खानदानी डेमोक्रेसी
एक हैं लल्ला। गोरे−चिट्टे लल्ला। यह उन्हीं का किस्सा है। आप पूछेंगे मुझे उनका किस्सा कैसे मालूम? यह किस्सा तो आपको भी मालूम होना चाहिए। अगर इस देश के सबसे गोरे−चिट्टे खानदान का किस्सा आपको नहीं मालूम तो शायद यह सवाल उठ सकता है कि क्या आप इस देश में रहने के काबिल हैं? जी हां, वह देश का सबसे चिट्टा खानदान है। सबसे प्रतिष्ठित भी। आप अगर इस खानदान को प्रतिष्ठित नहीं मानते तो आपको भी कौन मानता है? उनकी प्रतिष्ठा पर सवाल उठाने की आपकी औकात भी है? इस देश में सब कुछ अपनी औकात देख कर करना चाहिए।
तो, गोरे−चिट्टे इस खानदान के चिकने−चुपड़े लल्ला जी का चिट्टापन इतना आकर्षक है कि जो भी उनका चिट्टापन देखता है, देखता ही रह जाता है। उनके दूध जैसे चिट्टे गालों पर जो मोहक गड्ढे पड़ते हैं, उन गड्ढों किसी का भी मन डूबने को करेगा। कहते हैं, इन चिट्टे गालों के स्वामी की माताजी बचपन में इन गालों को सहला कर यह लोरी गाती थीं− ''लल्ला−लल्ला लोरी / दूध की कटोरी /दूध में बताशा / लल्ला करे तमाशा।''
उनकी लोरी का स्वर और उच्चारण किसी इतने गोरे खानदान का ही हो सकता है। जब भी माताजी अपने चिट्टे स्वर में यह लोरी गातीं, लल्ला जी बड़े जोश में हाथ−पांव हिलाने लगते। उनको हाथ−पांव हिलाते देख कर माताजी का स्वर और भी चिट्टा हो जाता। बचपन से ही लल्ला जी जानते थे कि देश में उनके जैसे चिट्टे हाथ−पांव किसी के नहीं हैं। आखिर, देश के सबसे चिट्टे खानदान के वारिस वे कोई ऐसे ही थोड़े ही बन गये थे। उनके गोरे−चिट्टे गालों में पड़ने वाले गड्ढे तब और भी मोहक लगने लगे, जब वे अपने चिट्टे गालों पर छितरायी सी दाढ़ी उगाने लगे।
यह छितरायी−सी दाढ़ी पार्टी के लोगों को याद दिलाती रहती थी कि पार्टी पर मालिकाना हक पाने के लिए इतने गोरे गालों पर छितरायी दाढ़ी होना ज़रूरी है। हर पार्टी में कुछ पूंछ किस्म के लोग भी होते हैं। ये पार्टी के सबसे पारखी लोग होते हैं। वे अपने पूंछ होने का फ़ायदा उठाना जानते हैं। ये लोग न तो पार्टी तोड़ सकते हैं, न छोड़ सकते हैं। वैसे भी, इतनी पुरानी पार्टी को तोड़ने से कोई फ़ायदा नहीं होता, पार्टी की प्रतिष्ठा पार्टी के पास ही रहती है। नयी पार्टी को ज़्यादा से ज़्यादा कुछ फ़र्निचर मिल जाता है। फ़र्निचर का हर सोफ़ा, कुर्सी या स्टूल समझता है कि नयी पार्टी उसी के दमखम पर बनायी गयी है। राजनीति के फ़र्निचर को ऐसे मुगालते में रहने की आदत होती है।
अगर नेताओं को ऐसे मुगालते न हों, तो राजनीति में की नयी पार्टियां ही न बनें। ज़्यादातर नेताओं ने समझ लिया है कि अगर नयी पार्टी बनानी है, तो मालिकाना हक वाली बनानी चाहिए। और, यह बात पार्टी बनाने से पहले ही पार्टी के लोगों पर स्पष्ट होनी चाहिए। डेमोक्रेसी मालिकाना हक नहीं देती। लेकिन वह नेताओं को मालिकाना हक हासिल करने से रोक भी नहीं सकती। अगर, नेता शातिर किस्म का हो तो वह डेमोक्रेसी का इस्तेमाल भी डिक्टेटरशिप की तरह कर सकता है। और, डिक्टेटरशिप तो अकसर मालिकाना या खानदानी ही होती है।
वैसे हमारे देश में डेमोक्रेटिक मूल्य गोरे लोग ही स्थापित करके गये थे। लेकिन, जब हम गोरों से आज़ाद हो सकते हैं, तो उनके द्वारा स्थापित डेमोक्रेटिक मूल्यों से क्यों नहीं? अगर हम डेमोक्रेटिक मूल्यों की कद्र करते तो हमारे यहां हमेशा से डेमोक्रेसी ही होती न! अब, हमारा देश खानदानी डेमोक्रेसी के विकास की राह पर चल पड़ा है। जी हां, खानदानी डेमोक्रेसी! यह हमारे देश की खास विशेषता है या फिर डिक्टेटरशिप की!
हिंदुस्तान की राजनीति में संन्यास भी एक तमाशा बन गया है। नेता जब कुर्सी से धकेल दिया जाता है तो उसे संन्यास कहता है। पर जिसे कुर्सी के नजदीक रहने की आदत होती है वह कुर्सी से कभी दूर नहीं होता। कुर्सी से उतरता है तो कुर्सी के पाये पकड़ लेता है। भले ही कुर्सी की पूंछ बन कर रहे, पर रहेगा कुर्सी के पास ही।
prabhasakshi
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