Thursday, 26 March 2015

कलाम साहब जैसा कोई राष्ट्रपति नहीं दिखता


कलाम साहब जैसा कोई राष्ट्रपति नहीं दिखता 


अब तक का हमारा बेहतरीन राष्ट्रपति कौन था? इस पर अगर ओपिनियन पोल हो जाए तो क्या होगा? मुझे तो कोई शक नहीं है कि उसमें डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ही विजेता होंगे। सचमुच उन्हें कोई भी हराने वाला नहीं है। उसकी वजह बिल्कुल साफ है। एक तो यह कि राष्ट्रपति भवन में अपना कॅरियर खत्म करने वाले ज्यादातर लोग अपने वक्त में नेता रहे हैं। और अपना हिंदुस्तानी समाज अपने नेताओं की बहुत ज्यादा इज्जत नहीं करता।
दूसरी वजह यह है कि डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन दोनों ही शिक्षाविद् थे। अब्दुल कलाम विज्ञानी हैं। राधाकृष्णन तो हिंदू धर्म के जबर्दस्त विद्वान थे। वह कमाल के वक्ता भी थे। अपने भाषण से लोगों को बांध कर रख देते थे। लेकिन उनके साथ एक दिक्कत थी। वह जो भी कहते थे, उसे करते नहीं थे। उनकी कथनी और करनी में अच्छी−खासी खाई थी। फिर वह भाई-भतीजावाद में ही लगे रहते थे। अपने दोस्तों का भला करने में उनका कोई सानी नहीं था। उन्होंने ऐसे−ऐसे लोगों को आगे बढ़ाया, जो उसके लायक कहीं से नहीं थे। जाकिर हुसैन भी जाने−माने विद्वान थे। वह खूब पढे़−लिखे थे। लेकिन उन्होंने राष्ट्रपति रहते कुछ खास काम नहीं किया। वह तो राष्ट्रपति के लिए जरूरी कामों के अलावा कुछ भी नहीं कर सके।
अब्दुल कलाम की पहचान तो अंतरिक्ष विज्ञानी के तौर पर थी ही। उसी मशहूर विज्ञानी की छवि लेकर वह राष्ट्रपति भवन में आए थे। तब तक उनके काम की जबर्दस्त सराहना हो चुकी थी। देश के तमाम बड़े पुरस्कार उन्हें मिल चुके थे। उन्हें 1981 में ही पद्म भूषण मिल चुका था। 1991 में पद्म विभूषण और 1997 में देश का सबसे बड़ा पुरस्कार भारत रत्न। लेकिन राष्ट्रपति भवन आकर कलाम साहब चुप होकर नहीं बैठ गए। वह आलीशान राष्ट्रपति भवन में ही नहीं रम गए। वहां पहुंच कर वह अलग तरह का काम करना चाहते थे। सो, वह अपने हिंदुस्तानी लोगों का हौसला बढ़ाने के काम में जुट गए। वह देशभर में घूम−घूम कर लोगों की हौसला अफजाई करने लगे। उनसे बड़े सपने देखने की गुजारिश करने लगे।
उनकी जब पहली किताब आई थी, तो अपने कॉलम में मैं उसकी धज्जियां उड़ाना चाहता था। लेकिन जैसे−जैसे उस किताब को पढ़ता गया, मेरा इरादा बदलने लगा। तब उसकी धज्जियां उड़ाने के बजाय तारीफ करने लगा। फिर मैंने उनकी दूसरी किताब देखी- 'स्पिरिट ऑफ इंडियाः रिफ्लेक्टिंग द कंसर्न्स, ऐस्पिरेशन्स ऐंड ड्रीम्स ऑफ द इंडियन यूथ।' यह किताब राजपाल प्रकाशन से आई थी। यह सवाल−जवाब के अंदाज में है। इसमें देश भर के युवाओं के सवाल और कलाम साहब के जवाब हैं।
किताब की शुरुआत में ही कुछ लाइनों में उनका मकसद साफ हो जाता है। 'मैं कर सकता हूं। हम कर सकते हैं। हिंदुस्तान कर सकता है।' अगर अपने देश के 54 करोड़ युवा इस जज्बे के साथ काम करें, तो हिंदुस्तान को विकसित देश बनने से कोई नहीं रोक सकता। वह कुल मिलाकर अपने देश को बड़ा बनाने का सपना हकीकत में बदलते देखना चाहते हैं।

मैं उनकी सोच की एक और मिसाल देना चाहता हूं। उनसे एक सवाल अपने यहां जाति और समुदाय से ऊपर नहीं उठ पाने पर था। यह समाज कैसे उस सबसे ऊपर उठेगा, उसे लेकर उनकी सोच बिल्कुल साफ है। उनके जवाब में उसकी झलक मिलती है, 'सीमाओं के बिना एक समाज तभी बन सकता है, जब हमारा दिल और दिमाग खुला हो। वह सीमाओं में न बंधे। उसमें जाति और समुदाय की कोई सीमारेखा न हो। इस जाति और समुदाय की बुनियाद पर खड़े होने में हमारे समाज को सैकड़ों साल लगे थे। अब हमारे समाज को बदलने के लिए काफी कुछ करना होगा। प्यार, धीरज, बेहतर कानून−व्यवस्था और सीधा−सच्चा इंसाफ उसे बनाने के औजार हो सकते हैं। उसके लिए हमें ऐसे लोगों की जरूरत है, जो देश की सेवा कर सकें। जहां दुआ के लिए हिले होंठ से ज्यादा सेवा करने वाले हाथ को तवज्जो दी जाए। तभी यह समाज तमाम सीमाओं के पार जा सकता है।'

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