Monday, 20 July 2015

एक समझौते ने जगाई कई उम्मीदें

एक समझौते ने जगाई कई उम्मीदें

अमेरिका के नेतृत्व में विश्व की छह बड़ी ताकतों और ईरान के बीच हुआ ऐतिहासिक परमाणु समझौता एक युगांतर घटना हैए जिसकी वजह से मध्य.पूर्व एशिया की बड़ी शक्तियों के आपसी रिश्तों के समीकरण में बदलाव आने के अलावा ईरान एवं अमेरिका के बीच धीरे.धीरे फिर से दोस्ती कायम होने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। यह सच है कि इस समझौते को अभी कई रुकावटों से पार पाना होगा।
अभी इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू व अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और अन्य अमेरिकी सांसद इसके विरोध में हैंए जबकि राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए यह उपलब्धि एक जीत की तरह हैए जिसके लिए उन्होंने काफी मेहनत की। यह समझौता एक ऐसी थाती हैए जिसे वह अपने पीछे छोड़कर जाएंगे।
ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी का निष्कर्ष है कि रचनात्मक वार्ता कारगर होती है। यह समझौता मुख्यतरू ईरानी परमाणु कार्यक्रम के सैन्य उद्देश्यों पर दीर्घकालीन रोक लगाने के लिए बनाया गया है। इसके लागू होने से ईरान के यूरेनियम उच्च संवर्धन कार्यक्रम पर तो रोक लगेगी ही बल्कि निम्न कोटि के यूरेनियम का संचयन भी इतना कम हो जाएगा कि परमाणु बम बनाने लायक माल इकट्ठा होने में कई दशक और लग जाएंगे। बदले में अमेरिका और पश्चिमी जगत द्वारा ईरान के लिए सांसत बने कड़े आर्थिक प्रतिबंधों को उठा लिया जाएगा। उसके परमाणु संयंत्रों की बृहद जांच नियुक्त किए गए विशेषज्ञों द्वारा लगातार की जाती रहेगी। हालांकि ईरान पर लगा हथियार प्रतिबंध अगले पांच साल तक भी जारी रहेगा और इस समझौते में यह प्रावधान है कि यदि ईरान किसी शर्त का उल्लंघन करता है तो तमाम प्रतिबंधों को फिर से लागू कर दिया जाएगा।
लेकिन जहां एक ओर ईरान के कट्टरपंथी इस समझौते को पलीता लगाने का पूरा.पूरा यत्न करेंगे। वहीं दूसरी ओर इसे सबसे बड़ा खतरा अमेरिका के रिपब्लिकनों और कुछ डेमोक्रेट सांसदों से दरपेश है। अमेरिकी संसद के ऊपरी सदन सीनेट के पास इस समझौते को पारित करने या निरस्त करने के वास्ते 60 दिन का समय है। इसे वीटो करने के लिए सदन के दोनों सदनों के दो.तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी हैए जो कि मौजूदा हालात में संभव नहीं लगता। लेकिन जिस तरह से अमेरिका का अगला राष्ट्रपति बनने के चाहवानों की कतार लंबी होती जा रही हैए उससे डर है कि कहीं यह मुद्दा प्रचार पाने के लिए एक आसान निशाना न बन जाए।
इस समझौते को जिस तरह से सिरे चढ़ाया गया हैए उससे न सिर्फ ईरान का क्रांति के दिनों से चला रहा अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार खत्म हो जाएगा बल्कि अमेरिका.ईरान के बीच दुबारा दोस्ती होने से एक नए आयाम का सूत्रपात होगा। इस्लामिक स्टेट के उद्भव ने इस इलाके के परिदृश्य को जटिल बना दिया है। यह गुट शिया.सुन्नी के बीच फूट और इराक में अमेरिका के नाकाम आक्रमण से उपजी परिस्थितियों का लाभ उठा कर मजबूत हुआ है। इससे यहां के मुल्कों के बीच जो रिवायती क्षेत्रीय गुटबंदी थीए उसमें भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। जहां ईरान के साथ परमाणु समझौते के मुद्दे पर सऊदी अरब और इस्राइल एक साथ खड़े नजर आते हैं वहीं सीरिया के मामले में एक.दूसरे के खिलाफ रहे अमेरिका और ईरान आईएस के खिलाफ जंग में साथ मिलकर भले ही न लड़ रहे हों लेकिन समांतर रूप से उनकी सेनाएं एक ही ध्येय के लिए युद्धरत हैं। ईरान के पास इस इलाके में पहले से ही अपरोक्ष या परोक्ष समर्थकों का जमावड़ा है। इराक में ताकतवर हुई नई शिया.बहुल सरकार इसकी पक्की सहयोगी है। यमन में ईरान की मदद से उग्र हुए हूती लड़ाके सऊदी अरब के नेतृत्व में होने वाले हवाई हमलों का सामना कर रहे हैं और बहरीनए जो अमेरिका के पांचवें नौसैनिक बेड़े का अड्डा भी हैए वहां के शिया बहुसंख्या में होने के बावजूद सुन्नी सरकार के नीचे दबकर रहने से कुंठित हैंए इसलिए वे भी ईरान के पक्ष में हैं। इसके अलावा लेबनान का शिया अतिवादी गुट हिजबुल्लाह भी ईरान के प्रति स्नेह रखता है।
अमेरिका के निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के मन में भी ईरान के प्रति संदेह है क्योंकि उन्हें अच्छी तरह याद है कि कैसे अमेरिका से घनिष्ठ मित्रता रखने वाले ईरान के पूर्व शाह मुहम्मद रजा पहलवी के खिलाफ जब क्रांति हुई थी तो अमेरिका द्वारा शाह की मदद करने से चिढ़े क्रांतिकारियों ने तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास में सैकड़़ों अमेरिकी नागरिकों और राजनयिकों को सालों तक बंधक बना कर रखा था और अमेरिकी कमांडो कार्रवाई से छुड़वाने की नाकाम कोशिश ने उनका जीवन खतरे में डाल दिया था। अमेरिका के अगले शीर्ष सेनाध्यक्ष बनने जा रहे जनरल जोसेफ डनफोर्ड जूनियर का कहना है कि मध्य.पूर्व के इलाके में ईरान का बुरा प्रभाव आगे भी बना रहेगा।
एक दफा यह परमाणु समझौता जब सारी अड़चनों को पार कर लेगा तो अंत में वैश्विक स्तर पर इससे ऐसा संवेग बन जाएगा जो अमेरिका की यहूदी लॉबी के इरादों को परास्त करके रख देगा और इसके सिरे चढ़ने से इलाके के बड़े देशों और अग्रणी शक्तियों को माहौल में बदलाव लाने और राजनीतिक समीकरण बनाने का ज्यादा मौका मिल सकेगा। पहला तो यह होगा कि पंगु करके रख देने वाले प्रतिबंधों ने ईरान को इस इलाके में अपना वैध प्रभाव बनाने से वंचित कर रखा था और इसके चलते सऊदी अरब ने अपनी तरह के इस्लाम को फैलाने में बड़ी भूमिका अदा कीए लेकिन ईरान के आगे आने से उसके पंख स्वतरू कतरे जाएंगे।
ओबामा प्रशासन के लिए जो एक राहत की बात होगीए वह यह  है  कि अगर अमेरिका की यहूदी लॉबी रिपब्लिकन सांसदों का इस्तेमाल करके इस समझौते को पारित न होने देने में कामयाब हो भी गई तो ऐसी स्थिति में यूरोपियन देश ईरान पर लगे प्रतिबंधों को जारी रखने के लिए अनिवार्य रूप से बाधित नहीं होंगे। सच तो यह है कि यूरोपियन देशों के मन में इस्राइल के प्रति खटास भरती जा रही है। फिलहाल राष्ट्रपति ओबामा के पास मुस्कुराने के कारण हैं और बाकी संसार भी चैन की सांस ले सकता है।
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जीवन को गति देगी सुमति

जीवन को गति देगी सुमति

जिस तरह कण.कण में भगवान हैंए ठीक उसी तरह कण.कण में जीवन भी समाया है। संगीत की स्वर.लहरियोंए पंछियों की चहचहाहटए सागर की लहरोंए पत्तों की सरसराहटए मंदिर की घंटियोंए मस्जिद की अजानए कोयल की कूकए मयूर के नयनाभिराम नृत्यए लहलहाते खेतए कृषक के मुस्कराते चेहरेए सावन की रिमझिम फुहारए इंद्रधनुषी रंगोंए बादलों की गर्जनाए बच्चे की मोहक मुस्कानए फूलों की खुशबूए बारिश की सौंधी.सौंधी महकए मां की लोरियांए पानी की गगरियांकृ यही हैं जीवन के वास्तविक उत्सव और यही है मनुष्य.मन की उत्सवमयता।
प्रकृति के अनुपम सौंदर्य में भी जीवन का विलक्षण आनंद समाहित है। जीवन एक उत्सव हैए नाचो गाओ और मुस्कराओ। जिंदादिली का नाम है जिंदगी। जीवन पुष्प हैए प्रेम उसका मधु। जिंदगी में सदा मुस्कराते रहोए फासले कम करोए दिल मिलाते रहो। जीवन एक चुनौती है। विपत्तियों से जूझकर चुनौती स्वीकार करना ही जिंदादिली हैए साहस है तथा इसी में रोमांच भी है। लाओत्से ने कहा है कि इसकी फिक्र मत करो कि रीति.रिवाज का क्या अर्थ है। रीति.रिवाज आनन्द देते हैंए बस काफी है। आनन्द का जीवन में बहुत महत्व है। होली मनाओए दीवाली मनाओए बसन्तोत्सव मनाओ। कभी दीये भी जलाओए कभी रंग.गुलाल उड़ाओ तो कभी जीवन के गीत गाओ। कभी संयम के गीत गाओ तो कभी साधना के। जिन्दगी को सहजए सरल और नैसर्गिक रहने दो। मिलनसार होना अच्छा हैए खाने.पीने के संस्कार देना अच्छा हैए मैत्री अच्छी हैए बड़ों के प्रति सम्मानभाव व्यक्त करनाकृयह सब करते हुए स्वयं की पहचान भी जरूरी है। जैसे हो वैसे ही अपने को स्वीकार करो। और इस सरलता और सहजता से ही धीरे.धीरे स्वयं की स्वयं के द्वारा पहचान हो सकेगी।
अपने प्रति सकारात्मकता होनी जरूरी है। एक दिव्यदृष्टि जरूरी होती है जीवन की सफलता एवं सार्थकता के लिये। सर विलियम ब्लैकस्टोन ने लिखा हैकृरेत के एक कण में एक संसार देखनाए एक वन पुष्प में स्वर्ग देखनाए अपनी हथेली में अनन्तता को देखना और एक घंटे में शाश्वतता को देखना। सचमुच यही जीवन का वास्तविक आनन्द हैए उत्सव है।
जीवन का लक्ष्य होना चाहिएए निरंतर चलते रहोए तब तक चलते रहोए जब तक कि मंजिल न पा लो। जीवन चलायमान हैए चलता ही रहता हैए अपनी निर्बाध गति से। जीवन न तो रुकता है और न ही कभी थकता है। जीवन पानी की तरह निरंतर बहता रहता है। जीवन कभी नहीं हारता हैए उससे हम ही हार जाते हैं। चलते रहो और पीछे मुड़कर कभी न देखोए लक्ष्य शिखर की ओर रखो। इसीलिये नेपोलियन कहते हैंए जो व्यक्ति अकेले चलते हैंए वे तेजी से आगे की ओर बढ़ते हैं।  जीवन एक प्रयोग हैए नित नए प्रयोग करते रहोए अनुभवों का विस्तार करो और नवजीवनए नवसृष्टि का सृजन करो। गिरकर उठना और उठकर पुनः अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ना ही कामयाब जीवन का राज़ है।
चलना ही जीवन है। बसए चलते ही रहो क्योंकि ठहराव जीवन में नीरसताए विराम व शून्य लाता है। जीवन की गति रुकने पर सांसों के थमने का सिलसिला शुरू हो जाता है। गीता में कहा हैए व्यक्ति पृथ्वी पर अकेला ही आता है व अकेला ही जाता है। प्रगति के नाम पर आज जो कुछ हो रहा हैकृउससे मानव व्यथित हैए समाज परेशान हैए राष्ट्र चिंतित है। अपेक्षा है आज तक जो अतिक्रमण हुआ हैए स्वयं से स्वयं की दूरी बढ़ाने के जो उपक्रम हुए हैं उनसे पलट कर पुनः स्वभाव की ओर लौटने कीए स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की। जीवन शांति हैए सुव्यवस्था हैए समाधि है। अज्ञात की यात्रा है। विभाव से स्वभाव में लौट आने की यात्रा है। समाधि समाधानों का केन्द्र है। अतः अपनी सक्रिय ऊर्जा और जीवनी शक्ति को उपयोगी दिशा प्रदान करें। व्यक्ति जिस दिन रोना बंद कर देगाए उसी दिन से वह जीना शुरू कर देगा। यह अभिव्यक्ति थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक उत्साह का संगीत गुंजायमान कर देगी। नैराश्य पर मनुष्य की विजय का सबसे बड़ा प्रमाण है आशावादिता और यही है जीत हासिल करने का उद्घोष।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत होए अजंता के चित्र होंए वाल्ट व्हिटमैन की कविता होए कालिदास की भव्य कल्पनाएं होंए प्रसाद का उदात्त भाव.जगत हो३ सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होतेए रंगों.रेखाओंए शब्दों.ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होताए तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनीए थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव.जाति ने जो कुछ रचा हैए उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव.नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाताए समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी.शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त हैए सुंदर हैए सार्थक और रचनामय हैए वह सब जीवन दर्शन है। यह दर्शन ऐसे ही हैं जैसे एक सुंदर पुस्तक पर सुंदरतम पंक्तियों को चित्रित कर दिया गया। ये रोज.रोज के भाव की ही केन्द्रित अभिव्यक्तियां हैं। कोई एक दिन ही उत्सव नहीं होता। वह तो सिर्फ रोज.रोज के उत्सव की याद दिलाने वाला एक सुनहरा प्रतीक होता है।
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Sunday, 19 July 2015

सच से साक्षात्कार का समय

सच से साक्षात्कार का समय


अगर ष्डोभाल सिद्धांतष् पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई है तो शायद ऐसा इसलिए है कि इसकी एक प्रकार से शिथिल शुरुआत हुई थी। तार्किक तौर पर यह बात कही जा सकती है कि इस सिद्धांत की अभिव्यक्ति नवनियुक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा सर्वप्रथम सितंबर 2014 में बीजिंग यात्रा के दौरान की गयी थी। चीन स्थित भारतीय मीडिया से बातचीत के दौरान डोभाल ने चीन.भारत संबंधों में एक बड़ा बदलाव आने की संभावना देखी क्योंकि राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री मोदी ष्दोनों बहुत ही ताकतवरए लोकप्रिय और बहुत ही दृढ़निश्चयी नेता हैं।ष् अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि दोनों ही संजीदा नेता हैं और दोनों को ही पार्टी तथा संसद में बहुमत प्राप्त है और इसके अलावा दोनों के ही पास आगे पर्याप्त समय भी है।
हालांकि डोभाल ने यह सुझाव देने में सावधानी बरती कि यह संबंध आवश्यक तौर पर ष्केवल एक ही कारक पर निर्भर नहीं करताष् लेकिन उन्होंने नयी दिल्ली के सामूहिक चिंतन का आभास जरूर करा दिया। काम करने की नयी भीतरी समझदारी के अनुसार यह मान लिया गया है कि भारत की कूटनीतिक स्वायत्तता और विकल्प रातोंरात अधिकतम हो गये हैंए सिर्फ इसलिए कि हमारे पास एक उच्चतम नेता है। पिछले एक वर्ष की बहुत.सी कूटनीतिक बौखलाहटों का स्रोत इसी आंतरिक कार्यशील सूक्ति में तलाशा जा सकता है।
नेता की निर्णायक भूमिका पर नये सिरे से जो बल दिया गया है वह संघ परिवार की समग्र राजनीतिक विचारधारा के पूरी तरह अनुकूल है। यहां एक नेता की राष्ट्रभक्ति ही रणनीतिक संरचनागत सीमाओं से पार पाने के लिए पर्याप्त से कहीं ज्यादा मानी गयी है। जनसंघ के प्रारंभिक दिनों से ही यह विश्वदृष्टि ऐसे नेता या नेताओं के पक्ष में रही है जो पर्याप्त राष्ट्रवादी हो और जो किसी के भी प्रति आक्रामकए टकराववादी रवैया अपना सके। इसका झुकाव खास तौर पर ऐसे नेता के पक्ष में रहा है जो ष्हिंदू कायरताष् से ग्रस्त न हो। ये शब्द संघ से संबद्ध एक व्यक्ति द्वारा कभी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए प्रयुक्त किये गये थे। ऐसे नेता की खोज पिछले उन दो दशकों में ज्यादा हुई हैए जिनमें भारतीय मध्य वर्ग अधिकाधिक राष्ट्रवादी हुआ है। पिछले लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को ठीक एक ऐसे ही नेता के रूप में प्रस्तुत किया जो विश्व के ताकतवर नेताओं से आंख में आंख डालकर बात कर सके।
डोभाल.मोदी के संबंधों के बारे में ज्यादा कुछ ज्ञात नहीं है। लोकसभा के 2009 के चुनावों तक जिनमें एक ष्कमजोर प्रधानमंत्रीष् ने एलण्केण्आडवाणी और भाजपा को पटकनी दी थीए डोभाल पूरी तरह आडवाणी टोली का हिस्सा थे। यह कहना कठिन है कि उन्होंने अपनी निष्ठा कब बदली। तथापिए नयी दिल्ली के जानकार क्षेत्रों में यह माना जाता है कि जिस समय तक गुजरात में 2012 में मोदी ने तीसरी बार विजय हासिल की थीए तब तक वह उनके एक सम्मानित सलाहकार बन चुके थे। गैर राजनीतिक लोगों की रहस्यमय दुनिया और गुप्तचर एजेंसियों के मायावी कार्य व्यापार के साथ उनकी अंतरंगताए व्यक्ति और वस्तुओं के स्याह पक्ष को समझने की नरेन्द्र मोदी की अपनी प्राथमिकता के साथ अच्छी तरह मेल खाती थी। डोभाल नरेन्द्र मोदी को राजनय की कठिन और जटिल दुनिया से प्रशंसा प्राप्त करने के बारे में सलाह देते रहने के लिए जाने जाते हैं। तब इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दोनों पूरी तरह एक.दूसरे के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
डोभाल का ष्शक्तिशाली नेताष् का सिद्धांत इसलिए आकर्षक हो गया क्योंकि यह प्रधानमंत्री के अपनी लोकप्रियताए विवेक और क्षमता में अगाध विश्वास से पूरी तरह मेल खाता था। हमारी विदेश नीति में जो अत्यधिक उत्साह दिखाई दे रहा हैए उसके अधिकांश का श्रेय आयोजन प्रबंधन के प्रति मोदी की अत्यधिक अभिरुचि को आसानी से दिया जा सकता है।
डोभाल.मोदी की जोड़ी ने वे खूबसूरत फोटो.अवसर उपलब्ध कराए हैं जो भारतीय मध्य वर्ग की वैश्विक कद और ष्सम्मानष् प्राप्त करने की नवजागृत जरूरत को संतुष्ट करते हैं। औरए भारत का कॉर्पोरेट वर्ग मोदी के साथ चलने और इक्कीसवीं सदी के दलाल बुर्जुआ की भूमिका निभाने में खासा खुश है।
एक वर्ष उपरांतए डोभाल सिद्धांत की सीमाएं सामने आने लगी हैंए विशेषकर हमारे पड़ोस में। और यह अच्छा ही हुआ है। वहां की दुनिया इतनी ज्यादा जटिल है कि बिसात बदल देने वाले नेता की हमारी अवधारणा का समर्थन नहीं कर सकती। अपनी तन्मयता के चलते हम यह देखने में असफल रहे कि चीन और पाकिस्तान की जुगलबंदी ने एक परिष्कृत मगर घातक धार प्राप्त कर ली है। दरअसलए वहां प्रधानमंत्री को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ दोस्ताना हो जाने देने की कोई जरूरत नहीं थी। जकीउर्रहमान लखवी पर बीजिंग का मतय और फिर एक गंभीर प्रधानमंत्री की ओर से चीनी नेता को एक सीधा संदेश जो अपने शब्दाडंबरपूर्ण घुमाव के साथ वैश्विक हो गया। अगले ही दिन बीजिंग की ओर से खुली झिड़की मिली.हालांकि यह सिद्धांतों की बड़ी.बड़ी बातों में लिपटी हुई थी। एक प्रधानमंत्री की कठोर हो जाने की चाह अगर यह सुविचारित व्यावहारिक राजनीति से समर्थित न हो तो ज्यादा दूर तक नहीं जातीए न जा सकती है।
पिछले एक वर्ष के समय में दूसरों ने भी मोदी को समझा है। ठीक जिस तरह गेंदबाजी के कोच नये बल्लेबाजों में उनकी खामियों को देखते.समझते हैंए उसी तरह कूटनीतिक विश्लेषकों ने भी प्रधानमंत्री की उनकी अपनी खूबियों और साथ ही उनकी खामियों को जाना.समझा है। चीनी और पाकिस्तानी मिलकर उनकी कमजोरियों का पता लगा रहे हैं।
बाकी दुनिया ने भी इस पर ध्यान दिया है.और बाहरी लोग ऐसे मूल्यांकन करने में कहीं ज्यादा क्रूर हैं.कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय मतैक्य कोए चाहे यह कितना भी भंगुर क्यों न रहा होए ध्वस्त करने में गर्व महसूस किया है। और कोई नया मतैक्य निर्मित भी नहीं हुआ हैय न ऐसे मतैक्य की जरूरत ही महसूस की गयी है। चीनी लोगए जैसा कि प्रत्येक विद्वान हमको बताता हैए जो किसी भी मामले में दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाते हैंए जरूर इस बात पर आश्चर्य कर रहे होंगे कि भारत जैसा विशाल और महत्वाकांक्षी देश बिना एक विशिष्ट मतैक्य के एक कारगर विदेश नीति को कैसे बनाए रख सकता है।

इसके अलावाए पूर्व प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत शिष्टाचार और राजनयिक आचार.संहिता के प्रति सम्मान को कमजोरी का लक्षण बताकर मजाक उड़ाया जाता है। वैश्विक मंच पर कठोर और उग्र दिखने की चाहत घरेलू दर्शकों या प्रवासी भारतीयों की भीड़ को तो प्रभावित कर सकती है लेकिन यह किसी भी विदेशी राजनयिक गलियारे में स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ती। जैसा कि एक अनुभवी कूटनीतिक प्रेक्षक ने बेलाग कहा कि भारत को सुरक्षा परिषद में कोई सिर्फ इसलिए जगह नहीं दे देगा क्योंकि राजपथ के विशाल योग प्रदर्शन का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री ने किया। डोभाल सिद्धांत के साथ समस्या यह है कि यह कूटनीतिक कमजोरी की क्षतिपूर्ति के लिए नेता पर असंगत दबाव बनाता है। जैसा कि हेनरी किसिंजर ने एक बार टिप्पणी की थीए ष्अपनी क्षमताओं को पहचानना भी राजनीतिमत्ता की एक कसौटी है।ष् इसके अतिरिक्त डोभाल सिद्धांत एक ऐसे दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है जो अनजाने ही राजनय के पारंपरिक औजारों और शासन कला के उपकरणों की अवहेलना करता है। यह भय भी है कि नेता.केंद्रित दृष्टिकोण हमारी उस राष्ट्रीय रक्षा संपदा को भी क्षति पहुंचा सकता है जो हमने पिछले 15 वर्षों में बड़ी मेहनत से तैयार की है।
और कोई भी नेता प्रतिकूल राजनीतिक हवाओं से अछूता नहीं रहता। नरेन्द्र मोदी को भी देर.सवेर बुरे मौसम का सामना करना पड़ेगा। यही वह समय होगा जब हमें अपने स्थायी राष्ट्रीय हितों को नेता की व्यक्तिगत दुर्बलताओं और राजनीतिक प्रमाद में उलझने से पूरी शक्ति से बचाना पड़ेगा।
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राजस्व से ज्यादा जरूरी सेहत

राजस्व से ज्यादा जरूरी सेहत

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते दिनों यह ऐलान किया कि अगली बार वह सत्ता में आएंगे तो बिहार में शराबबंदी लागू कर देंगे। परए बड़ा सवाल ये है कि वे शराबबंदी के लिए दुबारा से सत्ता में आने का इंतजार क्यों कर रहे हैं। उन्हें विलंब करने की क्या जरूरत है। क्या उन्हें मालूम है कि हरियाणा में एक दौर में मुख्यमंत्री बंसीलाल ने शराबबंदी की कोशिश की थी घ् उसमें वे बुरी तरह से फेल हुए थे। बेहतर होगा कि नीतीश कुमार अपने शराबबंदी अभियान को तुरंत शुरू करें और उन कारणों पर चिंतन करेंए जिसके चलते हरियाणा में शराबबंदी की योजना फेल हो गई थी। नब्बे के शुरुआती सालों में बंसीलाल ने भी शराबबंदी की पहल की थी पर हरियाणा ने उनका साथ नहीं दिया। हालांकि बंसीलाल बेहद सख्त मुख्यमंत्री थे। उन्हें आधुनिक हरियाणा का शिखर नेता माना जाता है। पर वे नाकाम रहे थे।
पटना के एसके मेमोरियल हाल में महिलाओं की एक कार्यशाला में नीतीश कुमार ने शराबबंदी की दिशा में काम करने की बात कही। इस मौके पर उन्होंने कहा कि महिलाओं के उत्थान के बिना समाज का उत्थान संभव नहीं है। पर बात वही आ जाती है। चुनाव से पहले वादे करना आसान हैए उन्हें पूरा करना कठिन।
बेहतर तो ये होगा कि आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में सभी राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणापत्र में शराबबंदी को शामिल करते हुए इस पर प्राथमिकता के आधार पर अमल करें। माना जा सकता है कि शराबबंदी कार्यक्रम अभी केवल गुजरात और केरल में लागू हो पाया है। पर इसे अखिल भारतीय स्तर पर लागू करने की सख्त जरूरत है। जहां तक केरल की बात है तो वहां पर सरकार का उद्देश्य अगले दस सालों में शराब को पूरी तरह से प्रतिबंधित करना है। शुरुआत में सात सौ बार और शराब बेचने वाली कुछ दुकानें बंद की जाएंगी और हर महीने शराब.मुक्त दिनों की संख्या बढ़ाई जाएगी। केरल में प्रति व्यक्ति शराब की खपत आठ लीटर प्रति वर्ष है जो पूरे भारत में सबसे ज़्यादा है।
देश में शराब की खपत बढ़ती जा रही है। राजधानी दिल्ली के मिडिल क्लास आवासीय क्षेत्र मयूर विहार में शराब की 10 से ज्यादा दुकानें हैं। सबमें हमेशा भीड़ लगी रहती है। आखिऱ कैसे एक आवासीय इलाके में इतनी शराब की दुकानें खुलने दी गईं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसारए लगभग तीस फीसदी भारतीय अल्कोहल का सेवन करते हैं। इनमें चार से 13 फीसदी लोग तो नियमित रूप से शराब का सेवन करते हैं। मुंहए लीवर और स्तन समेत कैंसर की कई किस्मों का संबंध शराब के सेवन से है। आश्चर्य की बात यह है कि इन आंकड़ों के बावजूद सरकारें इस गंभीर मामले पर कोई ध्यान नहीं दे रही हैं। शराब का सेवन दिलए दिमागए लीवर और किडनी की 200 से भी ज्यादा बीमारियों को न्योता देता है। कई मामलों में यह कैंसर का भी प्रमुख कारण बन जाता है।
कम उम्र के किशोरों में शराब पीने की बढ़ती प्रवृत्ति का उनके भविष्य और रोजगार पर सीधा असर पड़ता है। शराब पीकर काम पर आने वाले कर्मचारियों की वजह से उत्पादकता का जो नुकसान होता हैए उससे भारत जैसे विकासशील देश को सालाना उत्पादन में लगभग एक फीसदी नुकसान होता है। यह एक मोटा अनुमान है।
शराब की बिक्री से मिलने वाले भारी राजस्व ने ही सरकार के कदमों में बेड़ियां डाल रखी हैं। राजस्व को ध्यान में रख कर ही पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम ने 18 वर्षों से जारी शराबबंदी खत्म कर दी है। महज राजस्व के लिए देश के भविष्य से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। नई नीति बनाने से पहले नफा.नुकसान का हिसाब होना चाहिए। सरकार एक निश्चित उम्र से पहले किसी के शराब पीने को कानूनी जुर्म बना कर इस समस्या पर काफी हद तक अंकुश लगा सकती है।
बहरहालए शराब का बढ़ता सेवन गंभीर रूप ले रहा है। इसके साथ जहरीली शराब के सौदागरों पर कड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है। जहरीली शराब पीने से हर साल सैकड़ों लोग मर जाते हैं। अब बिहार में ही नहींए सारे देश में शराबबंदी की दिशा में कदम उठाए जाने की जरूरत है।
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Friday, 17 July 2015

उनके हुनर की भी कीजिए कद्र

उनके हुनर की भी कीजिए कद्र

प्रधानमंत्री मोदी ने स्किल इंडिया के लांच के अवसर पर अन्य बातों के अलावा कहा कि आदमी को मल्टी स्किल आनी चाहिए। मल्टी टास्किंग कारपोरेट का बहुत ही प्यारा शब्द और मुहावरा हैए जो आजकल बात.बात पर सुनाई भी देता है। सरकारें भी अब ऐसी बातें कर रही हैं तो अच्छा है। आम जीवन में बड़े व्यापारियों से लेकर मामूली कामकाज करने वाले तक आज एक काम पर निर्भर नहीं रहना चाहते। अपने आसपास देखें तो आपको ऐसे उदाहरण हर जगह मिल जाएंगे। कल जो कपड़े प्रैस कर रहा थाए अचानक भुट्टे के मौसम में उसी के परिवार का कोई बाल.बच्चा भुट्टे का फड़ भी लगा लेता है। शाम तक बोरी भरकर भुट्टे बिक जाते हैं।
पुरानी कहावत है.बैठे से बेगार भली। कोई अखबार वाला अखबार मैगजीन तो बेचता ही हैए अपने यहां प्रापर्टी डीलिंग का बोर्ड लगा लेता है। यही नहीं ठंडे पेयए चाय बनाने का सामान और पान आदि की दुकान एक साथ चलाने लगता है। पूरा परिवार इस काम में जुटा रहता है। कायदे से तो किसी बड़े से बड़े बिजनेस स्कूल से ज्यादा ये मामूली लोग हमें बहुत कुछ सिखा सकते हैं। जिस तरह मुम्बई के डिब्बा वालों को अहमदाबाद आईआईएम में बुलाया गया थाए इन मामूली लोगों की अक्ल और अनुभव से भी बहुत कुछ सीखना चाहिए। इन्होंने किसी पाठशाला में इन बातों की शिक्षा नहीं लीए मगर दूसरों के अनुभव से सीखकर और देखकरए अपने काम में महारथ हासिल की है। और काम भी कौन साए जिसमें कम से कम लागत में इतनी आय की जा सके कि घर की जरूरतें पूरी हो सकें और कुछ कल के लिए बच भी जाए। घर के पास में बहुत से लड़के ऐसे भी दिखते हैं जो सवेरे ग्यारह बजे तक किसी मदर डेयरी के पास ब्रेडए दूधए अंडाए तरह.तरह के बिस्कुटए नमकीनए कुलचेए पापड़ीए भेलपूरी आदि का सामान बेचते हैं। फिर ग्यारह से एक तक आपके बिजलीए पानीए टेलीफोन आदि के बिल जमा कराने का काम करते हैं। ये इस काम से भी अच्छा.खासा पैसा कमा लेते हैं।
यही नहींए अगर ध्यान से देखें तो इस कौशल में हमारे घरों की औरतों का कोई मुकाबला नहीं है। खासतौर से पिछली पीढ़ी या उससे पहली वाली पीढ़ी की औरतों का। चूंकि उनके घरेलू काम उन्हें पैसे नहीं दिलवाते थेए इसलिए उनके काम को घरेलू कहकर फर्श के नीचे खिसका दिया गया। उनके काम में कितनी मेहनत लगती हैए दिन के कितने घंटे लगते हैंए इससे घर की कुल कितनी बचत होती हैए इसे अकसर आंकने की कोई कोशिश भी नहीं की गई। उन्हें कभी कोई प्रशंसा भी नहीं मिली।
आखिर हमारी दादीए नानीए ताईए मांए बुआए चाची तथा घर के आसपास की अन्य औरतें क्या.क्या करती थींए क्या हमें याद है। उनकी दिनचर्या कैसी होती थी। एक नजर डालें। सवेरे.सवेरे उठकर वे घरों को बुहारती थींए धोती थीं। कच्चे घरों की लिपाई.पुताई का जिम्मा भी उन्हीं का था। जानवरों को दुहनाए उनका दाना.पानी भी वे ही करती थीं। फिर दही को मथनाए मक्खन निकालनाए नहानाए पूजा.पाठए घर के हर सदस्य की रुचि के अनुसार समय से पहले खाना पकानाए बर्तन मांजनाए दोपहर में चिप्सए पापड़ बड़ियां बनानाए मौसम के अनुसार अचार डालनाए शरबत बनानाए कपड़े सिलनाए स्वेटरए मोजेए पुराने स्वेटरों से नए स्वेटर बनानाए मफलरए शाल बुननाए कढ़ाई करनाए रजाइयां भरवाकर उनमें डोरे डालनाए पुराने कपड़ों से तरह.तरह की नई चीजें बनानाए किसी त्योहार पर सारी मिठाइयां और पकवान तैयार करना।
मगर ये सारे काम औरतों के कर्तव्यों की सूची में इस तरह से शामिल थे कि उन्हें कभी काम भी नहीं माना गया। घर के कुछ पुरुष तो इसमें अपनी शान समझते थे कि घर की औरतों ने जो भी काम किए हैंए वे उसमें खोट निकालें। जबकि आज इनमें से अधिकांश काम हम पैसे देकर कराते हैं। और अगर सीखने हों तो किसी इंस्टीट‍्यूट में मोटी फीस देकर सीखते हैं। जबकि हमारी ये औरतें ये सारे काम देखकर और अपने घर की औरतों से विरासत में सीखती थीं। इन औरतों के कामों को अगर गिनें तो इनसे ज्यादा मल्टी स्किल और मल्टी टास्किंग क्या होगी।  सबसे बड़ी बात कि इनके समय में कोई तकनीकी सुविधा जैसे कि फ्रिजए कुकरए मिक्सीए गैसए माइक्रोवेवए कपड़े धोने की मशीनए घर की सफाई की मशीन आदि भी उपलब्ध नहीं थीं। जबकि आज की पीढ़ी की औरतों के पास ये सब साधन उपलब्ध हैं। फिर भी वे थकान और समय की कमी का रोना रोती हैं।
पिछली पीढ़ी की इन औरतों ने कितना अन्याय सहा हैए सिर्फ इसलिए कि वे आज की औरत की तरह चार पैसे नहीं कमाती थीं। लड़कियों की आत्मनिर्भरता ने पिछली पीढ़ी की औरतों की तमाम विद्याओं और कलाओं को पीछे धकेल दिया। ये कलाएं पीछे हुईं भी इसलिए कि इनके करने से इन औरतों के हाथ में चार पैसे नहीं आते थे।
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राष्ट्रीय हित में दलीय स्वार्थों की बलि जरूरी

राष्ट्रीय हित में दलीय स्वार्थों की बलि जरूरी


पिछले दिनों भाजपा की केंद्र व कतिपय राज्य सरकारों के सामने कदाचार से जुड़े जो मामले सामने आएए उनसे निपटने के तौर.तरीकों से जनता में अच्छा संदेश नहीं गया। जिस भ्रष्टाचार को प्रमुख मुद्दा बनाकर भाजपा ने केंद्र की सत्ता का वरण किया थाए उसके कारगर व पारदर्शी समाधान में केंद्र सरकार चूकती नजर आई। जनता में संदेश गया कि महज लीपापोती की कोशिश हो रही है। आखिरकार भारी विरोध के बाद मध्यप्रदेश सरकार व्यापम घोटाले पर सीबीआई जांच कराने पर सहमत हुई। शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप के बाद सीबीआई मामले की जांच कर रही है। ऐसा नहीं है कि सीण्बीण्आईण् की निष्पक्षता पर कभी उंगली नहीं उठी। कई बार सीण्बीण्आईण् विवादों के घेरे में आयी हैए कई बार सीण्बीण्आईण् पर केंद्र सरकार के दबाव में काम करने के आरोप लगे हैं। पर इसके बावजूद आम धारणा यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से सीण्बीण्आईण् की जांच बेहतर होती है।
ईमानदार छवि बनाने और उस छवि को बनाये रखने का दायित्व आज हमारी सरकारों पर अधिक है। खासतौर पर केंद्र सरकार को इस संदर्भ में अधिक सक्रिय और अधिक सावधान रहने की ज़रूरत है। मतदाता अभी भूला नहीं है कि भाजपा जिन मुद्दों को हथियार बनाकर आम चुनाव में मैदान में उतरी थीए उनमें सबसे प्रमुख मुद्दा पिछली सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का ही था। भाजपा मतदाता को यह समझाने में सफल रही थी कि भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार रहे होंए पर उनके नेतृत्व वाली सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी रही है। टूण् जीण् घोटालाए कोयला घोटाला जैसे आरोपों ने आग में घी का काम किया था। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। आम चुनाव में कांग्रेस को जिस हार का सामना करना पड़ाए उसे किसी भी राजनीतिक दल के लिए शर्मनाक ही कहा जा सकता है। चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया था कि देश कि जनता एक साफ.सुथरीए पारदर्शीए भ्रष्टाचार को न सहने वाली सरकार चाहती है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा समूचे चुनाव प्रचार के दौरान यही आश्वासन देती रही कि वह ऐसी ही सरकार देश को देगी। मतदाता ने इस बात पर भरोसा किया। उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार इस दिशा में तेज़ी से कुछ निर्णायक कदम उठायेगी। लेकिन साल भर के भीतर ही मतदाता कहीं न कहीं यह महसूस करने लगा है कि उसकी उम्मीदों की बुनियाद शायद कमज़ोर थी।
केंद्र और भाजपा.शासित राज्यों में जिस तरह के घोटाले सामने आ रहे हैंए उन्हें देखते हुए भाजपा के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी छवि सुधारने के लिए कुछ ठोस कदम उठाये। सरकारों का ईमानदार होना और ईमानदार दिखनाए दोनों ज़रूरी हैं। पिछले एक साल में इस दिशा में शायद ही कोई ऐसा कदम उठाया गया है जो भरोसा दिलाने वाला हो। ललित मोदी कांड में विदेशमंत्री और राजस्थान की मुख्यमंत्री की भूमिका हो या मध्यप्रदेश का व्यापम कांडए या फिर छत्तीसगढ़ सरकार के विवादास्पद कामए सबमें कुछ नहींए बहुत कुछ ग़लत होने की गंध आ रही है। केंद्रीय मंत्रियोंए राज्यों के मंत्रियों से लेकर भाजपा के पदाधिकारियों के बयान पारदर्शिता को कम करने वाले ही साबित हो रहे हैं। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री का मौन भी बहुत कुछ कह रहा हैए और जो कुछ कह रहा हैए वह सरकार के लिए अच्छा नहीं है।
पिछले दिनों वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सीण्बीण्आईण् के संदर्भ में कहा था कि देश की सबसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसी को फैसलों में ग़लती और भ्रष्टाचार में फर्क को समझना होगा। उन्होंने ष्आनेस्ट एररष् शब्द काम में लिया था यानी ईमानदार ग़लती। हो सकता है यह कहते समय उनके दिमाग में कोई खास ष्गलतीष् होए पर कुल मिलाकर इससे जो बात समझ आती हैए वह यह है कि वित्तमंत्री बचाव का एक और रास्ता सुझा रहे थे। इस तरह के बयान संदेह पैदा करते हैं। ऐसे संदेहों से सरकारों की साख कम होती हैए और ज़रूरत साख बढ़ाने की है।

सवाल उठता है कि पिछले एक साल में केंद्र सरकार ने ऐसा कौन.सा काम किया हैए जो भ्रष्टाचार के संदर्भ में उसकी साख बढ़ाने वाला होघ् चुनाव प्रचार के दौरान जिन मामलों को भ्रष्टाचार के संदर्भ में उठाया गया थाए उन्हें लेकर भी सरकार कितनी सक्रिय हुईघ् ललित मोदी कांड में भी प्रवर्तन निदेशालय में अब हरकत हो रही है। आखिर साल भर तक क्यों चुप रहा निदेशालयघ् आदर्श घोटाला हो या वाड्रा कांड हो या फिर महाराष्ट्र का सिंचाई घोटालाए साल भर में इनमें कहीं कुछ तो होता दिखाई नहीं दिया। आखिर क्योंघ् व्यापम घोटाले को लेकर भी केंद्र सरकार राज्य सरकार का बचाव ही करती रही।
स्पष्ट नीति और ईमानदार नीयत के साथ.साथ संकल्प और साहस की भी ज़रूरत होती है। सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता की रक्षा के लिए सरकार को अपने आप से पूछना होगा कि इस दिशा में उसने क्या कदम उठाये हैं। लोकपाल के मुद्दे पर पिछली सरकार की नीयत पर सवाल उठाने वाली भाजपा जब आज सत्ता में है तो इसके बारे में चुप क्यों हैघ् सूचना के अधिकार की कतर.ब्योंत क्यों हो रही हैघ्
एक बात औरए हाल ही में महाराष्ट्र में ष्चिकी.कांडष् की बात जब उठी तो सरकार ने कहा.वह इसी एक मामले की जांच नहीं करायेगीए दस साल के ऐसे सौदों की जांच की जायेगी। मतलब यह कि आज जो जांच की मांग कर रहे हैंए उनके दामन पर भी दाग़ हैं। होनी चाहिए उनकी भी जांचए पर वर्तमान सरकार के कार्यकाल में हुए कांड की जांच की मांग पर ही सरकार को दस साल के कांड क्यों याद आयेघ् पहले भी एक केंद्रीय मंत्री कह चुके हैं.बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। सवाल उठता हैए इस संदर्भ में सरकार ने अब तक बात दूर तक पहुंचाने की दिशा में क्या कार्रवाई कीघ् कहीं इस तरह की धमकियां इसलिए तो नहीं दी जातीं कि आरोप लगाने वाले चुप हो जायेंघ् अकसर हमने देखा है राजनेताओं को यह कहते कि तुम्हारी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज़्यादा मैली है। दूर तक बात ले जाने की धमकी और दूसरे की कमीज़ को ज़्यादा मैली बताने की यह रणनीतिए दोनोंए नीयत में खोट का ही संकेत देती हैं।
साफ.सुथरी सरकार और बेहतर चाल.चरित्र का दावा करने वाली पार्टी को पारदर्शी व्यवहार का प्रमाण देना होगा। उसकी बातों से नहींए उसके कामों से लगना चाहिए कि वह ईमानदारी और पारदर्शिता के पक्ष में है। इस संदर्भ में अब तक जो कुछ हुआ हैए और जो कुछ नहीं हुआ हैए वह नयी सरकार की छवि अच्छी नहीं बना रहा। छवि बनाने के लिए स्वयं को सिद्ध करना होगा। स्वयं को सिद्ध करने का मतलब है भ्रष्टाचार के बारे में ठोसए निर्ममए निर्णायक कार्रवाई। पर यह खतरा उठाये बिना सरकार और प्रधानमंत्री की नीयत पर लग रहे दाग़ नहीं धुल सकते। राष्ट्रीय हितों के लिए दलीय स्वार्थोँ की बलि देनी ही होगी। तब पूरी होगी पारदर्शिता की शर्त। सवाल नीयत का है।
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Thursday, 16 July 2015

बौद्ध विरासत के सहारे कूटनीति

बौद्ध विरासत के सहारे कूटनीति

अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों की ओर से म्यांमार के प्रति लगातार बढ़ते विरोध के चलते वहां के सैनिक शासकों का झुकाव आर्थिक और सैन्य मदद पाने की खातिर चीन की ओर होता चला गया था। जैसे.जैसे म्यांमार और साथ लगती बंगाल की खाड़ी और अंडमान सागर में उभरते चीनी अड्डों की खबरें आने लगीं वैसे.वैसे भारत की फिक्र में इजाफा होता चला गया। मैंने भी म्यांमार के वरिष्ठ मंत्री के साथ भारत की ऐसी चिंता को साझा किया था। इस पर उनका जवाब था.आप लोगों को इस बारे में फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं हैए हो सकता है कि मैं हथियार और समर्थन पाने की खातिर चीन जाऊंए लेकिन अपनी मोक्ष प्राप्ति के लिए तो मुझे आखिरकार बोधगया जाना ही पड़ेगा! कोई हैरानी नहीं जब म्यांमार एकदम अलग.थलग पड़ गया थाए तब भी उसने चीन को नौसैनिक अड्डा बनाने की इजाजत नहीं दी थी और इसकी बजाय आसियान संगठन की सदस्यता ग्रहण की ताकि उसके राजनयिक विकल्पों का विस्तार हो सके।
परंतु क्या हम अपनी बौद्ध विरासतों का फायदा पूर्व में स्थित पड़ोसी देशों के साथ सामरिक हितों को बढ़ाने में कर सकते हैंघ् क्या हम ऐसा पर्यटक गंतव्य बन सकते हैं जो न सिर्फ अमेरिका और यूरोप बल्कि लगातार समृद्ध होती हमारी पूर्वी सीमा के पार देशों से आने वाले पर्यटकों की भी मेजबानी कर पाएघ् भारत स्थित बौद्ध तीर्थस्थलों और खासकर बोधगया के बारे में व्याख्या करते हुए अमेरिका स्थित भूटानी मूल के विद्वान द्जुंग्सर जाम्यांग किहिंत्से रिनपोछे ने कहा.इस इलाके की समृद्धि की ऐतिहासिक सच्चाई कुछ भी होए लेकिन आज का अफसोसनाक यथार्थ यह है कि नेपाल की सरकार और वहां के लोगों के अलावा भारत और बिहार प्रदेश उन हजारों.लाखों तीर्थयात्रियों के लिए एक बदनाम मेजबान हैं जो वहां पर गौतम बुद्ध की शिक्षा और जीवनदर्शन के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि प्रकट करने आते हैं।
किहिंत्स आगे कहते हैं कि भारत और नेपाल ने संसार को एक सबसे कीमती विचारधारा दी थीए जिसका नाम है गौतम बुद्ध। फिर भी इन दोनों देशों ने इस असाधारण विरासत का सच्चा मोल नहीं जानाए इस पर गर्व करना तो दूर की बात है। यहां तक कि ऐतिहासिक नालंदा विश्वविद्यालय जो 1193 में आक्रांता बख्तियार खिलजी द्वारा ढहाए जाने से पहले तक तिब्बतए चीनए कोरिया और मध्य एशिया से आए बौद्ध विद्वानों का सदियों तक आशियाना हुआ करता थाए आज उसके मौजूदा प्रारूप में बौद्ध विरासत पर शिक्षा पाठ्यक्रम ही नदारद है। इससे एकदम उलट परिदृश्य चीन में हैए हालांकि वहां पर माओ युग में धार्मिक विरासतों और मान्यताओं का त्याग करने के तमाम उपाय किए गए थेए फिर भी 1970 के दशक से वहां पर बौद्ध शिक्षाओं के प्रति खुलापन पुनरू आने लगा था। अब वहां पर बौद्ध सिद्धांतों का पुनर्जागरण होने के चिन्ह दिखाई देने लगे हैं। आज चीन को अपने यहां मौजूद सबसे भव्य बौद्ध विरासत स्थलों की गिनती पर नाज है। यूनेस्को द्वारा मान्यता प्राप्त विश्व विरासत स्थलों में चीन के गांसू प्रांत की मोगाओ गुफाएंए हेनान राज्य में ग्रोट्टोए चोकिंग के पास द्जू शिलाओं पर हुई नक्काशी और लेशान की पहाड़ी का एक हिस्सा खोदकर बनाई गई बुद्ध की विशालकाय मूर्ति जो तीन नदियों के संगम का अवलोकन करती प्रतीत होती हैए इनमें शामिल हैं। चीन में बौद्ध तीर्थयात्रियोंए पर्यटकों और विद्वानों को जो उम्दा सुविधाएं मिलती हैंए उसकी तुलना भारत के घटिया और देसी तरीकों से करना बेमानी है।
थाईलैंड के शाही परिवार के सदस्य और सहयोगी जब बोधगया और अन्य बौद्ध स्थलों की यात्रा पर आए थे तो अपने देश की तुलना में वे भारत की घटिया पर्यटन सुविधाओं और आधारभूत ढांचे की कमियों को नजरअंदाज नहीं कर पाए थे। कंबोडिया के अंगकोर वाट स्थित और 12वीं सदी में बने आलीशान हिंदू मंदिर का वहां पर जितना सम्मानजनक स्थान है और उतने ही चाव से उसे सहेज कर रखा गया है जितना कि देश में मौजूद अन्य बौद्ध स्थलों को। म्यांमार के यांगोन शहर के स्वर्ण पटल जडि़त पगोडा मंदिरए मांडले और अन्य जगहों पर मौजूद 2200 बौद्ध पूजा स्थल और पगान इलाके के बौद्ध मंदिर जिनका निर्माण 9वीं और 12वीं सदी के बीच हुआ थाए इन्हें बड़े गर्व के साथ सहेज कर रखा गया है। इसी तरह की रिवायत जापानए दक्षिण कोरिया और ताईवान में भी बड़ी दक्षता से निभाई जाती है।
आज संसार भर में लगभग 60 करोड़ बौद्ध धर्मावलंबी हैं। केवल चीन में ही इनकी गिनती लगभग 22 से 24 करोड़ के बीच है। समय के साथ यह गिनती बिना रुकावट और आगे बढ़ने वाली है। हालांकि यह एक ऐसा विषय हैए जिस पर वहां की एकल पार्टी तानाशाही बड़ी चौकस निगाह रखनी चाहेगी। आखिरकार यह मूल रूप से पोलैंड से संबंध रखने वाले और ईसाइयों के सर्वोच्च धार्मिक गुरु पोप ही थेए जिन्होंने वारसा संधि के विखंडन की भूमिका बनाने का आगाज किया था और जिसके नतीजे में सोवियत संघ का विघटन हुआ था। इन परिस्थितियों के मद्देनजर यदि हम कल्पनाशीलता से आधारभूत पर्यटन ढांचे का निर्माण करें तो इससे भारत की पूर्व से संबंध बनाओ नीतियों को बढ़ावा मिलेगाए जो आगे देश में बौद्ध पर्यटन के साथ.साथ अकादमिक कार्यों में इजाफे के अलावा बुद्ध की शिक्षाओं और जीवनदर्शन से रूबरू होने वालों की संख्या बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम करेंगी।
केंद्र सरकार को चाहिए कि वह भारत को एशिया में बौद्ध पर्यटन और अध्ययन के केंद्र बिंदु के रूप में विकसित करे। भारत.नेपाल सीमा पर स्थित लुंबिनी से लेकर बोधगयाए भारहटए अमरावतीए नागरकोंडाए श्रावस्तीए संकशयए नालंदा और राजगीर जैसे विरासती बौद्ध स्थलों को आपस में सड़कए रेल और वायु मार्ग से जोड़ने के लिए निर्माण और विकास कार्य करना होगा। इसके अलावा अन्य स्मरणीय स्थलों जैसे कि सांचीए अमरावतीए अजंताए एलोराए कानहेड़ी और कारली तक पहुंचने के लिए विकसित साधन और मार्ग जुटाने पड़ेंगे। गुजरात भी अनेक बौद्ध विरासतों का घर है। म्यांमार और श्रीलंका से ऐसे हजारों तीर्थयात्री यहां आने को तैयार हो सकते हैं बशर्ते उन्हें हम अपेक्षाकृत सस्ता नौवहन और सड़क परिवहन साधन मुहैया करवा सकें।
भारत को बौद्ध तीर्थयात्रा और पर्यटन के केंद्र बिंदु के रूप में विकसित करने की खातिर अगर एशिया के पूर्व और दक्षिण.पूर्व के देशों को भागीदार बनाया जाए तो इस काम में बाहरी निवेश और मदद भी मिल सकती है। इन सबको सिरे चढ़ाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को घरेलू पर्यटन उद्योग और उनके विदेशी सहयोगियों के साथ कल्पनाशील और बड़े पैमाने के यत्न करने की जरूरत है। इन उपायों से विदेश नीति को कितना फायदा पहुंचेगाए यह स्वयंसिद्ध है। ऐसा होने पर न सिर्फ देश के बड़े हिस्से में पर्यटन उद्योग को भारी पैमाने पर बढ़ावा मिलेगा बल्कि स्थानीय लोगों को मिलने वाले रोजगार में भी काफी इजाफा होगा।
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