोदी कांड में विदेशमंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री की भूमिका हो या मध्यप्रदेश का व्यापम कांडए या फिर छत्तीसगढ़ सरकार के विवादास्पद कामए सबमें कुछ नहींए बहुत कुछ ग़लत होने की गंध आ रही है। केंद्रीय मंत्रियोंए राज्यों के मंत्रियों से लेकर भाजपा के पदाधिकारियों के बयान पारदर्शिता को कम करने वाले ही साबित हो रहे हैं। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री का मौन भी बहुत कुछ कह रहा हैए और जो कुछ कह रहा हैए वह सरकार के लिए अच्छा नहीं है।
पिछले दिनों वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सीण्बीण्आईण् के संदर्भ में कहा था कि देश की सबसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसी को फैसलों में ग़लती और भ्रष्टाचार में फर्क को समझना होगा। उन्होंने ष्आनेस्ट एररष् शब्द काम में लिया था यानी ईमानदार ग़लती। हो सकता है यह कहते समय उनके दिमाग में कोई खास ष्गलतीष् होए पर कुल मिलाकर इससे जो बात समझ आती हैए वह यह है कि वित्तमंत्री बचाव का एक और रास्ता सुझा रहे थे। इस तरह के बयान संदेह पैदा करते हैं। ऐसे संदेहों से सरकारों की साख कम होती हैए और ज़रूरत साख बढ़ाने की है।

सवाल उठता है कि पिछले एक साल में केंद्र सरकार ने ऐसा कौन.सा काम किया हैए जो भ्रष्टाचार के संदर्भ में उसकी साख बढ़ाने वाला होघ् चुनाव प्रचार के दौरान जिन मामलों को भ्रष्टाचार के संदर्भ में उठाया गया थाए उन्हें लेकर भी सरकार कितनी सक्रिय हुईघ् ललित मोदी कांड में भी प्रवर्तन निदेशालय में अब हरकत हो रही है। आखिर साल भर तक क्यों चुप रहा निदेशालयघ् आदर्श घोटाला हो या वाड्रा कांड हो या फिर महाराष्ट्र का सिंचाई घोटालाए साल भर में इनमें कहीं कुछ तो होता दिखाई नहीं दिया। आखिर क्योंघ् व्यापम घोटाले को लेकर भी केंद्र सरकार राज्य सरकार का बचाव ही करती रही।
स्पष्ट नीति और ईमानदार नीयत के साथ.साथ संकल्प और साहस की भी ज़रूरत होती है। सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की रक्षा के लिए सरकार को अपने आप से पूछना होगा कि इस दिशा में उसने क्या कदम उठाये हैं। लोकपाल के मुद्दे पर पिछली सरकार की नीयत पर सवाल उठाने वाली भाजपा जब आज सत्ता में है तो इसके बारे में चुप क्यों हैघ् सूचना के अधिकार की कतर.ब्योंत क्यों हो रही हैघ्
एक बात औरए हाल ही में महाराष्ट्र में ष्चिकी.कांडष् की बात जब उठी तो सरकार ने कहा.वह इसी एक मामले की जांच नहीं करायेगीए दस साल के ऐसे सौदों की जांच की जायेगी। मतलब यह कि आज जो जांच की मांग कर रहे हैंए उनके दामन पर भी दाग़ हैं। होनी चाहिए उनकी भी जांचए पर वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हुए कांड की जांच की मांग पर ही सरकार को दस साल के कांड क्यों याद आयेघ् पहले भी एक केंद्रीय मंत्री कह चुके हैं.बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। सवाल उठता हैए इस संदर्भ में सरकार ने अब तक बात दूर तक पहुंचाने की दिशा में क्या कार्रवाई कीघ् कहीं इस तरह की धमकियां इसलिए तो नहीं दी जातीं कि आरोप लगाने वाले चुप हो जायेंघ् अकसर हमने देखा है राजनेताओं को यह कहते कि तुम्हारी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज़्यादा मैली है। दूर तक बात ले जाने की धमकी और दूसरे की कमीज़ को ज़्यादा मैली बताने की यह रणनीतिए दोनोंए नीयत में खोट का ही संकेत देती हैं।
साफ.सुथरी सरकार और बेहतर चाल.चरित्र का दावा करने वाली पार्टी को पारदर्शी व्यवहार का प्रमाण देना होगा। उसकी बातों से नहींए उसके कामों से लगना चाहिए कि वह ईमानदारी और पारदर्शिता के पक्ष में है। इस संदर्भ में अब तक जो कुछ हुआ हैए और जो कुछ नहीं हुआ हैए वह नयी सरकार की छवि अच्छी नहीं बना रहा। छवि बनाने के लिए स्वयं को सिद्ध करना होगा। स्वयं को सिद्ध करने का मतलब है भ्रष्टाचार के बारे में ठोसए निर्ममए निर्णायक कार्रवाई। पर यह खतरा उठाये बिना सरकार और प्रधानमंत्री की नीयत पर लग रहे दाग़ नहीं धुल सकते। राष्ट्रीय हितों के लिए दलीय स्वार्थोँ की बलि देनी ही होगी। तब पूरी होगी पारदर्शिता की शर्त। सवाल नीयत का है।
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Thursday, 16 July 2015

बौद्ध विरासत के सहारे कूटनीति

बौद्ध विरासत के सहारे कूटनीति

अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों की ओर से म्यांमार के प्रति लगातार बढ़ते विरोध के चलते वहां के सैनिक शासकों का झुकाव आर्थिक और सैन्य मदद पाने की खातिर चीन की ओर होता चला गया था। जैसे.जैसे म्यांमार और साथ लगती बंगाल की खाड़ी और अंडमान सागर में उभरते चीनी अड्डों की खबरें आने लगीं वैसे.वैसे भारत की फिक्र में इजाफा होता चला गया। मैंने भी म्यांमार के वरिष्ठ मंत्री के साथ भारत की ऐसी चिंता को साझा किया था। इस पर उनका जवाब था.आप लोगों को इस बारे में फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं हैए हो सकता है कि मैं हथियार और समर्थन पाने की खातिर चीन जाऊंए लेकिन अपनी मोक्ष प्राप्ति के लिए तो मुझे आखिरकार बोधगया जाना ही पड़ेगा! कोई हैरानी नहीं जब म्यांमार एकदम अलग.थलग पड़ गया थाए तब भी उसने चीन को नौसैनिक अड्डा बनाने की इजाजत नहीं दी थी और इसकी बजाय आसियान संगठन की सदस्यता ग्रहण की ताकि उसके राजनयिक विकल्पों का विस्तार हो सके।
परंतु क्या हम अपनी बौद्ध विरासतों का फायदा पूर्व में स्थित पड़ोसी देशों के साथ सामरिक हितों को बढ़ाने में कर सकते हैंघ् क्या हम ऐसा पर्यटक गंतव्य बन सकते हैं जो न सिर्फ अमेरिका और यूरोप बल्कि लगातार समृद्ध होती हमारी पूर्वी सीमा के पार देशों से आने वाले पर्यटकों की भी मेजबानी कर पाएघ् भारत स्थित बौद्ध तीर्थस्थलों और खासकर बोधगया के बारे में व्याख्या करते हुए अमेरिका स्थित भूटानी मूल के विद्वान द्जुंग्सर जाम्यांग किहिंत्से रिनपोछे ने कहा.इस इलाके की समृद्धि की ऐतिहासिक सच्चाई कुछ भी होए लेकिन आज का अफसोसनाक यथार्थ यह है कि नेपाल की सरकार और वहां के लोगों के अलावा भारत और बिहार प्रदेश उन हजारों.लाखों तीर्थयात्रियों के लिए एक बदनाम मेजबान हैं जो वहां पर गौतम बुद्ध की शिक्षा और जीवनदर्शन के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि प्रकट करने आते हैं।
किहिंत्स आगे कहते हैं कि भारत और नेपाल ने संसार को एक सबसे कीमती विचारधारा दी थीए जिसका नाम है गौतम बुद्ध। फिर भी इन दोनों देशों ने इस असाधारण विरासत का सच्चा मोल नहीं जानाए इस पर गर्व करना तो दूर की बात है। यहां तक कि ऐतिहासिक नालंदा विश्वविद्यालय जो 1193 में आक्रांता बख्तियार खिलजी द्वारा ढहाए जाने से पहले तक तिब्बतए चीनए कोरिया और मध्य एशिया से आए बौद्ध विद्वानों का सदियों तक आशियाना हुआ करता थाए आज उसके मौजूदा प्रारूप में बौद्ध विरासत पर शिक्षा पाठ्यक्रम ही नदारद है। इससे एकदम उलट परिदृश्य चीन में हैए हालांकि वहां पर माओ युग में धार्मिक विरासतों और मान्यताओं का त्याग करने के तमाम उपाय किए गए थेए फिर भी 1970 के दशक से वहां पर बौद्ध शिक्षाओं के प्रति खुलापन पुनरू आने लगा था। अब वहां पर बौद्ध सिद्धांतों का पुनर्जागरण होने के चिन्ह दिखाई देने लगे हैं। आज चीन को अपने यहां मौजूद सबसे भव्य बौद्ध विरासत स्थलों की गिनती पर नाज है। यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त विश्व विरासत स्थलों में चीन के गांसू प्रांत की मोगाओ गुफाएंए हेनान राज्य में ग्रोट्टोए चोकिंग के पास द्जू शिलाओं पर हुई नक्काशी और लेशान की पहाड़ी का एक हिस्सा खोदकर बनाई गई बुद्ध की विशालकाय मूर्ति जो तीन नदियों के संगम का अवलोकन करती प्रतीत होती हैए इनमें शामिल हैं। चीन में बौद्ध तीर्थयात्रियोंए पर्यटकों और विद्वानों को जो उम्दा सुविधाएं मिलती हैंए उसकी तुलना भारत के घटिया और देसी तरीकों से करना बेमानी है।
थाईलैंड के शाही परिवार के सदस्य और सहयोगी जब बोधगया और अन्य बौद्ध स्थलों की यात्रा पर आए थे तो अपने देश की तुलना में वे भारत की घटिया पर्यटन सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमियों को नजरअंदाज नहीं कर पाए थे। कंबोडिया के अंगकोर वाट स्थित और 12वीं सदी में बने आलीशान हिंदू मंदिर का वहां पर जितना सम्मानजनक स्थान है और उतने ही चाव से उसे सहेज कर रखा गया है जितना कि देश में मौजूद अन्य बौद्ध स्थलों को। म्यांमार के यांगोन शहर के स्वर्ण पटल जडि़त पगोडा मंदिरए मांडले और अन्य जगहों पर मौजूद 2200 बौद्ध पूजा स्थल और पगान इलाके के बौद्ध मंदिर जिनका निर्माण 9वीं और 12वीं सदी के बीच हुआ थाए इन्हें बड़े गर्व के साथ सहेज कर रखा गया है। इसी तरह की रिवायत जापानए दक्षिण कोरिया और ताईवान में भी बड़ी दक्षता से निभाई जाती है।
आज संसार भर में लगभग 60 करोड़ बौद्ध धर्मावलंबी हैं। केवल चीन में ही इनकी गिनती लगभग 22 से 24 करोड़ के बीच है। समय के साथ यह गिनती बिना रुकावट और आगे बढ़ने वाली है। हालांकि यह एक ऐसा विषय हैए जिस पर वहां की एकल पार्टी तानाशाही बड़ी चौकस निगाह रखनी चाहेगी। आखिरकार यह मूल रूप से पोलैंड से संबंध रखने वाले और ईसाइयों के सर्वोच्च धार्मिक गुरु पोप ही थेए जिन्होंने वारसा संधि के विखंडन की भूमिका बनाने का आगाज किया था और जिसके नतीजे में सोवियत संघ का विघटन हुआ था। इन परिस्थितियों के मद्देनजर यदि हम कल्पनाशीलता से आधारभूत पर्यटन ढांचे का निर्माण करें तो इससे भारत की पूर्व से संबंध बनाओ नीतियों को बढ़ावा मिलेगाए जो आगे देश में बौद्ध पर्यटन के साथ.साथ अकादमिक कार्यों में इजाफे के अलावा बुद्ध की शिक्षाओं और जीवनदर्शन से रूबरू होने वालों की संख्या बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करेंगी।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह भारत को एशिया में बौद्ध पर्यटन और अध्ययन के केंद्र बिंदु के रूप में विकसित करे। भारत.नेपाल सीमा पर स्थित लुंबिनी से लेकर बोधगयाए भारहटए अमरावतीए नागरकोंडाए श्रावस्तीए संकशयए नालंदा और राजगीर जैसे विरासती बौद्ध स्थलों को आपस में सड़कए रेल और वायु मार्ग से जोड़ने के लिए निर्माण और विकास कार्य करना होगा। इसके अलावा अन्य स्मरणीय स्थलों जैसे कि सांचीए अमरावतीए अजंताए एलोराए कानहेड़ी और कारली तक पहुंचने के लिए विकसित साधन और मार्ग जुटाने पड़ेंगे। गुजरात भी अनेक बौद्ध विरासतों का घर है। म्यांमार और श्रीलंका से ऐसे हजारों तीर्थयात्री यहां आने को तैयार हो सकते हैं बशर्ते उन्हें हम अपेक्षाकृत सस्ता नौवहन और सड़क परिवहन साधन मुहैया करवा सकें।
भारत को बौद्ध तीर्थयात्रा और पर्यटन के केंद्र बिंदु के रूप में विकसित करने की खातिर अगर एशिया के पूर्व और दक्षिण.पूर्व के देशों को भागीदार बनाया जाए तो इस काम में बाहरी निवेश और मदद भी मिल सकती है। इन सबको सिरे चढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को घरेलू पर्यटन उद्योग और उनके विदेशी सहयोगियों के साथ कल्पनाशील और बड़े पैमाने के यत्न करने की जरूरत है। इन उपायों से विदेश नीति को कितना फायदा पहुंचेगाए यह स्वयंसिद्ध है। ऐसा होने पर न सिर्फ देश के बड़े हिस्से में पर्यटन उद्योग को भारी पैमाने पर बढ़ावा मिलेगा बल्कि स्थानीय लोगों को मिलने वाले रोजगार में भी काफी इजाफा होगा।
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आत्मघाती वैज्ञानिक तरक्की

आत्मघाती वैज्ञानिक तरक्की

कौन ले जा रहा है मनुष्य कोध् सामूहिक आत्मघात की दिशा में बिला झिझकघ्ध् सभ्यता को ध्वंसावशेषों के हवालेध्करना चाहता है कौनघ्ध् विज्ञान के विनाशकारी उपयोग का सपनाध्देखने वाला कौन है सत्ताओं के सिवाध्इस दुनिया मेंघ्
हिन्दी कविता में युयुत्सावाद के जनक शलभ श्रीराम सिंह ने 1991 में अपनी एक कविता में यह ज्वलंत प्रश्न पूछा थाए जो अभी तक अनुत्तरित चला आ रहा है। और इस खबर के बाद नये सिरे से प्रासंगिक हो उठा है कि जर्मनी में फैंकफर्ट से सौ किलोमीटर दूर बाउनाताल स्थित एक कार निर्माता कम्पनी के संयंत्र के रोबोट ने एक इक्कीस वर्षीय ठेका मजदूर की हत्या कर दी। रोबोट ने ऐसा तब किया जब मजदूर उसे कार के कलपुर्जे जोड़ने के उसके काम पर तैनात करने हेतु उसके सुरक्षा घेरे में घुस गया था। घेरे के बाहर उपस्थित उसके साथी मजदूर की मानें तो रोबोट ने पहले तो उसे कसकर पकड़ाए फिर उठाकर ऐसा पटका कि उसकी छाती की सारी हड्डियां चकनाचूर हो गयीं। डाक्टरों के लिए उसे बचा पाना असंभव हो गया।
योंए अमेरिका में पिछले तीन दशकों में रोबोटों से जुड़ी दुर्घटनाओं में तैंतीस से ज्यादा लोग अपनी जानें गंवा चुके हैंए लेकिन किसी रोबोट द्वारा इस तरह हत्या पर उतरने का यह अपनी तरह का पहला मामला है। यानी अब तक हम जिन रोबोटों को फिल्मोंए उपन्यासों अथवा विज्ञान कथाओं व नाटकों आदि में किसी की जान लेते या मनुष्य जाति के विनाश पर उतरते देखध्पढ़कर सिहरते रहेए अब वे हमारे समय के महाभयानक सच में बदल गये हैं।
जर्मनी में अधिकारी समझ नहीं पा रहे कि वे रोबोट द्वारा अंजाम दी गयी मजदूर की हत्या के लिए किस पर और कैसे मुकदमा चलायेंघ् लेकिन हमारे लिए ज्यादा प्रासंगिक सवाल यह है कि हम उस घटना द्वारा बजायी गयी खतरे की घंटी से कोई सबक सीखेंगे या इसके लिए अगली पीढ़ी के उन रोबोटों के अस्तित्व में आने का इंतजार करेंगे जो सुरक्षा घेरों से बाहर घूमने.फिरने को भी ष्आजादष् होंगे और वर्तमान रोबोटों से ज्यादा कहर बरपा सकेंगेघ् लेकिन क्या तब तक बहुत देर नहीं हो जायेगीघ्
अफसोस की बात है कि हमें ऐसी घंटियों की अनसुनी की बहुत बुरी आदत है। महात्मा गांधी तो अंधाधंुध मशीनीकरण कोए रोबोट जिसकी चरम परिणति से जनमे अतिमानवों से ज्यादा कुछ नहीं हैए मानव सभ्यता के लिए अभिशाप बताते ही थे। प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी स्टीफन हाकिंग ने तो साफ.साफ चेता रखा है कि रोबोट धरती से जीवन के खत्म होने की प्रक्रिया की शुरुआत होंगे। टेक्सला इलेक्ट्रानिक कार के जनक इलोन मस्क ने कहा है कि उनका निर्माण दानवों को निमंत्रण देने जैसा होगा। लेकिन वर्तमान दुनिया का राजनीति व पूंजी द्वारा नियंत्रित जो जटिल स्वरूप हैए उसमें सिर्फ वैज्ञानिकों के ध्यान देने से कुछ होने वाला नहीं क्योंकि उनके हाथ में कोई निर्णायक शक्ति है ही नहीं और सत्ताएं इस ओर से पूरी तरह लापरवाह हैं।
हममें से जो लोग विज्ञान के अनेक अभिशापों के लिए वैज्ञानिकों को जिम्मेदार ठहराकर उन पर अपना गुस्सा उतारते रहते हैंए उन्हें समझने की जरूरत है कि वैज्ञानिकों को तमाम कल्याणकारी व सृजनात्मक शोधों से विरतकर औजारों तक को हथियारों में बदलने के काम में इन सत्ताओं ने ही लगा रखा है। कौन कह सकता है कि वैज्ञानिकों ने जिस अणु ऊर्जा की खोज कीए उसे अणु या कि परमाणु बम में बदलकर दुनिया को बारूद के ढेर पर बैठानेए सामूहिक विनाश के रासायनिक हथियारों के उत्पादन तक ले जानेए पर्यावरण को तमाम जहरीली गैसों के हवाले करने और प्लास्टिक के कचरे से पाट देने जैसे कृत्यों के पीछे भी स्वार्थी सत्ताएं ही नहीं हैंघ्
लेकिन वैज्ञानिकों का प्रतिरोध उनके एजेंडे पर कहीं दिखायी देता। वे तो यह बताने के लिए भी आगे नहीं आते कि उनके ष्गुड सर्वेंटष् को ष्बैड मास्टरष् उन्होंने नहींए पूंजी को ब्रह्मए मुनाफे को मोक्ष और वर्चस्व को सबसे बड़ा पराक्रम मानने वाली इन सत्ताओं ने ही बनाया है। हांए वैज्ञानिकों को इस सवाल का जवाब भी देना ही चाहिए कि क्या उनकी कोई सामाजिकए सांस्कृतिक या नैतिक जिम्मेदारी नहीं हैघ् क्या समूची मनुष्यता खतरे में पड़ेगी तो वे खुद के लिए किसी अभयारण्य की कल्पना कर सकते हैंए जिसमें वे जा छिपेंगेघ्
जाहिर है कि मनुष्य विरोधी सत्ताओं के रहते वैज्ञानिक आविष्कारों के दुरुपयोग के खात्मे को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। बन्दर के हाथ में उस्तरे की कहावत को सार्थक करके वे इस पुरान मिथ को भी तोड़ सकती हैंए जिसमें कहा जाता है कि अज्ञान ही सारे दुखों का मूल है। ऐसा हुआ तो एक कवि के शब्दों मेंरू पृथ्वी हिलेगी नहीं इस बारध् धधकेगी भी नहींध्डूब जायेगी अपने ही पानी में अकस्मात।ध्३ण्मनुष्य के विषय में कुछ भी न सोचती हुई ध्डूबी रहेगी अपने ही पानी में बहुत दिनों तक!
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Wednesday, 15 July 2015

दबाव में ब्रिक्स

दबाव में ब्रिक्स

दक्षिणी रूस के ऊफा शहर में होने जा रहा ब्रिक्स शिखर सम्मेलन कुछ असाधारण परिस्थितियों के लिए याद किया जाएगा। अब से कोई दस साल पहले जब ब्राजीलए रूसए भारत और चीन को तेजी से उभरते विकासशील देशों के एक साझा खांचे में रख कर देखने का चलन शुरू हुआ थाए तब किसी को अंदाजा नहीं था कि इन अलग.अलग कूटनीतिक नजरियों वाले देशों के बीच अगर एकता का कोई स्वरूप बना तो वह कहां जाएगा।

आखिरकार मंदी ने न सिर्फ इन चार देशों को बल्कि पांचवें देश साउथ अफ्रीका को भी ब्रिक्स नाम के एक ताकतवर संगठन के तहत ला दिया। ऊफा में इनके साझा विकास बैंक का शुभारंभ होने जा रहा है और सब कुछ ठीक रहा तो यहीं ये डॉलरमुक्त आपसी व्यापार के लिए भी राजी हो सकते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के खात्मे के बाद से ही विश्व व्यापार पर कायम अमेरिकी मुद्रा के एकछत्र राज को यह दूसरी ;यूरो की स्थापना के बाद पहलीद्ध चुनौती मिलने जा रही है।

बहरहालए इस सकारात्मक पहल से थोड़ा ही हट कर देखें तो हमें ब्रिक्स के भीतर कुछ तनाव भी उभरते दिखाई पड़ेंगे। यह विरला मौका है कि ब्रिक्स के तीन ताकतवर साझीदार. रूसए चीन और ब्राजील अलग.अलग वजहों से अमेरिका के खिलाफ काफी सख्त तेवर अपनाए हुए हैं। रूस का अमेरिका विरोधी रुझान यूक्रेन में जारी गृहयुद्ध की वजह से बना हुआ हैए चीन का दक्षिणी चीन सागर में कुछ द्वीपों पर दावेदारी और नए कृत्रिम द्वीपों की निर्माण वजह सेए जबकि ब्राजील अपने शीर्ष नेताओं और अधिकारियों की लगातार जासूसी के चलते बुरी तरह अमेरिका से खार खाए हुए है।

जहां तक सवाल भारत के कूटनीतिक रुझान का है तो मोदी सरकार ने अपनी शुरुआत अमेरिका के प्रति थोड़े खिंचाव के साथ की थीए लेकिन अभी कुल मिलाकर भारत को अमेरिकी खेमे के इनसाइडर के तौर पर देखा जा रहा है। पश्चिम में इस्राइल से लेकर पूरब में जापान और दक्षिण कोरिया तक कट्टर अमेरिका समर्थक देशों के साथ न सिर्फ भारत की दोस्ती गहरा रही हैए बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का रवैया इसको ऐसे ही देशों की जमात का हिस्सा साबित कर रहा है।

ऐसे में ब्रिक्स के ऊफा शिखर सम्मेलन में दोस्ती और भाईचारे की कसमों और वादों की तो कोई कमी नहीं रहेगीए लेकिन अमेरिका के समर्थन और विरोध को लेकर शायद इसमें एक बारीक सी दरार भी दिखाई पड़ेगी। शीतयुद्ध के खात्मे के बाद दुनिया में उभरी जिस एकध्रुवीयता ने गुटनिरपेक्ष सम्मेलन जैसे वैश्विक मंचों का कबाड़ा कियाए उसका कुछ न कुछ असर देर.सबेर ब्रिक्स पर भी दिखना ही है।

भारत की कूटनीतिक परिपक्वता इसी से आंकी जाएगी कि अंतरराष्ट्रीय मंचों का उपयोग वह अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने में करे और जहां तक हो सकेए खुद को बाहरी गोलबंदियों से होने वाले नुकसान से बचाए रखे। आने वाले दिनों में कुछ मजबूत अर्थव्यवस्थाओं की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। माहौल ज्यादा बिगड़ा तो ब्रिक्स भारत के लिए बड़े काम की चीज साबित होगा।
SOURCE : http://navbharattimes.indiatimes.com/

अंतरिक्ष कारोबार में भारत की छलांग

अंतरिक्ष कारोबार में भारत की छलांग

अंतरिक्ष विज्ञान के व्यापार में अब हम अग्रणी देशों में शामिल हो गए हैं। इसका प्रमाण हमें 9 जुलाई 2015 को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के श्रीहरिकोटा से तब मिल गयाए जब हमारे वैज्ञानिक और अभियंताओं ने ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यानए यानी पीएसएलवी सी.28 से ब्रिटेन के पांच उपग्रहों को प्रक्षेपित करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया। हालांकि इसके पहले यहीं से 30 जून 2014 को इसी तरह की वाणिज्यिक पहल की गई थी। इसमें विकसित देशों के पांच उपग्रहों को सवार करके उन्हें गंतव्य तक पहुंचाया गया था।
इस उपलब्धि में सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि अब हमारे वैज्ञानिक शोध संस्थानों को बाजार में जगह मिल रही है और ये लाभदायी कारोबार की ओर बढ़ रहे हैं। लिहाजा अब भारत उपग्रह प्रक्षेपित करके खरबों डॉलर कमाने के वैश्विक क्षेत्र में प्रवेश कर गया है। यदि देश के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय भी आविष्कारों के व्यापार से जुड़ जाएं तो देश के छोटे वैज्ञानिकों को तो मान्यता मिलेगी हीए हमारे शोध संस्थान विदेशी मुद्रा कमाने का भी एक बड़ा जरिया बन सकते हैं।
हमारे पूर्वजों ने शून्य और उड़न तश्तरियों जैसे विचारों की परिकल्पना की। शून्य का विचार ही वैज्ञानिक अनुसंधानों का केंद्र बिंदु है। बारहवीं सदी के महान खगोल विज्ञानी आर्यभट्ट और उनकी गणितज्ञ बेटी लीलावती के अलावा वराहमिहिरए भास्कराचार्य और यवनाचार्य ब्रह्मांड के रहस्यों को खंगालते रहे हैं। इसीलिए हमारे वर्तमान अंतरिक्ष कार्यक्रमों के संस्थापक वैज्ञानिक विक्रम साराभाई और सतीश धवन ने देश के पहले स्वदेशी उपग्रह का नामकरण आर्यभट्ट के नाम से किया है। अंतरिक्ष विज्ञान के स्वर्ण.अक्षरों में पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री के रूप में राकेश शर्मा का नाम भी लिखा गया है। उन्होंने 3 अप्रैल 1984 को सोवियत भूमि से अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाले यान सोयूज टी.11 में यात्रा की थी।
दरअसल प्रक्षेपण तकनीक दुनिया के  छह.सात देशों के पास ही हैए लेकिन सबसे सस्ती होने के कारण दुनिया की इस तकनीक से महरूम देश अमेरिकाए रूसए चीनए जापान का रुख करने की बजाय भारत से अंतरिक्ष व्यापार करने लगे हैं। इसरो इस व्यापार को अंतरिक्ष निगम ;एंट्रिक्स कार्पोरेशनद्ध के जरिए करता है। इसरो पर भरोसा करने की दूसरी वजह यह भी है कि उपग्रह यान की दुनिया में केवल यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी को छोड़ कोई दूसरा ऐसा प्रक्षेपण यान नहीं हैएजो हमारे पीएसएलवी .सी के मुकाबले का हो। दरअसल यह कई टन भार वाले उपग्रह ढोने में दक्ष है। इसलिए इसकी व्यावसायिक उड़ानों को मुंह मांगे दाम मिल रहे हैं।
दूसरे देशों के छोटे उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की शुरुआत 26 मई 1999 में हुई थी और जर्मन उपग्रह टब सेट के साथ भारतीय उपग्रह ओशन सेट भी अंतरिक्ष में स्थापित किए थे। इसके बाद पीएसएलवी सी.3 ने 22 अक्तूबर 2001 को उड़ान भरी। इसमें भारत का उपग्रह बर्ड और बेल्जियम के उपग्रह प्रोबा शामिल थे। ये कार्यक्रम परस्पर साझा थेए इसलिए शुल्क नहीं लिया गया। पहली बार 22 अप्रैल 2007 को ध्रुवीय यान पीएसएलवी सी.8 के मार्फत इटली के ष्एंजाइलष् उपग्रह का प्रक्षेपण शुल्क लेकर किया गया। दरअसल अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार व्यावसायिक उड़ान वही मानी जाती हैए जो केवल दूसरे उपग्रहों का प्रक्षेपण करे। इसकी पहली शुरुआत 21 जनवरी 2008 को हुईए जब पीएसएलवी सी.10 ने इस्राइल के पोलरिस उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में छोड़ा। इसके साथ ही इसरो ने विश्वस्तरीय मानकों के अनुसार उपग्रह प्रक्षेपण मूल्य वसूलना भी शुरू कर दिया।
हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने अनेक विपरीत परिस्थितियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद जो उपलाब्धियां हासिल की हैंए वे गर्व करने लायक हैं। एक समय ऐसा भी था जब अमेरिका के दबाव में रूस ने क्रायोजेनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दरअसल प्रक्षेपण यान का यही इंजन वह अश्व.शक्ति हैए जो भारी वजन वाले उपग्रहों को अंतरिक्ष में पहुंचाने का काम करती है। फिर हमारे जीएसएलवी मसलन भू.उपग्रह प्रक्षेपण यान की निर्भरता भी इसी इंजन से संभव थी।
नई और अहम चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में भी हैं। फिलहाल इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की दिशा में हम मजबूत पहल ही नहीं कर पा रहे हैं। भारत वाकई दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा.उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी होना ही चाहिए। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस और अमेरिका ने जिस तरह से भारत को धोखा दिया थाएउसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार प्राप्त करने के परिप्रेक्ष्य में भी मुंह की खानी पड़ सकती है।
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Tuesday, 14 July 2015

बड़ी जांच के बड़े सवाल

बड़ी जांच के बड़े सवाल

एक और सनसनीखेज घोटाले और इससे संबंधित व्यक्तियों की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु की जांच की जिम्मेदारी केन्द्रीय जांच ब्यूरो को मिल गयी है।
मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले से किसी न किसी रूप में संबंध रखने वाले व्यक्तियों की मृत्यु की घटनाओं की छानबीन कर रहे एक पत्रकार की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु की घटना के बाद इस मामले ने अचानक तूल पकड़ लिया है। राजनीतिक विरोधियों के बढ़ते दबाव के सामने हथियार डालते हुए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस सारे मामले की जांच सीबीआई को सौंपने के लिये तैयार हो गये।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की निगरानी में इस घोटाले की जांच कर रहे विशेष जांच दल और विशेष कार्य बल को सारी सामग्री अब सीबीआई को सौंपनी है। सीबीआई को 24 जुलाई को अपनी रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को सौंपनी है। इसके बाद ही इस जांच की न्यायालय द्वारा निगरानी के बारे में कोई निर्णय लिया जायेगा।
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब सीबीआई को नेताओंए नौकरशाहों और बिचौलियों की कथित सांठगांठ से हुए घोटाले की जांच की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। इससे पहलेए इस एजेन्सी को राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील बोफोर्स तोप सौदा दलाली कांडए बिहार का बहुचर्चित अरबों रुपए का चारा घोटालाए हरियाणा का प्राइमरी शिक्षक भर्ती कांडए उत्तर प्रदेश का हजारों करोड़ रुपए का खाद्यान्न घोटाला कांडए उण्प्रण् का ही एनआरएचएम के नाम से चर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाला कांड के बाद शारदा चिट फंड घोटाला कांड जैसे मामलों की जिम्मेदारी सौंपी जा चुकी है। इनके अलावाए अरबों रुपए के 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन प्रकरण और कोयला खदानों के आवंटन में हुई अनियमितताओं के मामलों की भी सीबीआई ही जांच कर रही है।
जहां तक राजनीतिक दृष्टि से बड़े घोटालों का संबंध है तो उच्चतम न्यायालय ने मई 2013 में उत्तर प्रदेश में संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजनाए अंत्योदय योजना और मध्याह्न भोजन योजना के तहत वितरित होने वाले खाद्यान्न में अरबों रुपए के घोटाले की सीबीआई जांच की निगरानी की इजाजत इलाहाबाद उच्च न्यायालय को दी थी। इसकी जांच अभी भी जारी है।
इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण की सीबीआई जांच की निगरानी करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 18 अप्रैल 2011 के निर्णय पर रोक लगा दी थी।
खाद्यान्न घोटाले में आरोप था कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से विभिन्न योजनाओं के तहत वितरित करने के लिये आने वाला खाद्यान्न नेपालए बांग्लादेशए दक्षिण अफ्रीका और भूटान जैसे देशों में गैरकानूनी तरीके से पहुंचा दिया गया। इस घोटाले की चपेट में उत्तर प्रदेश के 71 जिलों में से करीब 50 जिले आये और एक अनुमान के अनुसार इसमें चार सौ से अधिक प्रथम श्रेणी के अधिकारियों और आठ सौ से अधिक मध्यम श्रेणी के अधीनस्थ अधिकारियों के साथ ही करीब दस हजार व्यक्ति संलिप्त थे।
व्यापम घोटाले की तरह ही उण्प्रण् के खाद्यान्न घोटाले को व्हिसिल ब्लोअर की भूमिका में वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी एक याचिका के माध्यम से सामने लाये थे। उत्तर प्रदेश के ही करोड़ों रुपए के एनआरएचएम घोटाले की जांच का काम भी सीबीआई के ही पास था। इस मामले में अब तक पांच व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है। इस मामले में मायावती सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके बाबू राम कुशवाहा सहित कई व्यक्तियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। इस मामले की सुनवाई गाजियाबाद की विशेष अदालत में चल रही है।
राज्य के परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य विभाग में हुए इस घोटाले के सामने आने के बाद अक्तूबरए 2010 में मुख्य चिकित्सा अधिकारी विनोद कुमार आर्य और फिर मुख्य चिकित्सा अधिकारी डाण् बीपी सिंह की सरेआम हत्या कर दी गयी थी।
हरियाणा के वर्ष 1999.2000 के बहुचर्चित प्राइमरी शिक्षक भर्ती घोटाले की जांच भी सीबीआई ने ही की थी। इस मामले में फर्जी दस्तावेजों के सहारे 3200 से अधिक प्राइमरी शिक्षकों की भर्ती हुई थी। इस मामले में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और उनके पुत्र अजय चौटाला सहित 55 व्यक्तियों को दोषी ठहराने के बाद सजा सुनायी गयी थी।
अब देखना यह है कि क्या 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला आवंटन प्रकरणों की तरह ही व्यापम घोटाले की जांच की प्रगति की निगरानी उच्चतम न्यायालय करेगा। यह भी कि इन प्रकरणों की तरह ही केन्द्रीय जांच ब्यूरो कब और कितनी तेजी से जांच शुरू करता है। यह भी देखना दिलचस्प होगा कि यदि इस मामले में लोक सेवकों की संलिप्तता सामने आयी तो सरकार उन पर मुकदमा चलाने के लिये अनमुति देने में कितना समय लेती है।
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विश्व बैंक का गरीब विरोधी नज़रिया

विश्व बैंक का गरीब विरोधी नज़रिया

विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम यांग किम ने कहा है कि वर्ष 2030 तक विश्व से अति गरीबी समाप्त हो जाएगी। ध्यान देंए शब्द ष्अति गरीबीष् है न कि गरीबी। गरीबी बढ़े और अति गरीबी घटेए ये साथ.साथ चल सकते हैं। जैसे एक भूखे बच्चे को एक रोटी दे दी जाए और गांव के 100 बच्चों को मिली दो रोटी में से एक छीन ली जाए तो गरीब बच्चे की अति गरीबी समाप्त हो जाएगी परन्तु सैकड़ों बच्चों की गरीबी बढ़ जाएगी। उन्हें पहले दो रोटी मिलती थी। अब एक रोटी मिलेगी। विश्व बैंक की नीति इस दिशा में है। ऐसी परियोजनाएं लागू की जा रही हैंए जिनसे गरीबी बढ़े।
यूं तो विश्व बैंक द्वारा पोषित तमाम परियोजनाओं का प्रभावितों द्वारा विरोध होता रहा है परन्तु उत्तराखंड में विष्णुगाड पीपलकोटी परियोजना में विश्व बैंक के कार्यकलापों का वास्तविक रूप सामने आता है। विश्व बैंक ने इस परियोजना को लोन दिया है। आज पीपलकोटी में अलकनंदा नदी स्वच्छन्द बहती है। नीचे से मछलियां ऊपर पलायन करती हैं और अंडे देती हैं। डैम बनाने के बाद मछलियों का आवागमन अवरुद्ध हो जाएगा। ये कमजोर हो जाएंगी और क्षेत्र में रहने वाले गरीबों को मछली नहीं मिलेगी। वर्तमान में अलकनंदा नदी ऊपर से बालू लेकर आती है। लोग मकान बनाने के लिए बालू को सीधे नदी से उठा लेते हैं। परियोजना बनने के बाद बालू बांध के पीछे कैद हो जाएगी। बालू खरीदनी पड़ेगी।
परियोजना में भारी भरकम सुरंग बनाई जा रही है। सुरंग बनाने के लिए भारी मात्रा में विस्फोट हो रहे हैं। इससे लोगों के मकानों में दरारें आ गई हैं। लेकिन विश्व बैंक इन दरारों का विस्फोटों के कारण बनने को इनकार करता है। बैंक को यह नहीं दिखता है कि पूरे जिले में किसी दूसरे स्थान पर ऐसी दरारें नहीं पड़ी हैं। केवल इसी क्षेत्र में दरारें पड़ी हैं। बांध के पीछे तालाब बनने से उसके किनारे भूस्खलन होता है। टिहरी झील के किनारे मकानों का एक हिस्सा धसक गया है। खेतों में दरारें पड़ने लगी हैं। हाल में चीन के थ्री गार्जेज़ डैम में एक पहाड़ धसक कर झील में समा गयाए जिससे 20 फीट ऊंची लहर बनी। इससे एक मछुआरे की मौत हो गई। इस प्रकार की घटनाएं यहां भी होंगी। झील के ठहरे हुए पानी में मच्छर पैदा होंगे। क्षेत्र में मलेरिया जैसे रोगों का प्रकोप बढ़ेगा। उत्तराखंड के सभी जिलो में मलेरिया का प्रकोप घटा है परन्तु टिहरी में बढ़ा है। बांध के पीछे पानी के ठहरने से पानी सड़ने लगता है। उसकी ताजगी जाती रहती है। स्नान करने वाले तीर्थयात्रियों को सुख नहीं मिलता। बद्रीनाथ जाने वाले तीर्थयात्रियों को सूखी नदी दिखेगी। परियोजना के ये तमाम दुष्प्रभाव गरीब पर पड़ेंगे।

परियोजना से उत्पन्न हुई बिजली देहरादून तथा दिल्ली चली जाएगी। जो बिजली उत्तराखंड में लगे उद्योगों को दी जाएगीए वह भी अंततः दिल्ली को ही पहुंचेगी। इन फैक्टरियों में बना माल दिल्ली ही जाएगा। जैसे उत्तराखंड में टाटा ने नैनो कार बनाने का कारखाना लगाया। सस्ती बिजली मिली और कार का दाम कम रहा। इसका लाभ उन लोगों को मिलेगा जो नैनो को खरीदेंगे। पीपलकोटी परियोजना का स्थानीय लोगों के एक प्रभावित वर्ग द्वारा विरोध किया जा रहा है। इन लोगों को विश्व बैंक का आशीर्वाद प्राप्त कार्यदायी कंपनी द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है। वैश्विक मानवाधिकार संस्था ह‍्यूमन राइट्स वाच द्वारा प्रकाशित रपट में बताया गया है कि इन स्थानीय ग्रामवासियों के विरुद्ध कंपनी ने पांच प्राथमिकियां दर्ज कराई हैं। कंपनी के गुंडे इन लोगो को धमकी देते हैं कि ज्यादा विरोध करोगे तो मार डालेंगे। लेकिन विश्व बैंक मस्त है।
बैंक द्वारा उत्तराखंड के बाशिंदों को बताया जाता है कि राज्य में बिजली की किल्लत है। राज्य को बाहर से बिजली खरीदनी पड़ रही है। ये परियोजनाएं नही लगेंगी तो बिजली नहीं मिलेगी। विषय को गहराई से समझने की जरूरत है। पीपलकोटी परियोजना द्वारा जो बिजली बनाई जाएगीए उसकी उत्पादन लागत विश्व बैंक के लोन के दस्तावेजों के अनुसार 5ण्70 रुपए प्रति यूनिट आएगी। इस बिजली का 12 प्रतिशत उत्तराखंड को मुफ्त दिया जाएगा। यह मुफ्त बिजली उत्तराखंड सरकार को मिलेगी। उत्तराखंड सरकार द्वारा यह बिजली उत्तराखंड पावर कार्पोरेशन को बेची जाएगी। पावर कार्पोरेशन द्वारा इस बिजली को उपभोक्ताओं को बेचा जाएगा। अतः जहां तक उपभोक्ताओं को बिजली की उपलब्धता का सवाल हैए इसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। पावर कार्पोरेशन को अंततः बिजली खरीदनी ही पड़ेगी। बिजली को उत्तराखंड सरकार से खरीदा जाए अथवा दूसरे राज्यों में स्थापित दूसरे संयंत्रों से। बल्कि बाहर से बिजली सस्ती खरीदी जा सकती है। परियोजना द्वारा जो बिजली मुफ्त दी जाएगीए उसका लाभ उत्तराखंड सरकार को होगाए न कि राज्य के बिजली के उपभोक्ताओं को।
सरकार के सम्पूर्ण खर्च में सरकारी कर्मियों के वेतन का हिस्सा लगभग पचास फीसदी है। अतः परियोजना का लाभ सरकारी कर्मियों एवं दिल्ली के उपभोक्ताओं को होगा जबकि नुकसान स्थानीय गरीबों को। यही विश्व बैंक का गरीबी उन्मूलन का फार्मूला है। ऐसे में जलविद्युत परियोजनाओं के डिजाइन में परिवर्तन करना चाहिएए जिससे स्थानीय गरीबों को होने वाला नुकसान कम हो जाए। परियोजना का विशेष नुकसान नदी के बहाव को रोकने से होता है। जलविद्युत बनाने के लिए नदी से पानी इस प्रकार निकालना चाहिए कि मूल धारा खुली बहती रहे। मछली तब अपने प्रजनन क्षेत्र पहुंच सकेगीए स्थानीय लोगों को बालू मिलती रहेगीए ठहराव के कारण पानी की गुणवत्ता का ह्रास नहीं होगाए चलते पानी में मच्छर उत्पन्न नहीं होंगे और तीर्थयात्रियों को नदी में स्नान एवं बहती नदी के दर्शन से मिलने वाला सुख मिलता रहेगा।
विश्व बैंक के आंतरिक नियमों के अनुसार किसी भी परियोजना को लोन देने के पहले विकल्पों पर विचार करना जरूरी होता है। कुछ स्थानीय लोगों ने विश्व बैंक के सामने डिजाइन में परिवर्तन का यह विकल्प रखा था। परन्तु विश्व बैंक ने इसमें रुचि नहीं ली। बैंक के नियमों में यह भी है कि परियोजना का समाज के अलग.अलग वर्गों पर पड़ने वाले प्रभाव को देखा जाए। प्रभाव का ऐसा आकलन करने से भी बैंक ने इनकार कर दिया।
स्पष्ट है कि विश्व बैंक गरीबी उन्मूलन नहीं चाहता है। विश्व बैंक का उद्देश्य है कि गरीब के संसाधन छीनकर अमीर को पहुंचा दोए साथ.साथ अति गरीब को दिन की एक रोटी मुहैया करा दोए जिससे गरीबी उन्मूलन का ढोंग जारी रह सके।
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Monday, 13 July 2015

इरादा मजबूत कर बदलें बुरी आदत

इरादा मजबूत कर बदलें बुरी आदत

दिमाग हमारे पूरे शरीर को नियंत्रित करता है। यह स्नायु तंत्र के जरिए काम करता है। स्नायु तंत्र नर्व सेल्स से बना होता है। ये नर्व सेल्स करोड़ों सूचनाओं को एक साथ इधर से उधर पहुंचाती हैं। इन समाचारों को इधर.उधर पहुंचाने में जब एक ही प्रकार की सूचना बार.बार दोहराई जाती हैए तो एक खास व्यवहार का ढंग बनता जाता है। यह ढंग ही आदत कहलाता है।
व्यक्ति कई बातों का आदी होने के कारण स्वयं को कठिनाई से बदल पाता है। ये आदतें अच्छी व बुरी दोनों ही हो सकती हैं। अच्छी आदतों को जीवन में उतारना कठिन है जबकि बुरी आदतें स्वतः ही लोगों के जीवन का अंग बन जाती हैं। एचण्डीण् थोरो कहते हैं कि वस्तुएं नहीं बदलतींए हम ही बदलते हैं।ष् आदतों की जड़ें व्यक्ति के अवचेतन मन में घर कर जाती हैं। बुरी आदतें पहले मकड़ी के जाले की तरह हल्की होती हैं लेकिन फिर धीरे.धीरे वही लोहे के तार की तरह मजबूत बन जाती हैं। आदत अच्छी हो या बुरीए वे व्यक्ति के दिमाग में रास्ते बना लेती हैं। जब दिमाग में रास्ते बन जाते हैं तो व्यक्ति उन्हीं के अनुसार चलते हैं।
यदि आदतें अच्छी हैं तो दिमाग के बने रास्ते पर चलकर व्यक्ति कामयाबी प्राप्त करता है। जैसे कि दृष्टिहीन एन एल बेनो जेफाइन अपनी पढ़ने की आदत के कारण भारत की पहली आईएफएस अधिकारी बन गयी और स्कोलियोसिस नाम की बीमारी से पीड़ित इरा सिंघल ने बचपन से ही अपनी बीमारी को हराने की आदत के कारण प्रशासनिक सेवा में संपूर्ण भारत में प्रथम स्थान प्राप्त कर विजय प्राप्त की। बुरी आदतों को कार्य में लगे रहने के कारण दूर किया जा सकता है।
बाबा सदानंद लोगांे की बुरी आदतें सुधारते थे। विनय नामक एक युवक को नशे की बुरी आदत थी। सदानंद ने युवक की नशे की आदत छुड़ाने की ठान ली। वह उससे बोलेए ष्बेटाए यदि तुम मेहनत से दिन.रात एक कर मेरे यहां कुछ काम करो तो मैं तुम्हें छह महीने में छह हजार स्वर्ण मुद्राएं दूंगा।ष् छह हजार स्वर्ण मुद्राओं का नाम सुनते ही विनय खुशी से झूम उठा और सोचने लगा कि इतनी मुद्राएं मिलने पर उसे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा और वह जब चाहे नशा कर सकेगा।
बाबा युवक के हृदय की बात समझ गए और बोलेए ष्पुत्रए किंतु इस दौरान तुम्हें काम मेहनत से करना होगा। तुम्हें केवल खाना खाने का वक्त मिलेगा। खाना भी यहीं से दिया जाएगा। छह महीने लगातार शर्त के मुताबिक काम करने पर ही तुम उन मोहरों के हकदार बनोगे।ष् मोहरों के लालच ने विनय को हर शर्त स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया।
अब विनय पूरे आश्रम की सफाई करताए खाना बनवाताए पशुओं की देखभाल करता और आश्रम में बाबा से मिलने वाले लोगों की जानकारी रखता। बीच.बीच में उसे नशे की तलब लगती किंतु इसका उसे समय ही नहीं मिलता था। वह कई बार तड़पता किंतु काम के बोझ में कुछ देर बाद तड़प को भूल जाता। एक महीने में युवक को काम करने में आनंद आने लगा और धीरे.धीरे उसने अपनी नशे की मनोवृत्ति पर लगाम लगा ली।
छह महीने बाद बाबा सदानंद ने विनय को अपने पास बुलाया और उसे स्वर्ण मुद्राओं की थैली देते हुए बोलेए ष्यह लो बेटाए तुम मेरी शर्तों पर खरे उतरे और इसलिए मैं तुम्हें छह हजार की जगह दस हजार मुद्राएं दे रहा हूं।ष् बाबा की बात सुनकर विनय रोते हुए बोलाए ष्बाबाए अब मेरी इन मुद्राओं को पाने की कोई इच्छा नहीं है क्योंकि मुद्राएं मैं नशा करने के लिए पाना चाहता था। नशे की आदत पर काबू पाना आसान नहीं थाए किंतु आपने मुझे लगातार काम में लगाए रखा और मैं नशे की बुरी आदत से मुक्त हो गया।ष्
अमेरिका के डॉण् रिचार्ड बैंडलर आदत बदलने के लिए ष्न्यूरोलिंग्विस्टिक प्रोग्रामिंगष् नामक तकनीक का प्रयोग करने के लिए कहते हैं। उन्होंने इस तकनीक को ईजाद किया है। इस तकनीक में व्यक्ति को अपनी बुरी आदत पर काबू पाने के लिए निम्न तरीकों के अनुसार चलना होता है। बुरी आदत से मुक्त होने के लिए जरूरी है कि अपना लक्ष्य तय करेंए बुरी आदतें न छोड़ पाने के कारणों को जानेंए बुरी आदतों को छोड़ने पर मिलने वाले आनंद को महसूस करेंए बुरी आदत के स्थान पर अच्छी आदत को अपने जीवन में शामिल करने का प्रयास करें।
व्यक्ति बुरी आदतों को स्वयं बनाता है। इसलिए उन्हें सिर्फ वह ही अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और प्रयास से बदल सकता है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉण् राधाकृष्णन ने कहा है किए ष्हम स्वयं अपने मित्र हैंए स्वयं अपने शत्रुए स्वयं अपने स्वामी और स्वयं अपने लक्ष्य हैं।ष् इसलिए बुरी आदतों के दास बनकर अपने जीवन को दासों सा व्यतीत मत कीजिए बल्कि अच्छी आदतों को अपनाकर जीवन में सफलता प्राप्त कर मालिक बन कर रहिए और दूसरों को भी अच्छी आदतें अपनाने की राय दीजिए।
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भाजपा नेतृत्व की मुश्किल चुनौतियां

भाजपा नेतृत्व की मुश्किल चुनौतियां

मोदी सरकार का पहला चरण पूरा हो चुका है। इस एक साल में प्रधानमंत्री को गौरवान्वित करने वाली सफलता मिली है जब उन्होंने यूपीए.2 की मनमोहन सरकार में लगी घोटालों की झड़ी के विपरीत देश का रुख विकास की ओर मोड़ दिया है। हालांकि अब एक साल से कुछ ज्यादा का सफर तय होने के बाद मोदी सरकार के रास्ते में कुछ कठिन मोड़ आया हैए जिसमें भारतीय जनता पार्टी के नाना प्रकार के घोटाले राजनीतिक पटल पर उभरने लगे हैं।
सबसे पहला मामला वह हैए जिसमें भाजपा की दो वरिष्ठ नेत्रियोंए केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजेए ने ऐसा कार्य किया है जो देशहित में न होकर निजी स्वार्थों का पोषण करता है। इन दोनों ने सिद्धांतों से समझौता करते हुए अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग कर क्रिकेट के सुल्तान कहे जाने वाले ललित मोदी के हितों के लिए ब्रिटिश सरकार से संस्तुति की हैए वह भी तब जब वह अपने खिलाफ चल रही जांच की वजह से भारतीय कानून से बचने के लिए लंदन में रह रहा है। सुषमा स्वराज का पति और बेटीए दोनों ही ललित मोदी के कानूनी पक्ष को संभालने के लिए उसके तनख्वाहदार थे।

दूसरा मामला हैए जिसमें राजस्थान विधानसभा में बतौर नेता प्रतिपक्ष रहते हुए वसुंधरा राजे ने ब्रिटिश कोर्ट में ललित मोदी के पक्ष में एक हल्फनामा दिया थाए जबकि ठीक उसी समय उनका बेटा दुष्यंत ललित मोदी के साथ बड़ी.बड़ी बिजनेस डील कर रहा था।
इन दोनों मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से कोई हस्तक्षेप नहीं किया। विरोधी पक्ष प्रधानमंत्री पर तंज कस रहा है कि वैसे तो अपनी बात कहने के लिए वे सोशल मीडिया के जरिए लोगों से संवाद करने का कोई अवसर नहीं चूकतेए लेकिन अब वे अपनी पार्टी के इन नेताओं के कारनामों पर सोची.समझी चुप्पी साधे हुए हैं।
दिमाग को झकझोर कर रख देने वाले मध्य प्रदेश में विशाल स्तर पर हुए ष्व्यापमष् भर्ती घोटाले ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी अपनी लपेट में ले लिया है। जैसे.जैसे इस घोटाले से जुड़े गवाहों और शिकायतकर्ताओं की अनेक तरीकों से हुई विस्मयकारी मौतों की खबरें रोज.रोज बाहर आने लगींए वैसे.वैसे हर गुजरते दिन के साथ लंबी होती इस फेहरिस्त से मुख्यमंत्री की छवि पर धब्बा स्पष्ट रूप से लगने लगा। आश्चर्यचकित करने वाली इन घटनाओं की झड़ी का संज्ञान स्वयं उच्चतम न्यायालय ने भी लिया और अंत में मुख्यमंत्री चौहान को इसकी जांच सीबीआई से करवाने की मांग पर झुकना ही पड़ा।
गनीमत की बात है कि प्रधानमंत्री उस वक्त रूस और मध्य एशियाई देशों की आधिकारिक यात्रा पर थे और इससे उन्हें असहजता का सामना करने से राहत मिल गयी। एक साल का हनीमून पीरियड जाहिरा रूप से अब खत्म हो लिया है। यहां तक कि समय.समय पर आकाशवाणी पर ष्मन की बातष् के प्रसारण के साथ प्रधानमंत्री ने जनता के साथ संवाद की जो एक नायाब शुरुआत की थीए वह भी पिछली बार बोझिल लगी क्योंकि उन्होंने लोगों के जेहन पर छाए इन मुद्दों पर अपनी चुप्पी साफतौर पर साधे रखी।
इन घटनाओं ने प्रधानमंत्री को अवश्य ही सबक दिया होगा कि घपले किसी एक पार्टी या गठबंधन का विशेषाधिकार नहीं होते और सिर्फ सरकार बदलने से भ्रष्टाचार नहीं मिट जाता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक धारा होने के बावजूद भाजपा जोड़तोड़ की राजनीति में उसी तरह संलिप्त रहती हैए जिस तरह अन्य दल हैं और सत्ता एवं इससे जुड़ी ताकत का लालच इसे भी उतना ही लुभायमान हैए जितना कि कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी को।
दूसरे साल में प्रवेश करने पर भाजपा को चाहिए वह सुशासन देने के अपने मूल नारे में बदलाव करे। कहने का तात्पर्य है कि मौजूदा सरकार की नैतिकता अपने से पहले वाली से ज्यादा भिन्न नहीं है। यहां तक कि वह आम आदमी पार्टीए जिसने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में अपनी ईमानदारी वाले नारे से उथल.पुथल मचा दी थीए अब चकित कर देने वाली तेजी से रिवायती पार्टियों के रंग में रंगती जा रही है।
राजनीतिक कारणों ने नरेंद्र मोदी को इन समस्याओं का सीधे.सीधे सामना करने की बजाय इनसे मुंह मोड़ने के लिए मजबूर किया है। इन कारणों का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है और वे हैं रू सुषमा स्वराज के मामले में पार्टी के अंदरूनी समीकरणए वसुंधरा राजे के केस में राजस्थान में भाजपा सरकार का स्थायित्व और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की साफ छवि के टूटने से होने वाला नुकसान। गृहमंत्री राजनाथ सिंह का वह बयान दुर्भाग्यपूर्ण हैए जिसमें उन्होंने कहा है कि राजग सरकार में यूपीए की भांति मंत्रियों के इस्तीफे देने का चलन नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि रूस और अन्य देशों की यात्रा के अतिव्यस्त कार्यक्रमों के चलते प्रधानमंत्री के पास इन चुनौतियों से निपटने और कठिन परिस्थितियों पर विचार.विमर्श करने और इस पर प्रभावशाली नीतियां बनाने के लिए केवल एक हफ्ता ही बीच में उपलब्ध थाए लेकिन जिन तीन लोगों को लेकर मुख्य विवाद थाए उनके विरुद्ध कार्रवाई होनी चाहिए थी।
यहां पर प्रश्न यह नहीं है कि भाजपा औरों से अलग है बल्कि यह है कि क्या वह ऐसी पार्टी है जो राजनीतिक शुचिता का पालन करती हैघ् अपने नेतृत्व में सरकार और पार्टी चलाने के दौरान नरेंद्र मोदी ने भाग्य और परिस्थितियों के अनेक उतार.चढ़ावों का सामना किया है। यह तथ्य है कि इस लंबे सफर के अंत में यदि आज वे सर्वोच्च स्थान पर हैं तो यह उनका राजनीतिक कौशल और जिताऊ समीकरण बनाने का सामर्थ्य दर्शाता है। इस मौजूदा संकट को कमतर आंक कर उन्हें अपना अस्तित्व बचाना गवारा नहीं करना चाहिए या फिर इस उम्मीद में नहीं रहना चाहिए कि एक समय के बाद यह स्वयं ही खत्म हो जाएगा।
श्री मोदी का माद्दा वास्तव में इससे नापा जाएगा कि एक राष्ट्रीय नेता होने के नाते उन्होंने संकटों के इस सिलसिले का सामना किस तरह से किया है। आखिरकार उन्हें मिलने वाले अवसरों की संभावना सीमित है। वैसे भी राजनीति के अखाड़े में एक फैसलाकुन ष्ताजदार नेताष् और ष्मैंने भी दौड़ में हिस्सा लियाष् वाले प्रतिभागियों की किस्मत में फर्क कम ही होता है।
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Saturday, 11 July 2015

सुखद भविष्य के लिए थमे रफ्तार

सुखद भविष्य के लिए थमे रफ्तार

प्रत्येक वर्ष 11 जुलाई को बढ़ती जनसंख्या के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के उद्देश्य से विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है। यह दिन बढ़ती जनसंख्या के सामने मौजूद अवसरों और चुनौतियों के लिए लोगों को आपस में जोड़ने और इस दिशा में कदम उठाने का है। इसका मकसद आबादी की समस्याओं और समाज के आम विकास के कार्यक्रमों की ओर सरकारों और आम लोगों का ध्यान आकर्षित करना है। इस दिवस की शुरुआत संयुक्त राष्ट्र संघ के विकास कार्यक्रम की गवर्निंग काउंसिल द्वारा 1987 में की गई थी। दरअसल उस वर्ष विश्व की जनसंख्या पांच अरब को पार कर गई थी।
आज विश्व की जनसंख्या 7 अरब से ज्यादा है। भारत की जनसंख्या दुनिया में दूसरे नंबर पर लगभग 1 अरब 25 करोड़ के आसपास है। बता देंए आज़ादी के समय भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी जो अब तक चार गुना बढ़ गयी है। परिवार नियोजन के कमजोर तरीकोंए अशिक्षाए स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता का अभावए अंधविश्वास और विकासात्मक असंतुलन के चलते आबादी तेजी से बढ़ी है। संभावना है कि सन‍् 2050 तक देश की जनसंख्या 1ण्6 अरब हो जायेगी। माना जा रहा है कि इसके बाद भारत की आबादी स्थिर हो जाएगी। फिलहाल भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या की 17ण्5 फीसदी है।
भूभाग के लिहाज के हमारे पास 2ण्5 फीसदी जमीन है। 4 फीसदी जल संसाधन हैं। जबकि विश्व में बीमारियों का जितना बोझ हैए उसका 20 फीसदी बोझ अकेले भारत पर है। विश्व की आबादी में प्रत्येक साल 8 करोड़ लोगों की वृद्धि हो रही है और इसका दबाव प्राकृतिक संसाधनों पर स्पष्ट रूप से पड़ रहा है। इतना ही नहींए विश्व समुदाय के समक्ष स्थानान्तरण भी एक समस्या के रूप में उभर रहा है क्योंकि बढ़ती आबादी के चलते लोग बुनियादी सुख.सुविधाओं के लिए दूसरे देशों में पनाह लेने को मजबूर हैं।
भारत के कई राज्य विकास में भले ही पीछे हों परन्तु उनकी जनसंख्या विश्व के कई देशों की जनसंख्या से अधिक है। उदाहरणार्थ तमिलनाडू की जनसंख्या फ्रांस की जनसंख्या से अधिक है तो वहीं उड़ीसा अर्जेंटीना से आगे है। मध्यप्रदेश की जनसंख्या थाईलैंड से ज्यादा है तो महाराष्ट्र मेक्सिको को टक्कर दे रहा है। उत्तर प्रदेश ने ब्राजील को पीछे छोड़ा है तो राजस्थान ने इटली को पछाड़ा है। गुजरात ने साऊथ अफ्रीका को मात दी तो पश्चिम बंगाल वियतनाम से आगे बढ़ गया। हमारे छोटे.छोटे राज्यों जैसे झारखण्डए उत्तराखंडए केरलए ने भी कई देशों जैसे उगांडाए आस्िट्रयाए कनाडाए उज्बेकिस्तान को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
दिलचस्प पहलू यह है कि बीते एक दशक में भारत की आबादी 18ण्1 करोड़ बढ़ी है जो ब्राजील की कुल आबादी से थोड़ी ही कम है। ब्राजील विश्व का पांचवां सर्वाधिक आबादी वाला देश है। यूं कहें भारत की पिछले दशक की जनसंख्या वृद्धि दर 17ण्64 प्रतिशत है।
बहरहालए संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार साल 2028 के बाद भारत की जनसंख्या चीन से ज़्यादा हो जाएगी। देश में जिस गति से आबादी बढ़ रही हैए उस हिसाब से देश के संसाधनों पर सन‍् 2026 तक 40 करोड़ और लोगों का दबाव बढ़ जाएगा। पिछले दो दशकों में भारत ने काफी तरक्की की है और यह विश्व की तीसरी सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था बन गयाए लेकिन इस बात का बहुत प्रतिकूल प्रभाव भी देखने को मिला। मसलनए अंतरराज्यीय असमानताएं पहले की तुलना में और अधिक बढ़ गयीं। दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि से बेरोजगारीए स्वास्थ्यए परिवारए गरीबीए भुखमरी और पोषण से संबंधित कई चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं।
भारत में अभी भी जागरूकता और शिक्षा की कमी है। लोग जनसंख्या की भयावहता को समझ नहीं पा रहे हैं कि यह भविष्य में हमें नुकसान कितना पहुंचा सकती है। अभी हाल में ही दुनिया में बढ़ते खाद्यान्न संकट के लिए एशिया को जिम्मेदार ठहराया गया था। खाद्यान्न संकट तेजी से बढ रहा है। अन्न के साथ जल संकट बढ़ रहा है। तेजी से बढ़ती जनसंख्या ने प्रदूषण की दर को भी धधका दिया है। जिससे जमीन की उर्वरता तेजी से घट रही हैए साथ ही पानी का स्तर भी तेजी से घट रहा है। ऐसे में आने वाली पीढ़ियों को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण जरूरी है।
सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी की सरकार ने ष्परिवार नियोजनष् कार्यक्रम की शुरुआत की थीए जिसका नाम बाद में बदलकर ष्राष्ट्रीय जनसंख्या नियंत्रणष् रखा गया था। यह कार्यक्रम पूरी तरह से असफल रहा। सन‍् 2006 में जनसंख्या स्थिरता कोष भी बनाया गयाए जिसका भी हाल परिवार नियोजन कार्यक्रम की तरह हुआ। यदि सभी नागरिक ईमानदारीपूर्वक अपना सहयोग दें तो निश्चय ही देश की बढ़ती आबादी को रोका जा सकता है।
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बेदम महाराजा के लाइलाज मर्ज

बेदम महाराजा के लाइलाज मर्ज

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू को हवाई जहाज में जगह देने के लिए पहले से टिकट लेकर बैठे तीन यात्रियों को उतार दिए जाने और अमेरिका जा रही फ्लाइट को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस के आने तक रोके रखने के कारण हुए विलंब की घटनाएं अगर किसी एयरलाइंस में हो सकती थींए तो वह एयर इंडिया ही है। इन दोनों तात्कालिक घटनाओं से पहले भी लोगों के जेहन में इस सरकारी एयरलाइंस की एक लचर छवि ही बनी हुई है। किसी अन्य सरकारी महकमे के कर्मचारियों की तरह इसके पायलट और स्टाफ के दूसरे सदस्य जब चाहे छुट्टी और हड़ताल पर चले जाते हैं और राजनीतिक आकाओं की मिजाजपुरसी के चलते यात्रियों की दिक्कतों की कोई परवाह नहीं करता।
इन्हीं दिक्कतों के चलते देश.दुनिया के समझदार लोग इस एयरलाइंस के निजीकरण की सलाह देते हैं। ज्यादातर वक्त कर्जे में डूबे रहने और सतत वित्तीय छूटें लेने वाले इस महाराजा के कई मर्ज लाइलाज हो चुके हैं। खुद सरकार इसकी बीमारियों से वाकिफ है और यही कारण है कि राजनीतिक सहमति बनाकर एयर इंडिया के निजीकरण की बात कही जा चुकी है। इसके बावजूद लगता है कि सरकार शायद एकमात्र उड्डयन कंपनी के अपने हाथ से निकल जाने से खौफजदा है। पर सरकार को डरना तो इस बात से चाहिए कि इस सफेद हाथी की सेवा में जो पैसा वह लगाती रही हैए वह ज्यादातर ऐसे लोगों की जेब से आया हैए जो कभी जहाज में उड़ने का सपना भी नहीं देखते।
हालांकि दशकों तक भारी घाटे और बेलआउट पैकेज यानी सरकार की तरफ से भारी वित्तीय मदद पर चलते रहे ष्महाराजाष् ने बीते साल के दिसंबर महीने में 14ण्6 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा कमाया था। पर उसे यह लाभ ऐसी अवधि में हुआए जब सिडनी स्थित विमानन थिंकटैंक. कापा ने चालू वित्त वर्ष में भारतीय उड्डयन क्षेत्र को करीब 8 हजार करोड़ रुपये घाटे का अनुमान लगाया था। लेकिन यह मुनाफा भी लगता है कि इस एयरलाइंस की समस्याएं दूर करने में नाकाम साबित हो रहा है क्योंकि इस पर पहले की तरह सरकारी कार्य संस्कृति हावी है।

कई मौकों पर इसके निजीकरण की मांग उठती रही है। यह मांग पिछले साल उस समय भी उठी थीए जब एयर इंडिया ने अपनी बैलेंस शीट पेश की थी। इसमें एयरलाइंस ने 5000 करोड़ का भारी.भरकम घाटा दिखाया था। यह स्थिति तब थीए जब इसे 2012 में सरकार ने घाटे से उबारने के लिए करीब 32 हजार करोड़ रुपये का भारी.भरकम बेलआउट पैकेज ;आर्थिक मददद्ध प्रदान की थी। इस पैकेज के आधार पर उम्मीद की गई थी कि एयर इंडिया 2012.13 में अपनी कमाई को 16ए130 करोड़ से बढ़ाकर 19ए393 करोड़ तक पहुंचा देगीए बल्कि इसी अवधि में अपने सकल घाटे को 5ए198 करोड़ से घटाकर 3ए989 करोड़ तक ले आएगी। लेकिन तब एयर इंडिया अपने दोनों लक्ष्य पाने में नाकाम रही।
पिछली सरकार ने इसके लिए 32 हजार करोड़ रुपये का पैकेज यह कहते हुए जारी किया था कि इसकी मदद से इसके आधुनिकीकरण के लिए दुनिया के सर्वश्रेष्ठ यात्री विमान कहलाने वाले ड्रीमलाइनर बोइंग.787 श्रेणी के 27 विमानों की खेप 2016 तक शामिल कराई जानी है। एयर इंडिया प्रबंधन का अनुमान है कि इस विमान के सहारे एयर इंडिया उस बाजार में सेंध लगा सकेगीए जिसमें एयरबस 310 के जरिए प्रवेश करने का उनका पिछला प्रयास 80 के दशक में नाकाम साबित हुआ था। कह सकते नहीं कि फिलहाल एयर इंडिया को पिछले साल दिसंबर में जो मामूली मुनाफा हुआए उसमें ड्रीमलाइनर का कितना योगदान है क्योंकि जब.तब ऐसी खबरें आती रही हैं कि ड्रीमलाइनर विमान अपनी किसी न किसी खराबी के कारण हवाई अड्डों पर खड़े रहते हैं।
एक सच्चाई यह है कि जब तक एयर इंडिया को स्वायत्तता नहीं दी जाती और जब तक सरकार एक मजबूत निदेशक मंडल नहीं बनातीए इस एयर लाइंस की हालत जर्जर ही बनी रहेगी। स्वायत्तता देने और निदेशक मंडल बदले जाने पर ही भारी प्रतिष्ठा वाली इस एयर लाइंस को लाभ कमाने वाले संस्थान में बदलना और इसकी छवि में सुधार करना संभव होगा। वर्ष 2013 में यह तथ्य भी प्रकाश में आ चुका है कि विमानों की उड़ान योजना भी ठीक ढंग से नहीं बनाई जातीए जिसका नतीजा यह निकलता है कि एयर इंडिया के ज्यादातर विमान उड़ने की बजाय एयरपोर्ट पर खड़े ही रहते हैं। इसके चलते भारी.भरकम वेतन लेने वाले एयर इंडिया के पायलटों को दूसरी एयरलाइंसों के पायलटों के मुकाबले कम घंटों तक उड़ान करने पर भी ज्यादा वेतन मिलता है। खुद एयर इंडिया प्रशासन ने यह आकलन किया था कि उसके 1600 से ज्यादा विमान उस तय वक्त से कम उड़ान भरते हैंए जितने घंटों का अनिवार्य वेतन उसके पायलटों को मिलता है।
सरकार ने 1992 में विमानन क्षेत्र पर अपना एकाधिकार छोड़ा था और निजी एयरलाइंसों के आने का रास्ता साफ किया था। इस दौरान कई निजी एयरलाइंसों का जो हश्र हुआ हैए एयर इंडिया को उनसे सबक लेने चाहिए थे पर ऐसा नहीं किया गया।
असल मेंए मंदी का दौर शुरू होने और कई नए खिलाडि़यों के मैदान में आने तक निजी विमान कंपनियां भारी मुनाफा कमाती रहीं। लेकिन बाद में जब यात्रियों की कमी पड़ने के साथ उड़ानों का संचालन महंगा पड़ने लगाए निजी विमान कंपनियां अपना बिजनेस मॉडल दुरुस्त करने की बजाय सरकारी मदद की हायतौबा मचाने लगीं। बेलआउट के रूप में सरकार से पैसे मांगने की जगह उन्हें अपने लिए बाजार से पूंजी जुटानी चाहिए थी।। ठीक यही काम एयर इंडिया को करना चाहिएए जिससे कि वह अब तक बचती रही है और सरकारी बैसाखी पर चलती रही है।
हकीकत यह है कि इस एयरलाइंस को पटरी पर लाने की ज्यादार कोशिशें बरसों से नाकाम होती आई हैं। इसकी वजह वही सरकारीपन हैए जो इस देश के तमाम सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को नकारा बनाता आया है। एयर इंडिया जब तक सरकारी डिपार्टमेंट रहेगाए उसके तौर.तरीके बदलने वाले नहीं। यह उन दिनों की विरासत हैए जब सरकारें हर चीज पर अपना कब्जा चाहती थीं और गैर सरकारी लोगों से उसे डर लगता था। आज ऐसे काम सरकार से बाहर ही बेहतर हो रहे हैं। अगर अब भी एयर इंडिया के मामले में इस जिद पर कायम रहने की कोशिश की जाती है तो फिर मुसाफिरों के खत्म होते भरोसे के बीच उसे घाटे का नया पहाड़ लगाते देखने को तैयार रहना होगा।
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Thursday, 9 July 2015

ग्रीस की राम.राम

ग्रीस की राम.राम

ग्रीस यूरोजोन का हिस्सा बना रहेगा या इससे बाहर निकल कर  अपनी पारंपरिक मुद्रा द्राख्मा की तरफ लौट जाएगा. पिछले दो वर्षों से जारी इस रोमांचक अटकलबाजी का किस्सा बीते इतवार को खत्म हो गया। एक बहुचर्चित जनमत संग्रह के बाद ग्रीस के लोगों ने भारी बहुमत से अपना फैसला सुना दिया. यूरोजोन के महारथी उन्हें अपनी बिरादरी में रखना चाहें तो रखेंए न रखना चाहें निकाल देंए लेकिन इसके लिए जो भयंकर शर्तें उन्होंने यूरोप के इस सीमावर्ती देश पर थोप रखी हैंए उन्हें यहां के लोग हरगिज नहीं मानने वाले।

एक देश के रूप में ये शर्तें ग्रीस के लिए जानलेवा साबित हो रही हैं। जहां पच्चीस फीसदी से ज्यादा लोग बेरोजगार होंए जिनके पास नौकरी है उन्हें भी तनख्वाह कट.फट कर मिल रही होए बूढ़े लोगों की पेंशन लगातार घट रही हो और जो मिले वह भी खैरात की तरह. इतनी निराशा के माहौल में कोई समाज कब तक जी सकता हैघ् जर्मनी और फ्रांस जैसी यूरोजोन की महाशक्तियों का कहना रहा है कि कर्ज लेकर हजम कर जाना कोई रास्ता नहीं है। लिहाजा ग्रीस या तो टैक्सों की उगाही बढ़ाकर और अपने सरकारी खर्चों में कटौती करके इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड और यूरोपियन कमर्शल बैंक से लिए गए कर्जों की अदायगी करेए या फिर खुद को दिवालिया घोषित करके अपने हाल पर जीना सीख ले।

इस धमकी को झेलते रहना ग्रीस के लोगों के लिए एक सीमा के बाद असंभव हो गया। उन्होंने तय किया कि आगे जो होगा सो होगाए अभी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हुए अगर उन्होंने अपना आत्मसम्मान बचाकर रखा तो उनके बच्चे अमीरी में न सहीए गरीबी में ही सिर उठाकर जी तो सकेंगे। कर्जे की गाड़ियांए कर्जे के घरए कर्जे के साजो.सामान आखिर वे किसी से मांगने तो नहीं गए थे। अमीर यूरोपीय देशों ने अपनी ही योजना के तहत ग्रीस और कमजोर अर्थव्यवस्था वाले कई अन्य दक्षिणी यूरोपीय देशों को सस्ता कर्ज मुहैया कराया था ताकि वे इन्हें अपना बनाया सामान बेच सकें। इस चमकीली योजना का नाम यूरोजोन हो या कुछ औरए इसका कुल नतीजा यही निकला कि पूरी कुशलता से अपना काम करने वाले मेहनती लोग इतने बड़े कर्जों के बोझ तले दब गएए जिसे चुकाना दूर.दूर तक उनके बूते से बाहर है।

ग्रीस के इस स्पष्ट जनादेश के बाद एक रास्ता ग्रीस को चुपचाप यूरोजोन से बाहर कर देने का है। ऐसा हुआ तो इस देश के ज्यादातर बैंक बैठ जाएंगे और अगले कई सालों तक यहां की अर्थव्यवस्था को बहुत पुराने तरीकों से चलाना पड़ेगा। यूरोजोन को इसका नुकसान यह होगा कि इसकी छवि एक भुरभुरी चीज जैसी बन जाएगी। श्अगला नंबर किसकाश् ;बुल्गारियाए रोमानियाए मकदूनिया का या फिर स्पेनए पुर्तगालए इटली काद्ध जैसी तबाही पैदा करने वाली अटकलें तेज हो जाएंगी।
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दूसरा रास्ता ग्रीस के लोगों के मन की बात सुननेए उनकी मुश्किलें कम करनेए ग्रीस को यूरोजोन में बनाए रखने की शर्तें नरम बनाने का है। उम्मीद करें कि यूरोजोन के महारथी इस दूसरे रास्ते पर ही बढ़ेंगे और विश्व अर्थव्यवस्था में शंकाओं का दौर खत्म हो जाएगा।

दुलत के खुलासों से उपजे सवाल

दुलत के खुलासों से उपजे सवाल

पूर्व रॉ चीफ अमरजीत सिंह दुलत ने अपनी किताब श्कश्मीररू द वाजपेयी इयर्सश् के प्रमोशन के दौरान दिए साक्षात्कारों में जो बातें कही हैं वे न केवल चौंकाने वाली हैं बल्कि बहुत सारे सवाल भी उठाती हैं। दुलत रिसर्च एंड एनालिसिस विंग ;रॉद्ध के चीफ तो रहे ही हैंए वे इंटेलिजेंस ब्यूरो ;आईबीद्ध में भी जिम्मेदार पदों पर रहे हैं।

इसके अलावा वे वाजपेयी सरकार के दौरान पीएमओ में कश्मीर मामलों के सलाहकार रहे और उस दौरान कई अहम मामलों से निपटने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। जाहिर है कि न तो इस किताब को कोई भी सामान्य किताब कहकर नजरअंदाज किया जा सकता है और न ही दुलत के बयानों को हंसी में उड़ाया जा सकता है।

बेशकए उनकी हर बात को स्थापित सत्य के रूप में नहीं लिया जा सकता। उनकी कई बातें आरोप की शक्ल में हैं जिनका संबंधित पक्ष खंडन भी कर चुके हैं। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि दुलत की कई बातें उस दौर में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं पर नई रोशनी डालती हैं। उदारण के लिए कंधार विमान अपहरण कांड पर जो बात कहने से सभी बचते रहे थे उसे दुलत ने पूरी बेबाकी से कह दिया कि तत्कालीन सरकार सही समय पर सही फैसला करने में नाकाम रही जिससे मामला बिगड़ता चला गया। इस बयान के बाद भी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे वरिष्ठ बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा ने जिस तरह से यह कहते हुए विपक्ष को भी लपेटने की कोशिश की कि श्हमने उस वक्त सबसे बात की थीए इसलिए हमारे फैसले में सभी शामिल हैंश् वह उनके पक्ष को और हास्यास्पद बनाता है। बातचीत जिससे भी की होए उपयुक्त फैसला लेने की जिम्मेदारी तत्कालीन सरकार की ही थी और अगर वह किसी भी कारण से इसमें नाकाम रही तो सभी संबद्ध लोगों को उसकी पूरी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए।

लेकिन दुलत के खुलासों का सबसे अहम हिस्सा कश्मीरी आतंकवादियों और अलगाववादियों से संबंधित है। उन्होंने बताया है कि कैसे तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने हिजबुल चीफ सलाहुद्दीन के बेटे को मेडिकल कॉलेज में दाखिला दिलवायाए कैसे एक उग्रवादी को खुद उन्होंने ;दुलत नेद्ध फारूक अब्दुल्ला से कह कर एमएलसी बनवाया और कैसे वहां सभी अलगाववादी और आतंकवादी समूहों के नेताओं को पैसे बांटे जाते हैं।

एक बार फिर दोहराना जरूरी है कि दुलत के इन तमाम खुलासों को फिलहाल अंतिम सच नहीं माना जा सकताए लेकिन अगर इसमें जरा भी सचाई है तो सवाल यह उठता है कि जब सभी पक्षों में ऐसा भाईचारा है और सभी एक.दूसरे का इतना ख्याल रख रहे हैं तो फिर कश्मीर में आखिर समस्या क्या है और क्यों हैघ् क्यों वहां इतना खून.खराबा हो रहा हैघ् क्यों वहां के नागरिकों को सामान्य लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए भी तरसाए रखा जा रहा हैघ् देर से ही सहीए पर जब ये सवाल उठे हैं तो इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। अगर किसी भी स्तर पर आतंकवाद और अलगाववाद को लेकर ढीला रवैया दिख रहा हो तो उसे तुरंत ठीक किया जाना चाहिए।
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Wednesday, 8 July 2015

नये संकट की आहट महसूस कीजिए

नये संकट की आहट महसूस कीजिए

आतंकी संगठन आईएसआईएस अब पाक के कब्जे वाले कश्मीर में पांव जमाने की कोशिश कर रहा है। यह खबर काफ़ी पुख़्ता है क्योंकि इस बाबत पिछले सप्ताह सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने आगाह किया है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जम्मू.कश्मीर में युवा वर्ग के हाथों में आईएस के झंडे लहराते नज़र आए हैं और वहीं अफगानिस्तान में तालिबान से भी दो.दो हाथ कर आईएस ने अपने पैर जमाने की कोशिश की है।
एक साल के भीतर इराक और सीरिया में अपना गढ़ जमाने के बाद लीबियाए ट्यूनीशियाए कुवैत में अपनी पहचान बनाने के लिए किए नरसंहार की खबरें सुर्ख़ियों में रही हैं। तुर्कीए इजिप्टए अफगानिस्तानए नाइजीरिया और सऊदी अरब में मौजूद अन्य आतंकी संगठनों से आईएस ने अपने हाथ मिला लिए हैं। लेकिन ये वे देश हैं जो मध्य एशिया में हैं और जहां मुस्लिम समुदाय में इस उग्रवादी संगठन को आम जनता को देश के खिलाफ भड़काना आसान रहा था।
यह कारवां अब पूर्व की ओर बढ़ रहा है। विश्व के सभी शक्तिशाली देश इस आतंकी संगठन से दो.दो हाथ करने के लिए सैनिक और हथियार जुटा रहे हैं। हवाई हमले हो रहे हैं। भाड़े के कट्टरपंथी इस गुट में शामिल होने के लिए अन्य देशों से आ रहे हैं।
पाक अधिकृत कश्मीर ;पीओकेद्ध में आईएसआईएस के काले झंडे नजर आने का औचित्य क्या हैघ् क्या इस देश की सरहद पर आतंकवाद का यह नया चेहरा अपनी पहचान सामने रखने की कोशिश में एकजुट हो रहा हैघ् सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक पहले से थीए जब इस झंडे ने पिछले साल जुलाई महीने में कश्मीर घाटी में अपनी शक्ल दिखाई थी।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने पिछले साल नवंबर में कहा था कि पीओके के मामले में सरकार को रणनीतिक नजरिया अपनाने के बारे में विचार करना चाहिए। पीओके में आतंकियों के बढ़ रहे दायरे से निपटने के लिए देश को तैयार रहना पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा था कि देश के किसी भी धार्मिक मुस्लिम नेता ने आईएसआईएस को समर्थन नहीं दिया है और सभी ने आईएस और अल कायदा के खिलाफ फतवे जारी किए। उनके अनुसार आईएसआईएस और अल कायदा देश में आतंकी हमले कर हिंसा फैला सकते हैंए लेकिन हमारा देश इतना मजबूत है कि वह ऐसे संगठनों से निपट सकेगा।
अब जो खबर पीओके से आयी हैए उससे सुरक्षा तंत्र को और चौकस रहने की जरूरत है। अब तक हम पाक समर्थित प्रशिक्षण शिविरों से निकले लड़ाकों से भिड़ते थेए लेकिन अब धीरे.धीरे इनके प्रशिक्षण में आईएसआईएस की बागडोर होने की गुंजाइश है। भारत में इसे पनपने देने के लिए कश्मीर की फ़िजां से बेहतर जगह और क्या मिल सकती हैए जहां अलगाववाद और पाकिस्तान की मदद से उग्रवादी और आतंकवादी पहले से ही जहर घोल रहे हैं। आईएस तो एक तरीके से इस आग में घी का काम करने पर उतारू है।
घाटी में 14 अगस्त को पाकिस्तान के झंडे लहराए जाते हैं। और सिर्फ़ झंडे दिखाकर ही युवकों को लुभाने की हिमाकत नहीं हो रही है। पर्दे के पीछे इस प्रदेश में युवकों को आकर्षित करने के लिए और भी हथकंडे हो रहे हैंए जिनका खुलासा सुरक्षा एजेंसियों की तफशीश के दायरे में शामिल है। एक नया विदेशी जेहाद भारत की धरती पर आने के लिए दस्तक दे रहा है।
सिर्फ़ कश्मीर में ही नहींए पूरे देश में इस ख़तरे से बचाव के लिए कारगर कदम उठाने पड़ेंगे। यदि किसी भी आतंकवादी गुट को भारत में पैर पसारने होंगे तो उसे अमूमन किसी न किसी पर निर्भर रहना होगा। ऐसा नहीं है कि सुरक्षा एजेंसियां कुछ नहीं कर रहीं। राष्ट्र के हित में आईबीए रॉए मिलिटरी इंटेलीजेंसए पुलिस इत्यादि में इस बात को लेकर चिंता बनी हुई है और खोजबीन का कार्य हो रहा है।
लेकिन हमें एक आम नागरिक की हैसियत से समझना होगा कि हमारे क्या कर्तव्य हैंघ् कुछ ताकतें हमारे बीच घुसपैठ करती हैंए हमारा भरोसा जीतती हैं और हमारी नाक के नीचे ही देश का नुकसान करने की कोशिश करती हैं। कमजोर दिमाग़ पैसे की खातिर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।
भारत में इसकी जड़ों के जमने से पहले ही इसे शुरुआती दौर में तुरंत रोकना होगाए एकजुट होकर इसका सामना करना पड़ेगा। मीडिया को भी सेहरा सिर्फ़ अपने सर बांधने के बजाय राष्ट्रविरोधी ताकतों के नापाक इरादों को उजागर करना होगा। आईएस को भारत में न जमने देने के लिए मिलकर प्रयत्न करने ही होंगेए तभी यह देश स्वच्छ भारत के राष्ट्रीय अभियान में सफल होगा।
देश में हम लश्करए जैशए अल बदर और हिज़्बुल मुजाहिदीन के कट्टरपंथी गुटों से लड़ रहे हैं। आईएस की स्थिति जो इस समय सीरिया और इराक़ में अपनी कहानी गढ़ रही हैए उसकी नजर इस देश पर न पड़ेए इसी में इस देश की भलाई है।
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संतुलित विकास ही है समाधान

संतुलित विकास ही है समाधान

देश की विदेशमंत्री पर एक ष्भगोड़े अपराधीष् की सहायता का आरोप लगा हैय एक राज्य की मुख्यमंत्री भी आरोपों के घेरे में हैय एक पश्चिमी राज्य के चार मंत्री कथित घोटालों के विवादों में घिरे हैंय एक अन्य राज्य में परीक्षाओं को लेकर चल रहे विवाद की आंच से सरकार झुलस रही है. ये सारे उदाहरण भाजपा.शासित प्रदेशों के हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि संसद के मानसून सत्र में विपक्षए भले ही वह कितना कमज़ोर क्यों न हो गया हैए सरकार को लगातार मुश्किल में डाले रखेगा। जो महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में सदन में रखे जाने हैंए उनमें वह भूमि अधिग्रहण विधेयक भी हैए जिसे सरकार पिछले सत्र में पारित नहीं करवा पायी थी। आसार जो बन रहे हैंए उनके संकेत तो यही हैं कि इस सत्र में भी शायद ही यह महत्वपूर्ण काम पूरा हो सके। वैसे भीए इस विधेयक पर विचार कर रही समिति ने निर्णय के लिए कुछ और समय मांग लिया है। लेकिनए इसका अर्थ यह नहीं है कि देश में इस विवादास्पद विधेयक पर चर्चा न हो।
पिछली सरकार ने काफी विचार.विमर्श और तत्कालीन प्रमुख विरोधी दल भाजपा की सहमति से 2013 में भूमि अधिग्रहण संबंधी विधेयक पारित करवाया था। लेकिन अबए जबकि भाजपा सत्ता में हैए उसे उस विधेयक में ष्गंभीर खामियांष् नज़र आ रही हैं। सत्ता में न होने और सत्ता में आने के बीच आखिर ऐसा क्या हो गया कि भाजपा को इस संदर्भ में नया विधेयक लाना पड़ाघ् संघ.परिवार के अपने सहयोगी संगठनों के विरोध के बावजूद केंद्र की भाजपा सरकार अड़ी हुई है कि भूमि.अधिग्रहण संबंधी परिवर्तित विधेयक पारित हो जाएघ् हालांकि विरोध के चलते कुछ संशोधन सरकार मानने के लिए तैयार हैए पर सहमति बन नहीं रही। बड़ा विरोध जिन दो मुद्दों पर हैए उनका संबंध उन लोगों से हैए जिनकी ज़मीन का अधिग्रहण होना है। सन‍् 2013 के तत्संबंधी विधेयक में दो महत्वपूर्ण बातें थीं. पहली तो यह कि उन लोगों से सहमति ली जाएए जिनकी ज़मीन अधिगृहीत की जानी है। दूसरीए अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव को भी निर्णय का आधार बनाया जाए। ये दोनों बातें जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप हैं। लेकिनए भाजपा सरकार को लगता है कि इनसे विकास का रास्ता रुकने की आशंका है! सवाल उठता हैए क्या सचमुच जनतंत्र और विकास परस्पर.विरोधी हैंघ्
अपनी सारी खामियों के बावजूद जनतंत्र शासन की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। हम इसे छोड़ नहीं सकते। और विकास को भी स्थगित नहीं किया जा सकता। इसलिएए जो भी रास्ता निकलेए उसमें जनतंत्र और विकास दोनों से कोई समझौता नहीं होना चाहिए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शासन की चाहे जो भी प्रणाली होए उसमें केंद्रीय बात जनता का हित है। और सच्चाई यह भी है कि पिछले 68 सालों में विकास के सारे दावों के बावजूद आज भी देश का आम आदमी स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। ऐसा नहीं है कि विकास नहीं हुआ। बहुत कुछ हुआ हैए पर विकास का लाभ जनता में बराबर.बराबर बंटा नहीं। देश की बहुसंख्यक जनताए यानी सत्तर प्रतिशत जनता अभी भी अभावों में जी रही है। देश की अस्सी प्रतिशत संपत्ति देश के बीस प्रतिशत लोगों के पास है। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही हैए पर गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीने वालों की संख्या कम नहीं हो रही। देश के विधायकोंए सांसदों की सम्पत्ति हर पांच साल बाद दुगनी.चौगुनी हो जाती हैए पर जिनका प्रतिनिधित्व वे करते हैंए उनकी विवशताएं कम नहीं हो रहीं! स्पष्ट हैए विकास की हमारी अवधारणा में ही कहीं कोई गड़बड़ है और विकास की हमारी कोशिशों में भी कहीं न कहीं ईमानदारी की कमी है।
भूमि.अधिग्रहण की बात करें। निस्संदेह विकास के लिए भूमि का अधिग्रहण ज़रूरी है। पर कैसे हो रहा है यह कामघ् सरकारी अनुमान के अनुसार सन‍् 2006 से लेकर 2013 के बीच विशेष आर्थिक क्षेत्र ;सेजद्ध के लिए 60 हज़ार हेक्टेयर से अधिक ज़मीन अधिगृहीत की गयी थी। इसमें से 53 प्रतिशतए अर्थात आधी से भी अधिक ज़मीन का अभी तक कोई उपयोग नहीं हुआ है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि आज़ादी प्राप्त होने के बाद से लेकर अब तक विकास.कार्यों के नाम पर छह करोड़ लोगों को अपनी ज़मीन से हटाया गया था। इनमें से एक.तिहाई को भी समुचित तरीके से पुनर्स्थापित नहीं किया गया है। और बेदखल होने वाले ये लोग कौन हैंघ् ग्रामीणए गरीबए छोटे किसानए मुछआरेए खानों में काम करने वाले। इनमें 40 प्रतिशत आदिवासी हैं और 20 प्रतिशत दलित। ये आदिवासी और दलित विकास के पिरामिड में सबसे नीचे हैं और यही विकास के लिए विस्थापित किये जाने वाले लोग नगरों.महानगरों में रोज़गार के लिए अमानवीय स्थितियों में जी रहे हैंए ष्स्मार्ट सिटीष् के सपने देखना ग़लत नहीं हैए पर यह भी देखा जाये कि हमारे नगरों.महानगरों की संरचना किस तरह चरमरा रही है। इसके साथ ही जुड़ा है यह तथ्य कि पिछले बीस सालों में देश में दो लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। जानना यह भी ज़रूरी है कि हमारी नब्बे प्रतिशत के लगभग कोयला खदानें और पचास प्रतिशत के लगभग अन्य खानें आदिवासी इलाकों में हैं। स्पष्ट हैए हमारे विकास के लिए सबसे ज़्यादा कीमत यही चुकायेंगे। इसीलिए ज़रूरी है भूमि अधिग्रहण के काम में इनकी पूरी भागीदारी। और इसीलिए ज़रूरी है यह आकलन करना भी कि भूमि.अधिग्रहण की किसी भी योजना का सामाजिक प्रभाव क्या होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी यह विधेयक संसद में आयेगाए इस प्रक्रिया से जुड़े मानवीय पहलुओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जायेगा।
औद्योगिकीकरण और नगरीकरण की प्रक्रियाओं को रोका नहीं जा सकता। विकास के लिए ज़रूरी हैं ये दोनों। पर यह काम कैसे होए कैसे देश की गरीबी और विकास की आवश्यकताओं में संतुलन बनाये रखा जा सकेए इसके बारे में नीयत की ईमानदारी और नीति की पारदर्शिता का होना ज़रूरी है। दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति में यही दोनों कम दिखाई देती हैं। इसीलिए राजनीति और राजनेताओं में जनता का भरोसा नहीं रहा। जनतंत्र स्वस्थ रहेए पनपेए इसकी पहली शर्त यह भरोसा है। आज हमारी समूची राजनीति विश्वसनीयता के इस संकट से ग्रस्त हैए और संकट की पीड़ा को देश की आम जनता भोग रही है। इसलिए ज़रूरी है कि भूमि.अधिग्रहण के लिए कानून बनाते समय इन सभी संदर्भों को ध्यान में रखा जाये। ध्यान में रखा जाये कि औद्योगिक विकास की अनिवार्यता को आम आदमी की आवश्यकताओं से संतुलित करना होगा। उद्योग चाहिएए पर शर्त यह है कि हर हाथ को काम मिलेय स्मार्ट सिटी भी समय की ज़रूरत हैए पर गांवों के विकास की कीमत पर नहीं। एक सम्यक विकास ही हमारी समस्याओं का समाधान है। यह काम नारों से नहीं होगा। सबका साथए सबका विकास का उद्देश्य हमारी नीतियों में झलकना चाहिएए हमारी नीयत से उजागर होना चाहिए।
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