Tuesday, 31 March 2015

राजनीति में घोड़ा लोग का है बड़ा महत्व

राजनीति में घोड़ा लोग का है बड़ा महत्व


आजकल राजनीति में घोड़ लोगें का महत्व भोत बढ़ गएला है। जानकार लोग बोलता है कि जनहित पार्टी का स्वामी ने अपना साथी लोग को बोला है− राजनीति में अपना पार्टी का पकड़ बनाये रखने का वास्ते दूसरा पार्टी से कुछ घो़ड़ा फोड़ कर लाओ। जी हां, राजनीति अब घुड़साल में होने लगा है। नेताश्री ने साथी लोग को बोला− देखो, वो पार्टी बिखर रहा है, उसका छह घोड़े फूटने का वास्ते लिए तैयार है− वो लोग को जा कर फुसलाओ। मांगता होवे तो अपना सरकार में मंत्री पद देने का वादा बी कर देना। कुछ मंत्री वो लोग का बन जाएंगा, बाकी खुर्ची तो अपना पास रहेंगा। वो घोड़ा लोग को फुसलाना आसान होएंगा, कारण, वो खुद फूटने का वास्ते तैयार बैठा है। जी हां, अबी राजनीति घुड़साल में होने लगा है।
उनका पार्टी तो खैर पहले से ईच तबेला था। जिधर देखो, उधर घोड़ा लोग अलग−अलग सुर में हिनहिनाता है। सबी को अपना हिनहिनाना जास्ती अच्छा लगता है। वो साथी लोग का हिनहिनाने का तारीफ़ तो करता है, लेकिन अपना हिनहिनाने का जास्ती। आज ये समझना मुश्किल हो गया है कि घोड़ा लोग में से कौन बेहतर नियम−कानून बघारता है और कौन आदर्श का बात जास्ती करता है। पॉलिटिकल साइंस एक ऐसी अनोखा चीज है जो घोड़ा लोग को बी दार्शिनक बना देता है हैं।
जब से राजनीति में हॉर्स−ट्रेंडिग नाम का गतिविधि चालू हुएला है, राजनीति को घुड़साल बनाने पर कम्मर कस तुला नेता लोग आदर्श, जनहित और देशहित जोर−जोर से हिनहिनाने लगा है। ये घुड़साली नेता दूसरे नेता लोग को गधा समझता है। ये लोग भूल जाता है नेता लोग में बुनियादी फरक जास्ती नहीं होता। इसी कारण बहुत−सा नेता लोग को घुड़साल बनाने में जुट गया है। नामचीन हास्य सम्राट स्वर्गीय पंडित गोपाल प्रसाद व्यास ने एक बार नेता लोग का तुलना गधे से कर दिया था। राजनीति ने तुरंत उनको पकड़ कर सज़ा देने के लिए पेश करने का मांग कर दिया था। लेकिन, स्वर्ग का वापसी का टिकट नहीं मिलता। वरना, पैरिस, लंदन, स्विट्ज़रलैंड का माफिक नेता लोग स्वर्ग का सैर बी कर आता।
घोड़ लोग जनहित में हिनहिना रहा है, देशहित हिनहिना रहा है, अपना− अपना घुड़साल चला रहा है। और बाकी जो कुछ वो लोग आम तौर पर करता है, सो तो कर ईच रहा है। राजनीति ने ऐसा अेद्य दीवार अपना चारों बाजू खड़ा कर लिया है कि जनता सिरफ़ घुड़साल का नाटक देखने को मजबूर है। सी दल में घुड़साल ह। सी दल, दूसरा दल का घोड़ा खोल कर ले जाने का वास्ते लालायित है। लगता है अब किसी घोड़े को कोई आदर्श याद नहीं आता। वो लोग ने समझ लिया है, जब हिनहिनाना ईच है तो इधर हिनहिनावे या उधर, क्या फरक पड़ता है!
घोड़ा लोग का खासियत ये होता है कि उनका रंग अलग−अलग हो सकता है, चेहरा अलग−अलग हो सकता है, वो अलग−अलग तरह का टोपी पहनता है, लेकिन रहता घोड़ा ईच है। सब एक दूसरे का हिनहिनाना समझता है। जब कोई गैर घोड़ा ऐतराज करता है तो वो लोग बोलता है− ''तुम हमारे कहने का मतलब नहीं समझा। ''अगर, सामने वाला बोले कि कैसे नहीं समझा?'' तो जवाब मिलेंगा, ''कारण तुम घोड़ा नहीं है। तुमको पता नहीं है घोड़ा लोग का भाषा में व्यंजना बहुत होता है −देश को लेकर, देशहित को लेकर, जनहित को लेकर!''

राजनीति का किसी घोड़ा को फूटने में कोई ऐतराज नहीं है। हर घोड़ा बस इतना जानना चाहता है कि जिधर बी वो जाएंगा, उधर उसको रातब कैसा मिलेंगा? अपना मरजी से हिनहिनाने का आज़ादी होएंगा या नहीं? उसकी पीठ खुजाया जाएंगा या नहीं? घोड़ा लोग को आरामदेह घुड़साल मांगता। आप मुस्कुरा रहा है ! देखिए, कहीं घोड़ा लोग बुरा न मान जावे ! 






source-Prabhasakshi

महावीर जयन्ती


महावीर जयन्ती का पर्व


भगवान महावीर स्वामी महावीर जयन्ती का पर्व महावीर स्वामी के जन्म दिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को मनाया जाता है। भगवान महावीर स्वामी, जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे जिनका जीवन ही उनका संदेश है। उनके सत्य, अहिंसा, के उपदेश एक खुली किताब की भाँति है। जो सत्य आम आदमी को कठिन प्रतीत होते हैं। महावीर ने एक राजपरिवार में जन्म लिया था। उनके परिवार में ऐश्वर्य, धन-संपदा की कोई कमी नहीं थी, जिसका वे मनचाहा उपभोग भी कर सकते थे किंतु युवावस्था में क़दम रखते ही उन्होंने संसार की माया-मोह, सुख-ऐश्वर्य और राज्य को छोड़कर यातनाओं को सहन किया। सारी सुविधाओं का त्याग कर वे नंगे पैर पैदल यात्रा करते रहे। परिचय मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले महापुरुष भगवान महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पूर्व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी तिथि को बिहार में लिच्छिवी वंश के महाराज 'श्री सिद्धार्थ' और माता 'त्रिशिला देवी' के यहां हुआ था। जिस कारण इस दिन जैन श्रद्धालु इस पावन दिवस को 'महावीर जयन्ती' के रूप में परंपरागत तरीके से हर्षोल्लास और श्रद्धाभक्ति पूर्वक मनाते हैं। बचपन में भगवान महावीर का नाम वर्धमान था। जैन धर्मियों का मानना है कि वर्धमान ने कठोर तप द्वारा अपनी समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर जिन अर्थात विजेता कहलाए। उनका यह कठिन तप पराक्रम के सामान माना गया, जिस कारण उनको महावीर कहा गया और उनके अनुयायी जैन कहलाए। वर्धमान नाम जन्मोत्सव पर ज्योतिषों द्वारा चक्रवर्ती राजा बनने की घोषणा की गयी। उनके जन्म से पूर्व ही कुंडलपुर के वैभव और संपन्नता की ख्याति ‍दिन दूनी रा‍त चौगुनी बढ़ती गई। अत: महाराजा सिद्धार्थ ने उनका जन्म नाम 'वर्धमान' रखा। चौबीस घंटे दर्शनार्थिंयों की भीड़ ने राज-पाट की सारी मयार्दाएँ तोड़ दी। वर्धमान ने लोगों में संदेश प्रेरित किया कि उनके द्वार सभी के लिए हमेशा खुले रहेंगे। वीर नाम जैसे-जैसे महावीर बड़े हो रहे थे, वैसे-वैसे उनके गुणों में बढ़ोतरी हो रही थी। एक बार जब सुमेरू पर्वत पर देवराज इंद्र उनका जलाभिषेक कर रहे थे। तब कहीं बालक बह न जाए इस बात से भयभीत होकर इंद्रदेव ने उनका अभिषेक रुकवा दिया। इंद्र के मन की बात भाँप कर उन्होंने अपने अँगूठे के द्वारा सुमेरू पर्वत को दबा कर कंपायमान कर दिया। यह देखकर देवराज इंद्र ने उनकी शक्ति का अनुमान लगाकर उन्हें 'वीर' के नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया।

 सन्मति का नाम
बाल्यकाल में महावीर महल के आँगन में खेल रहे थे। तभी आकाशमार्ग से संजय मुनि और विजय मुनि का निकलना हुआ। दोनों इस बात की तोड़ निकालने में लगे थे कि सत्य और असत्य क्या है? उन्होंने ज़मीन की ओर देखा तो नीचे महल के प्राँगण में खेल रहे दिव्य शक्तियुक्त अद्‍भुत बालक को देखकर वे नीचे आएँ और सत्य के साक्षात दर्शन करके उनके मन की शंकाओं का समाधान हो गया है। इन दो मुनियों ने उन्हें 'सन्मति' का नाम दिया और खुद भी उन्हें उसी नाम से पुकारने लगे।

41 साल बाद यहां आते हैं हनुमानजी

41 साल बाद यहां आते हैं हनुमानजी

 संकलन : DEVESH Tiwari









 श्रीराम। सात महामानव पिछले कई हजार वर्षों से आज भी जीवित हैं उनमें से ही एक है श्री हनुमानजी। हनुमानजी इस कलयुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। जब कल्कि रूप में भगवान विष्णु अवतार लेंगे तब हनुमान, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, विश्वामित्र, विभीषण और राजा बलि सार्वजनिक रूप से प्रकट हो जाएंगे। 14 वर्ष के वनवास में राम कहां-कहां रहे? उक्त सातों महामानवों ने समय-समय पर अपने धरती पर होने का सबूत दिया है। एक ओर जहां अश्वत्थामा के कुछ जगह पर आने और उन्हें देखे जाने की चर्चा है तो कुछ जगह पर हनुमानजी भी कुछ लोगों को नजर आए हैं। इसी तरह परशुराम और विभीषण को भी देखे जाना का लोग दावा करते हैं। ताजा मामले में एक वेबसाइट ने दावा किया है कि एक ऐसी जगह है जहां हनुमानजी प्रत्येक 41 वर्ष बाद आते हैं और कुछ दिनों तक वहां रहने के बाद वापस चले जाते हैं। सवाल यह उठता है कि कहां चले जाते हैं? प्रत्येक 41 वर्ष बाद जहां आते हैं उसको बताने से पहले जानिए अगले पन्ने पर कि आखिर कहां चले जाते हैं हनुमानजी।

Monday, 30 March 2015

गौरैया बचाओ अभियान में बच्चों ने की पहल



२० मार्च “ विश्व गौरैया दिवस “ आज हे... कानपूर शहर के इन बच्चों को गौरैया बचाओ अभियान के बारे में पता चला और इन्होने इस पंछी के प्रति बहुत जिम्मेदारी निभाते हुए स्वयं तो इसकी मदत करने की ठानी ही बल्कि आस पास के लोगों के पास जाकर प्रत्येक बच्चे ने १० से अधिक घोसले लोगो के सहयोग से अपनी लोकेलिटी में लगवा कर गौरैया की मदत करने का संकल्प दिलाया. इस दौरान इन बच्चों को कई तरह की नकारात्मक बातों का सामना करना पड़ा... जैसे, अरे मेरे घर में घोसला लगेगा तो चिड़िया गंदिगी बहुत फैलाएगी... अरे वो दिन भर शोर मचाएंगी... , ये चिड़िया के चक्कर में क्यों पड़े हो पढाई पर ध्यान दो.. किन्तु इन बच्चो को ये पता था की वो जो कुछ इस पंछी के लिए कर रहे हैं वो वक़्त की जरूरत हे. अपने प्रयासों से इन्होने लकड़ी के गौरैया के घरौंदों ( sparrow shelters ) को लोगों तक पहुचाया और इन्हें १० फीट से अधिक ऊंचाई पर सुरक्चित तंग्वाने में मदत की . साथ ही सुरछित ऊंचाई पर दाना पानी रखने को बताया ताकि बिल्लियाँ घात न लगा सकें. दिसंबर में लगवाए गए अधिकतर घरौंदों में आज गौरैया अपने घोसले बना चुकी हे.

 हेमंत विहार, बर्रा १ में रहने वाली स्रष्टि कटियार १४ वर्ष की है और करम देवी मेमोरियल में दसवीं क्लास में पड़ती हैं, इन्होने अपने मित्रो आरती और मानसी की टीम बना कर २५ जोड़े गौरैयों को सुरचित स्थान रहने को उपलब्ध कराया. इन्होने कहा की गौरैया पंछी एक मात्र ऐसा पंछी हे जिसे घरेलु चिड़िया कहा जाता है. क्योंकि यह शुरुवात से ही इंसानों के साथ उनके घरों में अपने घोसले बनती आई हे. अनाज, रोटी , चावल, , काकुन आदि उसी हमारे कारण मिल जाता था. इसीकारण यह पुरे देश देश में हर जगह सकदों के झुण्ड में पाई जाती थी. हमारी सुबह इसकी चहचहाहट के साथ शुरू होकर इसकी चहचाहट के साथ शाम ख़त्म होती थी. पर आज यह प्रदुषण , पेड़ों और छुपने वाली झाड़ियो में कमी , हमारे आवासों के निर्माण के तरीको में आये बदलाव जैसे दीवालो में सूराखो का न होना, छप्परो का प्रोग ख़त्म होना.. और मोबाइल टावर रेडिएशन के कारण ९०% से अधिक ख़त्म हो चुकी है. हम सभी को यह बहुत प्यारी थी और इसे हम पर बहुत भरोसा था. पर हमने भी इसकी जरूरतों पर ध्यान देना बंद कर दिया. हमारे घर घरेलू चिड़िया के घर हुआ करते थे किन्तु हमने उनसे वही छीन लिया. अब उसकी जरा से गंदिगी जैसे तिनके आदि भी हम अपने घरों की टाइल्स , संगमरमर पर गिरना बर्दास्त नही कर पाते और इस बेचारे पंछी को घोसला लगाने से रोक देते हैं. जिसके कारण इसे घर से अलग किसी असुराच्चित जगह पर घोसला बनाना पड़ता हे . हर चार माह में ३-५ अंडे देने के बावजूद सालाना इनकी आबादी ५% - १५% की रफ़्तार से गिर रही हे जबकि अगर हम इनकी सुरछा करने लगें तो इनकी आबादी ३ गुना कम से कम एक वर्ष के भीतर ही बड सकती हे.. मार्च और अप्रैल में ये पंछी सर्वाधिक घोसले बनता हे. हमें गौरिया को अपने मन में वापस जगह देनी होगी.. बाकी समस्यां तो फिर अपने आप समाप्त हो जाएँगी...

 बर्रा २ में रहने वाले अर्पण कान्यकुब्ज ११ वर्ष के हैं और PSVN स्कूल की छठी क्लास में पड़ते हैं इन्होने बताया की दुर्गा देवी रोड , जवाहर नगर में रहने वाली आनंदिता सिंह ११ वर्ष की है और महाराणा प्रताप में छठी क्लास में पड़ती हैं, इन्होने बताया की .... गौरैया के छोटे बच्चे अक्क्सर कौवों के शिकार बनते हैं. चुकी अब गौरैयों को अक्सर मजबूरी में हमारे घरो से दूर या घरों में ऐसी जगह पर घोसले बनाने पड़ते हैं जो आसानी से कौवों की पहुच में होते हैं. चुकी गौरैया के छोटे बच्चे घोसलों में या पहली दूसरी बार घोसला छोड़ते वक़्त बहुत शोर करते हैं जिससे की कौवों और अन्य परभछियों का ध्यान इन पर जाता हे. कौवे या बाज़ आसन पहुच वाले इन घोसले में जाकर या उड़ान के वक़्त मौका पाकर इन बच्चों को आसानी से मार देते हैं.


 अवधपुरी में रहने वाले शौर्य त्रिवेदी १२ वर्ष के है और प्रभात पब्लिक काकादेव में सातवी क्लास में पड़ते हैं, इन्होने बताया की .... हम खुद या कारपेंटर की मदत से ऐसे सुरस्चित घर बनवा सकते हैं जिनपर कौवे और बिल्लियाँ आदि बेअसर हो . ध्यान देने की बात यह हैं के ऐसे घर में गौरैया के अन्दर जाने का रास्ता या व्यास १.५ इंच या पौने दो इंच से ज्यादा न हो. घरौंदे की लम्बाई और चौड़ाई ६ * ६ इंच व ऊंचाई ८ इंच रक्खी जा सकती हे. चिड़िया के घोसले में अन्दर जाने वाला गोल सुराख़ तले से ५ इंच ऊपर रखा जाना चाहिए . छोटे सुराख़ के कारण कोई अन्य परभछी उसके अन्दर नही जा सकेगा. इस घरौंदे को छज्जे या बालकनी के नीचे पंखे हे बहुत दूर लगाना चाहिए ताकि बारिश और धूप के प्रभाव से घरौंदे को बचाया जा सके . इस प्रकार हम प्रत्येक वर्ष गौरैया के १०-१५ नवजात बच्चो को बेवजह, समय से पहले मरने से बचा सकेंगे. जाजमऊ में रहने वाले हम्माद ११ वर्ष के है और वीरेन्द्र स्वरुप कैंट में छठी क्लास में पड़ते हैं, इन्होने बताया की ....

 पेड़ पौधों की अनावश्यक कटाई और अज्ञानतापूर्ण बेवजह छटाई से छोटी चिड़ियों के छिपने के स्थान नही बचते हैं जिसके कारण वो और उनके बच्चे आसानी से कौवे बिल्लियों आदि के शिकार बन जाते हैं. क्योंकि ये चिड़ियाँ बहुत छोटी और डरपोक किस्म की होती हैं इसीलिए इन्हें बोगन बलिया, कनेर, नीबू, मौसम्मी, सहतूत , बेर , मालती की बेल जैसे झाड छुपने में मदत करते हैं . इन जैसी छोटी चिड़ियों की मदत करने के लिए इस प्रकार के पेड़ों को हमें जहा संभव हो वह लगाना और पलना पोसना चाहिए ताकि इन्हें भोजन, प्राण वायु और सुरछा मिल सके, ताकि इनकी संक्या में वृधि हो सके..

Saturday, 28 March 2015

राधा के बारे में ये बात कम ही लोगों को पता है


राधा के बारे में ये बात कम ही लोगों को पता है


राधा का नाम भगवान श्रीकृष्ण से अलग नहीं किया जा सकता है। इसलिए कहते हैं जहां राधा नहीं है वहां कृष्ण हो नहीं सकते, लेेकिन भगवान कृष्ण से संबंधित प्राचीन प्रमाणिक साहित्य में राधा का नाम ही नहीं है। महाभारत और श्रीमद् भागवत जो कि श्रीकृष्ण भक्ति के आधार ग्रंथ माने गए हैं में राधा नहीं है। भागवत में श्रीकृष्ण की गोपियों के नामों मे एक नाम अनुराधा जरूर आता है, लेकिन राधा यहां भी गायब है। विद्वानों की मन्यता है राधा का नाम कृष्ण से जयदेव के गीत गोविंद की रचना के बाद जुड़ा और फिर अभिन्न हो गया।

यह भी बताया जाता है कि कृष्ण के जीवन में राधा थी ही नहीं। वही गीत गोविंद के बाद ही चर्चा में आई और देखते ही देखते प्रथम पूज्य हो गई। राधा का नामकरण सांख्य दर्शन के आधार पर हुआ, माना जाता है। जिसका अर्थ धारा से लिया गया है। जल की धारा वह होती है। जो मूल पात्र से अलग हो जाती है। भगवान के मूल तत्व से अलग लोग धारा है और जो मूल की ओर लौट जाएं वे राधा हो जाते हैं। इस अर्थ में राधा वह है जो अपनी यात्रा भगवान की ओर करती है। इस अर्थ में राधा भगवान के उतना ही निकट है जितनी की अभिन्न भक्तों की दृष्टि और भाव में है।

Friday, 27 March 2015

स्वास्थ्य योजना के फंड में कटौती करेगी मोदी सरकार





स्वास्थ्य योजना के फंड में कटौती करेगी मोदी सरकार

महत्वाकांक्षी हेल्थ केयर योजना पर 5 सालों में करीब 1,100 अरब रुपये की अनुमानित लागत आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस योजना के बजट में भारी कटौती करने को कहा है। ध्यान रहे कि पिछले महीने मोदी सरकार द्वारा पेश किए गए आम बजट में सोशल सेक्टरों के लिए केंद्रीय फंड का प्रस्ताव बहुत ही कम रखा था।

पिछले साल स्वास्थ्य मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ मिलकर यूनिवर्सल हेल्थ केयर पर पॉलिसी का मसौदा तैयार किया था। नैशनल हेल्थ अश्योरेंस मिशन नाम की इस योजना में भारत के 1.2 अरब लोगों को गंभीर बीमारियों के लिए मुफ्त दवा, जांच सेवा एवं इंश्योरेंस प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस योजना को अप्रैल 2015 से क्रियान्वित करने का प्रस्ताव रखा था और अक्टूबर में इस योजना पर 4 सालों तक आने वाला खर्च करीब 1,500 अरब रुपये बताया था।

सूत्रों ने बताया कि जनवरी में पीएम मोदी के समक्ष जब इस परियोजना को पेश किया गया तो कटौती के बावजूद 5 सालों में इस पर होने वाले खर्च की राशि करीब 1,100 अरब रुपये बताई गई। यह अनुमानित लागत फिर भी ज्यादा थी इसलिए इस कार्यक्रम को मंजूरी नहीं दी गई। अधिकारियों ने बताया कि स्वास्थ्य मंत्रालय से पॉलिसी में सुधार करने के लिए कहा गया है लेकिन इस पर काम शुरू होना अभी बाकी है।

इस बारे में एक स्वास्थ्य अधिकारी ने बताया कि अधिकारियों को इस बात से अवगत कराया गया है कि भारत के वित्तीय संसाधन पर अधिक बोझ है। यह जानकारी एक अधिकारी ने दी जो स्वास्थ्य मंत्रालय में तो नहीं हैं, लेकिन उन्होंने उस मीटिंग में शिरकत की थी जिसमें पीए मोदी भी उपस्थित थे। जनवरी में मीटिंग संपन्न हुई और इसमें हुई चर्चा को सार्वजनिक नहीं किया गया था। चर्चे की संवेदनशीलता को देखते हुए सभी सूत्रों ने अपना नाम लिखे जाने से मना कर दिया।

सबसे बड़ी बात यह है कि मोदी सरकार ने पिछले साल चुनाव के दौरान वादा किया था कि स्वास्थ्य सेक्टर को उच्च वरीयता देंगे और युनिवर्सल हेल्थ अश्योरेंस प्लान बनाने का वादा किया था। उन्होंने पूर्व की यूपीए सरकार द्वारा शुरू की गई स्वास्थ्य स्कीमों को लोगों की बढ़ती हुई चिकित्सीय मांग को पूरा करने में असफल बताया था। लेकिन, अब जिस तरह से वह इस योजना के फंड में कटौती करने की मांग कर रहे हैं, उससे इस प्रोग्राम को प्रभावित होने की आशंका है।

क्या है प्रोग्राम

इस स्वास्थ्य योजना का ड्राफ्ट पीएम कार्यालय और विशेषज्ञों की एक कमिटी से परामर्श के बाद तैयार किया गया था।। विशेषज्ञों की कमिटी में वर्ल्ड बैंक के भी एक एक्सपर्ट शामिल थे। इस प्रस्ताव में उन बीमारियों को भी इंश्योरेंस के दायरे में लाने की बात कही गई, जिनके इलाज पर काफी खर्च होता है और गंभीर बीमारी होती है जैसे हार्ट सर्जरी या शरीर के किसी अंग का काम नहीं करना। दो सरकारी अधिकारियों ने बताया कि इस लाभ को योजना से वापस ले लिया जाएगा।

source: NBT

Thursday, 26 March 2015

युवाओं में मंहगे उपहारों की बढ़ती ललक





युवाओं में मंहगे उपहारों की बढ़ती ललक 


कालेज में युवाओं की मस्ती। बस पूछिए मत। पढ़ाई के दौरान दोस्ती और प्यार तो अब आम बात हो गई है। अगर आपने किसी को मित्र बना ही लिया है तो उपहारों का लेन−देन तो शुरू हो ही चुका होगा। फिर प्यार में उपहार की कीमत कोई मायने नहीं रखती। देसी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस हकीकत को अच्छी तरह समझ चुकी हैं। उन्होंने महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक बाजार का मायाजाल बुन डाला है। बाजार की चकाचौंध से प्रभावित आज के युवा जेब की परवाह किए बिना साथी को उपहार देना चाहते हैं।
दरअसल उपहार के पीछे कोमल भावनाएं गुम हो गई हैं। अब युवा उपहार देते समय अपनी आर्थिक ताकत और प्रभुत्व प्रदर्शन करते है। लेकिन क्या सिर्फ उपहार से ही तय होता है कि कोई आपसे कितना प्यार करता है? जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह या फिर प्यार जताने का कोई भी मौका, प्रियजन हमेशा से ही सामर्थ्य अनुसार उपहार देते आए हैं। अगर बदलते दौर के साथ युवजनों में भी ट्रेंड बदला है। दरअसल उपहार अब भावनाएं जताने के पर्याय बन गए हैं।
किशोर अवस्था में उपहारों को लेकर लड़के मनोवैज्ञानिक दबाव में रहते हैं। खासतौर से जब किसी लड़की को उसके जन्मदिन या किसी और मौके पर कोई भेंट देनी हो। फूल देना तो आज भी चलन में है मगर इसके साथ और क्या दें इसको लेकर उनके मन में उधेड़बुन चलती रहती है। क्योंकि उनको लगता है सिर्फ फूल देना ही काफी नहीं। एक स्कूल के छात्र रोहित ने कहा कि पिछले वैलेंटाइन डे पर मैंने अपनी गर्लफ्रैंड को उपहार देने के लिए महीने भर की पूरी पाकेट मनी खर्च कर दी थी।
एक कालेज छात्र अमित ने कहा कि मैं अपनी महिला मित्र को जन्मदिन पर 'टैडी बियर' जैसा कुछ देना चाहता था मगर लगा कि इसके बजाय सोने का हार देना ज्यादा अच्छा रहेगा। इसीलिए वही खरीद कर दे दिया। यह अलग बात है कि इस पर पहले के बचाए काफी रुपये खर्च हो गए, मगर प्यार से बढ़ कर यह कुछ भी नहीं है।

दरअसल कंपनियों ने बाजार में उपहारों की इतनी रेंज उतार दी है कि अब तय करना मुश्किल है कि खास मौकों पर क्या दिया जाए। हरेक की जेब के हिसाब से हर अवसर के लिए उपहार बाजार में उपलब्ध है। रोहिणी स्थित एक निजी प्रबंध संस्थान के एक छात्र विनीत ने बताया कि बाजार में इतने उपहार है कि क्या खरीदें, यह फैसला करना मुश्किल हो जाता है। सस्ता उपहार देना अच्छा नहीं लगता लिहाजा कई बार महंगे उपहार खरीद चुका हूं। कई युवा भ्रम में रहते हैं। उन्हें लगता है कि महंगे उपहार की ही कद्र होती है। मगर इनमें कुछ अपवाद भी होते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि दिखावे के कारण महंगे उपहार खरीदने की युवाओं में होड़ लगी रहती है। बेहतर तो यह है कि मित्र को महंगा उपहार देने की बजाय उसे ऐसी चीज दी जाए जो उसके काम की बजाय उसे ऐसी चीज दी जाए जो उसके काम आए जैसे उसकी पसंद के जूते या सैंडल या फिर कोई अच्छी सी परफ्यूम। गिफ्ट वाउचर भी दिए जा सकते हैं। किसी बड़े रेस्तरां में डिनर के बजाय कोई अच्छा पर्स दे दें तो वह कहीं ज्यादा बेहतर होगा। महंगे उपहार दे ही रहे हैं, तो वे ऐसे होने चाहिए जो दोस्त के उपयोग में आए, वरना ऐसी चीज का क्या फायदा जिसमें आपके पैसे भी खर्च हो और वह घर के किसी कोने में या मेज की दराज में पड़ा रहा जाए।

कलाम साहब जैसा कोई राष्ट्रपति नहीं दिखता


कलाम साहब जैसा कोई राष्ट्रपति नहीं दिखता 


अब तक का हमारा बेहतरीन राष्ट्रपति कौन था? इस पर अगर ओपिनियन पोल हो जाए तो क्या होगा? मुझे तो कोई शक नहीं है कि उसमें डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ही विजेता होंगे। सचमुच उन्हें कोई भी हराने वाला नहीं है। उसकी वजह बिल्कुल साफ है। एक तो यह कि राष्ट्रपति भवन में अपना कॅरियर खत्म करने वाले ज्यादातर लोग अपने वक्त में नेता रहे हैं। और अपना हिंदुस्तानी समाज अपने नेताओं की बहुत ज्यादा इज्जत नहीं करता।
दूसरी वजह यह है कि डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन दोनों ही शिक्षाविद् थे। अब्दुल कलाम विज्ञानी हैं। राधाकृष्णन तो हिंदू धर्म के जबर्दस्त विद्वान थे। वह कमाल के वक्ता भी थे। अपने भाषण से लोगों को बांध कर रख देते थे। लेकिन उनके साथ एक दिक्कत थी। वह जो भी कहते थे, उसे करते नहीं थे। उनकी कथनी और करनी में अच्छी−खासी खाई थी। फिर वह भाई-भतीजावाद में ही लगे रहते थे। अपने दोस्तों का भला करने में उनका कोई सानी नहीं था। उन्होंने ऐसे−ऐसे लोगों को आगे बढ़ाया, जो उसके लायक कहीं से नहीं थे। जाकिर हुसैन भी जाने−माने विद्वान थे। वह खूब पढे़−लिखे थे। लेकिन उन्होंने राष्ट्रपति रहते कुछ खास काम नहीं किया। वह तो राष्ट्रपति के लिए जरूरी कामों के अलावा कुछ भी नहीं कर सके।
अब्दुल कलाम की पहचान तो अंतरिक्ष विज्ञानी के तौर पर थी ही। उसी मशहूर विज्ञानी की छवि लेकर वह राष्ट्रपति भवन में आए थे। तब तक उनके काम की जबर्दस्त सराहना हो चुकी थी। देश के तमाम बड़े पुरस्कार उन्हें मिल चुके थे। उन्हें 1981 में ही पद्म भूषण मिल चुका था। 1991 में पद्म विभूषण और 1997 में देश का सबसे बड़ा पुरस्कार भारत रत्न। लेकिन राष्ट्रपति भवन आकर कलाम साहब चुप होकर नहीं बैठ गए। वह आलीशान राष्ट्रपति भवन में ही नहीं रम गए। वहां पहुंच कर वह अलग तरह का काम करना चाहते थे। सो, वह अपने हिंदुस्तानी लोगों का हौसला बढ़ाने के काम में जुट गए। वह देशभर में घूम−घूम कर लोगों की हौसला अफजाई करने लगे। उनसे बड़े सपने देखने की गुजारिश करने लगे।
उनकी जब पहली किताब आई थी, तो अपने कॉलम में मैं उसकी धज्जियां उड़ाना चाहता था। लेकिन जैसे−जैसे उस किताब को पढ़ता गया, मेरा इरादा बदलने लगा। तब उसकी धज्जियां उड़ाने के बजाय तारीफ करने लगा। फिर मैंने उनकी दूसरी किताब देखी- 'स्पिरिट ऑफ इंडियाः रिफ्लेक्टिंग द कंसर्न्स, ऐस्पिरेशन्स ऐंड ड्रीम्स ऑफ द इंडियन यूथ।' यह किताब राजपाल प्रकाशन से आई थी। यह सवाल−जवाब के अंदाज में है। इसमें देश भर के युवाओं के सवाल और कलाम साहब के जवाब हैं।
किताब की शुरुआत में ही कुछ लाइनों में उनका मकसद साफ हो जाता है। 'मैं कर सकता हूं। हम कर सकते हैं। हिंदुस्तान कर सकता है।' अगर अपने देश के 54 करोड़ युवा इस जज्बे के साथ काम करें, तो हिंदुस्तान को विकसित देश बनने से कोई नहीं रोक सकता। वह कुल मिलाकर अपने देश को बड़ा बनाने का सपना हकीकत में बदलते देखना चाहते हैं।

मैं उनकी सोच की एक और मिसाल देना चाहता हूं। उनसे एक सवाल अपने यहां जाति और समुदाय से ऊपर नहीं उठ पाने पर था। यह समाज कैसे उस सबसे ऊपर उठेगा, उसे लेकर उनकी सोच बिल्कुल साफ है। उनके जवाब में उसकी झलक मिलती है, 'सीमाओं के बिना एक समाज तभी बन सकता है, जब हमारा दिल और दिमाग खुला हो। वह सीमाओं में न बंधे। उसमें जाति और समुदाय की कोई सीमारेखा न हो। इस जाति और समुदाय की बुनियाद पर खड़े होने में हमारे समाज को सैकड़ों साल लगे थे। अब हमारे समाज को बदलने के लिए काफी कुछ करना होगा। प्यार, धीरज, बेहतर कानून−व्यवस्था और सीधा−सच्चा इंसाफ उसे बनाने के औजार हो सकते हैं। उसके लिए हमें ऐसे लोगों की जरूरत है, जो देश की सेवा कर सकें। जहां दुआ के लिए हिले होंठ से ज्यादा सेवा करने वाले हाथ को तवज्जो दी जाए। तभी यह समाज तमाम सीमाओं के पार जा सकता है।'

Wednesday, 25 March 2015

नव रात्रि और पशु बलि

नव रात्रि और पशु बलि 


अपना भारतीय समाज 21 मार्च से नव वर्ष माना रहा है!

ऐस! कहा जाता है की सृष्टि आज  ke दिन ही बनकर पूर्ण हुई थी !
एक अरब 97 करोड़ करीब 50 laakh साल इस सृष्टि को बने हुये हो गये है और करीब 2 अरब 35 करोड़ साल की सृष्टि का काल बच! हुआ है!
इस नव वर्ष को मानाने का एक कारण नयी फसल परिवार मे आने का दिन भीरहता है !
बहुत पहले लोग 9 दिन उपवास रखते थे जो आज उनकी सांख्या बहुत कम हो चुकी है अब मंदिर जाकर फल फूल अर्पित करने और मंदिर के अनेक चक्करलगाना ही मुख्य कार्य रहा गया hai
हम एक मंदिर के सामने से नित्य निकलते है उसमे तो भीड़ भी बहुत कम रह गयी है!
इस देश मे कई सौ कल्पित काली माता के मंदिर है
जो इसी 9 दिन के दौरान हजारो बकरे के छोटे छोटे बच्चो की बलि दे दी जाती है 1
अपने देश मे एक कहावत भी है की" दया धर्मका मूल है" क्या बकरो की उनके बच्चो की हत्या करना दया कहा जायेगा ?
जो समाज अहिंसा का पालक हो वह कल्पित काली माता के मंदिर पशु बलि करे और साल के 365दिन के दौरान मांस खाये उसको कैसे अहिंसक समाज कहा जायेगा ?
धर्मा धीश काहे जाने वाले,  कथावाचक आदि चारो शंकराचार्य और नकली शंकरचार्य भी इस मुद्दे पर मौन रहते है वह भी अपने समाज को जागृत करने का कोई प्रयास नही करते है!
अभी कल ही का समाचार है की मध्य परदेश के शहडोल ज़िले मे एक महिला ने अपनी जीभ [जुवान] काट कर मंदिर मे चढ़ा दी कितना बड़ा अंध विश्वास अपने समाज मे व्याप्त है
ऐसे सैकडो घटनाये हर साल इन्ही नव रात्रि के दिनो मे सुनने को मिल जाती है !
हमने ऐसे जुलूस भी देखे है जिसमे सैकडो बच्चे तीर आदि गालो मे आरपार करके नीबू लटकाये हुये है ! क्या अंध विश्वास है कोई इसका विरोध नही करता और पुलिस , प्रशासन आदि नकली आस्थाओ के नाम पर मौन रहते है !
कई वर्ष पहले की बात है फ़्तेहपुर [उ.प्र] ज़िले के छोटे से ग्राम मे एक मंदिर मे बकरे के बच्चे की बलि दी जाती थी
एक छोटी सी 6-7 साल की कन्या पाठशाला जाने के दौरान उसने वह बकरा बलि देखी उसका मन खराब हो गया
वह घर आई अपने पिता जी इस बात की चर्चा की उसके पिता जी ने जी उस छोटी सी कन्या को डांट दिया और कहा की यही धर्म की रीति है !
अगले नव वर्ष मे उस छोटी सी कन्या ने अपना विचार मजबूत किया !
और वह स्वयं मंदिर जाकर खड़ी हो गयी जब बकरे की बलि देने का समय आया तो वह उस बकरे के उपर लेट गयी !
और रोने , चिल्लाने लगी की पहले मेरी हत्या[बलि] करो इसके बाद इस बकरे की बलि हो पायेगी !
एक स्वर से भीड़ ने उस कन्या का विरोध किया और उसको घसीट कर बकरे से अलग किया वह कन्या दुबारा लेट गयी और रोती रही !
उसी बीच एक वृद्ध व्यक्ति ने उस कन्या की चीत्कार को समझा और उसकी बात को सही कहा!
तो भीड़ उस वृद्ध का भी विरोध करने लगे ,
धीरे धीरे धीरे 2-4 व्यक्ति उस वृद्ध व्यक्ति की आवाज मे अपनी भी आवाज milaane  लगे
भीड़ मेबहस बाजी शुरु हो गयी
और उस दिन के बाद बकरे की बलि उस ग्राम मे बंद हो गयी
एक छोटी सी कन्या के सद्प्रयास से 200-300 की आबादी के छोटे ग्राम मे जब पशु बलि रुक सकती है तो अपने पूरे समाज मे पशु बलि क्यो नही रोकी जा सकती है
बस प्रयास करने वाला संगठन जरूर चाहिये !
आज अपना समाज हजारो तरह के अंधविश्वास, कुरीति, पाखण्डो आदि से जकड़ा हुआ है उससे मुक्ति के लिये" कायाकल्प" की जरूरत अवश्य रहेगी !
अपने समाज को यह भी सोचना चाहिये की थोड़े से लोगो ने अपने समाज को हजार साल तक ग़ुलाम क्यो बनाये रखा !
देश का विभाजन क्यो हुआ ? आगे फिर से ऐसा न हो उसके लिये अभी से कोशिश जरूर करनी होगी !
अपनो का सुधार करना होगा और जो अपने को गैर समझते है उनको अपने मे प्रेम से मिलाना भी होगा !

यही नव वर्ष का संकल्प सभी का होना चाहिये !


Source : nbt

भारत का भविष्य

भारत का भविष्य
बेमोसम की बरिस ने किसानो की मेहनत पर पानी फेर दिया
बिहार मे परीक्षा मे सरे आम नकल हो रही
ओर सरकार विफल हो रही है नकल रोकने मे
आम पार्टी के उम्मीदवार आपस मे लड रहे है
कॉंग्रेस पार्टी का बच्चा राहुल बहुत दिनो से गायब है
कश्मीर मे पीडीपी ओर बीजेपी की सरकार मे तकरार है
पकिस्तान श्री लंका ओर चीन से हमारी अनबन है
सीमा पर गोली ओर आतंक को बडवा देता है पकिस्तान
चीन का घटिया माल आ रहा है हिंदुस्तान
लंका के वानर पकड ले जाते है मछुआरे
बीजेपी के हीरो मोदी का नारा
अच्छे दिन आयेगे अभी तक नही आये
आम नागरिक महगाई ओर बेरोजगारी कम वेतन से परेशान है
सरकारी अफसर रिश्वत लिये बिना काम नही करते
सरकारी स्कूल मे शिक्षक आते नही
व्यापारी ओर बिल्डर सरकारी करो की चोरी कर रहे है
ओर युवा वर्ग क्रिकेट खेल पर फ़िदा है
क्या होगा भारत का
भारत के भविष्य का

Source. nbt

Tuesday, 24 March 2015

लल्ला करे तमाशा

 
खानदानी डेमोक्रेसी

एक हैं लल्ला। गोरे−चिट्टे लल्ला। यह उन्हीं का किस्सा है। आप पूछेंगे मुझे उनका किस्सा कैसे मालूम? यह किस्सा तो आपको भी मालूम होना चाहिए। अगर इस देश के सबसे गोरे−चिट्टे खानदान का किस्सा आपको नहीं मालूम तो शायद यह सवाल उठ सकता है कि क्या आप इस देश में रहने के काबिल हैं? जी हां, वह देश का सबसे चिट्टा खानदान है। सबसे प्रतिष्ठित भी। आप अगर इस खानदान को प्रतिष्ठित नहीं मानते तो आपको भी कौन मानता है? उनकी प्रतिष्ठा पर सवाल उठाने की आपकी औकात भी है? इस देश में सब कुछ अपनी औकात देख कर करना चाहिए।
तो, गोरे−चिट्टे इस खानदान के चिकने−चुपड़े लल्ला जी का चिट्टापन इतना आकर्षक है कि जो भी उनका चिट्टापन देखता है, देखता ही रह जाता है। उनके दूध जैसे चिट्टे गालों पर जो मोहक गड्ढे पड़ते हैं, उन गड्ढों किसी का भी मन डूबने को करेगा। कहते हैं, इन चिट्टे गालों के स्वामी की माताजी बचपन में इन गालों को सहला कर यह लोरी गाती थीं− ''लल्ला−लल्ला लोरी / दूध की कटोरी /दूध में बताशा / लल्ला करे तमाशा।''
उनकी लोरी का स्वर और उच्चारण किसी इतने गोरे खानदान का ही हो सकता है। जब भी माताजी अपने चिट्टे स्वर में यह लोरी गातीं, लल्ला जी बड़े जोश में हाथ−पांव हिलाने लगते। उनको हाथ−पांव हिलाते देख कर माताजी का स्वर और भी चिट्टा हो जाता। बचपन से ही लल्ला जी जानते थे कि देश में उनके जैसे चिट्टे हाथ−पांव किसी के नहीं हैं। आखिर, देश के सबसे चिट्टे खानदान के वारिस वे कोई ऐसे ही थोड़े ही बन गये थे। उनके गोरे−चिट्टे गालों में पड़ने वाले गड्ढे तब और भी मोहक लगने लगे, जब वे अपने चिट्टे गालों पर छितरायी सी दाढ़ी उगाने लगे।
यह छितरायी−सी दाढ़ी पार्टी के लोगों को याद दिलाती रहती थी कि पार्टी पर मालिकाना हक पाने के लिए इतने गोरे गालों पर छितरायी दाढ़ी होना ज़रूरी है। हर पार्टी में कुछ पूंछ किस्म के लोग भी होते हैं। ये पार्टी के सबसे पारखी लोग होते हैं। वे अपने पूंछ होने का फ़ायदा उठाना जानते हैं। ये लोग न तो पार्टी तोड़ सकते हैं, न छोड़ सकते हैं। वैसे भी, इतनी पुरानी पार्टी को तोड़ने से कोई फ़ायदा नहीं होता, पार्टी की प्रतिष्ठा पार्टी के पास ही रहती है। नयी पार्टी को ज़्यादा से ज़्यादा कुछ फ़र्निचर मिल जाता है। फ़र्निचर का हर सोफ़ा, कुर्सी या स्टूल समझता है कि नयी पार्टी उसी के दमखम पर बनायी गयी है। राजनीति के फ़र्निचर को ऐसे मुगालते में रहने की आदत होती है।
अगर नेताओं को ऐसे मुगालते न हों, तो राजनीति में की नयी पार्टियां ही न बनें। ज़्यादातर नेताओं ने समझ लिया है कि अगर नयी पार्टी बनानी है, तो मालिकाना हक वाली बनानी चाहिए। और, यह बात पार्टी बनाने से पहले ही पार्टी के लोगों पर स्पष्ट होनी चाहिए। डेमोक्रेसी मालिकाना हक नहीं देती। लेकिन वह नेताओं को मालिकाना हक हासिल करने से रोक भी नहीं सकती। अगर, नेता शातिर किस्म का हो तो वह डेमोक्रेसी का इस्तेमाल भी डिक्टेटरशिप की तरह कर सकता है। और, डिक्टेटरशिप तो अकसर मालिकाना या खानदानी ही होती है।
वैसे हमारे देश में डेमोक्रेटिक मूल्य गोरे लोग ही स्थापित करके गये थे। लेकिन, जब हम गोरों से आज़ाद हो सकते हैं, तो उनके द्वारा स्थापित डेमोक्रेटिक मूल्यों से क्यों नहीं? अगर हम डेमोक्रेटिक मूल्यों की कद्र करते तो हमारे यहां हमेशा से डेमोक्रेसी ही होती न! अब, हमारा देश खानदानी डेमोक्रेसी के विकास की राह पर चल पड़ा है। जी हां, खानदानी डेमोक्रेसी! यह हमारे देश की खास विशेषता है या फिर डिक्टेटरशिप की!

हिंदुस्तान की राजनीति में संन्यास भी एक तमाशा बन गया है। नेता जब कुर्सी से धकेल दिया जाता है तो उसे संन्यास कहता है। पर जिसे कुर्सी के नजदीक रहने की आदत होती है वह कुर्सी से कभी दूर नहीं होता। कुर्सी से उतरता है तो कुर्सी के पाये पकड़ लेता है। भले ही कुर्सी की पूंछ बन कर रहे, पर रहेगा कुर्सी के पास ही।


prabhasakshi

Monday, 23 March 2015

इन्हें अपने मतलब से याद आते रहे भगत सिंह

इन्हें अपने मतलब से याद आते रहे भगत सिंह


23 मार्च, 1985 को भारत के नवनियुक्त प्रधानमंत्री, कांग्रेस के राजीव गाँधी, सरहदी क़स्बे हुसैनीवाला पहुंचे. वहां उन्होंने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की स्मृति में एक राष्ट्रीय स्मारक की नींव रखी.
तत्कालीन सरकार ने देश भर के अख़बारों में भगत सिंह के नाम पर इश्तेहार दिए. इन इश्तेहारों में भगत सिंह को एक सिख नौजवान के रूप में दिखाया गया. बाकायदा पगड़ी पहने हुए. भगत सिंह का यह स्वरूप थोड़ा चौंकाने वाला था.
इससे पहले तक देश में भगत सिंह की जो छवि प्रचलित थी, उसमें वे एक इंग्लिश हैट पहने दिखाए जाते थे, न कि पगड़ी. 1928 में भगत सिंह ने स्वयं ही यह स्टूडियो पोट्रेट खिंचवाया था.

यह सर्वविदित है कि भगत सिंह अपने आप को नास्तिक घोषित कर चुके थे, पर कांग्रेस सरकार मानो उन्हें पगड़ी पहना कर, उनका सिख स्वरूप उजागर करना चाह रही थी.

देश के अन्य शहरों में भी इन्हीं दिनों सरकार के सौजन्य से भगत सिंह को लेकर अनेक कार्यक्रम हुए. बंबई में भगत सिंह के साथी शिव वर्मा ने एक कार्यक्रम में बताया की भगत सिंह जेल में सोवियत विचारधारा के हिमायती हो चुके थे.
इस कार्यक्रम के दौरान वर्मा ने कहा कि अंग्रेजों ने भगत सिंह से संबंधित कागजात छुपा दिए थे ताकि लोगों को यह न पता चल सके की भगत सिंह सोवियत यूनियन से कितना प्रभावित थे.
शिव वर्मा जो सामान्यत: लखनऊ में रहते थे, सरकारी मदद से बंबई लाये गए थे. 81 साल की उम्र में उनका जिम्मा देशवासियों को भगत सिंह के नाम पर यह बताना था कि धर्म का सार्वजानिक जीवन में कोई स्थान नहीं है.

अभी हाल ही में वर्मा ने भगत सिंह के लेख को पुनर्प्रकाशित किया था. ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ इस शीर्षक से 23 साल की उम्र में भगत सिंह ने अपने वरिष्ठ साथी भाई रणधीर सिंह को यह समझाने की कोशिश की थी कि देश और समाज को आगे बढ़ाने के लिए धर्म का रास्ता त्याग, विज्ञान का रास्ता अपनाना पड़ेगा.

अचानक इस तरह भगत सिंह के नाम पर सरकार द्वारा चर्चा शुरू करने के पीछे भी एक घटना थी. कई सालों से पंजाब में चरमपंथी सक्रिय थे और सिख धर्म के नाम पर नया राज्य बनाने की मांग चल रही थी.
‘सिख किसी से डरता नहीं और अपना हक़ बंदूक के दम पर लेना जानता है’, इस विचार को लेकर हरमंदर साहब (स्वर्ण मंदिर) में कट्टरपंथियों ने अपना अड्डा जमा लिया था. वहां से अराजकता फ़ैलाने का काम चल रहा था.
अंत में सरकार को फ़ौज की मदद से इस अड्डे को ख़त्म करना पड़ा. पूरे पंजाब में सरकार के खिलाफ काफी दुराव फैला. नवम्बर, 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के ही दो सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी. ऐसी परिस्थिति में सरकार को ‘पंजाब के महान सपूत’ भगत सिंह की याद आई.
इस घटना के क़रीब 54 साल पहले अंग्रेजों ने भगत सिंह को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया था. उस वक्त देश में शायद महात्मा गांधी ही एक अकेले व्यक्ति रहे होंगे जिन्होंने बंदूक के जरिए क्रांति लाने के हिमायती भगत सिंह की प्रशंसा नहीं की. पर सारा देश भगत सिंह पर फिदा था.
आने वाले सालों में भगत सिंह की याद तब ताजा हुई जब 1965 में दीन दयाल शर्मा की पटकथा वाली फ़िल्म 'शहीद' में मनोज कुमार ने भगत सिंह का रोल निभाया. फिल्म शहीद के तराने लोगों को राष्ट्रभक्ति की याद कराते रहते, पर सरकार को तो भगत सिंह तभी याद आए जब सरकार की अड़ी पड़ी. अन्य राजनैतिक दलों का भी यही हाल रहा.
1997 में आजादी के 50वें साल के अवसर पर भारतीय कम्युनिस्टों को याद आया की कांग्रेस सरकार आम तौर पर आजादी में क्रांतिकारियों के योगदान को अनदेखा कर देती थी. तब उन्होंने भगत सिंह का नाम लिया.
दस साल बाद, दक्षिणपंथी भाजपा ने भगत सिंह को गले लगा लिया. सिख समुदाय के नाम पर खड़े अकाली दल ने भी भगत सिंह को अपना बताने में कोई कसर न छोड़ी. क्रांतिकारियों के नाम पर रोटी पकाने का काम बदस्तूर चलता रहा है.

जब-जब मौका पड़ने पर भगत सिंह को अपनाने की ये रवायत राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं. ‘यह मेरा हीरो है’, कहते हुए पंजाब का एक गबरू अपनी गाड़ी पर लगी तस्वीर की तरफ इशारा करता है. तस्वीर पगड़ी पहने एक नौजवान की है. ‘भगत सिंह’, वह समझाता है. लगता है की चाहे भारत के राजनेता 'देश के क्रांतिवीरों' को कितना भी भुलाएँ, लोग तो याद रखते हैं न. पर आमतौर पर इस ही गबरू की गाड़ी पर एक दूसरी भी तस्वीर लगी होती है.

भगत सिंह के ही बगल में तस्वीर होती है दोशाला ओढ़े हुए एक दूसरे सरदार की जिसने हाथ में एक तीर या फिर एक कलाशिनिकोव थामा हुआ है. ‘संत जरनैल सिंह’, नवयुवक समझाता है. ‘दोनों स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान के लिए लड़ रहे थे’.
यह नौजवान नाहक फोटो लगाए घूम रहा है. क्योंकि जहाँ भगत सिंह देश के सुद्रढ़ भविष्य के लिए अपनी जान न्योछावर करने को तैयार था वहीं जरनैल सिंह अपना उल्लू सीधा करने के लिए हज़ारों की जान लेने पर अमादा थे.यदि आप को इन दोनों के बारे में कुछ भी पता है तो एक चीज़ तो साफ़ हो जाती है - 'इन नवयुवक को न तो इनके बारे में कुछ पता है न ही उनके बारे में.' न ही उसने इनके बारे में जानकारी लेनी की कोई कोशिश ही की. बस, जो भी फैशनेबल दिखा वही करने लगा. तब थोड़ा दिल बैठता है.
source-BBC

कानपुर के पास ही रहेगा यूपीसीए अध्यक्ष का पद

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में खुलेगी क्रिकेट अकादमी 
- वर्ष अंत तक तैयार हो जाएगी गौर हरि सिंघानिया क्रिकेट अकादमी 

कानपुर। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएश के सहयोग से जल्द क्रिकेट अकादमी बनेगी। शहर के कमला क्लब में बन रही गौर हरि सिंघानिया क्रिकेट अकादमी का काम भी वर्ष अंत तक खत्म करने का प्रयास किया जाएगा। यह जानकारी यूपीसीए के सचिव राजीव शुक्ला ने नवीन मार्केट में पत्रकार वार्ता के दौरान बताईं।
 उन्होंने बताया कि हमारे पास प्रदेश में क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने अपने परिसर में क्रिकेट अकादमी खोलने के लिए सहयोग देने का प्रस्ताव दिया था। रविवार को कानपुर में यूपीसीए अधिकारियों की बैठक हुई, जिसमें इस प्रस्ताव पर सहमति बन गई। एएमयू में पिछले काफी समय से क्रिकेट होता आ रहा है, लेकिन वहां के खिलाडि़यों को आगे मौका नहीं मिला। अब वहां जोनल अकादमी खुलने से आस-पास के जिलों में भी क्रिकेट को बढ़ावा मिलेगा। शहर में बन रही गौर हरि सिंघानिया क्रिकेट अकादमी का काम भी तेजी से चल रहा है। इसके लिए जितना भी पैसा चाहिए होगा, हम उपलब्ध करायेंगे। अकादमी में हमने 60 खिलाडि़यों को बनाने का लक्ष्य रखा है, जिसमें से 16 बन चुके हैं। उम्मीद है कि वर्ष अंत तक निर्माण कार्य पूरा कर लिया जाएगा। 


कानपुर के पास ही रहेगा यूपीसीए अध्यक्ष का पद 
कानपुर। शहर से ही अगला यूपीसीए अध्यक्ष होगा, अब यह लगभग तय हो चुका है। यूपीसीए सचिव राजीव शुक्ला ने बताया कि गौर हरि सिंहानिया का देहांत होने के बाद से यूपीसीए का अध्यक्ष पद खाली हो गया था। यूपीसीए की आम सभा सितम्बर में होती है। ऐसे में एसोसिएशन का काम प्रभावित हो रहा था। इसको देखते हुए यूपीसीए की बैठक में यदुपति सिंहानिया को कार्यकारी अध्यक्ष चुन लिया गया है। एसोसिएशन की आम सभा होने तक वे ही सभी काम देखेंगे। सूत्रों के अनुसार आम सभा में भी उनके ही नाम पर सहमति बनने की पूरी उम्मीद है।

Friday, 20 March 2015

पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट

पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट




आमतौर पर खोजी पत्रकारिता नेताओं की कुर्सियाँ हिलाती है, लेकिन पिछले सप्ताह भारतीय समाचारपत्र, 'द इंडियन एक्सप्रेस' में एक ख़बर छपने के बाद से अब पत्रकारों की कुर्सियाँ हिल रही हैं.
ख़बर के मुताबिक़ कई पत्रकार एस्सार नाम की कंपनी के ख़र्चे पर टैक्सी जैसे फ़ायदे उठाते रहे हैं.
आरोप मामूली हैं, लेकिन फिर भी अनैतिकता स्वीकारते हुए एक महिला और एक पुरुष संपादक ने अपने-अपने अखबारों से इस्तीफ़ा दे दिया है.
एक टीवी समाचार चैनल में काम करने वाली एक और महिला पत्रकार को आंतरिक जाँच के चलते काम से हटा दिया गया है.
पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट पर विश्लेषण
  भारतीय पत्रकारों पर पहली बार उँगली नहीं उठ रही है. 2009 में भी कुछ फोन टेप सामने आए थे.
आयकर विभाग की चंद पत्रकारों और सियासी बिचौलियों की फ़ोन पर बातचीत की गुप्त रिकॉर्डिंग से लग रहा था कि वो पत्रकारिता कम और दलाली ज़्यादा कर रहे थे.
नेताओं की अख़बारों से सांठ-गांठ
वैसे तो नेताओं और उद्योगपतियों से अख़बारों की साँठ-गाँठ का सिलसिला पुराना है, लेकिन भारतीय पत्रकारों के चाल-चलन में मूल्यों की व्यापक गिरावट ख़ासतौर से पिछले 25 सालों में आई है.
इसके चार प्रमुख कारण हैं. पहला, पत्रकारों को मिले विशेष क़ानूनी संरक्षण का पतन. दूसरा, ख़बर की बजाए मुनाफ़े को प्राथमिकता. तीसरा, समाचार संगठनों में उद्योगपतियों का निवेश. और चौथा, पत्रकारों के निजी स्वार्थ.
पत्रकारिता की स्वतंत्रता को संवैधानिक संरक्षण देते हुए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1955 में वर्किंग जर्नलिस्ट एंड अदर न्यूज़पेपर एम्पलॉइज़ एक्ट बनाया था.
इस क़ानून ने पत्रकारों की मनमानी बर्ख़ास्तगी पर रोक लगा दी और ज़मीर का हवाला देते हुए पत्रकार के इस्तीफ़े को स्वत: लेबर विवाद का दर्जा दिया. नियुक्तियों, छुट्टियों और पदोन्नति इत्यादि के नियम निर्धारित किए.
निष्पक्षता और साहस
कानून ने सरकार को ज़िम्मेदारी दी कि तनख़्वाह में बढ़ोतरी तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज की अध्यक्षता में मालिक और कर्मचारी यूनियनों को लेकर एक ट्राइब्यूनल बनाए जो स्वतंत्र रूप से वेतनमान तय करे.
वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट ने पत्रकारों को निष्पक्ष काम करने का साहस दिया. संपादकों की मनमानी इतनी आसान और आम नहीं थी जितनी आज है. अख़बार मालिकों की भी न्यूज़रूम में घुसपैठ कम थी.
अस्सी के दशक का अंत आते-आते माहौल बदलने लगा. ट्राइब्यूनल द्वारा निर्धारित वेतन से तीन-चार गुना पगार पाने के आकर्षण में पत्रकारों ने स्वेच्छा से वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट छोड़ कर ठेके पर नौकरी करना मंज़ूर किया.
इस तरह उनकी नौकरी एक झटके में असुरक्षित हो गई. साथ ही संपादकों ने अख़बार मालिकों के इशारों पर चलना शुरू कर दिया.
न्यूज़रूम पर क़ब्ज़ा
पुराने दौर में पत्रकारों का अख़बार के नफ़ा-नुक़सान के बारे में सोचना भी अनैतिक था लेकिन जब नौकरियाँ ठेके पर दी जाने लगीं तो न्यूज़रूम पर बाज़ार का क़ब्ज़ा हो गया.
किसी ज़माने में दिग्गज बुद्धिजीवी, साहित्यकार और अर्थशास्त्री अख़बारों के संपादक होते थे. अब अख़बार के मालिक वफ़ादारों को संपादक बनाकर उन्हें मुनाफ़े की ज़िम्मेदारी देने लगे.
अख़बार के पन्नों में ख़बर से अधिक विज्ञापन को प्राथमिकता मिलने लगी. विज्ञापन की ललक के चलते कॉरपोरेट सेक्टर की धांधलेबाज़ी की ख़बरें कम होती गईं.
संपादक की पगार से अधिक मार्केटिंग और सेल्स के मैनेजरों की पगार होने लगी.
अख़बार बना मुनाफ़े का धंधा
अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में लेटरप्रेस की जगह ऑफ़सेट प्रिंटिंग ने ले ली और क़लम-दवात की जगह कम्प्यूटर ने.
नई तकनीक से छपाई की गुणवत्ता में सुधार आया. कम समय में अधिक प्रतियां छापना संभव हुआ. रंगीन छपाई शुरू हुई.
साथ ही अख़बार छापने के लिए कर्मचारियों की ज़रूरत भी बहुत कम हुई. कुल मिलाकर अख़बार का धंधा मुनाफ़े के लिए मुफ़ीद होने लगा.
लिहाज़ा ख़बर वो होने लगी जो बिकती थी. मनोरंजन, ग्लैमर, फ़ैशन, क्रिकेट के रंगीन परिशिष्ट छपने लगे. अख़बार का पहला पन्ना कभी पत्रकार का मंदिर होता था. नए दौर में उस पर कुबेर देवता का वास होने लगा.
पत्रकारों का कॉरपोरेट कनेक्शन
कॉरपोरेट जगत से हाथ मिलाकर उनके प्रायोजन से अख़बारों ने सेमिनार और कॉन्फ़्रेंस वग़ैरह करवाने शुरू किए.
पत्रकारों ने राज़ी-ख़ुशी इनमें कॉरपोरेट मैनेजरों के साथ कंधा मिला कर काम करना शुरू किया.
इक्कीसवीं शताब्दी में समाचार टीवी चैनलों का विस्तार हुआ. ये शुरू से ही कॉरपोरेट विज्ञापनदाता के मोहताज रहे जो ख़बर के कार्यक्रमों को प्रायोजित करने लगे.
विज्ञापन खोने के भय से अख़बारों का रुख़ और बाज़ारू होता गया.
पत्रकार नहीं, मीडियाकर्मी
एक वक़्त था जब अख़बार का सालाना ख़र्चा कमोबेश बिक्री और विज्ञापन से निकल ही आता था, लेकिन टीवी चैनल लगाने और चलाने के विशाल ख़र्चे विज्ञापन से पूरे नहीं हो सकते थे. ऐसे में बड़े उद्योगपतियों ने धंधे में पूँजी लगाना शुरू किया.
इस तरह औद्योगिक व्यवस्था का प्यादा बन गए पत्रकार से निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की अपेक्षा बेतुकी और अनुचित है. वो पत्रकार नहीं "मीडियाकर्मी" है. उसका काम अख़बार की बिक्री और समाचार टीवी चैनल की रेटिंग बढ़ाना है.
और ऐसा भी नहीं कि आज पत्रकार इस उत्तरदायित्व से क़तराना चाहता है बल्कि हर पत्रकार आगे बढ़ कर मैनेजर की ज़िम्मेदार ओढ़ने की कामना रखता है. आख़िरकार धंधे में ऊपर चढ़ने की अब यही एक सीढ़ी है
(sabhar BBC)